Saturday, December 29, 2007

विदाई एक दुल्हन की

विदाई एक दुल्हन की
सारे दिन शहर घूम फिरकर बराती शाम को मुझे विदा कराने आ गए । मैं भी सुबह वाली लड़की से साड़ी वाली दुल्हन में परिवर्तित हो चुकी थी । टीका आदि लगाया गया और माँ ने कुछ कुमाँऊनी तरीके से मुझे विदा किया । लोगों ने अपने अपने बड़े रूमाल इस अवसर के लिए तैयार रखे थे । सब विदाई के रोने धोने और मुझे चुप कराने को तैयार दिख रहे थे। अफसोस, कि मैं उनकी यह तमन्ना पूरी ना कर पाई । मुझे तो अभी तक रोना और आँखों से नीर बहाना सीखना बाकी था। फिर हॉस्टेल में मैं अकेली रहती थी। वहाँ हमें एकल कमरे मिले हुए थे, सो घर से दूर अकेले रहने की भी आदत थी । अब तो मैं अपने पहले के मित्र और अब नये नवेले बने पति के साथ रहने जा रह थी सो मेरी तर्क बुद्धि ने समझा दिया कि रोने जैसी बात कुछ नहीं है । फिर कम फिल्में देखने के कारण मुझे ग्लिसरीन के प्रयोग के बारे में जानकारी भी नहीं थी । खैर लोग अन्तिम क्षण तक आशान्वित थे कि मैं शायद रूमालों को कृतार्थ कर ही दूँ । यदि मुझे जुकाम ही लगा होता तो भी यदि कोई बताता कि रोना आवश्यक है तो मैं शायद थोड़ा सुड़क सुड़क कर नाक ही रूमाल से रगड़ लेती । परन्तु मेरा शादियों में सम्मिलित होने के अनुभव का अभाव यहाँ आड़े आया । मैं रूमालों के दुख की चिन्ता किये बिना खुशी खुशी कार में बैठ गई । तब सब रूमाल जेबों या पर्सों के अन्दर चले गए और मैंने अपना रूमाल हिलाते हुए घर को बाय बाय कर दिया ।

पुणे से हमें बम्बई, तब मुम्बई नाम का पता नहीं था, ट्रेन से जाना था । थोड़ा समय अभी भी बाकी था इसलिये एक साड़ियों की दुकान से सबने साड़ियाँ खरीदी और पति ने भी मुझे जीवन की पहली साड़ी भेंट की । हम मुम्बई की ट्रेन पकड़ वहाँ पहुँच गए । दो तीन घंटे बाद दिल्ली की गाड़ी थी सो सबने खाना खाया और गाड़ी की प्रतीक्षा करने लगे । साथ में कुछ फल मिठाई आदि भी पैक की थीं सो उन्हें खाने के लिए खोला गया । देखा कि अन्य फलों के साथ में टोकरी में केले भी रखे गए थे । कुछ केले छोटी सी
यात्रा के दौरान शहीद हो गए थे व कुछ घायल । समस्या थी कि इनका क्या किया जाए तो ससुर जी ने निश्चय किया शहीदों को तो कचरे में डाल श्रद्धांजली दी जाए और घायलों के साथ कुछ मिठाई आदि लेकर किसी गरीब को दे दिया जाए । सो घुघूता जी और मैं, घुघूता जी के शब्दों में, मिस्टर गरीब की खोज में निकल पड़े । शायद उस दिन भिखारी भी हड़ताल पर थे । हम पूरा प्लेटफॉर्म घूम लिये कोई परन्तु कोई भिखारी नहीं मिला । भिखारी भी शायद हमारे खेमे में थे । अब साढ़े पाँच महीने के बिछड़े पक्षियों को स्टेशन से बाहर भिखारी ढूँढने का बहाना मिल गया और वे सबको बताकर बाहर उड़ गए । अब भिखारी ढूँढने की कोई जल्दी तो थी नहीं, सो पक्षी आराम से ट्रेन छूटने से कुछ मिनट पहले ही वापिस आए ।

अगली सुबह जब सब चाय पीने लगे तो मुझे भी दी गई । अपनी शादी के कार्ड छापने वाले की दुकान पर चाय कॉफी मना करने पर दूध दिये जाने की घटना ताजा याद थी । इस भय से कि कोई मुझे दूध की बोतल ही ना पकड़ा दे , मैंने चुपचाप चाय ले ली । जीवन में कभी कोई गरम पेय नहीं पिया था । दूध व सूप भी ठंडा करके ही पिया था । मैंने चाय का पहला घूँट भरा और मेरे मुँह के अंदर की सारी त्वचा झुलस कर एक च्युइंग गम की तरह गोला बन मेरे मुँह में इकट्ठा हो गई । मेरे कुछ भी खाने पीने को मना ना करने के सारे इरादे पर पानी फिर गया । अब तो सिवाय पानी के और ठंडे दूध के, जो किसी ने मुझे नहीं पूछा, मैं कुछ भी खा पी नहीं सक रही थी । उपवास करती, खाने में नखरा करने वाली दुल्हन नखरा करती करती ट्रेन यात्राकर ससुराल पहुँच गई ।

घुघूती बासूतीhttp://ghughutibasuti.blogspot.com/2007/12/blog-post_18.html

Sunday, December 23, 2007

गुजरात का मन

गुजरात का मन
चुनाव के परिणाम आ चुके हैं । भा ज पा को स्पष्ट बहुमत मिल चुका है । अब बहुत से लोग इस जीत के कारण ढूँढेगे । गुजराती जनता के भा ज पा में विश्वास तो एक कारण रहा ही होगा, परन्तु मुझे लगता है कि एक कारण यह भी रहा होगा कि पत्रकारों ने गुजरात और मोदी का राक्षसीकरण सा कर दिया था । गुजरात शब्द को गाली सा बना दिया गया था । जिसे गुजरात की स्वाभिमानी जनता ने पसन्द नहीं किया होगा । भारत का कौन सा राज्य यह कह सकता है कि वहाँ दंगे नहीं हुए ? काश्मीरी पंडितों के लिए क्यों आँसू नहीं बहाए जाते ? यह पूछने पर लोग कहते हैं कि यहाँ पर शासन ने भी दंगों को नहीं रोका या बढ़ावा दिया । परन्तु उनका यह गुस्सा दिल्ली के १९८४ के शासन पर नहीं निकलता है ?
क्या हमारे सिख नागरिकों का खून पानी था ? या काश्मिरी पंडितों का पानी है ?
इसका मतलब यह नहीं कि किसी भी नागरिक की हत्या दंगों या किसी और कारण से होनी चाहिये ।
परन्तु यह कि किसी भी एक प्रान्त के पीछे पड़ जाना हानिकारक ही सिद्ध हो सकता है । आशा है कि अब गुजरात में ऐसी कोई भी बात नहीं होगी ।
घुघूती बासूती

Tuesday, December 18, 2007

शादी किसकी है ?



परीक्षा का अन्तिम दिन था । अन्तिम प्रैक्टिकल देकर जब मैं निकली तो मेरे मित्र बिहार से मुझसे मिलने चन्डीगढ़ आए हुए थे । घूमते हुए उन्होंने पूछा " मुझसे शादी करोगी ? " मैंने हाँ कह दिया । अगले दिन मुझे घर के लिए निकलना था । रास्ते में दिल्ली आता था और वे दिल्ली के ही थे । सो उन्होंने मुझे ट्रेन पर चढ़ाया और स्वयं टैक्सी पकड़ दिल्ली पहुँच गए । टैक्सी घर के बाहर खड़ी की और घर में घुसते से ही सबको सूचना देते हुए बोले , " मैं शादी कर रहा हूँ । लड़की की ट्रेन दिल्ली स्टेशन पहुँचती ही होगी । ट्रेन एक घंटा रुकती है जिसे देखना है मेरे साथ जल्दी चले । " उनकी बहन, भाभी और एक मित्र दौड़ते भागते तैयार हुए और स्टेशन पहुँचे । लड़की देखी गई । मेरे मित्र को तो मेरे पूरे परिवार ने देख रखा था ।

जब उन्होंने इतना बड़ा धमाका किया था तो मैं क्यों पीछे रहती ! स्टेशन पर पिताजी को देखते से प्रणाम करते करते ही कह दिया कि मैं अमुक से शादी कर रही हूँ । पिताजी बोले विवाह का निर्णय क्या ऐसे लेते हैं ? मैंने कहा यदि पाँच वर्ष जानकर भी ना ले सकूँ तो शायद कभी भी ना ले सकूँ । खैर घर पहुँचे । माँ, भाई, भाभी तो मेरे खेमे में ही थे । सो कोई कठिनाई नहीं हुई । भाई की नई नौकरी थी । शहर अनजाना था । भाभी को पूर्ण आराम बताया गया था क्योंकि मैं बुआ बनने वाली थी । सो मैं पिताजी के साथ या कभी किसी पारिवारिक मित्र के साथ कभी शादी के कार्ड पसन्द करने जाती , कभी बरातियों को ठहराने को होटल । कभी माला वाले से बात होती कभी सजावट वालों से । कभी अकेली भी जाती । एक बार हम कार्ड पसन्द कर रहे थे तो दुकानदार ने चाय के लिए पूछा । मैंने कभी चाय पी नहीं थी । तो उसने कॉफी के लिए पूछा । मैंने फिर ना कहा । थोड़ी देर में पिताजी के लिए चाय और मेरे लिए एक कप दूध आ गया । गरम दूध पीना तो सजा लगता था । मैं मुँह बना रही थी , वह बोला कि आजकल के बच्चों को दूध पता नहीं क्यों इतना बुरा लगता है । मेरे हाथ से गरम दूध का प्याला लगभग छलक ही गया । फिर उसने पूछा "शादी किसकी है ?" मैंने कहा मेरी । उस बेचारे के हाथ से प्याला छलक गया ।
ऐसे ही मैं पिताजी के साथ होटल देखने गई । पसन्द भी आ गया । कमरे देखकर जब हम नीचे आए तो वही प्रश्न "शादी किसकी है ?" कभी कभी तो मन होता था कि एक बिल्ला लगा लूँ या प्लेकार्ड लेकर घूमूँ जिसमें लिखा हो " मेरी शादी" !

खैर , अब तो मैं कई बार किसी के पूछने से पहले ही यह बता दिया करती थी कि शादी मेरी है । समय बीतता गया और मेरी शादी भी हो गई । विदाई अगली शाम की थी । सो सारी रात मैं माँ से बात करती रही । सुबह उठी सिर धोया और रोज की तरह रोज के कपड़ों में तैयार हो गई । ससुराल वाले तो शाम को पूरा शहर घूम कर आ रहे थे । माँ भाभी के साथ लगीं थीं कि एक महिला आ गईं । बोलीं " मैं कल आ नहीं सकी । दुल्हन कहाँ है ? उसे यह छोटा सा उपहार देना है। " मैं समझ गई कि यह मुझे पहचानी नहीं हैं । मैंने कहा अभी भेजती हूँ । अन्दर गई, साड़ी पहनी , बिन्दी , चूड़ियाँ आदि पहन ली और उपहार लेने आ गई । वे बोली तुम्हारी छोटी बहन बिल्कुल तुम सी लगती है । उसे भी यूँ सजा दो तो दुल्हन लगेगी । मैंने कहा " वह तो है । बहन किसकी है ! " बाद में पता चला कि वे भाभी के पीछे मेरी छोटी बहन से अपने बेटे का रिश्ता करने को अड़ गईं थीं । वे बेचारी कहती ही रह गईं कि मेरी कोई छोटी बहन नहीं है ।


Saturday, December 15, 2007

चल रे मन


चल रे मन
रे मन, चल भीड़ से परे
चल, मुझसे बात कर
कुछ अपनी सुना
कुछ मेरी सुन
तू भी अकेला
मैं भी अकेली ।

इक तू ही तो है
जिसने साथ दिया
बचपन से अब तक
तूने ही मुझे जाना है
बाकी तो सब कुछ
बस पल भर में आना
पल भर में जाना है
बस तूने ही मेरा
और मैंने ही तेरा
साथ निभाना है ।

चल रे मन,
कुछ जुगनू ढूँढे
देख तो कैसा अंधेरा है
चल, कुछ तारें ढूँढें
वे भी तो अकेले हैं
देखें बादलों ने क्या
नए आकार बनाए हैं
शायद हो बना
कोई उड़ता पक्षी
या दिख जाए
कोई थिरकती हिरणी ।

चल रे मन,
कुछ नया खेल खेलें
तू मुझे बता अपने सपने
मैं तुझे बताऊँ कुछ अपने
हाँ मन,
टूटे सपने भी चलते हैं
वे रिक्त हृदय तो भरते हैं
बता कैसे तेरे सपने टूटे
सुन कैसे मेरे सपने रूठे ।

चल रे मन,
फिर कुछ सपने बुनें
चल, हृदय पर कुछ
पैबंद ही लगाते हैं
कुछ उलझे प्रश्नों से
हम बहुत दूर चलें
क्यों कब कैसे हुआ
को हम भूल चलें ।

चल रे मन,
रात बीत गई इन बातों में
चल सुबह की लाली देखें
अब तू भी वापिस आ जा
मेरे रिक्त हृदय में जा समा
चल हम मिल पूरे हो जाएँ
तू और मैं इक हो जाएँ
मैं व मेरा मन,मन और मैं
इक दूजे के पूरक हो जाएँ।
देख सूरज उगने वाला है
नया दिन मिल हम शुरू करें।

चल रे मन ,
मेरे संग चल
न बहक इधर उधर
कर ले बसेरा मुझमें
बन जा मुझ सा बन्दी
मेरी देह के पिंजरे में ।

घुघूती बासूती

Wednesday, December 12, 2007

बधाई हो ! हमारे बच्चे भी खून की होली खेलने में अमेरिकन बच्चों से पीछे नहीं रह गए !

कल ही गुड़गाँव में विकास व आकाश नामक दो चौदह वर्षीय लड़कों ने अपने एक सहपाठी अभिषेक त्यागी को पाँच गोली मारकर खत्म कर दिया । एक बच्चा अपने पिता आजाद सिंह की पिस्तौल स्कूल ले आया था और स्कूल खत्म होने पर अभिषेक की हत्या कर दी । याने यह कार्य उन्होंने क्षणिक गुस्से में नहीं किया बल्कि सोच समझ कर योजना बद्ध तरीके से पूरे होशो हवास में किया । ये बच्चे कोई बिना माँ बाप के, अभावों में सड़क पर पलने वाले नहीं थे । ये खाते पीते परिवारों के बच्चे थे । स्कूल था यूरो इन्टरनेशनल स्कूल, गुड़गाँव ! यहाँ क्वालिटी पढ़ाई मिलती है , बच्चों व अध्यापकों का अनुपात भी बहुत अच्छा है । कुछ दिन पहले ही किसी और शहर में बारहवीं कक्षा के एक लड़के को उसके साथ ट्यूशन पढ़ने वाले लड़कों ने मिल कर हॉकियों से पीट पीट कर मार डाला ।

यह अभिषेक हमारा या तुम्हारा बेटा हो सकता था । ये हत्यारे भी हमारे या तुम्हारे बेटे हो सकते थे । समाज और बच्चे इतने गुस्सैल क्यों हो गये हैं ? किसी से पटती नहीं तो उसे मार डालो । जिस लड़की को चाहो, वह तुम्हें ना चाहे तो उसके चेहरे पर एसिड डाल उसका चेहरा विकृत कर दो ।

संसार क्षुब्ध है,आश्चर्यचकित है । यह क्या हो रहा है ? मनोवैज्ञानिक , मनोचिकित्सक, अविभावक, अध्यापक सब सन्न हैं । क्यों हो रहा है यह मौत का तांडव ? कहाँ जा रहे हैं हमारे बच्चे ? क्यों वे अपना व दूसरों का विनाश कर रहे हैं ?

