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Sunday, January 10, 2010

गुड़ होता गुड़झोली करती..............घुघूती बासूती

गुड़ होता गुड़झोली करती
आटा लेती उधार
पर क्या करूँ घी नहीं है।

अहा, गुड़झोली! माँ उपरोक्त कहावत तो सुनाती थी किन्तु उन्हें यह पता नहीं था कि उनकी बेटी जीवन भर कहती रहेगी...

ठंड होती गुड़झोली करती,
ठंड होती रजाई ओढ़ती,
ठंड होती आग सेकती,
ठंड होती गाजर का हलवा खाती,
ठंड होती मक्की की रोटी, सरसों का साग खाती !
ठंड होती तो ठंड का आनन्द लेती।

किन्तु यहाँ तो हाल यह है कि ठंड को भूल ही गई हूँ। पहाड़ की बेटी ठंड को तरसती है। पढ़ती है, लोगों का लिखा कि गजब की ठंड हो रही है, कुहरा है, कहीं हिमपात है। टी वी पर ठंड देखती है, लोगों के ब्लॉग्स पर ठंड देखती है। ए सी चलाकर ठंड क्या होती है, याद करने की कोशिश करती है। पिछले ३३ सालों में केवल सात सर्दियाँ देखी हैं। ठंड देखे २० साल बीत गए हैं। अब तो लगता है कि शायद ठंड सहन भी न कर पाऊँ।

खैर, मेरे उत्तर भारतीय, अमेरिका और यूरोप में बसे मित्रो, आप ठंड सहिए, उसका आनन्द लीजिए। एक आध ठंडी हवा का झोंका मेरी ओर भी भेज दीजिए। और हाँ, गुड़झोली पीकर ठंड भगाइए।

गुड़झोली को एक कुमाऊँनी मीठा सूप कह सकते हैं, या बेहद गीला हलुवा, जो पीने योग्य हो। गुजराती में इसे राब कहते हैं शायद।

सीधी सादी गुड़झोली गुड़, आटे व घी से बनती है। पानी भी डलता है। चाहें तो दूध डाल सकते हैं। माँ बताती हैं कि जब १९४० के लगभग अकाल पड़ा था तब पिताजी ने मुम्बई में रहते हुए ही किसी तरह आटे और गुड़ का जुगाड़ करवा दिया था, दूध, घी तो घर का ही था। बड़ी कड़ाही में गुड़झोली बनती थी और पूरा परिवार तृप्त हो जाता था।

यह ठंड से बचने का अचूक पेय है।

बनाने की विधीः

आटा गेहूँ या बाजरे या मडुए/रागी का १ बड़ी चम्मच
घी २ बड़ी चम्मच( कम पसन्द हो तो १ बड़ी चम्मच )
गुड़ का चूरा १/४ कप ( कम पसन्द हो तो स्वादानुसार कम किया जा सकता है। )
पानी या दूध २ कप

चाहें तो ये सब भी डाले जा सकते हैं:

बादाम बारीक कटे हुए १ बड़ी चम्मच
अजवाइन १/२ छोटी चम्मच
२ लवंग
एक छोटा टुकड़ा दालचीनी
सूखे अदरक का पावडर १/४ या १/२ छोटी चम्मच


घी को कड़ाही में गरम कर यदि अजवाइन,लवंग, दालचीनी के टुकड़े आदि डालने हैं तो वे सब डालें। अब आटा डाल हल्का सुनहरा होने तक भूनें। दूध या पानी और गुड़ डालकर चलाते रहिए ताकि गाँठें न बनें। बारीक कटे हुए बादाम डालें। अदरक का पावडर पसन्द हो तो वह डालें। थोड़ी देर उबलने दें।
सूप की तरह गरमागरम पीयें। चाहें तो चुटकी भर काली मिर्च का पावडर भी डाल लें।

अनुपात अन्दाज से दिए हैं। स्वादानुसार घटा बढ़ा सकते हैं।

वैसे तो केवल आटे, गुड़ घी और पानी से भी यह बढ़िया बन जाता है।
तभी तो 'घर में नहीं दाने अम्मा चलीं भुनाने' वाली कोई कुमाँऊनी आमां(दादी, नानी)के पास न गुड़ था, न आटा, न घी और चाहत थी गुड़झोली की सो बोली...

गुड़ होता, गुड़झोली करती
आटा लेती उधार
पर क्या करूँ, घी नहीं है।

किन्तु मैं कहती हूँ..
क्या करूँ ठंड नहीं है!

घुघूती बासूती

नोट: सूखी खाँसी में गुड़झोली पीने से बहुत आराम मिलता है।

घुघूती बासूती

Thursday, January 15, 2009

काले कउवा, मधुमेही कउवा ! आ रे कउवा, खा ले शुगराइटी घुघुतवा !





