जब भी शहर आती हूँ
किसी दड़बे में खुद को पाती हूँ
इन शहरी दड़बों में मुर्गियाँ नहीं
मनुष्य पाये जाते हैं ।
दौड़ते भागते कारों,बसों
से खुद को बचाते
पर्स व जेब सम्भालते
गहनों को बैंक के लॉकर में छिपाते
चोरों जेबकतरों से बचते बचाते ।
जब यह खिड़की पर
या कोई अधिक भाग्यवान
किसी बालकनी पर टंगकर
संसार को निहारता है
तो क्या देख रहा है जानने की
उत्सुकता मेरे अंदर जागती है ।
मैं भी खिड़की से लटक
बाहर का संसार जो घर के अंदर
सुना जा सकता है, देखती हूँ
पर मुझे कुछ विशेष
नजर नहीं आता ,
कहीं सड़क पर क्रिकेट खेलते बच्चे
कहीं कोई मरियल सा पेड़
यदि अच्छी दड़बा समिति हुई तो
उखड़ी घास का एक टुकड़ा मैदान
कोई कमजोर सा मरियल कुत्ता ।
ऊपर को ताको तो
छोटा सा आकाश का टुकड़ा
सामने की बालकनी पर
सूखते हुए गीले कपड़े
गुटरगूँ करते कबूतर
यदि परदे हटे हों तो
किसी घर का अन्दर का जीवन ।
इतने बड़े संसार में
एक परिवार को यदि हजार
वर्ग फुट जमीन नहीं,
फर्श मिल जाए तो
मानो वह सफल है
उसका जीवन सफल है ।
अधर में लटकता
उसका यह दड़बा उसे
कितना अधिक प्यारा है
बहुत सारी कीमत है
इसकी उसने चुकाई
और लगभग सारा जीवन
उसे चुकाते जानी है ।
घंटो सफर कर जब वह
घर आता है थका, झल्लाया
तो कुछ खाना बना, खा
कान पर मोबाइल
हाथ में टी.वी रिमोट
इस सारे झमेले के
ईनाम में वह पाता है ।
इन दोनों को वह
देर रात तक भुनाता है
दस हाथ की दूरी से करता
है वह जीवन का दर्शन
साथ जीवन जीने वालों से
उसे कम ही है मतलब
उसका जीवन तो कैद है
इक्कीस इंची परदे पर ।
यहीं जीता है वह प्रेम प्रसंग
बर्फीली पहाड़ियाँ,पेड़, पक्षी, जानवर
रेतीली मरूस्थल, सागर की लहरें ।
कैसे दो प्राणी मिलकर
ताक सकते हैं इस जादुई डब्बे को
क्यों उनकी उँगलियाँ नहीं
ढूँढती इक दूजे को
क्यों नहीं मिलकर बनाते
अपना इक रंगी संसार
क्यों देखते हैं दूजों के
जीवन के नकली एपीसोड।
जब उनके खुद के जीवन
बिल्कुल ही खाली होते जाते
शायद स्वयं का जीवन जीने
में है लगती उर्जा , चाहत व
विवाद भी हैं सहने पड़ते ।
इन सबसे बचकर रहता है
अपना ये दड़बे वाला, जीवंत
भावनाओं से भागा फिरता है ।
घुघूती बासूती
Thursday, November 08, 2007
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कितना सही कहा है।
ReplyDeleteकान पर मोबाइल
हाथ में टी.वी रिमोट
.......
उसका जीवन तो कैद है
इक्कीस इंची परदे पर ।
यहीं जीता है वह प्रेम प्रसंग
बर्फीली पहाड़ियाँ,पेड़, पक्षी, जानवर
रेतीली मरूस्थल, सागर की लहरें ।
........
क्यों देखते हैं दूजों के
जीवन के नकली एपीसोड।
महानगरों में रहने वालों के जीवन की सच्चाई बस यही है। बाहर का दिखावा, और अपना अंदर का जीवन कितना खाली।
लगता है -
"प्रीति पावन कहीं खो गई है,
भाव संवेदना सो गई है।"
बहुत सटीक चित्रण है, बधाई.
ReplyDeleteऔर, शहरों में तो ये अहसास कम होता होगा। मुंबई में तो मुझे मुर्गियों के दड़बे जैसा ही अहसास होता है।
ReplyDeleteफिलहाल मुंबई में अपने दड़बे को लेकर यही हाल है जो आपने सुनाया है कि...
ReplyDeleteउसका यह दड़बा उसे
कितना अधिक प्यारा है
बहुत सारी कीमत है
इसकी उसने चुकाई
और लगभग सारा जीवन
उसे चुकाते जानी है
हाँ आदमी तो खुद में ही उलझा है
ReplyDeleteये दिखनेवाली जकड़न ना हो तब भी उसका मन और बेवजह की इच्छाएँ तो हैं ही।
अच्छी कविता,
ReplyDeleteपढ़ कर अच्छा लगा।
http://mahashaktigroup.blogspot.com
महानगरीय यथार्थ का पन्ना एक बार फिर उड़ कर आंखों के सामने आ गया . यह किश्तों में जिया जाने वाला जीवन है . पूर्णता की चाह कहां बनी रह पाती है . और चाह हो भी तो राह कहां .
ReplyDeleteबहुत सही, सटीक!!!
ReplyDeleteमहानगरों का ही नही अब तो छोटे शहरों मे भी यही हाल हो रहा है। घरों की जगह बहुमंजिला इमारतें बनती जा रही है। बहुत सही चित्रण किया है आपने।
ReplyDeleteबहुत सटीक, बधाईयाँ !
ReplyDeleteतम से मुक्ति का पर्व दीपावली आपके पारिवारिक जीवन में शांति , सुख , समृद्धि का सृजन करे ,दीपावली की ढेर सारी बधाईयाँ !
सपाट, सटीक और प्रभावी
ReplyDeleteवाह, लाजबाव।
ReplyDeleteलाखों करोड़ों लोगों के मन की बात कह दी
इतनी सहजता से।
अच्छा है कि आप अपने जंगल में इस दबड़ेनुमा जिंदगी की घुटन से बची हुई हैं।
बहुत ही सही चित्रण है शहरी जिन्दगी का, सवाल दड़बों का नही है। ये जिन्दगी जी जाती है 29 इंच में क्युंकि 'मैं' सबसे अहम हो गया है। लेकिन कविता बहुत सुन्दर है
ReplyDeleteParaphrase please
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