अम्मा विषय के अन्तर्गत मैं कुछ माताओं के विषय में बताऊँगी जिनसे मैं बहुत प्रभावित हुई ।
आज की माँ को मैं अम्मा १ का शीर्षक दे रही हूँ ।
मुझे दिल्ली से एक महत्वपूर्ण काम से अपनी पुत्री के साथ उत्तर प्रदेश के एक बहुत पुराने शहर जाना
था । विवाह के बाद से कहीं भी अकेले जाना छूट गया था । जब एक जगह से दूसरी जगह बदली होती तो पति व बच्चों के साथ जाती थी । किसी आस पास के शहर जाना होता तो ड्राइवर के साथ कार में जाती । यदि रूकना पड़ता तो कम्पनी के गेस्ट हाउस में रुकती । यह विश्वास नहीं होता था कि ये वही मैं हूँ जो हॉस्टेल से घर आने के लिए स्वयं टिकट लेने जाती थी । फिर एक दूसरे शहर तक बस से जाकर ट्रेन पकड़ लगभग दो दिन की यात्रा कर घर पहुँचती थी। मैं देख सकती थी कि सुख सुविधाएँ मनुष्य को किस सीमा तक नरम व भीरू बना सकती थीं ।
अब समस्या यह थी की हम रहेंगे कहाँ। अनजाना शहर, कोई जान पहचान नहीं जो ये भी बता सके कि किस होटेल में ठहरा जा सकता था । तभी पता चला की पति की तरफ के एक दूर के रिश्तेदार, या कहिये, कि रिश्तेदार के रिश्तेदार उस शहर में रहते हैं । उनसे बातचीत कर मुझे बताया गया कि हम उनके घर ठहर सकते हैं । मैं लगभग पच्चीस वर्ष के वैवाहिक जीवन में पति के सगे भाइयों व बहन के परिवार के सिवाय लगभग किसी रिश्तेदार से नहीं मिली थी ।
बहुत विचित्र सा लग रहा था कि ऐसे किसी के घर कैसे टपका जा सकता है । ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’ सी स्थिति थी । अपनी झिझक को दूर करने के लिए मैंने दो बार उनसे फोन पर बात की । ऐसा लगा कि अनजान लोगों की यह मेहमान नवाजी उनके लिए कोई नई बात नहीं थी । सो थोड़ी सी हिम्मत जुटी ।
खैर, कुछ उपहार ले हम यात्रा पर चल पड़े । स्टेशन से किसी तरह से हमने एक रिक्शा किया और आसानी से अपने गन्तव्य पहुँच गए। वहाँ पर सब हमसे इस तरह मिले मानो वे हमें पहले से जानते हों । उनकी वृद्ध माँ भी हमें बहुत प्यार से मिलीं । अभी हम अपने काम से जाने को तैयार ही हो रहे थे कि पता चला कि आज नगर बंद की घोषणा हो गई है। मेरे अनुमान से बंद का अर्थ था घर में ही चुपचाप बैठे रहना । किन्तु अम्मा बोली कि अरे कुछ नहीं होगा, बिटवा को साथ ले जाओ ।
वापिस घर पहुँचे तो उनकी पत्नी बारह लोगों के लिए अकेले भोजन बना रहीं थीं । सबका दाल सब्जी बनाने का ढंग तो अलग हो सकता है किन्तु रोटी पराँठे तो एक से रहते हैं । सो इसका जिम्मा अपने ऊपर ले हम साथ-साथ काम करने लगे । बीच-बीच में अम्मा से भी बातें होती रहीं । भोजन समाप्त कर कुछ देर सब आराम कर रहे थे । एक घंटे बाद जब सब एकत्र हुए तो अम्मा मुझे, घर की ४५ वर्षीय बहू, अपनी बेटी सबको कुछ ना कुछ काम थमा रही थीं । किसी को चावल बीनने में लगा दिया तो किसी को हरी सब्जी चुनने व काटने में, तो किसी को चटनी बनाने में । स्वयं पुराना ऊन सुलझाने बैठ गईं । मुझे यह स्थिति कुछ अजीब सी लगी ।