बचपन में आज के दिन बहुत उत्साह होता था। कल उत्तराखंड में कुमाँऊनी बच्चे काले कउवा नामक त्योहार मनाते हैं। आज सभी घरों में भाँति भाँति की आकृति के शक्करपारे जिन्हें कुमाँऊनी में घुघुत (घुघूती के पति घुघूत नहीं, घुघूती व घुघूत तो पक्षी हैं!) कहते हैं, बनाते हैं। ये डमरू,खजूर,लवंग,ढोलक तलवार, ढाल, दाड़िम के फूल व न जाने किन किन आकार के होते हैं। बहुधा बच्चे अपनी माँ से अपने मन पसन्द के आकार के घुघुत बनवाते हैं। इन्हें सूई से धागे में पिरो कर मालाएँ बनाईं जाती हैं। संक्रान्ति के अगले दिन बच्चे सुबह सुबह उठकर काले कउवों की खोज में निकल जाते हैं। पहाड़ों में वैसे भी काले कउवे बहुत पाए जाते हैं। बच्चे काले कउवों को बुला बुलाकर उन्हें ये घुघुत खिलाते हैं। साथ में अपनी भी पेटपूजा करते जाते हैं। वे कुछ इस तरह से कउवों को बुलाते हैं..
ले कउवा बड़
मुकें दे सुणों घड़।
(ले कउए वड़ा
मुझे दे दे सोने का घड़ा।)


पहाड़ की गरीबी देखकर तो यह नहीं लगता कि कउवों ने कभी किसी की बात मानी हो, वड़े तो खूब चाव से खा जाते हैं परन्तु कभी बच्चों की माँगें पूरी नहीं करते।
आज शाम शायद मैं भी घुघुत बनाउँगी। परन्तु न तो कउवे आएँगे न उन्हें खिलाने को कोई बच्चा घर में होगा। सोचती हूँ, जब घुघूती और घुघूत को ही मिलकर ये घुघुत खाने हैं तो क्यों ना शक्कर की जगह शुगराइट शक्कर के विकल्प में उपयोग करूँ। तलने की जगह ओवन में बेक करूँ। मेरे घुघूत को मधुमेह जो है। घी तेल भी मना है। कउवे नहीं आएँगे तो किसी भी चिड़िया या गिलहरी को खिला दूँगी। जब कउवे सोने के घड़े देने से मुकर जाते हैं तो मैं भी क्यों न ऐसे वैकल्पिक घुघुत ही उन्हें खिलाऊँ ? और यदि वे न आएँ तो किसी और को क्यों न खिलाऊँ ?


बहुत पहले मैंने यहाँ कउवे न होने की बात की थी और कउवों की तरह ही, हमारे ब्लॉग जगत से गायब काकेश जी से 'काकेश जी से विनति' में कउवों को यहाँ भेजने की गुहार लगाई थी। उन्होंने मेरी विनति सुनी भी थी। (सबूत के तौर पर मैंनेकुछ फोटो भी लिए हैं। ) कुछ समय के लिए कउवों ने यहाँ दर्शन भी दिए परन्तु अब फिर से वे गायब हो गए हैं। जिनकी भी कउवों के सीधी हॉटलाइन पर बात होती हो उनसे फिर निवेदन है कि कउवों को, विशेषकर मधुमेही व हृदयरोग से ग्रस्त कउवों को, कमसे कम कल के लिए, यहाँ भेज दें। उनका शक्कर विहीन, बेक्ड घुघुतों से स्वागत होगा।


उनके स्वागत में घुघुत पिरोए,


घुघूती बासूती

एक और सम्बन्धित पोस्टः
'मकर संक्रान्तिः घुघुतिया और मेले ही मेले'

घुघूती बासूती

Wednesday, April 18, 2007

काकेश जी से विनती........काले कौओं का इन्तजाम कीजिए !