अरे भाई यह रॉकेट विज्ञान नहीं है, एकदम सीधी सी बात है । क्या हमने सुना नहीं है बोए पेड़ बबूल के तो आम कहाँ से होएँ ? अब जो फसल हमने बोई थी उस ही को काटने में कैसा संकोच ? हमने अपने बच्चों को दिया ही क्या है ? एक दूषित पर्यावरण,टूटते या शिथिल पड़ते रिश्ते ! भागम भाग के जीवन में किसी तरह बच्चे के मुँह में दूध की बोतल डाल दी, नैपी बदल दिया और सोचा कि हमारे ममत्व व पितृत्व का यहीं अन्त हो गया । एक नर्सरी,एक स्कूल में दाखिला दिला दिया, एक ट्यूटर लगा दिया । अरे भाई, उसे लाड़ कौन करेगा ? कौन उसके स्व को महत्व देगा ? कौन उसके साथ खेल खेलेगा ? कौन उसके सामने आदर्श रखेगा ? टी वी, कम्प्यूटर, या कार्टून ? अब तो परिवार में इतने बच्चे भी नहीं होते कि वे आपस में खेलते रहें । कार्टून के संसार में कोई मरता नहीं है । कितना भी पीट लो, ऊपर से ट्रक, ट्रेन कुछ भी निकाल लो, व्यक्ति या प्राणी पिचक भले ही जाएगा , किन्तु इतना लचीला होता है कि फिर खड़ा हो जाता है । कम्प्यूटर खेल भी बच्चों को गोली मारना ,चाकू मारना सिखाते हैं ।

एक क्लर्क, एक मजदूर बनने के लिए तो योग्यता चाहिये, किन्तु एक नए जीवन के निर्माण के लिए किसी योग्यता की आवश्यकता नहीं । बस जन्म दे दो, खर्चा कर दो और सोचो की उत्तरदायित्व खत्म । फिर आप अपने निजी जीवन में लड़ो ,जूझो, देश, समाज, धर्म एक दूसरे पर चढ़ाई करें , युद्ध करें तो क्या बच्चों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा ? क्यों ? वे तो कच्ची मिट्टी हैं और जो खाका संसार व समाज का उनके सामने खींचोगे वे उस ही के अनुरूप ढल जाएँगे । तुम तो विनाश की होली खेलो और उनसे आशा करो संयम की ? सब तरफ अन्याय करो और सोचो कि बच्चे किशोर व युवा समझदार होंगे, न्याय में विश्वास करेंगे, शान्ति से रहेंगे ?

बड़े क्षुब्ध मन से मैंने इस विषय पर यह कविता लिखी है .........

बिखरा बचपन भटका यौवन

सोच रहे हैं सैकड़ों मनोवैज्ञानिक

कहाँ गलत हो गया यहाँ

वह था भोला, प्यारा बच्चा फोटो का

यह हत्यारापन उसे मिला कहाँ

वह तो रहता था श्रेष्ठ देश में

उसे यह वहशीपन मिला कहाँ

सारी सुख सुविधाएँ मिलती थीं उसे

फिर वह उच्च संस्कृति में बौराया कैसे यहाँ

सोचो डॉक्टर, सोचो शिक्षाविद्

सोचो नेता, सोचो पंडित

सीधा सा यह जीवन का गणित है

यह रॉकेट विज्ञान नहीं !

देखो बच्चों के बिखरे बचपन को

देखो उनके भटके यौवन को

विश्व भर में हो रहा यही है

एक देश की यह बात नहीं

टी वी के सामने बीतता है बचपन

वही उसे सहलाता, लाड़ लड़ाता है

अपनों के पास समय नहीं है

कम्प्यूटर साथ निभाता है

वे ही साथी हैं, वे ही शिक्षक

नए खिलौने, पिस्तौल, कारतूस

यही सब तो उसने जाना है ।

अपने पूर्वाग्रह उसे हम हैं दे देते

हिंसा, घृणा और वैमनस्य

उसके नन्हें बाल हृदय को

समझ न पाते हम फूहड़ नादान बड़े

जब चाहे वह समय और साथ हमारा

ले आते हम सारा बाजार उठा

उसे उठाओ गोदी में, लगा सीने से

स्नेह की उसकी प्यास बुझाओ

चाहे कितनी ही कमी हों उसमें

ना जतलाओ निराशा उसमें

ढूँढ ढूँढ गुण उसके निखारो

उसका व्यक्तित्व जरा ।

घुघूती बासूती

मतदान

हमने भी मतदान दिया ।
एक जमाने से बताया जा रहा है मत दान करो, मत दान करो, परन्तु हम हैं कि दानवीर कर्ण की परम्परा पर चलते हुए दान प्राप्त करने वाले या हमारे मत रूपी दान के इच्छुक की पात्रता या योग्यता को ताक पर रख हर बार मत दान करके ही दम लेते हैं ।
जीवन में और कुछ दान किया हो या ना किया हो मत तो दान किया ही है । कभी भी कोई उम्मीदवार या दल ऐसा नहीं था कि वह अपनी योग्यता व अच्छाई के आधार पर हमारे मत का अधिकारी बनता । हर बार अजीब अजीब मूल्यों वाले दलों व थाली के बैंगन से उम्मीदवार हमें मिले ।
कभी कभी लगता है कि मतदान शब्द भारत की राजनीति को ही ध्यान में रखकर बनाया गया है । शायद यह शब्द बनाने वाले लोग जानते थे कि मत पाने वाले लोग अधिकतर सुयोग्य नहीं होंगे इसलिये हमें पहले से ही आगाह कर देते हैं कि मतदान =दान मत करो । परन्तु हम तो वही कुत्ते की पूँछ हैं, कभी सीधी नहीं होती । चाहे जितना मना कर लो हम किसी ना किसी अनजाने व्यक्ति को अपना मत दे ही आते हैं । आज मतदान करने निकलते समय ही हमें दो उम्मीदवारों का नाम पता चला । तीन और भी खड़े थे , उनका नाम पता नहीं है । अब न छूटने वाली स्याही से अपनी उंगली सुशोभित कर अपनी व समाज की दृष्टि में एक जिम्मेदार व सचेत नागरिक बन गई हूँ ।
अब ऊँट के मुँह में अपने मत रूपी जीरा डाल प्रतीक्षा है कि देखें ऊँट किस करवट बैठता है। हम यह भी जानते हैं कि जिस भी करवट बैठे कोई ना कोई नागरिक तो कीड़े मकोड़ों की तरह उनके भार के नीचे दब ही जाएँगे ।
घुघूती बासूती

Tuesday, December 11, 2007

अदेखाई

अदेखाई
एक शब्द है गुजराती में
छोटा सा है शब्द पर
मन में है उसने जगह बनाई
कहते हैं लोग उसे अदेखाई ।

कुछ कुछ ईर्ष्या से
यह मिलता सा है
कुछ कुछ जलन सा
यह जान पड़ता है ।

पर इस शब्द के अर्थ
हैं मेरे लिये कुछ और
यह ना पड़ोसी की सुन्दर
पत्नी से है मेरी ईर्ष्या ।

यह नहीं है किसी की
पदोन्नति से पैदा हुई जलन
ना किसी की बड़ी कार देख
पुरानी कार से मिलती पीड़ा ।

ना दूजों के ज्ञान से
उपजी यह मेरी उलझन
ना देख सहकर्मी के बंगले को
मेरे मन की बढ़ती धड़कन ।

यह तो है गुजराती में
बोले जाने वाला तेरा प्रिय
वह शब्द जिसको हम
सब कहते हैं अदेखाई ।

जो होती है फूल से, देखूँ
जब तेरे बालों में लगे उसे ,
देख तेरे माथे की बिन्दिया
हो जाती है मुझे अदेखाई ।

तेरे गले में चमकता आभूषण
जब भी देता है मुझे दिखाई
मन में उमड़ता घुमड़ता है
तब एक ही शब्द अदेखाई।

घुघूती बासूती

Thursday, December 06, 2007

राम का जन्म खालीस्तान में हुआ था !

आप को आश्चर्य हो रहा है ? मुझे भी बहुत हुआ था । अरे, जब आज तक खालीस्तान बना ही नहीं तो वहाँ राम तो क्या कोई भी जन्म नहीं ले सकता ।

बात उन दिनों की है जब बिटिया को हिन्दी के पाठ्यक्रम में संक्षिप्त सी रामायण भी पढ़ाई जाती थी । वही अपना छुट्टियों का गृहकार्य करते हुए हमसे पूछ रही थी कि यह खालीस्तान क्या होता है । कुछ तो हम धर्म आदि के प्रति उदासीन थे और कुछ बच्चियों का कुछ स्टेरेलाइज्ड से वातावरण में जीने के कारण संसार की जानकारी कम और पुस्तकों व काल्पनिक चीजों की जानकारी अधिक होने के कारण हमें कई बार ऐसे प्रश्नों का सामना करना पड़ता था । परन्तु हमें यह समझ नहीं आ रहा था कि वह खालीस्तान के बारे क्यों पूछ रही है । फिर भी हमने अपने जीवन के मूलमंत्र, कि बच्चियों की कोई बात नहीं टालेंगे, उन्हें उनकी उम्र व समझ के अनुसार उत्तर अवश्य देंगे, के चलते उसे समझाना आरम्भ किया कि कैसे कुछ लोग एक नया राष्ट्र चाहते हैं आदि आदि । वह बोली कि फिर दे देना चाहिये ना । मैं इस विषय में कुछ समझाती उससे पहले ही वह बोली कि माँ यह राष्ट्र तो पहले भी रहा होगा क्योंकि टीचर कहती हैं कि राम का जन्म खालीस्तान में हुआ था ।

अब हम बुरी तरह चौंके । माना कि जिन छोटी सी जगहों में हम रहते आए हैं वहाँ का पढ़ाई का स्तर बहुत नीचा रहता है क्योंकि अध्यापक ही नहीं मिलते, फिर भी यह तो अति थी । मैंने कहा आगे क्या लिखाया है वह भी पढ़ो। वह सुनाने लगी " राम को १४ वर्ष का खालीस्तान हुआ था । रावण सीता को उठाकर खालीस्तान ले गया । "

अब बात हमें समझ में आई । यह खालीस्तान रिक्त स्थानों को भरो वाला ‍‌डैश था । हम लोग हाल में ही इस नई जगह आए थे सो बिटिया को नई टीचर के पढ़ाने का तरीका व शब्द नहीं पता थे । पहले वाले विद्यालयों में डैश कहा जाता था और यहाँ खाली स्थान ।

घुघूती बासूती

Tuesday, December 04, 2007

एक सात वर्ष की बच्ची के साम्यवाद से एक ग्यारह वर्ष की लड़की के पूँजीवाद की हार



बात तब की है जब मैं ग्यारह वर्ष की थी । पूँजीवाद या साम्यवाद के बारे में कुछ विशेष नहीं जानती थी सिवाय इसके कि सोवियत संघ में बच्चों की देखभाल करना सरकार का दायित्व था, लोग मिलकर खेती करते थे आदि। तभी हमारे पड़ोस में एक नया परिवार रहने आया । दोनों के घरों में बगीचे थे । मेरे पिताजी को बागवानी का विशेष शौक था सो हमारा बगीचा सदा सबसे अच्छा होता था । भाँति भाँति के फलों के पेड़, फूल व सब्जियाँ साल भर लगी रहती थीं । उन दिनों हमारे इलाहाबादी अमरूद का पेड़ मीठे अमरूदों से लदा पड़ा था ।

एक शाम जब मैं बगीचे में गई तो देखा लगभग सात वर्ष की एक लड़की अमरूद तोड़ रही थी । मैंने उससे पूछा "यह क्या चल रहा है ?" वह बोली "अमरूद तोड़ रही हूँ ।" मैंने पूछा " क्यों तोड़ रही हो ?" वह बोली "खाने के लिए ।" मैंने पूछा "किससे पूछकर तोड़ रही हो ?" वह बोली "किसी से भी नहीं।" मैंने कहा "किसी के घर से बिना पूछे कुछ भी नहीं तोड़ते।" वह बोली " मेरे घर अमरूद नहीं लगे हैं तो मैं यहाँ से तोड़ रही हूँ।" मैंने कहा "ऐसा नहीं करना चाहिये।" वह बोली "वाह दीदी, सारे अमरूद क्या तुम ही खाओगी ? हम क्या खाएँगे ?"

मेरे पास इस प्रश्न का उत्तर ना तब था ना आज है । बड़े होकर जब साम्यवाद के बारे में पढ़ा तो मुझे वह बच्ची याद आ गई । साथ में यह भी कि उसके साम्यवाद ने मेरे पूँजीवाद को अपने भोलेपन से हरा दिया था ।