बहुत पुराना चौमंजिला पुश्तैनी घर था । नीचे दो संडास, दो स्नानागार, एक बैठक और एक सोने का कमरा । दूसरी मंजिल में रसोई, एक बड़ी बैठक और एक सोने का कमरा । तीसरी मंजिल में बेटे बहू का कमरा, बच्चों का कमरा और एक विराट स्नानागार, जिसमें अलमारियाँ तक थीं और पंखा भी । परन्तु यहाँ कमोड नहीं था । मैं आश्चर्यचकित कि क्या दो मंजिल उतर कर नीचे जाते होंगे । बहू बोलीं चुपचाप से यहाँ ही बने एक विचित्र कमोड, जिसे कहीं से भी कमोड नहीं कहा जा सकता था, का उपयोग करो । नीचे गईं तो फिर हर बार स्नान करना होगा । मैंने पूछा कि यहाँ क्यों नहीं बनवाया तो बोली अम्मा ने मना किया है सो कुछ ऐसा प्रबंध किया कि उन्हें पता भी न चले और काम भी चल जाए । लोगों के बारे में निर्णय लेना तो हम सब अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझते हैं । मैं समझ नहीं पा रही थी कि इतना अपनापन देने वाली अम्मा को किस श्रेणी में रखूँ ।
ऐसे ही तीन दिन बीत गए, कभी रसोई से बहू को बाहर निकलते देखा ही नहीं । हमारा भी काम हो गया था सो निकलने से पहले अम्मा को प्रणाम किया । वे बोलीं अपना आँचल फैलाओ। हमने वैसा ही किया । तो उसमें एक सूप से नारियल , चावल, गुड़, साड़ी व कुछ रूपये उन्होंने रख दिये । हम अम्मा यह सब क्या है कहते ही रह गए तो वे बोलीं कि घर से बेटी को ऐसे ही विदा किया जाता है ।
आज तक समझ नहीं पाती हूँ कि असली अम्मा कौन सी थीं, वे जो अपनी बहू, बेटी को पल भर भी खाली नहीं बैठने देती थीं, उच्च रक्तचाप वाली बहू से आशा करती थीं कि वे दो मंजिलें उतर कर बाथरूम जाएँ, फिर हर बार नहाएँ , या मुझे इतने प्यार से विदा करने वाली अम्मा ?
किन्तु जो भी हो मुझे जब भी अम्मा व उनके परिवार की याद आती है मन आत्मीयता से भर जाता है ।
घुघूती बासूती
Thursday, November 22, 2007
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एक ही व्यक्ति के व्यक्तित्व में कई रंग होते हैं; वही अम्मा जी में भी हैं। अलग अलग प्रकार के लोगों से अलग अलग व्यवहार मैने बहुत देखा है। इसलिये अम्मा बहुत सामान्य लग रही हैं - और रोचक भी।
ReplyDeleteयादों में बसी एक पुरानी दुनिया कौंध गई आँखों में..
ReplyDeleteफुल-टाइम नौकरों के साथ ऐसा व्यवहार करते मैने देखा है कुछ लोगों को कि एक मिनट भी खाली बैठने दिया तो सोच विचार प्रश्न आराम कुछ भी सम्भव है । स्व-चेतना आ जाने के बाद फिर कोई अम्मा की बात नही मानेगा ।लेज़र टाइम की अवधारणा को ही खत्म कर दो और फिर सबको अपने हिसाब से चलाओ । सारी उम्र सास-ससुर-पति-जेठ के मुताबिक चलने वाली स्त्री अगर बुढापे मे जाकर ऐसी हिटलर अम्मा बन जाए तो कोई आश्चर्य नही !!
ReplyDeleteये रिश्ते ही जीने का सबब बनते हैं. दूर बैठे बस याद आ जाती है और आखँ भर आती है.
ReplyDeleteइतना सजीव चित्रण कि जैसे हम भी वहीं हों.
सही है.. और चित्र उकेरिये.. हम लौट-लौटके आंख लगायेंगे..
ReplyDeleteये अम्मा के विभिन्न रुप है।
ReplyDeleteये अम्मा के विभिन्न रुप है। एकदम सही है.
ReplyDeleteबढ़िया लिखा आपने!!
ReplyDeleteएक महिला जिसे घर भी सुचारू रूप से चलाना है वह ऐसे ही सबको कुछ न कुछ काम सौपेंगी ही!!
रहा सवाल दो मंजिल नी्चे जाने का आदेश देने का तो जो संस्कार मिले हैं और जिंदगी भर उन्होने खुद अपने उपर लागू किया है, उसमें बदलाव इतनी आसानी से नही होने वाला!!
