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Monday, July 02, 2012

वर्षा तुम जल्दी आना

यह कविता जून 12, 2007 को पोस्ट की थी। इस वर्ष वर्षा के मिजाज कुछ अधिक ही बिगड़े हुए हैं। सो बारम्बार उससे बरसने की प्रार्थना करते हुए ......

वर्षा तुम जल्दी आना
फिर से काले बादल छाए हैं
जल गगरी भर भर लाए हैं,
बादल गरजे,बिजली चमके
अम्बर दमके,धरती महके ।

प्यासी धरती, प्यासी नदिया
सूखे तरू, सूखी बगिया,
सब तेरी राह ही तकते हैं
सब जल बिन आज सिसकते हैं ।

आओ वर्षा अब तुम आओ
इस सृष्टि को तुम नहलाओ,
रंग भरो तुम फिर से जग में
उमंग जगाओ रग रग में ।

आओ जब तुम तो मैं नाचूँगी
तेरे जल में बच्ची बन मैं खेलूँगी,
छत पर इक ऐसा कोना है
वहीं पर तूने मुझे भिगोना है ।

देख नहीं कोई पाएगा
जान कोई नहीं पाएगा,
तुम और मैं फिर से खेलेंगे
तेरे संगीत पर पैर फिर थिरकेंगे ।

अबकी बार ना मैं रोऊँगी
बच्चों की याद में ना खोऊँगी,
पकड़ूँगी मैं तेरे जल के चमचम मोती
ना बोलूँगी काश जो साथ में बेटी होती ।

अकेले रास रचाऊँगी मैं
तेरे जल में खो जाऊँगी मैं,
देख तेरी और मेरी क्रीड़ा
भाग जाएगी मन की हर पीड़ा ।

अबकी ना नयनों नीर बहाऊँगी मैं
बस तेरे स्वागत में लग जाऊँगी मैं,
ना जाऊँगी यादों के गलियारों में
ना भटकूँगी फिर उन राहों में ।

बच्चों को इक पाती लिख दूँगी
तुम भी नाचो वर्षा में ये कह दूँगी,
वर्षा तुम जल्दी से आ जाना
मेरे तन मन को भिगा जाना ।

घुघूती बासूती

Wednesday, March 11, 2009

आजा, मन रंग डालें मिलकर।




आजा, मन रंग डालें मिलकर।

मन कहता है, आज ये मेरा
रंग डालूँ तुझे रंगों से अपने
बैंगनी, हरे, लाल,नीले, पीले
रंगों से सजा दूँ चेहरा तेरा।

खेलूँ रंग यूँ साथ मैं तेरे
भीगे तू भी संग में मेरे
ना पहचाने जाएँ ये चेहरे
घुल मिल जाएँ तेरे मेरे।

खेलूँ होली ऐसी मैं यूँ रमकर
रंग जाए मन अन्तः भी तेरा
मैं भी रंग जाऊँ रंग में तेरे
खेलें होली दो मन जमकर।

तेरा मेरा भेद आज मिटाकर
इक दूजे की आत्मा भिगाकर
खेलें होली हम जग से हटकर
आजा, मन रंग डालें मिलकर।

छूट जाएँगे सब रंग चेहरे से
बदल जाएँगे कपड़े भी तन के
बीत जाएगा यह दिन होली का
कल हो जाएँगे सब पहले से।

भीगें जो दो मन इस होली में
सूखें नहीं कभी इस जीवन में
रंग लगाए इस बार जो हमने
छूट ना पाएँ वे कभी जीवन में।

घुघूती बासूती

सभी को होली की शुभकामनाएँ !
घुघूती बासूती

Monday, June 30, 2008

फिर से नाच रहा है मोर

फिर से नाच रहा है मोर
चिरप्रतीक्षित वर्षा ॠतु आई है,
मैंढक मिलकर शोर मचाते
ले जल काली बदरी आई है।


गरज रहे हैं बादल काले
चमक रही नभ में बिजली है,
सूर्य जा छिपा बादल के पीछे
सतरंगी रंग नभ में छाए हैं।


चिहुँक रहे हैं पंछी सारे
भंवरे भी आज बौराए हैं,
खिल रही हैं सारी कलियाँ
तितली ने रंग बिखराए हैं।