घुघूती बासूती

Monday, December 03, 2007

अम्मा २

अम्मा २

अम्मा पड़ोस में रहती हैं । मुझे वे बहुत भाती हैं क्योंकि उन्हें पढ़ने का बहुत शौक है । वैसे तो वे हिन्दी भाषी हैं पर यहाँ बंगाल में उन्हें हिन्दी की पुस्तकें व समाचार पत्र सरलता से उपलब्ध नहीं होते हैं, अत: उन्होंने बंगला पढ़ना,समझना व कुछ सीमा तक बोलना भी सीख लिया है। वैसे तो उन्होंने अधिकतर बंगला साहित्य का हिन्दी अनुवाद पढ़ रखा था परन्तु अब मूल उपन्यास पढ़ गदगद हो जाती हैं ।
अम्मा ने एक खाते पीते मध्यमवर्गीय ऊँचे कुल में जन्म लिया था । विवाह भी एक सभ्रान्त परिवार में हुआ था । पति भी ठीक ठाक कमा रहे थे । किन्तु घर में दुर्भाग्य की मार कुछ ऐसी पड़ी कि उनके विवाह से पहले ही घर की हालत खस्ता हो गई थी । घर के सबसे बड़े पुत्र की मृत्यु, दुकान व घर में चोरियाँ, इन सब ने ससुर की कमर तोड़ दी थी ।
अंग्रेज सरकार की नौकरी वाले पिता के घर फ्रॉक,पैन्ट्स,निकर आदि पहनने वाली अम्मा को पुत्रवधू बना ससुर बहुत गर्व से घर ले जा रहे थे। वहाँ डोली में लंह्गा व ढेर सारे आभूषण पहने १२ वर्ष की अम्मा को यह गुड़ियों का खेल सा लग रहा था । उन्हें लग रहा था कि अभी यह खेल खत्म होगा और वे वापिस अपने घर यह सब उतार फ्रॉक पहन अपनी सहेलियों व भाई बहनों के साथ मस्ती कर रही होंगी। परन्तु यह खेल था कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था।
आखिर वे ससुराल पहुँची , दूल्हे को घोड़े से व दुल्हन को पालकी से उतारा गया। वहाँ सब लोग उनके रूप, गहनों,कपड़ों, सैन्डल व लम्बे बालों को देखकर आश्चर्य कर रहे थे । उनके मुलायम हाथ यह दर्शा रहे थे कलम के अलावा उन्हो्ने दराती, खुरपी तो क्या चाकू भी कभी नहीं पकड़ा है ।
ससुर उनसे रोज गीता व रामायण सुनते। अपनी बेटियों व आसपास की लड़कियों से उनसे लिखना पढ़ना सीखने को कहते । परन्तु गाँव में बहू का मूल्य तो केवल उसके खाना पकाने, खेतों में काम करने, गाय भैंस का खयाल रखने की योग्यता से ही आँका जाता। पति अपनी बालिका वधू को देखते, गाँव में उसके भविष्य की चिन्ता करते , परन्तु ना तो इस बच्ची को अपने साथ शहर ले जा सकते थे, ना उसके लिए कुछ और कर सकते थे। वे अम्मा को माता पिता व बड़ों का कहा मानने को कह कर शहर नौकरी पर चले गए।
उनका मन भी अम्मा की चिन्ता में लगा रहता। वे जानते थे कि जबतक गाँव के लोग उन्हें अपना सा न बना लेंगे तब तक अम्मा पर तानों की बौछार होगी। पति के जाते ही परिवार ने उन्हें भी खेतों पर ले जाना शुरू कर दिया। शुरू में तो अम्मा को धान रोपना भी खेल ही लगता था । जैसे बच्चे मिट्टी से खेलते हैं कुछ वैसे ही अम्मा धान रोपतीं। गाय भैंस का काम भी उनसे बतियाती हुईं करती । गाय भैंसो को अपने विद्यालय में सीखी कविताएँ सुनातीं। गोबर के उपले खूब मन से बनातीं । कोशिश करतीं कि सब उपले बराबर आकार के और बिल्कुल गोल होंए। यह सब देख स्वाभाविक था कि परिवार की अन्य स्त्रियों को उनपर गुस्सा आता और वे उनसे तेज काम करने को कहतीं। घर को गोबर से लीपना भी उन्होंने सीख लिया था । वे घर लीपकर सुन्दर रंगोली बनातीं ।
पति उन्हें पत्र लिखते, उनका हाल पूछते। उनके बाल मन में अभी पति के लिए कोई विशेष स्थान नहीं बना था । न ही उन्हें इस रिश्ते का महत्व ही पता चला था। पति साल में एक बार घर आते। किशोरी पत्नी को देखते व गाँव के वातावरण में रमते हुए देखते। सोचते कि अब जब मैं इसे शहर ले जाऊँगा तो क्या वह उस वातावरण में रह सकेगी ।
१७ वर्ष की उम्र में उन्होंने अपने भाई से अम्मा को शहर पहुँचाने को कहा । जब वे स्टेशन में उन्हें लेने पहुँचे तो खस्ता हाल कपड़ों, गहने विहीन शरीर , चप्पल रहित फटे हुए पैर देख उनका मन अपनी पत्नी की दुर्दशा देख रो पड़ा । जब उन्होंने अम्मा से उनकी शादी में मायके से मिली ढेरों साड़ियों , गहनों व तरह तरह की सैन्डल्स के बारे में पूछा तो वे बोलीं कि वे तो घर में सबने रख लिये हैं । उनसे कहा कि शहर में नए खरीद लेना । वे उन्हें लेकर साड़ियों की दुकान पर गए, कुछ साड़ियाँ खरीदीं । फिर जूतों की दुकान में गए । दुकानदार ने जब अम्मा के सामने चप्पलें रखीं तो अम्मा को कौन सी चप्पल किस पैर में डालें नहीं समझ आ रहा था। ये वही शहर वाली अम्मा थीं, पढ़ने की शौकीन अम्मा, सैन्डल पहनने वाली अम्मा ! जब हाथ पकड़ सड़क पार कराने लगे तो सख्त , खुरदुरे हाथ को पकड़ उन नरम गुलाबी हाथों को याद करने लगे जो उन्होंने पाणि ग्रहण के समय पकड़े थे।
अम्मा व उनके पति ने अभावों में भी अपने बच्चों को बेहतर से बेहतर शिक्षा दी । अम्मा के पास दो तीन ही साड़ियाँ होती थीं व मोहल्ले की स्त्रियाँ उन्हें रोज रोज वही पहनने के लिए टोकती थीं । अब अम्मा के सभी बच्चे कमाने लगे हैं । अम्मा के पास किसी चीज की कमी नहीं है , कमी है तो केवल उनके पति की । रंग बिरंगी साड़ियाँ व गहने पति के बिना पहनने का उनका मन नहीं होता । पहले दुर्गा पूजा में जाती थीं तब ढंग के कपड़े नहीं थे , अब अलमारियाँ साड़ियों से पटी पड़ी हैं तो उनका जाने का मन नहीं होता । सुहागिनों के बीच विधवा का जाना उन्हें अच्छा नहीं लगता । मैं और उनके बच्चे उन्हें समझाते रहते हैं।
आज अम्मा मान गईं । नई आसमानी साड़ी , हाथों में सोने का एक कंगन व पोती की लाई विदेशी घड़ी पहन अम्मा नई कार में परिवार के साथ घूमने जा रही हैं । मैं हाथ हिलाकर अम्मा को बाय कह रही हूँ । लगता है वही १२ वर्ष की अम्मा लौट आईं हैं। और आज पालकी की बजाय चमचमाती कार में एक नई यात्रा पर निकलीं हैं ।
घुघूती बासूती

Saturday, December 01, 2007

मेंढक

मेंढक
हृदय में एक दर्द इक जमाने से धंसा था
मन में एक कांटा ना जाने कबसे गड़ा था,
चुभता था वह रह रहकर अन्तस् में उसको
कितनी बातें दर्द की याद करातीं थीं उसको ।

इस दर्द को ना वह छोड़ पाती थी
ना दर्द ही कभी छोड़ पाता था उसको,
अन्दर वह पल पल घुटती रहती थी
इस घुटन ने तोड़ डाला था उसको ।

इक दिन उसने एक सुनसान जगह में
झाँका व फुसफुसा कह दी बात कुँए में,
सोचा था कि मन हल्का हो जाएगा
जब मन की बात वह कुँआ सुनेगा ।

उसने ना जाना कि कुँए में मेंढक था रहता
कुछ गरम आँसू उसके जा मेंढक पर गिरे,
निकला बाहर मेंढक शब्द उससे ये कहता
मैं हूँ भाग्यशाली, तेरे मोती मुझपर आ झरे ।

सुन ली है बात मैंने तेरे दर्द व दुख की
जानता है क्या वह भी बात तेरे दर्द की,
कब से तुम सीने से लगाए बैठी थी इसको
आज मैं ना सुनता तो ना कहती किसी को ।

वह बोली कुछ मोड़ भी आते हैं जीवन में
और कभी मिल जाते हैं अन्धे से ये रास्ते,
मुड़ना भी पड़ता है नई राह की खोज में
सहनी पड़ती बेवफाई भी प्यार के वास्ते ।

यह कह वह चली गई अपनी दुनिया में
मेंढक भी जा कूदा वापिस अपने कुँए में,
सोच रही थी वह कि कहीं मेंढक यह
कहानी का राजकुमार तो ना था वह ।

मेंढक भी सोच रहा था कि वह नारी
जो जाने कहाँ से आई कुँए पर उसके,
कहीं वही तो ना थी उसकी राजकुमारी
शायद भाग्य बदलने आई थी उसके ।

घुघूती बासूती

Friday, November 23, 2007

पतझड़




कल सपने में पतझड़ आया था
साथ अपने सुनहरी पत्ते लाया था
मैं खड़ी थी इक वृक्ष के नीचे
आ रहे थे पवन के झोंके
हर झोंका लाता था उड़ते पत्ते
उड़ते, बहते साथ पवन के
धीमे धीमे नीचे को आते
पीले, भूरे, कुछ लाली वाले
सुन्दर प्यारी धरती पर आते
कुछ मेरे बालों में फंसे पड़े थे
कुछ गालों को सहला जाते
नीचे पत्तों का कालीन बिछा था
उनपर जब पाँव मेरा पड़ता था
भुरभुराते से वे भूरे सूखे पत्ते
पैरों को सहलाते झुरझुरी फैलाते।


मैं ऊपर डालों को अतीत
अपना झाड़ते देख रही थी
ना वृक्षों के आँसू निकले
ना चीख किसी पत्ते की आई
ना थे वहाँ विदाई के आँसू
चुपके से इक पत्ता था
छोड़ रहा जीवन का बन्धन
मुक्त हवा में वह उड़ता था
जैसे हाथ हिला कर मुस्काता
अपने जीवन स्रोत को विदा कहता
जा रहा था वह धरती से मिलने
जानता हो जैसे हर पत्ता
नवजीवन को लाने को
प्रकृति की छटा बढ़ाने को
इक दिन सबको जाना होगा ।



मैं वृक्षों की पंक्ति के नीचे
मंत्रमुग्ध सी चलती जाती
शायद सारी रात चली थी
भोर की जब किरणे आईं
जब देखा मैंने मुड़कर तो
सफेद, गुलाबी और नारंगी
फूल खिले थे हर डाली पर
देख अपने ही सौन्दर्य को
जैसे सब वृक्ष मुग्ध हुए थे।


जाना तब मैंने भी जीवन का सार
जब आता है विदा लेने का काल
ना रिरियाना, ना घबराना
हल्के से सब बंधन प्राणों के तोड़
इक पत्ते सा धीरे धीरे से धरती पर गिरना
ना पकड़े रहना जीवन की छूटी जाती डोर
ना आँसू ना मातम करना
नव जीवन तब ही आएगा
थका पुराना जीवन जब जाएगा ।


घुघूती बासूती

Thursday, November 22, 2007

अम्मा १

अम्मा विषय के अन्तर्गत मैं कुछ माताओं के विषय में बताऊँगी जिनसे मैं बहुत प्रभावित हुई ।
आज की माँ को मैं अम्मा १ का शीर्षक दे रही हूँ ।
मुझे दिल्ली से एक महत्वपूर्ण काम से अपनी पुत्री के साथ उत्तर प्रदेश के एक बहुत पुराने शहर जाना
था । विवाह के बाद से कहीं भी अकेले जाना छूट गया था । जब एक जगह से दूसरी जगह बदली होती तो पति व बच्चों के साथ जाती थी । किसी आस पास के शहर जाना होता तो ड्राइवर के साथ कार में जाती । यदि रूकना पड़ता तो कम्पनी के गेस्ट हाउस में रुकती । यह विश्वास नहीं होता था कि ये वही मैं हूँ जो हॉस्टेल से घर आने के लिए स्वयं टिकट लेने जाती थी । फिर एक दूसरे शहर तक बस से जाकर ट्रेन पकड़ लगभग दो दिन की यात्रा कर घर पहुँचती थी। मैं देख सकती थी कि सुख सुविधाएँ मनुष्य को किस सीमा तक नरम व भीरू बना सकती थीं ।
अब समस्या यह थी की हम रहेंगे कहाँ। अनजाना शहर, कोई जान पहचान नहीं जो ये भी बता सके कि किस होटेल में ठहरा जा सकता था । तभी पता चला की पति की तरफ के एक दूर के रिश्तेदार, या कहिये, कि रिश्तेदार के रिश्तेदार उस शहर में रहते हैं । उनसे बातचीत कर मुझे बताया गया कि हम उनके घर ठहर सकते हैं । मैं लगभग पच्चीस वर्ष के वैवाहिक जीवन में पति के सगे भाइयों व बहन के परिवार के सिवाय लगभग किसी रिश्तेदार से नहीं मिली थी ।
बहुत विचित्र सा लग रहा था कि ऐसे किसी के घर कैसे टपका जा सकता है । ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’ सी स्थिति थी । अपनी झिझक को दूर करने के लिए मैंने दो बार उनसे फोन पर बात की । ऐसा लगा कि अनजान लोगों की यह मेहमान नवाजी उनके लिए कोई नई बात नहीं थी । सो थोड़ी सी हिम्मत जुटी ।
खैर, कुछ उपहार ले हम यात्रा पर चल पड़े । स्टेशन से किसी तरह से हमने एक रिक्शा किया और आसानी से अपने गन्तव्य पहुँच गए। वहाँ पर सब हमसे इस तरह मिले मानो वे हमें पहले से जानते हों । उनकी वृद्ध माँ भी हमें बहुत प्यार से मिलीं । अभी हम अपने काम से जाने को तैयार ही हो रहे थे कि पता चला कि आज नगर बंद की घोषणा हो गई है। मेरे अनुमान से बंद का अर्थ था घर में ही चुपचाप बैठे रहना । किन्तु अम्मा बोली कि अरे कुछ नहीं होगा, बिटवा को साथ ले जाओ ।
वापिस घर पहुँचे तो उनकी पत्नी बारह लोगों के लिए अकेले भोजन बना रहीं थीं । सबका दाल सब्जी बनाने का ढंग तो अलग हो सकता है किन्तु रोटी पराँठे तो एक से रहते हैं । सो इसका जिम्मा अपने ऊपर ले हम साथ-साथ काम करने लगे । बीच-बीच में अम्मा से भी बातें होती रहीं । भोजन समाप्त कर कुछ देर सब आराम कर रहे थे । एक घंटे बाद जब सब एकत्र हुए तो अम्मा मुझे, घर की ४५ वर्षीय बहू, अपनी बेटी सबको कुछ ना कुछ काम थमा रही थीं । किसी को चावल बीनने में लगा दिया तो किसी को हरी सब्जी चुनने व काटने में, तो किसी को चटनी बनाने में । स्वयं पुराना ऊन सुलझाने बैठ गईं । मुझे यह स्थिति कुछ अजीब सी लगी ।
बहुत पुराना चौमंजिला पुश्तैनी घर था । नीचे दो संडास, दो स्नानागार, एक बैठक और एक सोने का कमरा । दूसरी मंजिल में रसोई, एक बड़ी बैठक और एक सोने का कमरा । तीसरी मंजिल में बेटे बहू का कमरा, बच्चों का कमरा और एक विराट स्नानागार, जिसमें अलमारियाँ तक थीं और पंखा भी । परन्तु यहाँ कमोड नहीं था । मैं आश्चर्यचकित कि क्या दो मंजिल उतर कर नीचे जाते होंगे । बहू बोलीं चुपचाप से यहाँ ही बने एक विचित्र कमोड, जिसे कहीं से भी कमोड नहीं कहा जा सकता था, का उपयोग करो । नीचे गईं तो फिर हर बार स्नान करना होगा । मैंने पूछा कि यहाँ क्यों नहीं बनवाया तो बोली अम्मा ने मना किया है सो कुछ ऐसा प्रबंध किया कि उन्हें पता भी न चले और काम भी चल जाए । लोगों के बारे में निर्णय लेना तो हम सब अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझते हैं । मैं समझ नहीं पा रही थी कि इतना अपनापन देने वाली अम्मा को किस श्रेणी में रखूँ ।
ऐसे ही तीन दिन बीत गए, कभी रसोई से बहू को बाहर निकलते देखा ही नहीं । हमारा भी काम हो गया था सो निकलने से पहले अम्मा को प्रणाम किया । वे बोलीं अपना आँचल फैलाओ। हमने वैसा ही किया । तो उसमें एक सूप से नारियल , चावल, गुड़, साड़ी व कुछ रूपये उन्होंने रख दिये । हम अम्मा यह सब क्या है कहते ही रह गए तो वे बोलीं कि घर से बेटी को ऐसे ही विदा किया जाता है ।
आज तक समझ नहीं पाती हूँ कि असली अम्मा कौन सी थीं, वे जो अपनी बहू, बेटी को पल भर भी खाली नहीं बैठने देती थीं, उच्च रक्तचाप वाली बहू से आशा करती थीं कि वे दो मंजिलें उतर कर बाथरूम जाएँ, फिर हर बार नहाएँ , या मुझे इतने प्यार से विदा करने वाली अम्मा ?
किन्तु जो भी हो मुझे जब भी अम्मा व उनके परिवार की याद आती है मन आत्मीयता से भर जाता है ।
घुघूती बासूती