नोटपैड जी की बात सबसे सही है। .. जब अम्मा की बहुएं सास बनेगी तब हो सकता है कि वे और भी ज्यादा सख्त हों अपनी बहुओं के प्रति।
ReplyDeleteपढ़ कर कुछ यादें जाग उठीं.
ReplyDelete"बहुत विचित्र सा लग रहा था कि ऐसे किसी के घर कैसे टपका जा सकता है । ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’ सी स्थिति थी"
मुझे भी ऐसा ही लगता था, शायद यह बड़े शहरों में रहने का परिणाम है कि हम इस तरह सोचने लगते हैं. यहाँ विदेश में अच्छी जान पहचान हो तो भी किसी से यह पूछना या सोचना कि किसी के घर में जा कर रहेंगे, सोचा नहीं जा सकता. इसलिए जब कोई भूला भटका परिवार वाला या किसी मित्र का मित्र आ रहा हो मुझसे लोग पूछते हैं कि "क्या आप के पास ठहर सकता है", तो बहुत अच्छा लगता है.
बेहद रोचक संस्मरण लिखा है आपने घूघुती जी
ReplyDeleteआगे भी पढ़ने की कामना सह:
- लावण्या
हम ज्ञान जी से सहमत हैं। एक ही व्यक्ति के दो रूप हो सकते हैं।
ReplyDeleteमुझे ऐसी अम्माओं से कम पाला पड़ा।
ReplyDeleteघुघूती बासुती,
ReplyDeleteआपकी टिप्पणी पढ़ी, अच्छा लगा। लेकिन प्रेम में तो हमेशा से गणित जानना होता है। जाति का , संप्रदाय का ,धर्म का, समाज का। हम खुद तय नहीं करते, समाज यह तय करके देता है कि हमें कब, किससे, कहां, कितना और किस तरह से प्रेम करना है। हमारे हाथ बांध कर आंख पर पट्टी बांध कर कहा जाता है कि प्रेम करो। है कि नहीं।
गुस्ताख जी, जो आप कह रहे हैं वह भी सच हो सकता है । किन्तु मैं इसपर विश्वास नहीं करती । समाज स्वयं तो बदलेगा नहीं । कुछ भी चाहने भर से काम नहीं बनता । कुछ तो हमें भी करना ही होगा । जब तक हम जातिवाद से ऊपर नहीं उठते यह मनुष्य को मनुष्य से दूर करता रहेगा । प्रेम में यह सब आड़े नहीं आना चाहिये, किन्तु यदि आए तो भी इसका सामना करने के लिए हमें तैयार रहना चाहिये। जिनका समाज व पारिवारिक परिदृष्य इसकी अनुमति नहीं देता उन्हें भी कम से कम अपने बच्चों के लिए किसी से भी प्रेम करने का वातावरण पैदा करना चाहिये ।
ReplyDeleteसमाज हमें किसी से बाँध भी दे तो प्रेम नहीं करवा सकता । प्रेम जबर्दस्ती नहीं हो सकता । यह तो वैसा ही है कि आप घोड़े को पानी तक तो ले जा सकते हैं किन्तु उसे पानी पीने के लिए बाध्य नहीं कर सकते । हाँ , समाज की मानने से जीवन सरल अवश्य हो जाता है । ना मैंने हाथ बँधवाए न ही आँखों पर पट्टी किसी को बाँधने दी । ना ही अपने बच्चों या परिवार के किसी अन्य सदस्य को ऐसे बन्धनों में बाँधा । हमारे परिवार में बहुत से भाषा भाषी हैं । बहुत सी जातियों के लोग हैं व तीन धर्मों के भी । अलग रंग के भी । हमने घर में किसी बच्चे के विवाह करने के निर्णय करने में जाति नहीं पूछी । यदि विवाह उत्तर भारतीय से हो तब तो जाति नाम से पता चल जाती है किन्तु तीन दक्षिण भारतीयों का हमने अपने परिवार में स्वागत करते समय जाति नहीं पूछी । प्रेम कितना करिये, इसके बारे में तो मैं बच्चों से यही कहूँगी कि वह असीमित हो तो अच्छा है ।
घुघूती बासूती
बहुत ही सजीव वर्णन किया है आपने ..सही बात है एक ही वयक्ति ख़ुद में कई रुप समेटे होता है !!
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