हरित प्रहरी से वृक्ष झूमते
मादक सुमन सुगन्ध छाई है,
हर मन हो रहा आज बाँवरा
सावन ने प्रणय धुन बजाई है।


रिमझिम पड़ती बौछारों से
नई कोंपलें चहुँओर उग आईं हैं,
धरती का आँचल हरा हो गया
अम्बर ने नए वस्त्र पहनाए हैं।


पंख फैलाकर मोर नाचता
मोरनी को उसे लुभाना है,
झूम झूमकर नाच नाचकर
प्रिया को आज रिझाना है।


घुघूती बासूती

पुनश्चः वर्षा पर एक और कविता .....वर्षा तुम जल्दी आना

घुघूती बासूती

Friday, June 27, 2008

पानी

डूब रही हूँ गहरे काले पानी में
गहरा,काला,गंधाता,गंदला पानी
रोके हुए हूँ साँसों को
मृत सा कर दिया है चेतना को
पकड़ रही हूँ तिनकों सा सड़े पानी को
फिसल रहा है हाथों से तिनकों सा
वही गहरा,काला,गंधाता,गंदला पानी।


परन्तु इस दशा में भी प्रश्न
वही शत्रु प्रश्न आता है मन में
क्या डूबते हुए भी
क्या बिल्कुल मरते हुए भी
नाक में भरे होने पर पानी के
क्या सूँघा जा सकता है गंधाए हुए पानी को?


शायद हाँ,या शायद ना
परन्तु मेरी तो रग रग में
भर रही है जो यह गंध
उसे तो झुटला नहीं सकती मैं।

पानी जो जीवन है
पानी जो शीतल भी है
पानी जो मुझमें व तुममें भी है
क्यों वह ही जीवन देने की बजाय
गंधाने लगता है
डुबाने लगता है
सतरंगी या बेरंगी होने की बजाय
क्योंकर वह काला हो जाता है?


इसी पानी में तो था कभी नशा कितना
इसी पानी ने कभी निखारा था मुझे
इसी पानी में कभी निहारा था मैंने स्वयं का चेहरा
यही पानी आज क्यों है विष से बुझा?


डूब तो रही हूँ
परन्तु चाहूँगी पाना डूबने से पहले
अपने सारे प्रश्नों के पानी से उत्तर
वही पानी जो कभी कलकल कर गाता था गीत कई
वही पानी जो शीतलता से लुभाता था कभी
वही पानी जो नशे में अपने डुबाता था कभी
वही पानी जो छुअन से अपनी
इक कंपन सा दे जाता था
वही पानी जो निखारता था कभी
जिसमें देख स्वयं का प्रतिबिम्ब
कभी कितना था इतराया मैंने।


आज जाते जाते, डूबते उतराते
मुझे बता दे ओ पानी,
कहाँ छिपाया था तूने यह रूप अपना?
क्यों न दिखाया यह रूप तब जब
मोहित हो समाई मैं तेरे बाहुपाश में
या फिर आज भी छिपाए ही रहता
मैं यूँ ही जी लेती भ्रांतियों में
कुछ तो बता दे मुझे मेरे जाने से पहले
क्यों सिखाया तूने मुझे पीना तुझको
क्यों बुलाया तूने पहलू में मुझे अपने?


घुघूती बासूती

Thursday, June 05, 2008

क्या प्यार ऐसा होता है ?

क्या प्यार ऐसा होता है
अंधेरों में रास्ता दिखाता
जब तुम सोचो कि तुम्हारे
पैरों के नीचे से धरती
खिसकी जा रही है
तब तुम्हारे पैरों के नीचे
अपने हाथ को रखता
सहारा देता
पीठ थपथपाता
सराहता
गुनगुनाता
जब नींद ना आए
तो लोरी सुनाता
बहलाता
सहलाता
जब तुम दर्द से
चीखना चाहो
तब होंठों पर
मुस्कान बिखराता
दर्द पर मरहम लगाता
जलते मन पर
हिम का फाहा बन
बिछ जाता
टूटे हृदय के
टुकड़ों को सहेजता
जोड़ता
नया बनाता
जब मृत्यु की चाहत हो
तब जिजीविषा जगाता
जीने के कारण गिनाता
बिखरे सपनों को
फिर से बुनता
दुःस्वप्नों में बन
एक मुस्कान है आता
आँखों में बन चमक
छा जाता
बन वर्षा की बूँदें
वीरान जीवन की
बंजर धरती पर
बौछारों सा आता
प्रेम से नहलाता
जीवन सजाता
आशाएँ छिटकाता
भटकन में
राहें दिखलाता
प्यासी आत्मा को
बन सुधा बूँदें
तृप्त कर जाता
यदि प्यार यह सब है
तो प्यार ही
जीवन का अमृत है।