Wednesday, November 21, 2007

जब मैं लड़का देखने गई ।

जब मैंने लड़के को देखा व स्वयं को उसे दिखाया !
रवीश जी ने एक चिट्ठे में लड़की की दिखाई में लड़कों द्वारा लड़कियों को विवाह के लिए देखने के विषय में लिखा है । बचपन से ही मुझे यह प्रक्रिया बहुत ही विचित्र व कुछ अपमानजनक लगती रही है । क्यों, कह नहीं सकती । शायद कारण यह रहा हो कि मुझे प्रेम के अतिरिक्त विवाह करने का कोई भी कारण जंचा नहीं । मैं गलत भी हो सकती हूँ, क्योंकि आज मैं प्रेम में हारे हुए अपने मित्रों को वैवाहिक साइट्स पर जाकर किसी सही व्यक्ति से मिलने की सलाह देती ही रहती हूँ । कारण यह भी है कि जो इन साइट्स पर अपने नाम, फोटो आदि देते हैं वे विवाह करने के विषय में में वाकई संजीदें होंगे अन्यथा इतना कष्ट क्यों करते। सो उनसे कहती हूँ कि उनसे मिलो , उन्हें जानो व हो सकता आप एक दूसरे को चाहने लगेंगे ।
खैर, मैं तो आपको इस विषय से सम्बन्धित एक किस्सा सुनाना चाहती हूँ जो मुझे रवीश जी का चिट्ठा पढ़ याद आ गया ।
बात यूँ हुई कि मैं हॉस्टल से अपने घर गई थी । बातों ही बातों में मुझे बताया गया कि अमुक परिवार, उन्हें अ ब स कह सकते हें, अपने बेटे का विवाह मुझसे करना चाहते हैं व बेटे के साथ मुझे देखना चाहते हैं । मुझसे पूछा कि क्या बात आगे बढ़ाएँ । उस शहर में हमारे समाज के कुछ ही घर थे व उन्हें मेरे विषय में पता चला था, या शायद उन्होंने मुझे देखा भी हो । बचपन से ही मैं बहुत ही बिन्दास व मजाकिया प्रवृत्ति की थी, किन्तु कुछ विषयों में बहुत ही संजीदी भी थी जैसे कि लड़के वालों द्वारा लड़की को देखने के विषय में, स्त्रियों के अधिकारों के विषय में आदि । मैंने माँ से उनके बारे में पूछा । जहाँ वे रहते थे, उसी इलाके में हमारे जान पहचान के, हमारे छोटे से समाज का एक और परिवार भी रहता था, जिनसे हमारी कुछ रिश्तेदारी निकलती थी व जो हमारे घर आते जाते थे।
सो मैं अपनी जान पहचान वालों के घर के लिए चल पड़ी । वहाँ पहुँचकर मैंने कहा कि अ ब स भी तो यहीं रहते हैं । वे बोले हाँ । मैंने कहा उनसे भी मिल लिया जाए । सो हम उनके घर चले गए । रिश्तेदार मुझे वहाँ पहुँचा कर अपने घर वापिस चले गए । मैंने अपना परिचय दिया कि मैं क ख ग ज्यू की बेटी हूँ । बेचारा लड़का बनियान पहने हुए बैठक में बैठा हुआ था । न उससे उठते बनता था न बैठते । वह इन्जीनियर था । मैं उससे कहाँ पढ़ा है, किस ब्रान्च में इन्जीनियरिंग की है , वह अपने भविष्य के विषय में क्या सोचता है आदि पूछती रही । साहित्य में उसकी क्या रुचि है , यदि हाँ तो कौन पसन्द हैं । ऍन रैन्ड को पढ़ा है , उसके किन उपन्यासों से वह प्रभावित हुआ है आदि बातें करती रही । कौन से खेल में उसकी रुचि है व अपना प्रिय खेल जिसमें मैं छोटी मोटी चैम्पियन थी के बारे में बताया। घर से जब दूर रहे तो क्या घर का कुछ काम काज जैसे बेसिक खाना बनाना सीखा या नहीं । पहाड़ के लड़कों को तो कुछ खाना बनाना आता है जैसे मेरे पिताजी को, आदि पूछती रही । उसके व उसके माता पिता का चेहरा देखते ही बनता था । मैं प्रतीक्षा कर रही थी कि कब वह चाय लेकर आयेगा । मैं चाय तो पीती नहीं थी, सो उसके पूछने पर मुझे मना करना पड़ा । आधे घंटे उनके घर बैठ मैं वापिस घर आ गई । वह कमीज पहन मुझे रिक्शा स्टेंड तक छोड़ने आया। शायद उसने ऐसी लड़की पहले नहीं देखी थी, ना ही कल्पना की थी । वह मुझसे बोला कि आप तो बहुत बोल्ड हो ।
माँ से बोला निश्चिन्त रहो अब वे आपसे मेरे बारे में बात नहीं करेंगे । मैं स्वयं अपने को उन्हें दिखा आई हूँ व उनके सपूत को भी देख आई हूँ । आश्चर्य तो मुझे तब हुआ जब इस सबके बावजूद वे लोग बात आगे बढ़ाने को हमारे घर आ गए । मैं तो वापिस हॉस्टेल चली आई थी । माता पिता ने कहा कि अभी तो मैं पढ़ रही हूँ, अभी विवाह के विषय में नहीं सोचा आदि । शायद माँ को तब भी मेरे मन के बारे में अनुमान था कि मैं ऐसा तय किया विवाह नहीं करूँगी ।
सो मैं भी एक बार अपने को लड़के को दिखा आई व लड़के को देख आई । शायद वह लड़का किसी लड़की को देखने से पहले चार बार सोच अवश्य लेता होगा । आज न तो मुझे उसका नाम याद है न उसकी शक्ल और यदि रवीश जी का चिट्ठा न पढ़ती तो इस बात की याद भी न आती ।
घुघूती बासूती

Monday, November 19, 2007

ओस की एक बूँद


ओस की एक बूँद हूँ मैं
सुबह आएगी तो खो जाऊँगी मैं,
धरती की आँख से निकली एक बूँद हूँ मैं
जब सूरज धरा को चूमेगा तो खो जाऊँगी मैं ।

तेरे हृदय से निकली एक आह हूँ मैं
जब तू सो जाएगा तो खो जाऊँगी मैं,
तेरे स्वप्न का एक भाग हूँ मैं
जब तू जागेगा तो खो जाऊँगी मैं ।

तेरे आँगन के फूल की एक पंखुड़ी हूँ मैं
जब हवा चलेगी तो उड़ जाऊँगी मैं,
तेरे बगीचे के पेड़ की एक पीली पाती हूँ मैं
जब पतझड़ आएगा तो उड़ जाऊँगी मैं ।

दूर पहाड़ी पर गिरी एक हिमकणिका हूँ मैं
वसन्त आएगा तो पिघल जाऊँगी मैं,
तेरे हाथ में एक मोम की पुतली हूँ मैं
तेरी साँसों की गर्मी से पिघल जाऊँगी मैं ।

इस धरती पर किसी के प्यार की छाया हूँ मैं
प्यार न होगा तो नज़र न आऊँगी मैं,
किसी के दर्द का मीठा सा एहसास हूँ मैं
दर्द न होगा तो नज़र न आऊँगी मैं ।

तेरे दिल की धड़कन की एक गूँज हूँ मैं
जब दिल न धड़केगा मेरे लिये, चली जाऊँगी मैं,
तेरे मन की यादों की एक मौज हूँ मैं
जब तू भुला देगा चली जाऊँगी मैं ।

तेरी साँसों की महकती खुशबू हूँ मैं
जब तू कहेगा चली जाऊँगी मैं,
तेरे हाथों की एक रेखा हूँ मैं
जब तू मिटा देगा तो मिट जाऊँगी मैं ।

घुघूती बासूती

Thursday, November 15, 2007

वह तो केवल एक है

वह केवल एक है
चाहता अनेक है
यहाँ भी होऊँ
वहाँ भी होऊँ
किसको पाऊँ
किसको खोऊँ
प्रश्न ये अनेक हैं
और वह एक है ।


मन का सारा खेल है
कि वह तो एक है
सबसे उसका मेल है
किन्तु वह एक है ।


वह तो केवल एक है
सबसे उसको प्रेम है
इसका भी रखना ध्यान है
उसका भी रखना ध्यान है
किसको छोड़ूँ
किसको पकड़ूँ
द्वंद ये अनेक हैं
और वह एक है ।


बात ये अजब है
कि वह तो एक है
चाहता वह गजब है
किन्तु वह एक है ।


घुघूती बासूती

Tuesday, November 13, 2007

जंगल में मंगल

एक दीपावली ऐसी भी ।

छोटी सी जगह,थोड़े से लोग । अधिकतर अपने परिवार, प्रांत से बहुत दूर । एक स्कूल, एक दुकान, एक धोबी, एक क्लब, एक महिला मंडल और एक फैक्टरी । और सबके लिए एक सा शहर से बहुत दूर का जीवन ! ऐसे में यदि हम मिलकर कुछ नया कर अपना मन ना बहलाएँ तो घुट जाएँगे । यही सब सोचकर हमने इस वर्ष कुछ नया करने की सोची। और यह नया दीपावली और नव वर्ष के शुभ अवसर पर आरम्भ किया ।
दीपावली के साथ बहुत से मुद्दे जुड़ने लगे हैं जो पहले लगभग सोचे भी नहीं जाते थे । प्रदूषण के विषय में हम सोचते भी न थे । पशुओं, बीमार और वृद्धों को आवाज से होती तकलीफ का भी हमें ध्यान न आता था । इन सबकी ओर हमारा ध्यान हमारे बच्चों व नई पीढ़ी ने ही खींचा । तब हमने भी खूब उत्साह परन्तु कम प्रदूषण वाली दीपावली मनाने का निर्णय किया ।
हम लोग प्रत्येक वर्ष अपने औफिस में लक्ष्मी पूजन करते हैं ,जहाँ सभी निमन्त्रित होते हैं । पूजा समाप्ति पर प्रसाद व फिर पटाखे व आतिशबाजी चलाई जाती है । इसके बाद सब अपने अपने घर आकर लक्ष्मी पूजन करते हैं व दीये जलाते हैं । फिर मिलना मिलाना शुरू होता है । लोग एक दूसरे के घर जाते हैं मिठाई आदि खाते है् व मेजबान को भी अपने साथ लेकर बढ़ जाते हैं । अन्त में सब हमारे घर पहुँचते हैं । अन्त में सब हमारे घर पहुँचते
हैं, यहाँ भी साथ मिलकर खाया पिया जाता है व सब मिलकर पटाखे व आतिशबाजी चलाते हैं । इसमें केवल १६ या १८ अड़ोस पड़ोस के परिवार ही सम्मिलित हो पाते हैं ।

अगले दिन गुजराती नव वर्ष होता है । सो सबका मिलना आवश्यक होता है । इस वर्ष हम मंदिर में मिले। सबने पहले भगवान को प्रणाम किया व फिर एक दूसरे के गले मिल साल मुबारक कहा । बैठे और कुछ गप्प की और फिर प्रसाद खाया । हमारी कॉलोनी में लगभग १५०, १६० मकान हैं सो उतने ही परिवार। सभी एक ही जगह काम करते हैं । सबके सुख दुख एक जैसे ही हैं । हम सब लगभग एक दूसरे को जानते हैं । सभी बच्चों को अपना सा मानते हैं । सो इस बार हमने सोचा क्यों न नव वर्ष की संध्या भी इकट्ठे मनाई जाए ।
दिन भर लोग मुबारकवाद देने आते रहे । स्कूल के बच्चे भी आते रहे । प्रणाम कर आशीर्वाद लेते रहे ।
सो अकेलापन अधिक नहीं खला क्योंकि ये भी अपने ही बच्चे थे । कुछ छोटे बच्चों से तो खूब लाड़ लड़ाया । बच्चों को खिलाने का भी आनन्द लिया ।
शंध्या को ८ बजे से क्लब का कार्यक्रम आरम्भ हो गया । वही, सबसे मिलना और जिनसे सुबह नहीं मिले थे उनसे गले मिलना । उसके बाद तम्बोला रखा गया था । हमारे यहाँ बच्चे भी न जाने क्यों तम्बोला बहुत पसन्द करते हैं । केवल ५ रुपये का टिकट और उनका उत्साह देखते ही बनता है । यदि २५ नम्बर पुकारा गया तो कोई बच्चा बोलेगा, उससे केवल २ अधिक या ५ कम । ना किसी बच्चे को टोका जाता है न चुप रहने को कहा जाता है। बिल्कुल छोटे बच्चे तितलियों से यहाँ वहाँ मंडराते रहते हैं । कभी इस आंटी की गोद में तो कभी उस अंकल की । हर कोई उन्हें लाड़ करता है । यदि आप शाला की अध्यापिका हो या वहाँ पढ़ा चुकी हो तब तो हर बच्चा आपसे मिलने जरूर आयेगा । तम्बोला समाप्त होने पर आतिशबाजी व पटाखों का कार्यक्रम था । रस्सियाँ बाँधकर मैदान का एक हिस्सा अलग कर दिया गया था जहाँ किसी को भी जाने की अनुमति न थी ।
आतिशबाजियाँ तो देखते ही बनती थीं । रंग बिरंगी आकाश में जाकर छिटकने वाली, आवाज वाली, सतरंगी रंगों वाली । हम मोहित से उन्हें देखते ही रह गए । सब मंत्रमुग्ध थे । अपने अपने बलबूते पर इतना खर्चा करना हम में से किसी के वश का न था । किन्तु यदि १५० परिवार मिलकर खुशी मना रहे थे तो कम्पनी के लिए यह कठिन न था । और जब मैं प्रदूषण के बारे में सोचती हूँ तो प्रति व्यक्ति एक आतिशबाजी भी न रही होगी । खर्चे के हिसाब से भी शायद अलग अलग मनाने से कम ही रहा होगा । और खुशी ! सामूहिक रूप से मनाने से वह तो १५०गुना हो गयी थी ।
नवरात्रियों में हम सब मिलकर गर्बा भी करते हैं । उन दिनों के भी बहुत सारे विडीयो बना रखे थे । अब वे ही एक बड़े परदे पर दिखाए जा रहे थे । बच्चे स्वयं को परदे पर देख खूब खुश हो रहे थे । फिर बच्चों व छोटे बच्चों कि माँओ को खाने के लिए बुलाया गया । फिर अन्य स्त्रियों को और पुरुषों को । गरम गरम पूरी , स्वादिष्ट ऊँधिया , कढ़ी व भात , सलाद, पापड़, अचार और वासुन्दी सबके साथ मिलकर खाने में जो मजा आया वह किसी बड़े होटल में भी नहीं आ सकता ।
हँसी मजाक करते व खुशी खुशी हमने इस वर्ष की दीपावली व उसके साथ आने वाले त्यौहारों को विदा किया व नववर्ष में कदम रखा । कल हमारे महिला मंडल में नववर्ष मनाया जाएगा। सुन्दर सुन्दर रंगोली बनेंगी । खूब सजाया जाएगा मंडल को । बच्चे भाग दौड़ करेंगे । एक बार फिर उल्लास का वातावरण होगा । आशा है, यूँ ही मिलकर खुशी खुशी यह नया वर्ष भी बीत जाएगा । और हाँ, अभी तो हमें ३१ दिसम्बर को भी नृत्य व संगीत के बीच एक और नया वर्ष मनाना है ।
शायद इसी को जंगल में मंगल कहते हैं ।
घुघूती बासूती