घुघूती बासूती

Monday, April 14, 2008

मैं स्वप्न बेचने आऊँगा

बन स्वप्न बेचने वाला मैं
तेरे घर पर आऊँगा,
बन जोगी मैं तेरे द्वारे
दान तुझे ले जाऊँगा ।

मैं लेकर चूड़ी रंग बिरंगी
तेरे घर पर आऊँगा,
लगा गुहार, गाकर मैं
तेरा दिल ले जाऊँगा ।

मैं बन वन का सुन्दर मोर
तेरे आँगन में नाचूँगा,
नाच नाच कर मन विभोर
मैं चैन तेरा ले जाऊँगा ।

गीत निराले, प्रेम प्यार के
मैं इकतारा लेकर गाऊँगा,
बन बंजारा, प्यार बाँटता
मैं तेरे मन बस जाऊँगा ।

मैं बन नटराज तेरे संग
थिरक थिरक कर नाचूँगा,
कर अविभूत, लगा भभूत
मैं तुझे कैलाश ले जाऊँगा ।

तेरी बगिया के सुन्दर फूलों में
मैं भी इक फूल बन महकूँगा,
या बन तेरा साथी पक्षी
मैं संग तेरे ही चहकूँगा ।

मैं बन घनघोर मेघराज
करके निनाद यूँ कड़कूँगा,
प्रेमरस में तुझे भिगोने
फाड़ हृदय मैं बरसूँगा ।

मैं मस्त पवन का झोंका बन
उड़ता हुआ यूँ आऊँगा,
सहलाकर तेरे आँचल को
ले तेरी खुशबू उड़ जाऊँगा ।

घुघूती बासूती

Thursday, March 13, 2008

अकेली

खड़ी हूँ अकेली सुनसान बीहड़ में
ना किसी ओर कोई राह जाती है,
खोई हूँ ऐसे निःशब्द सन्नाटे में
ना कहीं से कोई आवाज आती है ।


पथराई आँखें ढूँढती घनघोर अंधेरे में
ना कहीं कोई प्रकाश किरण आती है,
जीवन बना है अंधा कूँआ जिसमें से
मेरी गूँज तक ना लौटकर आती है ।


सारा जीवन सजाया रेत के महल को
ना आज तो वहाँ कोई भी रहता है,
खो गए हैं महल के सारे निशान भी
यहाँ कभी कोई था, न कोई कहता है ।


अश्रुजल से भिगो भिगो सींचा जिस चमन को
आज वीरान है वह, ना कोई फल फूल लगता है,
प्रेम से बोया, संजोया जिस गुलाब के पौधे को
फूलों की क्या बात,उसमें इक काँटा ना लगता है ।


मन ने जाने कितने बुने थे स्वप्न सुन्दर से
पर आज पाया, यह तो मकड़ी का जाला है,
मन आत्मा का मंथन कर जो अमृत समझा
अब पीया तो जाना कि वह तो शुद्ध हाला है ।


प्यार के सागर में गोते खा खाकर चुने जो मोती
पिरो पिरो कर हारी पर बनती ना कोई माला है,
कामदेव का तीर समझ जिसे हँस वक्ष पर झेला
आँख खुली तो जाना वह तो विष बुझा भाला है ।


जिसे जीवन समझकर जीती रही पल पल मैं
आज जाना वह तो बस इक भ्रम ही पाला है,
सुधा समझ जिसे प्रेम से पीती रही थी अबतक
सदा से खाली ही तो रहा वह मेरा प्याला है ।


घुघूती बासूती

Wednesday, March 12, 2008

इस पल में कुछ नहीं रखा है

क्या कुछ भी नहीं बचा है
इस पल में कुछ नहीं रखा है,
मैं थी बैठी रही प्रतीक्षारत
तेरे पास ना इक शब्द बचा है ।

तेरे मेरे बीच अब आए हैं
रिश्तों के कितने बड़े चौराहे,
घूमघाम कर अबतक मेरी राहें
मीत अब दुरूह इन्हें पाए हैं।

कुछ कुछ मुझे भी बोध हुआ है
थक जाने से कुछ क्षोभ हुआ है,
व्यस्त जीवन जीना है अब तूने
हृदयों बीच अब अवरोध हुआ है ।

जाने को अब तू व्यग्र हुआ है
आगे इक कदम बढ़ा हुआ है,
जा, जा अब ओ मेरे मितवा
जाने को तू मुक्त हुआ है ।

घुघूती बासूती

Tuesday, March 11, 2008

तुम जुगनू बनकर आते हो

जीवन की अन्धियारी राहों में
तुम जुगनू बनकर आते हो,
जीवन की उजियारी राहों में
तुम नजर कभी नहीं आते हो ।

पल पल मेरी हर उलझन में
तुम साथ निभाए जाते हो,
पर मन की हर सुलझन में
अपना नाम नहीं लिखवाते हो।

मेरे दुःस्वप्नों में तुम आकर
झट बाहर मुझे ले आते हो,
मधुर स्वप्नों को तुम केवल
मेरे नाम ही कर जाते हो ।

जब भी पीना होता है हाला
तुम साथ मेरे आ पीते हो,
अमृत की जब आती बारी
मेरे हाथ थमा तुम जाते हो ।

चलती हैं जब भी काली आँधी
थामे हाथ मेरा तुम होते हो,
शीतल बयार जब भी बहती
तुम साथ मेरे ना होते हो ।

फँस जाती हूँ जब काँटों में
आँचल मेरा बचा ले आते हो,
होती जब फूलों भरी फुलवारी में
तुम जाने कहाँ चले जाते हो ।

घुघूती बासूती

Monday, March 03, 2008

आज आई है मेरी बारी

फिर क्यों आज मुझे
लोगों की यह निष्ठुरता,
उनकी यह तटस्थता
बहुत खल रही है ?


कैसे हो सकता है
मनुष्य इतना निर्दयी
कैसे नहीं पिघलता
हृदय किसी का ?


कैसे ये जा रहे हैं
छोड़ मुझे यूँ जमीं पर
क्यों कोई नहीं है आता
करने मेरी सहायता ?


जानता हूँ मैं ये कि
कभी मैं न था रुका
न दी थी लिफ्ट मैंने
कहीं कभी किसी को ।


क्या अपराध मुझसे
हो गया है इतना बड़ा
कि आज गिर कर यहीं
जान मुझे है देनी ?


यूँ ही बहा रुधिर तो
क्या अब कभी भी
मुलाकात पत्नी, बच्चों
से फिर न होगी ?


कल ही की तो बात है
देखी थी एक दुर्घटना
कहती रही थी बिटिया
गाड़ी जल्दी रोको ।


मैंने कहा था उसको
हमें है जाने की जल्दी
कोई और रोक लेगा
चिन्ता मत करो तुम ।


शायद ये ही शब्द
दोहरा रहे हैं ये सब
आज भी है मुझे जल्दी
कोई आओ मुझे बचाओ।


हस्पताल मुझे ले जाओ
आज जो बच गया तो
तटस्थ न कभी रहूँगा
निष्ठुर न मैं बनूँगा ।


शायद कोई रुक रहा है
शायद ये मुझे बचा ले
शायद पत्नी, बच्चों से
ये सज्जन मुझे मिला दे ।


ये हस्पताल पहुँचा दे
कुछ और न भी हो तो
मृत्यु होने पर मेरी
घर मेरे खबर करा दे ।


घुघूती बासूती

Sunday, January 13, 2008

वह सोचता है




वह सोचता है
वह बन भंवरा गुनगुनाएगा
जब न बचेंगे बगिया में कोई फूल बाकी,
वह बन बादल बरसेगा
जब खेत में न होगा एक हरा पौधा बाकी,
वह बन चिड़ा चहकेगा
जब न होगा पेड़ पर एक भी पत्ता बाकी,
वह लौट आएगा अपने नीड़ में
जब न बचेगा नीड़ में कोई तिनका बाकी,
वह बन सागर पुकारेगा मुझे
जब नदिया में न होगा एक बूँद नीर बाकी,
वह सोचता है
मैं दौड़ उसकी बाँहों में समा जाऊँगी,
जब न होगी मुझमें एक भी साँस बाकी ।