Thursday, November 08, 2007

दड़बों की कीमत

जब भी शहर आती हूँ
किसी दड़बे में खुद को पाती हूँ
इन शहरी दड़बों में मुर्गियाँ नहीं
मनुष्य पाये जाते हैं ।
दौड़ते भागते कारों,बसों
से खुद को बचाते
पर्स व जेब सम्भालते
गहनों को बैंक के लॉकर में छिपाते
चोरों जेबकतरों से बचते बचाते ।
जब यह खिड़की पर
या कोई अधिक भाग्यवान
किसी बालकनी पर टंगकर
संसार को निहारता है
तो क्या देख रहा है जानने की
उत्सुकता मेरे अंदर जागती है ।
मैं भी खिड़की से लटक
बाहर का संसार जो घर के अंदर
सुना जा सकता है, देखती हूँ
पर मुझे कुछ विशेष
नजर नहीं आता ,
कहीं सड़क पर क्रिकेट खेलते बच्चे
कहीं कोई मरियल सा पेड़
यदि अच्छी दड़बा समिति हुई तो
उखड़ी घास का एक टुकड़ा मैदान
कोई कमजोर सा मरियल कुत्ता ।
ऊपर को ताको तो
छोटा सा आकाश का टुकड़ा
सामने की बालकनी पर
सूखते हुए गीले कपड़े
गुटरगूँ करते कबूतर
यदि परदे हटे हों तो
किसी घर का अन्दर का जीवन ।
इतने बड़े संसार में
एक परिवार को यदि हजार
वर्ग फुट जमीन नहीं,
फर्श मिल जाए तो
मानो वह सफल है
उसका जीवन सफल है ।
अधर में लटकता
उसका यह दड़बा उसे
कितना अधिक प्यारा है
बहुत सारी कीमत है
इसकी उसने चुकाई
और लगभग सारा जीवन
उसे चुकाते जानी है ।
घंटो सफर कर जब वह
घर आता है थका, झल्लाया
तो कुछ खाना बना, खा
कान पर मोबाइल
हाथ में टी.वी रिमोट
इस सारे झमेले के
ईनाम में वह पाता है ।
इन दोनों को वह
देर रात तक भुनाता है
दस हाथ की दूरी से करता
है वह जीवन का दर्शन
साथ जीवन जीने वालों से
उसे कम ही है मतलब
उसका जीवन तो कैद है
इक्कीस इंची परदे पर ।
यहीं जीता है वह प्रेम प्रसंग
बर्फीली पहाड़ियाँ,पेड़, पक्षी, जानवर
रेतीली मरूस्थल, सागर की लहरें ।
कैसे दो प्राणी मिलकर
ताक सकते हैं इस जादुई डब्बे को
क्यों उनकी उँगलियाँ नहीं
ढूँढती इक दूजे को
क्यों नहीं मिलकर बनाते
अपना इक रंगी संसार
क्यों देखते हैं दूजों के
जीवन के नकली एपीसोड।
जब उनके खुद के जीवन
बिल्कुल ही खाली होते जाते
शायद स्वयं का जीवन जीने
में है लगती उर्जा , चाहत व
विवाद भी हैं सहने पड़ते ।
इन सबसे बचकर रहता है
अपना ये दड़बे वाला, जीवंत
भावनाओं से भागा फिरता है ।

घुघूती बासूती

Wednesday, November 07, 2007

सौराष्ट्र में भूकम्प के झटके

कल ६ नवम्बर को सौराष्ट्र में भूकम्प, जिसे गुजराती में धरतीकम्प कहते हैं, आया । सुबह ५ बजकर ५८ मिनट पर और फिर दोपहर ३ बजकर ८ मिनट पर रीटर स्केल पर ५.१ के ये झटके हमारे इलाके में भी महसूस किये गये । भूकम्प का केन्द्र जूनागढ़ जिले के तलाला तालुके के खखरावाडा गाँव में था । तलाला में एक व्यक्ति की मृत्यु हुई, ५० मकानों को हानि पहुँची व बहुत से मकानों में दरारे पड़ गयीं । जूनागढ़ में भी कुछ मकानों को क्षति पहुँची । कल दिन भर २० छोटे झटके भी आए ।
सौराष्ट्र के लिए प्राकृतिक आपदाएँ कोई नई चीज नहीं हैं । २००१ के भूकम्प में भी इसे काफी जान माल की हानि सहनी पड़ी थी । सन ९७ या ९८ में जब मैं यहाँ रहने नहीं आई थी , तब एक समुद्री तूफान ने भी भयंकर तबाही मचाई थी । इस वर्ष यहाँ वर्षा ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये थे और जगह जगह बाढ़ आई थी । यह भी माना जा रहा है कि यह भूकम्प इसी भारी वर्षा का परिणाम है ।
जैसे ही दोपहर का झटका समाप्त हुआ मैं ने झट से अंदर आकर माँ को फोन किया और बताया कि यहाँ भूकंप आया और हम ठीक हैं । फिर बिटिया को फोन किया । २६ जनवरी २००१ के भूकम्प के बाद भी मैंने झट से माँ को फोन किया । उसके बाद ३ दिन तक फोन लाइन्स बंद रहीं । तब तो टी वी पर दिन रात इसी के बारे में समाचार दिये जाते थे । भाई आज भी कहता है कि मेरा घर फोन करना एक मास्टर स्ट्रोक था । मेरी माँ को चिन्ता की भयंकर बीमारी है । वे तो किसी भी बात पर चिन्ता कर सकती हैं फिर जब वे टी वी देखती तो ना जाने कितनी चिन्ता करतीं ।
इस बार टी वी के समाचारों पर भूकम्प का कोई जिक्र भी नहीं आया । बस कभी कभार नीचे एक

पंक्ति दी जाती थी। कारण शायद यही रहा होगा कि केवल छोटे छोटे गाँव व कस्बे ही इसकी चपेट में आए थे। या शायद इसलिए की सचिन ने कप्तानी करने से इन्कार कर दिया था सो टी वी चैनल वालों ने हमारे धरतीकम्प की चर्चा करने से इन्कार कर दिया ।
टी वी पर क्या समाचार बनेगा और क्या नहीं बनेगा यह घटना पर निर्भर नहीं करता अपितु इस बात पर निर्भर करता है कि उस दिन बाँकी समाचार कितने बड़े या मसालेदार हैं । कल कुछ चैनल पर तो बेरहम माँ ने ४ दिन की बच्ची को रेलवे ट्रैक पर छोड़ा ही सबसे बड़ी खबर थी । फिर सचिन जी का समाचार । सो हमारा धरतीकम्प खबर बनने से रह गया ।
हमने सोचा कि हम ही इसे खबर बना दें ।
घुघूती बासूती

Saturday, November 03, 2007

यदि टिप्पणियाँ और पाठक चाहते हैं तो विष्ठा पर लिखिये । उसके पर्यायवाची शब्द ढूँढिये ......

यदि टिप्पणियाँ और पाठक चाहते हैं तो विष्ठा पर लिखिये । उसके पर्यायवाची शब्द ढूँढिये ......
ये क्या नारी विषय या उसकी समस्याओं पर लिख रहे हैं ?
अफलातून जी की ‘ नारी के सहभाग बिना , हर बदलाव अधूरा है ।' नामक पोस्ट पर मेरी यह टिप्पणी है, सोचा आप सबको भी पढ़ा दूँ ।

अफलातून जी ,
यदि आप चाहते हैं कि अधिक लोग आपको पढ़ें व टिप्पणी करें तो आपके विषय का चुनाव बिल्कुल गलत है । हाल में कुछ दुर्गंधयुक्त विषय धड़ाधड़ हाथों हाथ लिए जा रहे हैं व उनपर बीसियों टिप्पणियाँ भी आईं । एक आप हैं कि नारी जैसे अमहत्वपूर्ण विषय पर लिख रहें हैं । नारी के विषय में लिखना है तो या तो उसपर चुटकले सुनाइये या उसका रूप विवरण कीजिये ,वह बासी ,बेमजा विषय क्या चुन रहे हैं ?
यदि लेखक अपनी पुस्तकें बेचना चाहें तो उन्हें प्यासी डायन, खूनी पंजा, जकड़ा शिकंजा, या फिर किसी ऐसे ही मनोरंजक विषय पर लिखना होगा । क्या आप जानते नहीं पुरुषों की रूचि में स्त्री की समस्याएँ विष्ठा के बहुत बाद में आती हैं ? धीरे धीरे आँखें खुल रहीं हैं और संसार की विडंबनाएँ देखने को मिल रहीं हैं ।
वैसे एक ऐसे मन के निकट के विषय पर लिखने के लिए धन्यवाद !
यदि आप में से कोई पढ़ना चाहे तो यहाँ जाइए :
http://samatavadi.wordpress.com/2007/11/02/womanwomen-bloggerchirkin/#comment-968
घुघूती बासूती

Thursday, November 01, 2007

अहसास

एक उम्र गुजर जाती है
उम्र गुजरन॓ का अहसास होन॓ तक
सब कुछ बिखर जाता है
बिखराव का अहसास होने तक ।

जीवन हाथ से निकल जाता है
रेत सा फिसलने का अहसास होने तक
सबकुछ ही बेमानी हो जाता है
अपने बेमानी होने का अहसास होने तक ।

आँचल पूरा भीग जाता है
आँसुओं के रीतने का अहसास होने तक
अपने हाथ छुड़ा लेते हैं
अपनों के जाने का अहसास होने तक ।

हाथ खाली हो चुके होते हैं
सबकुछ खोने का अहसास होने तक
आशाएँ सारी खो जाती हैं
निराश होने का अहसास होने तक ।

मौत आ चुकी होती है
जिन्दा थे का अहसास होने तक
साँसें खत्म हो चुकी होती हैं
साँस लेते थे का अहसास होने तक ।

घुघूती बासूती

Tuesday, October 30, 2007

'हम तो फल हैं'

    क्या आप जानते हैं कि कुछ लोगों के अनुसार इस संसार की लगभग आधी आबादी फल है ? आश्चर्यचकित मत होइये । वैसे मैं हुई थी । सुनकर कुछ अजीब सा लगा । समझ नहीं आया कि ग्लानि हो, अपमानित महसूस     करूँ, गुस्सा होऊँ, उपेक्षा करूँ या हँसू । अब सोचती हूँ कि जब मुझे अपने निठल्लेपन पर गुस्सा आता था, सामने कुछ ठोस करने का कोई रास्ता न होता था तो मैं स्वयं को एक वनस्पति सा महसूस करती थी । ये व्यक्ति तो वनस्पति न कह कर उसका भी एक छोटा सा भाग कह रहे थे ।
    उनके हिसाब से स्त्री एक फल है जिसे कोई भी गपाक से खा सकता है । बस हमारी इतनी ही औकात थी उनकी नजरों में !
    हुआ यूँ कि मैं अचानक टी वी वाले कमरे में आई और ये महाशय दंगों के विषय में बोल रहे थे । मारकाट तो खैर हुई ही, उनसे पूछा गया कि क्या बलात्कार आदि भी हुए थे ? वे बोले अब यदि सामने फल पड़ा हो तो आदमी खा ही लेगा ! पूछा गया कि क्या तुमने भी खाया ? बोले हाँ, हमने भी एक खाया ।
    अब कहने को क्या बचता है सिवाय इसके ...
    जहाँ नारी को पूजा जाता है वहाँ भगवान बसते हैं । जहाँ इन भगवानों को खाने को नारी रूपी फल चढ़ाये जाते हों वहाँ कौन बसता है ?

घुघूती बासूती

 

 


पुनश्च
    ये प्रश्न केवल गुजरात के संदर्भ में नहीं पूछ रही, हर दंगाई चाहे वह दंगे धर्म, आस्था, राजनीतिक कारणों, समाज में परिवर्तन लाने, अलग राज्य या देश या स्वतंत्रता पाने के लिए हों, के संदर्भ में पूछ रही हूँ । मेरा सभी पाठकों से निवेदन है कि यदि इस नजरिये पर सार्थक चर्चा कर सकते हैं तो कृपया अवश्य कीजिये । यदि यह एक राज्य को गाली देने का मंच बनाना चाहते हैं तो ऐसा न कीजिये । सजा दोषियों को देनी चाहिये, भर्त्सना दोषियों की होनी चाहिये और न्याय की माँग होनी चाहिये चाहे अन्याय कहीं भी हुआ हो, किसी ने भी किया हो ।

घुघूती बासूती

यदि साड़ी, दुपट्टा, आँचल ना होता,

यदि साड़ी, दुपट्टा, आँचल ना होता,
यदि, चूड़ी, सिन्दूर, मंगलसूत्र ना होता,
यदि करवाचौथ, छलनी, चाँद न होता,
तो हिन्दी फिल्मों का क्या होता ? एक लेख, एक चिन्ता ।

‘मेरी दुनिया है माँ तेरे आँचल में’ । क्या सुन्दर गीत था और क्या गजब आवाज ! अभी भी मुझे टेबल टैनिस के खिलाड़ी नील की आवाज याद आती है और याद आता है हम जैसे नौसिखिया किशोर खिलाड़ियों का उन्हें मंत्रमुग्ध हो सुनना । बचपन में तीन या चार वर्ष की उम्र में एक फिल्म देखी थी, नाम तो याद नहीं, परन्तु उसका लगभग अन्तिम दृष्य अभी भी आँखों के सामने आ जाता है, नायिका समुद्र की ओर शायद आत्महत्या करने के विचार से जा रही है, साड़ी का लम्बा आँचल तेज हवा में उड़ रहा है । दृष्य बेहद उद्वेलित करने वाला था । अब सोचती हूँ कि यदि वही नायिका जीन्स/ट्राउजर्स, टीशर्ट में होती तो क्या उतनी ही सहानुभूति पाती ? यदि पाती भी तो क्या अभी भी मेरे स्मृतिपटल पर यूँ अंकित होती ?
‘हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का’ को कौन भूल सकता है ?

हमारे जमाने की फिल्मों में जैसे ही किसी के पति की मृत्यु होती थी, स्त्री के आँसू बाद में पोछे जाते थे, चूड़ियाँ बड़ी फुर्ती से पहले तोड़ दी जाती थीं । कभी समझ नहीं आया कि आराम से उन्हें उतार क्यों नहीं दिया जाता था । उसकी बिन्दी पोछ दी जाती थी (तब स्टिकर बिन्दियाँ शायद नहीं चली थीं) ।
सिन्दूर व मंगलसूत्र जहाँ स्त्री की परम उपलब्धि माना जाता था, वहीं यही सभी नाजायज विवाहों की जड़ भी होता था । किसी मन्दिर में जाकर मंगलसूत्र पहना दिया और चुटकी भर सिन्दूर डाल दिया और हो गया एक समाज व कानून की दृष्टि में अमान्य विवाह ! मंगलसूत्र का एक और भी जबर्दस्त उपयोग होता था । आँखों में आँसू लिए काँपती आवाज से जब स्त्री अपना मंगलसूत्र बेचने जाती थी तो यह बताने की आवश्यकता नहीं रह जाती थी कि उसका पति बीमार है और घर में एक पैसा नहीं है। बदमाश, लफंगा, शराबी, जुआरी पति एक झटके में अपनी असहाय, पतिव्रता पत्नी के गले से मंगलसूत्र निकालकर बेचने को ले जाता था और पत्नी अपने सूने गले को पकड़े बिसूरती रह जाती थी ।

कभी किसी दुखी नवविवाहिता को दिखाना हो तो वह सजधजकर करवाचौथ का व्रत रखे पति की प्रतीक्षा कर रही होती है और पति कहीं और रंगरेलियाँ मना रहा होता है । (मुझे लगता है ‘साहिब बीबी और गुलाम’ एक बहुत ही क्रान्तिकारी सी फिल्म रही होगी, जहाँ नायिका बहुत ही जल्द सजने सजाने का कार्यक्रम बन्द कर अपना दुख कम करने के लिए एक नया रास्ता अपनाती है ।)

कहने का तात्पर्य यह है कि इन चिन्हों के बाद कहानी में क्या हुआ/क्या हो रहा है, एकदम साफ हो जाता था । जैसे कि केमिस्ट्री में हर ऍलीमेन्ट का एक सिम्बल/ चिन्ह होता है वैसे ही ये चिन्ह भी होते थे ।
मुझे आज के फिल्म निर्माताओं पर बहुत दया आती है, वे ये सब चिन्ह इतनी सरलता से उपयोग नहीं कर पाते । उन बेचारों को गाकर, नाचकर, आइटमगर्ल लाकर यही बातें बतानी पड़ती हैं । कभी कभी तो यह सब करने के बाद भी देखने वाला सोचता रह जाता है कि वह क्या देखकर आया है ।

घुघूती बासूती

Monday, October 29, 2007

मुझे स्त्रियों की कहे जाने वाली पत्रिकाएँ पसन्द नहीं

कई कारण हैं कि मुझे स्त्रियों की कहे जाने वाली पत्रिकाएँ पसन्द नहीं हैं ।

१ एक तो यह है कि हिन्दी में वे पत्रिकाएँ तीन या साढ़े तीन प्रान्तों को छोड़ सब जगह मिल जाती हैं । सो हमारा ये रोना रोते ही कि हिन्दी का कुछ नहीं मिलता यहाँ, वे हमारे सामने कर दी जाती हैं ।

२ उन्हें पढ़कर हमें अच्छी गृहणी बनने का रोग जकड़ना शुरू कर देता है ।

३ इतनी सारी खाने की चीजें व उनकी विधियाँ दिखाकर हमारा वजन बढ़ाया जाता है । पति के मुँह में भी पानी आ जाता है और कई बार इसी से मधुमेह की शिकायत बढ़ जाती है ।

४ तरह तरह के वस्त्र दिखाकर और आमतौर पर भयंकर से रूप में दिखाकर हमें कपड़ों की खरीददारी से ही डरा देती हैं । उन्हें देख लगता है जो हैं वे ही बेहतर हैं ।

५ आमतौर पर बताया जाता है कि कैसे सास ससुर, जो अब नहीं हैं, से अच्छे सम्बन्ध बनाए जा सकते हैं । कई बार तो हमें अच्छे सम्बन्धों का इतना लोभ हो जाता है कि बस जल्द से जल्द ऊपर जाकर सम्बन्ध सुधारने का जबर्दस्त मन होता है । यहाँ ध्यान दिया जाए कि हमारा घर इकमंजिला है ।

६ उनमें अपने को सुन्दर बनाने के इतने फॉर्मूले होते हैं जितने शायद ओर्गेनिक केमिस्ट्री, इनॉर्गेनिक केमिस्ट्री,व बॉइकेमिस्ट्री में भी कुल मिलाकर ना हों । किसे अपनाएँ व किसे छोड़ दें हमारे जैसे समतावादी के लिए निर्णय कठिन हो जाता है ।

७ एक और समस्या भी है , यहाँ सब्जी भाजी वैसे ही कम मिलती है और फल तो मिलते ही नहीं । अंडे भी १५ कि. मी . दूर से मंगाने पड़ते हैं । अब यदि इन सब को अपने पर कूट पीस कर चिपड़ लूँ तो खाएँगे क्या ?

८ पति पत्नी के लिए एक दूसरे को खुश रखने के १० नायाब तरीके पढ़ने से ही आमतर पर हमारे झगड़े होते हैं । गौर किया जाए कि अन्यथा नहीं होते ।

९ गर्मियाँ आते से ही दर्शनीय स्थलों , पहाड़ों, यहाँ, वहाँ सब जगह घूमने के बारे में बताया जाता है, जिससे महीना भर तो हमें पहाड़ की नौराई लग जाती है । करीब दस दिन गुस्सा आता है , २० दिन उदासी में बीत जाते हैं । शेष दस महीने यह निर्णय करने में बिताते हैं कि अगली गर्मियों में कहाँ कहाँ नहीं जाएँगे ।

१० दसवाँ और सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि इन पत्रिकाओं, विशेषकर सौन्दर्य सम्बन्धी, याने बिना खाए फ्रिज को कैसे खाली करें वाले पन्नों की हिन्दी कुछ यों होती है हमारा मन करता है दोनों हाथों में लाल पेन लेकर बैठ जाएँ काटपीट करने । उदाहरण देखिये ....

सबसे पहले अपने फेस को कोल्ड वॉटर से वॉश कर लें । फिर लूफा से सक्रबिंग करें । ध्यान रहे कि सक्रबिंग करते टाइम खूब रबिंग भी हो जाए। इससे फेस की परफेक्ट मसाज भी हो जाएगी और स्किन हैल्दी होकर ग्लो करेगी । अब फ्रिज में से फलां सब्जी को लेकर जेन्टली सक्वीज करो । ज्यूस में .......का पल्प डाल कर स्टर करो । इसमें कॉर्न फलार मिक्स करें । अब फेस में लगाकर हाल्फ आवर छोड़ दो । जब ड्राय हो जाए तो जेन्टली कॉल्ड वॉटर से वॉश करके टॉवेल से ड्राय कर लें । अब ......लोशन से मसाज करें ।

पहले तो यह भाषा देखकर हमारा पारा सातवें आसमान पर पहुँच जाता है । फिर हम सोचते हैं कि यह सब करेंगे तो बढ़िया खाने बनाने के लिए रसोई और फ्रिज में बचेगा क्या ? यदि बच भी गया तो यह सब करने के बाद कुछ करने का समय बचेगा क्या ?

घुघूती बासूती

Wednesday, October 17, 2007

'जब थामा नहीं हाथ'

'जब थामा नहीं हाथ'
मन कितना था,जानती हो?
यदि थाम लेती हाथ तो
दिल को भी थामना होता ,
यदि थाम लेते दिल
तो हाथ कैसे थामते ?
और यदि लड़खड़ा जाती
तो कैसे दे पाते सहारा?
मैंने तो गिरकर बारबार
स्वयं उठना सीखा है ,
माथे की हर चोट को
हँसकर भूलना सीखा है ।
किसी दिन सिर पर जैसे
बन जाता है हिमालय ,
कभी अरावली बनता है
और कभी मेरे बचपन की
शिवालक की पहाड़ियाँ ,
जिन पर मैं चढ़ती थी
आज वे मेरे सिर पर
बनती बिगड़ती हैं ,
चढ़ती हैं, उतरती हैं ।
और लोग कहते हैं
जीवन में न्याय नहीं है ।
मुझे तो न्याय ही दिखता है
जितना ऊँचा चढ़ोगे उतना ही
नीचे गिरा स्वयं को पाओगे ,
जितना लम्बे होओगे उतना ही
सिर जोर से जमीन से टकराएगा ।
घुघूती बासूती

Sunday, October 14, 2007

खोया बचपन

[ उसके लिए जिसे स्थान, देश, महाद्वीप, धर्म, वर्ग का अन्तर भी मन से दूर न कर सका। कभी न देखने, न सुनने, न मिलने , न छूने के बावजूद बेटा माना है । यह उस का ही , मुझसे खोया बचपन है।]
मैंने खोया है बचपन तेरा,
मीठी बातें, नटखट हरकत, भोला चेहरा ,
झील सी आँखें, आँसू तेरे, रूप सुनहरा,
मैंने खोया है प्यारा सा बचपन तेरा ।

खेल खिलौने, आँख मिचौनी,
गिर जाना, चोट लगाना, सूरत रोनी,
देर से सोना, देर से उठना, कॉपी खोनी,
पैर पटकना, हाथ झटकना, बातें अनहोनी ।

दूध न पीना, सूप न पीना,
खूब रूठना, खूब मनाना, न खाना खाना,
छत पर चढ़ना, पेड़ पर चढ़ना, सबसे लड़ना,
खूब भगाना, खूब सताना, हाथ न आना ।
घुघूती बासूती

Friday, October 12, 2007

अहमदाबाद में चिट्ठाकार भोज !

अहमदाबाद में चिट्ठाकार भोज !
अहमदाबाद में गुजरात के न जाने कितने पकवानों से निधि जी ने हमारे चिट्ठाकार मिलन को चिट्ठाकार भोज बना दिया । ढोकले ही इतने प्रकार के थे कि हम तो चकरा गये । बहुत से
व्यंजन हमारे लिये नये थे । सो नामकरण तो हो गया अहमदाबाद में चिट्ठाकार भोज !

संजय जी ने दिशा निर्देश बहुत सही दिये थे किन्तु मुझे व मेरे ड्राइवर को बड़े शहरों में खो जाने की आदत है । सो कुछ देर से ही हम पहुँचे । संजय जी व अफलातून जी से तो दिल्ली में मिल चुकी थी , यहाँ अफलातून जी की पत्नी स्वाति जी से भी मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । पंकज बेंगाणी जी, योगेश शर्मा जी , रवि कामदार जी,अभिजीत चक्रवर्ती जी एवं अफलातून जी के मित्र सुरेश जी से मिलना हुआ ।
वातावरण कुछ ऐसा था कि लगा ही नहीं कि हममें से बहुत से पहली बार मिल रहे हैं । संजय जी व पंकज जी बहुत सहज ढंग से मेजबानी कर रहे थे। राजनीति व समाजसेवा में मेरा ज्ञान अज्ञान ही कहला सकता है । सो मैं सुनती रही और बीच बीच में अपने अज्ञान को भी दर्शाती रही । स्वाति जी, जिनका ज्ञान मुझसे बहुत अधिक है और जो इन गतिविधियों से जुड़ी हुई हैं, की चुप्पी और मेरी बीच बीच में की गईं टिप्पणियाँ मुझे बार बार याद दिला रहीं थीं कि थोथा चना बाजे घना । खैर, मैं इस कहावत को झुठलाना नहीं चाहती थी सो बजती रही । और जहाँ तक बजने का प्रश्न है हमने खाँस खाँस कर सबके कानों को क्षति पहुँचाई और इसके लिए क्षमा भी नहीं माँग पाई ।

अगली पीढ़ी के हिन्दी प्रेम को देख खुशी हुई । सबसे अच्छी बात यह है कि बहुत से लोग जो कम्प्यूटर से जुड़े हैं उन्हें हिन्दी से लगाव है । सुरेश जी व अफलातून जी दूर दराज के इलाकों के उत्थान की बातें करते रहे । मुझे एक ही प्रश्न अधिकतर परेशान करता रहा कि जिन लोगों के विचारों या भाषा से हम सहमत नहीं हैं , उन्हें दायरे से बाहर रख हम क्या सही कर रहे हैं ?
इसका उत्तर मुझे नहीं मिला । अभी भी खोज रही हूँ ।

अचानक निधि जी पकवानों की सुगन्ध के साथ प्रकट हुईं तो फिर वह सुगन्ध हमें भोजन की ओर खींच ले गई । यदि हमें पता होता इतने प्रकार का माल मिलेगा तो हम दो चार दिन उपवास करके जाते ! खैर डटकर खाया और वजन बढ़ाया ।

अब हम बैठक को समाप्त करते हुए अफलातून जी के पिताजी श्री नारायण देसाई जी के अभिनन्दन के लिए चल पड़े । उन्हें ज्ञानपीठ की ओर से गुजरात विद्यापीठ, जिसके वे कुलपति हैं, में मूर्तीदेवी पुरुस्कार दिया जाना था । दो राज्यपाल व एक भूतपूर्व राज्यपाल इस समारोह में सम्मिलित थे । उनका व्यक्तित्व व सारे परिवार की सादगी मन को छू गई । यदि कोई गाँधी जी के रास्ते पर चलकर जीवन जी रहा है तो वे नारायण देसाई जी ही हैं ।

बाहर पुस्तकों का एक स्टॉल लगा था तो हमने सोचा कि अवश्य ही वे नारायण जी की लिखी पुस्तकें होंगी । किन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं था । यहीं पर प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आबिद सूरती जी से भी भेंट हुई ।
अगले दिन स्टेशन पर मैंने गुजराती का अखबार खरीदा । उसमें हम जैसे अनाड़ियों के मिलन की तो खबर थी पर गुजरात को गौरान्वित करने वाले लेखक , समाज सुधारक के विषय में मुझे कुछ नहीं मिला । मन यह सोच रहा था कि बुकर प्राइज की तो भारत में भी धूम मचती है किन्तु अपने पुरुस्कारों की चर्चा भी नहीं । इस मानसिकता को क्या कहा जाए ? प्रति दिन टाइम्स औफ इन्डिया में मुखपृष्ठ पर किसी विदेशी मॉडेल या अभिनेत्री की तसवीर तो छपती है , पर जिन पर राष्ट्र गौरव कर सके उनकी नहीं ।

कुल मिलाकर दिन बहुत अच्छा बीता । अभिजीत जी, संजय जी व पंकज जी ने बहुत सहायता की और बहुत ही अपनत्व भरे वातावरण में मैंने उनसे विदाई ली । उन्हें बहुत बहुत धन्यवाद ।

हैदराबाद से घर पहुँचे अभी २४ घंटे ही हुए हैं और मैंने एक पैबंद लगा सा लेख लिख ही दिया ।
मेरी निधि जी से प्रार्थना हे कि अगली बार यदि सर्दियों में मिलें तो केवल ऊँधिया व बाजरे की रोटी खिलाएँ । और वे मिलन में उपस्थित रहें ।

धन्यवाद निधि जी, संजय जी ,पंकज जी व अभिजीत जी !