घुघूती बासूती

Saturday, December 15, 2007

चल रे मन


चल रे मन
रे मन, चल भीड़ से परे
चल, मुझसे बात कर
कुछ अपनी सुना
कुछ मेरी सुन
तू भी अकेला
मैं भी अकेली ।

इक तू ही तो है
जिसने साथ दिया
बचपन से अब तक
तूने ही मुझे जाना है
बाकी तो सब कुछ
बस पल भर में आना
पल भर में जाना है
बस तूने ही मेरा
और मैंने ही तेरा
साथ निभाना है ।

चल रे मन,
कुछ जुगनू ढूँढे
देख तो कैसा अंधेरा है
चल, कुछ तारें ढूँढें
वे भी तो अकेले हैं
देखें बादलों ने क्या
नए आकार बनाए हैं
शायद हो बना
कोई उड़ता पक्षी
या दिख जाए
कोई थिरकती हिरणी ।

चल रे मन,
कुछ नया खेल खेलें
तू मुझे बता अपने सपने
मैं तुझे बताऊँ कुछ अपने
हाँ मन,
टूटे सपने भी चलते हैं
वे रिक्त हृदय तो भरते हैं
बता कैसे तेरे सपने टूटे
सुन कैसे मेरे सपने रूठे ।

चल रे मन,
फिर कुछ सपने बुनें
चल, हृदय पर कुछ
पैबंद ही लगाते हैं
कुछ उलझे प्रश्नों से
हम बहुत दूर चलें
क्यों कब कैसे हुआ
को हम भूल चलें ।

चल रे मन,
रात बीत गई इन बातों में
चल सुबह की लाली देखें
अब तू भी वापिस आ जा
मेरे रिक्त हृदय में जा समा
चल हम मिल पूरे हो जाएँ
तू और मैं इक हो जाएँ
मैं व मेरा मन,मन और मैं
इक दूजे के पूरक हो जाएँ।
देख सूरज उगने वाला है
नया दिन मिल हम शुरू करें।

चल रे मन ,
मेरे संग चल
न बहक इधर उधर
कर ले बसेरा मुझमें
बन जा मुझ सा बन्दी
मेरी देह के पिंजरे में ।

घुघूती बासूती

Tuesday, December 11, 2007

अदेखाई

अदेखाई
एक शब्द है गुजराती में
छोटा सा है शब्द पर
मन में है उसने जगह बनाई
कहते हैं लोग उसे अदेखाई ।

कुछ कुछ ईर्ष्या से
यह मिलता सा है
कुछ कुछ जलन सा
यह जान पड़ता है ।

पर इस शब्द के अर्थ
हैं मेरे लिये कुछ और
यह ना पड़ोसी की सुन्दर
पत्नी से है मेरी ईर्ष्या ।

यह नहीं है किसी की
पदोन्नति से पैदा हुई जलन
ना किसी की बड़ी कार देख
पुरानी कार से मिलती पीड़ा ।

ना दूजों के ज्ञान से
उपजी यह मेरी उलझन
ना देख सहकर्मी के बंगले को
मेरे मन की बढ़ती धड़कन ।

यह तो है गुजराती में
बोले जाने वाला तेरा प्रिय
वह शब्द जिसको हम
सब कहते हैं अदेखाई ।

जो होती है फूल से, देखूँ
जब तेरे बालों में लगे उसे ,
देख तेरे माथे की बिन्दिया
हो जाती है मुझे अदेखाई ।

तेरे गले में चमकता आभूषण
जब भी देता है मुझे दिखाई
मन में उमड़ता घुमड़ता है
तब एक ही शब्द अदेखाई।