घुघूती बासूती

Monday, October 08, 2007

इन्तजार

आँखों में नींद नहीं
है किसका इन्तजार
मन में चैन नहीं
क्यों हूँ बेकरार
कोई भी तारा नहीं
क्यों है अन्धकार?
न कहीं है चन्द्र मेरा
न उसकी कहीं प्रभा
बादलों ने यूँ मानो
ढका है आकाश को
ढक दिया है जैसे
मेरे ही मन आकाश को ।
शायद चन्द्र यों छिपा
बचने को मेरे प्रश्न से
जानता है प्रति निशा
होगा उसका मुझसे
मेरी बाट तकती आँखों
व मेरे प्रश्नों से सामना ।
जानता वह नहीं यह
बंदी वह फिर भी रहेगा
चाहे कितना वह भाग ले
मेरे मन में जब बस गया
तो कैसे वह मुझसे दूर है
बंद मेरी आँखों में चन्द्र है ।
नित पूछूँगी वही प्रश्न उससे
चाहे कितना भी वह टाल दे
बादलों को मैं बोल दूँगी अब
ना उसको यों परदे में छिपा
लुका छिपी तो बहुत हो गई
अब कुछ अपना उत्तर भी बता ।
सोचती हूँ चन्द्र से क्या
कोई और भी कभी करता
इतने सारे अन्तस के प्रश्न
या मैं ही हूँ इक बांवरी
जो नित जिज्ञासा लिए
करती रहती हूँ इन्तजार ।
घुघूती बासूती

Thursday, October 04, 2007

यदि बनाया होता मुझे किसी भगवान ने

यदि बनाया होता मुझे किसी भगवान ने
मुझे किसी भगवान ने नहीं बनाया,
यदि बनाया होता तो सम्पूर्ण होती
निर्दोष होती ,उत्तम होती ।
या फिर वह भगवान ही सम्पूर्ण नहीं है,
शायद मुझ पर व तुम पर वह अभ्यास कर रहा है,
और इक दिन जब वह निर्दोष बनेगा ,
तब हमारे इस संस्करण को वह रद्द कर देगा ।
तब वह मनुष्य का एक नया संस्करण बनाएगा ।
उसने बनाया होता तो न जलती मैं उसकी ही धूप में
न ठिठुरती जाड़ों की रातों में पीड़ित हो उसके हिम से
होती न इतनी असहाय जन्म से लेकर मरने तक
एक चमक होती,
पीड़ा न होती तन में
और न होती कसक मन में,
न होते आँसू आँखों में,
वहाँ बस मरना भी कुछ ऐसा न होता
दीन- हीन- करुण ।
न शरीर ऐसा होता
जिसे शीघ्रातिशीघ्र करना पड़ता आग या भूमि के हवाले ।
वह तो शायद कुछ ऐसा होता,
जो मरने पर इक पुफ़ के साथ
बन जाता राख का इक ढेर,
या बन जाता इक ढेरी भर खाद ।
न होती इतनी अपूर्ण मैं
न होती इतनी असुरक्षित
यदि बनाया होता मुझे किसी भगवान ने ।

घुघूती बासूती

Friday, September 28, 2007

चकराये मित्रों के नाम

समीर जी, पूनम जी,संजीत जी व प्रभाकर जी,मुझे बहुत शर्मिंदगी है कि मैने अपनी 'उड़ने की चाहत' नामक कविता से आप सब को परेशान किया व चकरा दिया। पर खुशी भी है कि इस बहाने आपने यह कविता पढ़ तो ली। बात यह हुयी कि मेरे ब्लौग में यह पहली कविता थी और तब मुझे अपनी रचनाओं को लेबेल करने के बारे में पता नहीं था। कुछ मित्रों ने मेरी सब कविताएँ पढ़ी पर जिनमें लेबेल नहीं था वे नहीं पढ़ी। सो मैंने सोचा कि लेबेल कर दूँ और जब यह किया तो मेरी सबसे पहली पोस्ट यहाँ भी आ गयी। अत: आपको पुरानी टिप्पणियाँ पढ़नी पड़ी और चकरा गये।अब लगता है यह लेबेल अभियान बन्द करना पड़ेगा । घुघूती बासूती

Tuesday, September 25, 2007

कविता : उड़ने की चाहत

उड़ने की चाहत

बन घुघुती जीना चाहा,
आज बन गयी पिंजरे की चिड़िया ,
पंख फैला गगन में उड़ना चाहा,
पर पंख हिलाना भूल गयी।

चाहा था आकाश में उड़ना
पर धरा की धूल बन गयी,
सोने के पिंजरे में रह कर
चांदी के दाने आहार मान गयी।

इतने वर्ष कैद में रहकर
जब मैंने फिर उड़ना चाहा,
रत्नजड़ित पंख ये मेरे
अब तो उड़ना भूल गये।

टकटकी लगाये मेरी आँखें
हर समय तकती रहती नभ को,
शायद आए मेरा पक्षी साथी
और सिखाए फिर से उड़ना।

आखिर एक साँझ
जब सारा आकाश,
चमक रहा था
सूरज कीअंतिम किरणों से।

मैंने देखा इक पक्षी
दूर गगन में मंडराता,
मेरी ही चाहत में वह
लगता था उड़ता जाता।

उसकी आँखों का केन्द्र थी मैं
उसकी चाहत का अंत थी मैं,
सोचा अब तो वह आयेगा
उड़ना फिर से मुझे सिखायेगा।

उड़ निकलूँगी उसके साथ
फिर उड़ान के सपने होंगे,
फिर गगन चूमूँगी उसके साथ
दूर उँचाइयों में हम वह होंगे।

सोचा पंछी ही जानेगा
इक दूजे पंछी का दुख,
फिर से मेरा मन जानेगा
इक साथी संग उड़ने का सुख।

देखा वह मुझे तकता
आ रहा है मेरी ओर,
मेरे इस बन्दी हृदय में
हो रहा था धड़कनों का शोर।

सोचा फिर से मैं चहकूँगी
गाऊँगी मैं गीत हजार,
सोचा फिर से मैं महकूँगी
उड़ गगन में बारम्बार।

फिर से खाऊँगी फल काफल का
फिर से पीऊँगी जल स्रोतों का,
देवदार की ऊँची डाली
नीचे होगी हरियाली।

चुन चुन नीड़ बनाऊँगी
चीड़ के कोमल पत्तों का,
झूम झूम जाऊँगी
सुन निनाद झरनों का।

कैसी तृप्ति देगी
हिमालय की शीतल बयार,
दूर तक दृष्टि देखेगी
पहाड़ी पुष्पों की बहार।

इन सपनों में खोई थी मैं
जागी आँखों सोई थी मैं,
इतने में वह आया
जो था मेरे मन भाया।

खुला हुआ था पिंजरा मेरा
बाहर मैं निकल आई,
पंखों की बाँहें
मैंने थीं फैलाईं।

उसको देख यूँ लगा
कबसे ढूँढ रहा वह मुझको,
उसके जीवन का उद्देश्य ही
इक दिन था पा लेना मुझको।

जाने कबसे घुटी आवाज
जैसे मैंने फिर से पाई,
पाकर उसको अपने आगे
इक बार मैं चहचाई।

आँखों से मिली आँखें
मैं आगे बढ़ती आई,
मन मैं हुई गुदगुदी
चोंच चोंच से टकराई।

पर यह क्या?
पंजे उसके मुझे पकड़ रहे थे
बन्धन उसके मुझको जकड रहे थे,
उसकी खूनी आँखों में मैने देखा काल
भय से मन था मेरा बेहाल।

फिर से देखा मैने उसको
फिर जाना यह राज,
मुक्ति जाना था मैने जिसको
वह तो निकला इक शाहबाज।

हाय विधि की विडम्बना
थी कितनी क्रूर,
देखे मैने थे जो सपने
हो गये सब चूर।

आखिर ले उड़ा वह
मुझे दूर गगन मे,
सहमी हुइ थी मैं
फिर भी मुसकाई मैं मन में।

माना यह था मेरा अंत
माना यह थी मेरी अन्तिम उड़ान,
किन्तु फिर से थी मैं गगन मे
पूरा हुआ था उड़ने का अरमान।

कल थी मैं पिंजरे की बन्दी
आज ना बन्दी कहलाऊँगी,
कल थी मैं धरा की कैदी
आज गगन में मर जाऊँगी।

यह थी मेरी अन्तिम यात्रा
यह थी मेरी अन्तिम उड़ान,
उड़ने की चाहत में मैंने
दे दिया था अपना जीवनदान।

अब ना था मेरा मन घबराता
अब ना था आतुर मन बेहाल,
बंद कर ली मैंने आँखे अपनी
देख अन्तिम बार सूरज लाल।

धन्यवाद ओ मेरे भक्षक
धन्यवाद ओ शाहबाज,
मुक्ति की चिर चाहत
जो तूने पूरी कर दी आज ।

घुघूती बासूती

Thursday, September 13, 2007

ब्लॉगर्स मीट? नहीं, नहीं ! हम तो ब्लॉगर्स सब्जी/ ऊँधिया करेंगे !

ब्लॉगर्स मीट? नहीं, नहीं ! हम तो ब्लॉगर्स सब्जी/ ऊँधिया करेंगे !
हिन्दी चिट्ठाजगत इतना माँसाहारी क्यों होता जा रहा है ? जब देखो मीट ! अरे भाई, कभी तो सब्जी, दाल, कढ़ी आदि भी कर लिया करिये । नहीं तो पुलाव ठीक रहेगा । माँसाहारी अपने मीट के साथ और हम अपने मटर पनीर के साथ उसे खा लेंगे ।
हमारा गुजरात तो वैसे भी लगभग शाकाहारी है। देखना जब हम यहाँ मिलेंगे तो उसे मीट नहीं कहेंगे । उसे यहाँ का प्रसिद्ध ब्लॉगर्स ऊँधिया ही कह लेंगे पर मीट तो कतई नहीं कहेंगे । अन्डा करी तक तो हम बर्दाश्त भी कर लेते , पर मीट ! राम राम ! गाँधी की जन्म भूमि में इतनी हिंसा ! हम तो रोज यही भजन करते हैं .. “वैष्णव जन तो तैके कहिये जो पीर बकरे की जाने रे ।“
अगली बार जब कोई मीट करिये तो एक बकरे के मैमने को भी बुला लीजियेगा । उसकी मैं मैं से आपका माँसाहारी , हिंसक मन भी पसीज जायेगा ।
शीघ्र ही आपको एक चिट्ठाकार ऊँधिया का वर्णन देने का वादा रहा ।
घुघूती बासूती

Tuesday, September 11, 2007

थक गयी है सीता

 

 

थक गई हूँ
थक गई हूँ सीता बन अग्नि परीक्षा देते देते
थक गई हूँ मैं सती सावित्री बन जीते जीते ।
कितना भागी यम के पीछे
सत्यवान को छुड़ाने के लिए

कितना गिड़गिड़ाई सत्यवान
को वापिस लाने के लिए ।
थक गई हूँ कर हर पल राम का अनुसरण
कुछ पल डगर मुझे अपनी चुनने दीजिये ।
कितना तड़पी इक युग भर
शापित अहिल्या शिला बनकर

कितनी प्रतीक्षा की राम की
पत्थर बनी उसकी डगर पर ।
थक गई हूँ शापित शकुन्तला बनकर
अब कुछ पल श्राप मुझे देने दीजिये ।
थक गई हूँ मन्दिरों में मूर्ति बन

कुछ पल पूजा तुम मेरी छोड़िये
थक गई हूँ रिश्तों के बोझ ढोकर
कुछ पल बेलगाम मुझे छोड़िये ।
थक गई हूँ पूज्या बनकर जीते जीते
अब केवल व्यक्ति मुझे बनने दीजिये ।

माँ, बहन, बेटी ,पत्नी ,सखी और प्रेयसी
कितने रूप में जग में जानी गई हूँ मैं
किन्तु हर रूप में रह गई कुछ प्यास सी
पाया बहुत कुछ पर खो गई खुद ही मैं ।
थक गई हूँ हर समय जीकर

औरों के लिए
अब कुछ पल स्वयं के लिए भी जीने दीजिये ।

- घुघूती बासूती

Monday, September 10, 2007

मुझे किसी मुसलमान ने धोखा नहीं दिया

 

    ललित जी , जो सन्देह आपको हो रहे हैं, वे निराधार हैं । कायदे से मुझे अपने पहले चिट्ठे पर आपकी टिप्पणी .....का उत्तर देना चाहिये । किन्तु मेरे ७ सितम्बर के चिट्ठे पर दी गई आपकी टिप्पणी अधिक विस्फोटक व हानिकारक है । हम स्त्रियाँ तो बहुत कुछ सुनने की आदी हो गईं हैं व हमारे अहम् को चोट नहीं लगेगी , ना ही स्त्री पुरुष के बीच आपकी टिप्पणी से वैमनस्य जन्मेगा । किन्तु मेरे ७ सितम्बर के चिट्ठे पर दी गई आपकी टिप्पणी दो धर्मों के बीच दुराभाव जगाने का यह काम कर सकती है । सो मुझे बहुत ही विषम सी स्थितियों व समयाभाव में भी आपकी बात का ऊत्तर देना ही होगा । क्योंकि यह विषयुक्त टिप्पणी मेरे लेख पर आई इस लिये इसका उत्तर देना मेरा नैतिक कर्त्तव्य है ।

    देखिये , देखिये , मेरा जन्म पंजाब में जहाँ हुआ था । वहाँ एक भी मुसलमान बाँकी नहीं बचा था । कुछ  समय रहते पाकिस्तान चले गये थे व बाकी आजादी के बाद चले गए,या मारे गए । वहाँ पाकिस्तान से आए वे हिन्दु व सिख भी थे जो अपना सबकुछ व अपने प्रिय जनों को लुटाकर वहाँ आए थे। सो किसी भी एक समुदाय को दोष देने के मैं विरुद्ध हूँ । मेंने अपने बचपन में उनकी कहानियाँ भी सुनी हैं जिन्होंने लुट-पिट कर भारत     आकर मेहनत मशक्कत कर एक नया संसार बसाया था , दुबारा विवाह किया था और सालों बाद पहला पति या पत्नी ढूँढता हुआ आ गया या गई । सोच सकते हो उस स्थिति को ? व्यक्ति रोए या खुश होए ? मैंने पति से कारखाने के, उस बंद कमरे के ४० वर्ष बाद ताले को तोड़कर खुलने की बात भी सुनी है, जहाँ सन्दूकों में मुसलमान परिवारों के कपड़े थे। काले पड़े गोटे के दुपट्टे , बच्चों के छोटे छोटे कपड़े , टोपियाँ , कुर्ते पजामें ! जो सब ४० साल से अपने पहनने वालों की प्रतीक्षा कर रहे थे । वे पहनने वाले जो कभी लौट कर नहीं आएँगे । जिन्हें जाने वाले वापिस आने की आस में छोड़ गए थे ।

    हाँ , ललित जी सोचते हैं कि मुझे किसी मुसलमान ने धोखा दिया । देखिये , मेंने जीवन में पहली बार किसी मुसलमान को ८ वर्ष की आयु में देखा था । ११ वर्ष की आयु में पिताजी की वापिस बदली होने के बाद, फिर कभी न कक्षा में, न खेल में, कहीं भी जहाँ तक मुझे याद है किसी मुसलमान को अपने विवाह तक देखा । ८ से ११ वर्ष की आयु में भला कोई साथी मुझे क्या धोखा देता ?

    मेरा जीवन के पहले मुसलमान बच्चे को देखना भी एक ऐसी घटना थी जिसे याद कर मैं आज भी अपनी मूर्खता या अबोधता पर हँस पड़ती हूँ । पिताजी की बदली मध्य प्रदेश में हुई । मैं खेलने बाहर निकली तो जो पड़ोस के बच्चे मिले उनके नाम मेरे लिए विचित्र थे। एक मुझसे काफी बड़ी लड़की ने अपना नाम किश्वर बताया , उससे बड़ी दीदी ने महमूदा , मेरे से ३ वर्ष बड़े ने घर का नाम बच्चन और स्कूल का एहसान अली , बहुत बड़े भाई साहब ने गुड्डन आदि बताया । ये नाम मेरे लिए अनोखे थे । मुझे अचरज में पड़ा देख गुड्डन भाई ने बताया कि वे मुसलमान हैं । मैं आश्चर्य से उन्हें देखती रही और अभी आई कहकर घर भाग गई । काम में व्यस्त माँ को हिला हिलाकर बोला ..माँ मुसलमान तो बिल्कुल हमारे जैसे होते हैं । माँ बोली तो और कैसे हो सकते हैं । हम उनके जैसे वे हमारे जैसे , जाओ खेलो , सब एक जैसे होते हैं । बाद में माँ ने अपने बचपन व बाद के जीवन में आने वाले मुसलमान पड़ोसियों व सहेलियों के बहुत से किस्से सुनाए । रोज हम बच्चे मिलकर खेलते , एक दूसरे के घर भी जाते । विवाह के बाद न जाने कितने मुसलमानों से हमारी दोस्ती हुई , कितने धर्मों के बच्चों को मैंने पढ़ाया ।

    विवाह के बाद मैं हमारी एक मुसलमान ताईजी से मिली जिन्होंने हमें बहुत स्नेह दिया , जिनके लिए हम साऊदी अरब से जमजम पानी और कफन का कपड़ा लाए , जो उनकी माँग थीं । ताऊजी ने दंगों के समय अपनी स्त्री मित्र यानि ताईजी के परिवार की रक्षा की थी । उन्हें भारत पाक सीमा तक छोड़ने गए थे । कुछ ही समय बाद ताईजी ने अपने परिवार को छोड़ भारत आ ताऊजी से विवाह की इच्छा व्यक्त की थी और ताऊजी एकबार और सीमा पर जा अपनी भावी पत्नी को ले आए थे ।

   जिससे प्रेम किया वे ही मेरे पति बने, मेरी स्वयं की पसन्द के हैं , भाई की मैं बहन हूँ , पिता को तो किसी को धोखा देना नहीं आता था । आपकी तरह मैं भी कुछ बुरे लोगों,नर व नारी दोनों के विषय में जानती हूँ । मुझे किसी पुरुष से कोई शिकायत नहीं है । केवल एक सुन्दर बराबरी के समाज की कल्पना भर करना चाहती हूँ , जहाँ स्त्रियाँ ना पूजी जाएँ ना दुत्कारी जाएँ । न हमें देवी बनना है न प्रतिमा, केवल व्यक्ति बनकर रहना है । क्या यह बहुत बड़ी माँग है ? बताइये ललित जी !