घुघूती बासूती

Saturday, December 01, 2007

मेंढक

मेंढक
हृदय में एक दर्द इक जमाने से धंसा था
मन में एक कांटा ना जाने कबसे गड़ा था,
चुभता था वह रह रहकर अन्तस् में उसको
कितनी बातें दर्द की याद करातीं थीं उसको ।

इस दर्द को ना वह छोड़ पाती थी
ना दर्द ही कभी छोड़ पाता था उसको,
अन्दर वह पल पल घुटती रहती थी
इस घुटन ने तोड़ डाला था उसको ।

इक दिन उसने एक सुनसान जगह में
झाँका व फुसफुसा कह दी बात कुँए में,
सोचा था कि मन हल्का हो जाएगा
जब मन की बात वह कुँआ सुनेगा ।

उसने ना जाना कि कुँए में मेंढक था रहता
कुछ गरम आँसू उसके जा मेंढक पर गिरे,
निकला बाहर मेंढक शब्द उससे ये कहता
मैं हूँ भाग्यशाली, तेरे मोती मुझपर आ झरे ।

सुन ली है बात मैंने तेरे दर्द व दुख की
जानता है क्या वह भी बात तेरे दर्द की,
कब से तुम सीने से लगाए बैठी थी इसको
आज मैं ना सुनता तो ना कहती किसी को ।

वह बोली कुछ मोड़ भी आते हैं जीवन में
और कभी मिल जाते हैं अन्धे से ये रास्ते,
मुड़ना भी पड़ता है नई राह की खोज में
सहनी पड़ती बेवफाई भी प्यार के वास्ते ।

यह कह वह चली गई अपनी दुनिया में
मेंढक भी जा कूदा वापिस अपने कुँए में,
सोच रही थी वह कि कहीं मेंढक यह
कहानी का राजकुमार तो ना था वह ।

मेंढक भी सोच रहा था कि वह नारी
जो जाने कहाँ से आई कुँए पर उसके,
कहीं वही तो ना थी उसकी राजकुमारी
शायद भाग्य बदलने आई थी उसके ।

घुघूती बासूती

Friday, November 23, 2007

पतझड़




कल सपने में पतझड़ आया था
साथ अपने सुनहरी पत्ते लाया था
मैं खड़ी थी इक वृक्ष के नीचे
आ रहे थे पवन के झोंके
हर झोंका लाता था उड़ते पत्ते
उड़ते, बहते साथ पवन के
धीमे धीमे नीचे को आते
पीले, भूरे, कुछ लाली वाले
सुन्दर प्यारी धरती पर आते
कुछ मेरे बालों में फंसे पड़े थे
कुछ गालों को सहला जाते
नीचे पत्तों का कालीन बिछा था
उनपर जब पाँव मेरा पड़ता था
भुरभुराते से वे भूरे सूखे पत्ते
पैरों को सहलाते झुरझुरी फैलाते।


मैं ऊपर डालों को अतीत
अपना झाड़ते देख रही थी
ना वृक्षों के आँसू निकले
ना चीख किसी पत्ते की आई
ना थे वहाँ विदाई के आँसू
चुपके से इक पत्ता था
छोड़ रहा जीवन का बन्धन
मुक्त हवा में वह उड़ता था
जैसे हाथ हिला कर मुस्काता
अपने जीवन स्रोत को विदा कहता
जा रहा था वह धरती से मिलने
जानता हो जैसे हर पत्ता
नवजीवन को लाने को
प्रकृति की छटा बढ़ाने को
इक दिन सबको जाना होगा ।



मैं वृक्षों की पंक्ति के नीचे
मंत्रमुग्ध सी चलती जाती
शायद सारी रात चली थी
भोर की जब किरणे आईं
जब देखा मैंने मुड़कर तो
सफेद, गुलाबी और नारंगी
फूल खिले थे हर डाली पर
देख अपने ही सौन्दर्य को
जैसे सब वृक्ष मुग्ध हुए थे।


जाना तब मैंने भी जीवन का सार
जब आता है विदा लेने का काल
ना रिरियाना, ना घबराना
हल्के से सब बंधन प्राणों के तोड़
इक पत्ते सा धीरे धीरे से धरती पर गिरना
ना पकड़े रहना जीवन की छूटी जाती डोर
ना आँसू ना मातम करना
नव जीवन तब ही आएगा
थका पुराना जीवन जब जाएगा ।


घुघूती बासूती

Monday, November 19, 2007

ओस की एक बूँद


ओस की एक बूँद हूँ मैं
सुबह आएगी तो खो जाऊँगी मैं,
धरती की आँख से निकली एक बूँद हूँ मैं
जब सूरज धरा को चूमेगा तो खो जाऊँगी मैं ।

तेरे हृदय से निकली एक आह हूँ मैं
जब तू सो जाएगा तो खो जाऊँगी मैं,
तेरे स्वप्न का एक भाग हूँ मैं
जब तू जागेगा तो खो जाऊँगी मैं ।

तेरे आँगन के फूल की एक पंखुड़ी हूँ मैं
जब हवा चलेगी तो उड़ जाऊँगी मैं,
तेरे बगीचे के पेड़ की एक पीली पाती हूँ मैं
जब पतझड़ आएगा तो उड़ जाऊँगी मैं ।

दूर पहाड़ी पर गिरी एक हिमकणिका हूँ मैं
वसन्त आएगा तो पिघल जाऊँगी मैं,
तेरे हाथ में एक मोम की पुतली हूँ मैं
तेरी साँसों की गर्मी से पिघल जाऊँगी मैं ।

इस धरती पर किसी के प्यार की छाया हूँ मैं
प्यार न होगा तो नज़र न आऊँगी मैं,
किसी के दर्द का मीठा सा एहसास हूँ मैं
दर्द न होगा तो नज़र न आऊँगी मैं ।

तेरे दिल की धड़कन की एक गूँज हूँ मैं
जब दिल न धड़केगा मेरे लिये, चली जाऊँगी मैं,
तेरे मन की यादों की एक मौज हूँ मैं
जब तू भुला देगा चली जाऊँगी मैं ।

तेरी साँसों की महकती खुशबू हूँ मैं
जब तू कहेगा चली जाऊँगी मैं,
तेरे हाथों की एक रेखा हूँ मैं
जब तू मिटा देगा तो मिट जाऊँगी मैं ।

घुघूती बासूती

Thursday, November 15, 2007

वह तो केवल एक है

वह केवल एक है
चाहता अनेक है
यहाँ भी होऊँ
वहाँ भी होऊँ
किसको पाऊँ
किसको खोऊँ
प्रश्न ये अनेक हैं
और वह एक है ।


मन का सारा खेल है
कि वह तो एक है
सबसे उसका मेल है
किन्तु वह एक है ।


वह तो केवल एक है
सबसे उसको प्रेम है
इसका भी रखना ध्यान है
उसका भी रखना ध्यान है
किसको छोड़ूँ
किसको पकड़ूँ
द्वंद ये अनेक हैं
और वह एक है ।