घुघूती बासूती

Friday, September 07, 2007

स्त्रियों के मुद्दे पर : कुछ उत्तर, कुछ और प्रश्न !

 

 [ ललित जी को भी उत्तर दिये जाएँगे धीरे धीरे ! बात निकली है तो दूर तलक जायेगी। 

यह मेरा काफी समय पहले लिखा लेख है । शायद काफी लोगों को स्त्री के स्त्री का शत्रु होने का रहस्य या कहें कारण , यहाँ मिल जाएँगे । ]

       हमने व हमारे समाज ने क्या गलतियाँ की हैं और क्या गलतियाँ अभी भी करे जा रहे हैं इसका कुछ कुछ परिणाम तो हमें वर्तमान में देखने को मिल रहा है, किन्तु भविष्य इन परिणामों को बहुत विकराल रूप में हमारे सामने प्रस्तुत करेगा । जब तक यह परिणाम हमारे इस मूल रूप से अन्धे समाज को भी दिखने लगेगें, तब तक बहुत नहीं तो काफी देर हो चुकी होगी । समस्याएँ बहुत हैं व अधिकतर हमारी अपनी बनाई हुई ही हैं ।

     इस  समय मैं भारतीय समाज में स्त्रियों के स्थान , भ्रान्तियों व उनसे उत्पन्न होने वाली हानियों कि चर्चा कर रही हूँ । आज तक इन सबसे मुख्य व प्रत्यक्ष रूप से केवल स्त्रियों को हानि होती थी । अतः हमारा समाज , जो कि मुख्य रूप से पुरुषों के लिए ही बना है, जहाँ का धर्म, संस्कृति , कायदे कानून, सब कुछ पुरुषों के हितों को ही ध्यान में रखकर बनाए गए हैं , चैन की नींद सो सकता था व अपने घर का कचरा कालीन के नीचे दबा सकता था । यहाँ यह भी कह दूँ कि केवल भारत या एक धर्म या समाज ही नहीं सब धर्म, संस्कृति, कायदे कानून, पुरुष के हितों को देखकर बने हैं । किन्तु आज हानि व हमला पुरुष के हितों , सुख चैन, सुविधाओं पर है । उसका व उसके समाज का अस्तित्व ही खतरे में है । स्त्रियों का तो खतरे में है ही , किन्तु वह बहुत ही सूक्ष्म बात है, पुरुष व पुरुष के अस्तित्व के सामने । सो हो सकता है, पुरुषों के साथ साथ वे अन्धी स्त्रियाँ भी , जो स्त्री के अस्तित्व, उसके आदर व उसके जीवन के महत्व को नहीं मानती, वे भी जाग जाएँ क्योंकि आखिर उनके लाड़ले बेटों का भविष्य दाँव पर लग गया है ।

    हमारा इतिहास गवाह है कि स्त्री पर जब भी , जैसे भी हो सकता था, अत्याचार किया गया । कुछ पुरुषों ने किया, कुछ स्वयं शक्ति चखने के लिए एक स्त्री ने दूसरी पर किया । यह शक्ति परीक्षण वह पुरुष पर तो कर नहीं सकती हैं ,अतः जैसे ही परिवार में उसकी स्थिति कुछ सुदृढ़ होती थी, तो वह परिवार में नई आई सदस्याओं पर कुछ रैगिंग की तर्ज पर यह शक्ति परीक्षण करती हैं । बार बार पुरुष यह कह कर कि स्त्री ही स्त्री की सबसे बड़ी शत्रु है , अपना पल्ला झाड़ लेता है । किन्तु जब आपके बच्चे की रैगिंग में टाँग टूट जाए या जान चली जाए, तो आप महाविद्यालय प्रशासन को यह कह कर कि विद्यार्थी ही विद्यार्थी का सबसे बड़ा शत्रु है बरी तो नहीं कर देते । तो फिर परिवार में हुए अत्याचार से स्वयं को परिवार का मुखिया होने के नाते कैसे बरी कर लेते हो ?

    स्त्री को घर से निकाला गया , जलाया गया, मारा गया, मानसिक व शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया गया । उसे वश में रखने के लिए कभी उसे कुछ लालच दिया गया तो कभी उससे कुछ सुविधाएँ छीन ली गईं । लालच के रूप में सुन्दर रंग बिरंगे वस्त्र , आभूषण , रंगीन सौभाग्य चिन्ह व सब प्रकार का भोजन ग्रहण करने का अधिकार । दंडित करने व लाइन में रखने के लिए यही सब सुवधाएँ उससे छीन ली जाती थीं । उसे बताया जाता था कि ये सब सुख उसे तभी तक प्राप्य हैं जब तक वह अपने जीवन के आधार, अपने स्वामी, अपने पति को जीवित व प्रसन्न रख पाएगी । ये सब निर्जला व्रत उपवास इसी भय की देन हैं । वह पति व अपनी सुविधाओं व बहुत बार अपने जीने के अधिकार को बचाने के लिए भौतिक रूप से जो बन पड़ता था करती थी । किन्तु अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिए पति का जीवन कैसे भी बचाना अनिवार्य था । सो भौतिक रूप से सब कुछ करने के बाद वह अन्ध श्रद्धा की शरण लेती थी ।

      विश्वास न हो ऐसी स्थिति की कल्पना करिये जहाँ आपका जीवन एक पतली डोर से लटका हुआ हो, जीवित जलाए जाने की तलवार आपके सिर पर लटक रही हो । उदाहरण के लिए यदि आपका जीवन किसी ऐसी शक्ति के हाथ में हो जो बहुत शक्तिशाली, क्रूर , अविवेकी व तर्कविहीन हो, लकीर की फकीर हो , जिस पर किसी न्याय की गुहार का कोई प्रभाव न पड़ता हो । वह शक्ति या व्यक्ति आप से कहे कि जब तक आप के सिर पर बाल हैं आप जीवित रहेंगे और जिस दिन ये बाल झड़े, आपको जीवित चिता के हवाले कर दिया जाएगा । अब आपके लिए ये बाल प्राणों से भी अधिक प्रिय होंगे । आप एक बार खाना भूल जाएँगे किन्तु बालों की साज संवार , सफाई, व स्वास्थ्य के विषय में कभी नहीं भूलेंगे । वे बाल आपकी जान हैं, धर्म हैं , या ये कहें कि वे ही आपका जीवन हैं । अब आप जब सब तरह से उनकी रक्षा करते नहीं थकते और फिर भी देखते हैं कि समय असमय आपके मित्रों , भाइयों, चाचा , ताऊओं के बाल झड़ ही जाते हैं और ऐसा होने पर उन्हें घसीट कर चिता पर रख दिया जाता है । उनकी चीखें आपके कानों के परदों को फाड़कर आपके अन्तर्मन तक को दहला जाती हैं । सोते जागते, खाते पीते ये चीखें आपका साथ नहीं छोड़ती । तब आप आध्यात्म, अलौकिक , दैवीय, अतिमानवीय शक्तियों का भी सहारा लेने लगते हैं । आपने देखा था कि दो मित्रो के बाल तब झड़ गए जब उन्होंने खाली पेट चाय पी थी या दो और के तब जब उन्होंने अपने बालों से तंग आकर उन्हें गाली दी थी । सो अब आप खाली पेट चाय पीना छोड़ देते हैं, बालों को कभी भूले से भी गाली नहीं देते हैं । यदि कोई सुझा दे कि गले में यह हरे मोती का धागा डाल लो तो बाल अधिक समय तक टिकते हैं, सो आप वह भी कर लेते हैं । यदि कहें कि बुधवार को दाढ़ी न बनाने से बाल सुरक्षित रहते हैं तो क्या आप केवल दाढ़ी बनाने के सुख के लिए जीते जी चिता में डाले जाने का खतरा , भय, आशंका मोल लेंगे ? सो अब आप चाहेंगे कि आशीर्वाद में भी यदि कोई आपको बालवान या बालवता कहे तो बेहतर है क्योंकि आपका चिरंजीवी होना तो उनके होने पर निर्भर है । आप प्राण जाएँ पर बाल न जाएँ में पूर्ण विश्वास करेंगे । सो इसको कहते हैं कंडिशनिंग ! अब न केवल आपके चेतन मन को बालों से मोह है अपितु आपका अवचेतन मन भी बालों के प्रति मोहित है । सो अब समाज कहता है कि बालों को इतना प्रेम करना, उनका ध्यान रखना, उन्हें जान से अधिक चाहना आपका स्वभाव है । यही आपके संस्कार हैं, यही आपका धर्म है, यही आपके देश की संस्कृति है ।      बिल्कुल सही है । जिन बालों के रहते आप पलंग पर सो सकते हैं , भांति भांति के व्यंजन खा सकते हैं, रंग बिरंगे कपड़े पहन सकते हैं , सबसे बड़ी बात कि जी सकते हैं, उन बालों पर आप क्यों न बलिहारी जाएँगे । यह तो है इस जन्म की बात !

घुघूती बासूती

चर्चा चालू है । अभी नया लिखने की स्थिति में नहीं हूँ । शीघ्र ही इस विषय पर और लिखूँगी ।

Thursday, September 06, 2007

ऐसा क्यों होता है ? समाज में स्त्रियों की स्थिति पर कुछ प्रश्न ।

ऐसा क्यों होता है कि स्त्री को जन्म से पहले ही भ्रूण की अवस्था में ही मार दिया जाता है ? ऐसा क्यों होता है कि पुत्र पुत्री से अधिक प्यारा होता है ?
ऐसा क्यों होता है कि यदि साधन सीमित हों तो वे सीमित साधन केवल पुरुष को दिए जाते हैं ?
ऐसा क्यों होता है कि त्याग की अपेक्षा केवल स्त्री से की जाती है ?
ऐसा क्यों होता है कि नालायक बेटे को भी पढ़ने के लिए कहा जाता है और लायक बेटी को घर के काम काज करने को कहा जाता है ?
ऐसा क्यों होता है कि अबला नारी से नौकरी करके आने के बाद घर के सारे काम करने की अपेक्षा की जाती है और सबल पुरुष से गर्मागर्म चाय के बाद आराम की ?
ऐसा क्यों होता है कि स्त्री यदि कहे कि वह कुछ निर्णय पति से पूछ कर लेगी तो सब उसकी वाह वाह करते हैं, यदि पुरुष कहे कि पत्नी से पूछ कर बताएगा तो वह कमजोर या दब्बू माना जाता है ?
ऐसा क्यों होता है कि यदि स्त्री कहे कि उसे घर जाना है पति आ गए होंगे तो कोई उसे उलाहना नहीं देता किन्तु यदि पुरुष यही कहे तो हास्य का पात्र बन जाता है ?
ऐसा क्यों होता है कि पत्नी का कहा जरा भी मानने वाला बीबी का गुलाम कहलाता है किन्तु ऐसी किसी उपाधि से स्त्रियों को सुशोभित नहीं किया जाता ?
ऐसा क्यों होता है कि जन्म स्त्री देती है, बड़ा वह करती है किन्तु बच्चा पिता का ही कहलाता है?
ऐसा क्यों होता है कि अधिकतर झगड़ा पुरुष करते हैं, गाली भी वही देते हैं किन्तु गालियों में नाम स्त्रियों का आता है ?
ऐसा क्यों होता है कि अधिकतर युद्ध पुरुष आरम्भ करते हैं व लड़ते भी वही हैं किन्तु युद्ध की कीमत स्त्रियों को चुकानी पड़ती है ?
ऐसा क्यों होता है कि बलात्कार पुरुष करता है और अनादर स्त्री का होता है, न कि बलात्कारी का?
ऐसा क्यों होता है कि मृत्यु स्त्री लिंग है और जन्म पुल्लिंग ?
ऐसा क्यों होता है कि अग्नि स्त्री लिंग है और जल पुल्लिंग ?
ऐसा क्यों होता है कि भूख स्त्री लिंग है और भोजन पुल्लिंग ?
ऐसा क्यों होता है कि घृणा स्त्री लिंग है और प्रेम, स्नेह पुल्लिंग ?
घुघूती बासूती

Monday, September 03, 2007

सन्नाटे

सन्नाटे
सन्नाटे की चीखों ने कान मेरे फाड़े हैं
कब तक करूँ बर्दाश्त कोई बता दे मुझे
क्या कोई शब्द नहीं है इस संसार में
जो गूँजे और तोड़ डाले इस सन्नाटे को ?
पशु, पक्षी, यहाँ तक कि हवा भी चुपचाप है
भंवरे भी मेरे बाग के गाना भूले लगते हैं
तड़ित से कह रही हूँ कि वह जोर से कड़के
बादलों से कर रही निवेदन वे जोर से गरजें ।
सुन रही हूँ केवल मन में उठते विचारों को
अपनी ही साँस लगती मुझे है दहाड़ शेरों की
हृदय का धड़कना है जैसे टिकटिक घड़ियों की
नब्ज सुनाई देती है ज्यों हो थाप ढोलक की ।
ऐसे ही पलों में लोग बात खुद से करते हैं
नजरों में संसार की वे लोग विक्षिप्त लगते हैं
करके कोई तो बात इनसे देखे और ये जाने
किसने बनाया विक्षिप्त किसने दिये ये वीराने ।
.................घुघूती बासूती

Saturday, September 01, 2007

मोह गणित.......क्यों तुम आते हो

क्यों तुम आते हो


क्यों तुम आते हो जाने को
क्यों तुम जाते हो आने को


नित दिन का यह जाओ कहते
इक टुकड़ा मुझसे मेरे मुझ का


संग अपने तुम ले जाते हो
जब तुम कहते हो 'तुम हो '


उस टुकड़े का इक टुकड़ा
वापिस मुझे दे जाते हो


इतने टुकड़ों में बँट गई हूँ
कितने टुकड़े पास तुम्हारे


कितने मेरे पास बचे हैं
ना लग पाता अनुमान


शायद इस गणित के लिए
नया गणित ही रचना होगा


शायद नाम मोह गणित ही
उसका मुझे रखना होगा ।


घुघूती बासूती