बात ये अजब है
कि वह तो एक है
चाहता वह गजब है
किन्तु वह एक है ।


घुघूती बासूती

Thursday, November 08, 2007

दड़बों की कीमत

जब भी शहर आती हूँ
किसी दड़बे में खुद को पाती हूँ
इन शहरी दड़बों में मुर्गियाँ नहीं
मनुष्य पाये जाते हैं ।
दौड़ते भागते कारों,बसों
से खुद को बचाते
पर्स व जेब सम्भालते
गहनों को बैंक के लॉकर में छिपाते
चोरों जेबकतरों से बचते बचाते ।
जब यह खिड़की पर
या कोई अधिक भाग्यवान
किसी बालकनी पर टंगकर
संसार को निहारता है
तो क्या देख रहा है जानने की
उत्सुकता मेरे अंदर जागती है ।
मैं भी खिड़की से लटक
बाहर का संसार जो घर के अंदर
सुना जा सकता है, देखती हूँ
पर मुझे कुछ विशेष
नजर नहीं आता ,
कहीं सड़क पर क्रिकेट खेलते बच्चे
कहीं कोई मरियल सा पेड़
यदि अच्छी दड़बा समिति हुई तो
उखड़ी घास का एक टुकड़ा मैदान
कोई कमजोर सा मरियल कुत्ता ।
ऊपर को ताको तो
छोटा सा आकाश का टुकड़ा
सामने की बालकनी पर
सूखते हुए गीले कपड़े
गुटरगूँ करते कबूतर
यदि परदे हटे हों तो
किसी घर का अन्दर का जीवन ।
इतने बड़े संसार में
एक परिवार को यदि हजार
वर्ग फुट जमीन नहीं,
फर्श मिल जाए तो
मानो वह सफल है
उसका जीवन सफल है ।
अधर में लटकता
उसका यह दड़बा उसे
कितना अधिक प्यारा है
बहुत सारी कीमत है
इसकी उसने चुकाई
और लगभग सारा जीवन
उसे चुकाते जानी है ।
घंटो सफर कर जब वह
घर आता है थका, झल्लाया
तो कुछ खाना बना, खा
कान पर मोबाइल
हाथ में टी.वी रिमोट
इस सारे झमेले के
ईनाम में वह पाता है ।
इन दोनों को वह
देर रात तक भुनाता है
दस हाथ की दूरी से करता
है वह जीवन का दर्शन
साथ जीवन जीने वालों से
उसे कम ही है मतलब
उसका जीवन तो कैद है
इक्कीस इंची परदे पर ।
यहीं जीता है वह प्रेम प्रसंग
बर्फीली पहाड़ियाँ,पेड़, पक्षी, जानवर
रेतीली मरूस्थल, सागर की लहरें ।
कैसे दो प्राणी मिलकर
ताक सकते हैं इस जादुई डब्बे को
क्यों उनकी उँगलियाँ नहीं
ढूँढती इक दूजे को
क्यों नहीं मिलकर बनाते
अपना इक रंगी संसार
क्यों देखते हैं दूजों के
जीवन के नकली एपीसोड।
जब उनके खुद के जीवन
बिल्कुल ही खाली होते जाते
शायद स्वयं का जीवन जीने
में है लगती उर्जा , चाहत व
विवाद भी हैं सहने पड़ते ।
इन सबसे बचकर रहता है
अपना ये दड़बे वाला, जीवंत
भावनाओं से भागा फिरता है ।

घुघूती बासूती

Thursday, November 01, 2007

अहसास

एक उम्र गुजर जाती है
उम्र गुजरन॓ का अहसास होन॓ तक
सब कुछ बिखर जाता है
बिखराव का अहसास होने तक ।

जीवन हाथ से निकल जाता है
रेत सा फिसलने का अहसास होने तक
सबकुछ ही बेमानी हो जाता है
अपने बेमानी होने का अहसास होने तक ।

आँचल पूरा भीग जाता है
आँसुओं के रीतने का अहसास होने तक
अपने हाथ छुड़ा लेते हैं
अपनों के जाने का अहसास होने तक ।

हाथ खाली हो चुके होते हैं
सबकुछ खोने का अहसास होने तक
आशाएँ सारी खो जाती हैं
निराश होने का अहसास होने तक ।

मौत आ चुकी होती है
जिन्दा थे का अहसास होने तक
साँसें खत्म हो चुकी होती हैं
साँस लेते थे का अहसास होने तक ।

घुघूती बासूती

Wednesday, October 17, 2007

'जब थामा नहीं हाथ'

'जब थामा नहीं हाथ'
मन कितना था,जानती हो?
यदि थाम लेती हाथ तो
दिल को भी थामना होता ,
यदि थाम लेते दिल
तो हाथ कैसे थामते ?
और यदि लड़खड़ा जाती
तो कैसे दे पाते सहारा?
मैंने तो गिरकर बारबार
स्वयं उठना सीखा है ,
माथे की हर चोट को
हँसकर भूलना सीखा है ।
किसी दिन सिर पर जैसे
बन जाता है हिमालय ,
कभी अरावली बनता है
और कभी मेरे बचपन की
शिवालक की पहाड़ियाँ ,
जिन पर मैं चढ़ती थी
आज वे मेरे सिर पर
बनती बिगड़ती हैं ,
चढ़ती हैं, उतरती हैं ।
और लोग कहते हैं
जीवन में न्याय नहीं है ।
मुझे तो न्याय ही दिखता है
जितना ऊँचा चढ़ोगे उतना ही
नीचे गिरा स्वयं को पाओगे ,
जितना लम्बे होओगे उतना ही
सिर जोर से जमीन से टकराएगा ।
घुघूती बासूती