हे कौओं के राजा ! क्या आप जानते हैं कि यहाँ जहाँ मैं रहती हूँ एक भी कौआ नहीं पाया जाता ? आपके शासन में इतना अन्याय क्यों ? अब हम सात साल से काले कौआ नहीं मना रहे । क्या सभी कौए फेयर ऍनड लव्ली का उपयोग कर कबूतर बन गए ? फौरन एक फरमान जारी कर इस पर रोक लगाइये राजन् !
काले कौआ के दिन( काले कौआ कुमाऊँ में संक्रान्ति के समय मनाए जाने वाला त्यौहार है ।) हमारा मन तरह तरह के आकार जैसे, ढोलक, डमरू, लौंग, फूल आदि के शकरपारे बनाने, उन्हें माला में पिरोने फिर उन्हें काले कौओं को बुला बुला कर खिलाने को मचलता है । किन्तु यहाँ पूर्णतया काला तो क्या अधकाला कौआ भी नहीं दिखता । मोर, कोयल और तरह तरह के पक्षी तो बहुत आते हैं पर क्या कोई कुमाऊनी कौओं का हिस्सा इन्हें खिलाएगा ?
श्याम वर्ण कृष्ण की इस कर्मभूमि में श्याम या अर्धश्याम कौओं का यह अकाल मेरे गले नहीं उतरता । देखो तो इनकी याद में मैंने एक गीत (पैरोडी) रच डाला है ।
अब तक मुझे यह समझ नहीं आ रहा था कि अपनी विनती लेकर किसके पास जाऊँ । आपके नाम का अर्थ तो मुझे पता था पर आपको पता है कि नहीं यह शंका थी , किन्तु अब तो शंका निवारण हो गया । सो हे राजन् ! गीत भी प्रस्तुत है.........
सारे कौए कहीं खो गए
हाय हम कौए विहीन हो गए
सारे ......
हाय हम काले कौए मनाने से रह गए !
हाथों ने बनाए जो शकरपारे
वे सारे धरे रह गए
सारे .........
बिन कौए ये समय जो बीता
क्या कहें हम पर क्या क्या बीता
कौए न आए जबसे हम यहाँ हैं आए
हाय हम कौए .........
तुमने हमसे की थी जो काँव काँव की बातें
उनको दोहराते हम जो टेप किये होते
हमसे शकरपारे खाने के दिन खो गए
हाय हम कौए .........
बहुत से शिकवा और गिला है
कौओ हमको ये गम मिला है ।
सारे....
हाय....
कुछ कीजिए काकेश !
आपकी ही कौआ भक्त,
घुघूती बासूती

Sunday, March 04, 2007

तेरो कुर्तो रंगीलो ,कुर्तो वालो रंगीलो ,

वे भी क्या दिन थे, वे भी क्या होली थीं ............
एक बार फिर होली हमें हमारे अकेलेपन व बालों में बढ़ती चाँदी की याद कराने आ गई है ।
अब बहना आ ही गई हो तो पधारो , बैठो । न,न वहाँ अन्दर नहीं, यहीं आँगन में बैठो । देख नहीं रहीं कैसे रंगों से सराबोर हो, यहीँ कुर्सियाँ डली हैं, आओ बैठते हैँ । पहले रंग खेलना है, क्यों नहीँ, अवश्य खेलेंगे । यह रहा थाली में टेल्कम पावडर व हल्दी । न,न बहना ये रंग न लगाओ,ये तो औद्योकिक रंग या डाई हैं । यदि असली अबीर गुलाल लाई होतीँ तो और बात थी ।
क्या कहा, पहले तो इन से भी खेल लेती थी ? हाँ सच है, तब सबकुछ चलता था, कालिख और एल्यूमिनियम पैन्ट भी , और पानी वाले रंग भी सिर पर डालने देती थी । क्यों नहीं, बिल्कुल डालने देती थी । मन तो आज भी होता है कि सब चलता है कि धुन पर होली खेलें, पर क्या करें अब नहीं चल सकता । हाँ मैं तो वही हूँ, मन भी वही है, पर ये निगोड़े बाल देख रही हो ? ये तो वे नहीं हैं । पहले की होली में तो हम रंगते थे, मन रंगता था पर अब तो सबसे पहले ये बाल रंग जाते हैं । फिर महीनों हरे, नीले, बैंगनी व गुलाबी बालों को लिए घूमना पड़ता है । बच्चे भी कहीं पीछे से नीले बालों वाली की फब्तियाँ कसने लगेगें तो क्या अच्छा लगेगा ?
फिर पहले जहाँ पति को रंग कर हम गुनगुनाते थे..
तेरो कुर्तो रंगीलो , कुर्तो वालो रंगीलो ,
..मना,मोहिनी मदनमाला मेरो मन ले रंगीलो

वहीं अब महीनों तक गाना पड़ेगा .....
तेरो कुर्तो रंगीलो,कुर्तो वालो रंगीलो ,
...मना,मोहिनी मदनमाला मेरो खोर ले रंगीलो

अर्थात पहले उनके कुर्ते व कुर्ते पहनने वाले को रंगीला पाते थे और अपने मन को भी ।
दूसरी पंक्ति के मदनमाला शब्द के बारे में पक्का नहीं कहा जा सकता,वैसे शब्दकोष देखने से लगता है मदन शब्द ठीक बैठता है, मोहिनी सूरत वालो भी हो सकता है किन्तु अब तो कहना पड़ेगा कि मेरा खोर यानि सिर भी रंगीला है ।
खैर सिर को बचाते हुए भी क्या खाक होली खेली जाती है ? सोचती हूँ कि बाथ कैप पहन कर खेलूँ । पर वह होली ही क्या जिसमें सिर की टोपी सिर पर ही कायम रहे ?
वह भी क्या समय था जब बचपन में बच्चों की टोली सारी की सारी कॉलोनी में रंग खेलती घूमती थी ! फिर आया छात्रावास का समय जब पागलपन अपनी चरम सीमा पर था । फिर पति के साथ सुबह सुबह होली खेलना और जब तक मुँहबोली ननदें व देवर भाभी से होली खेलने आते तब तक चेहरा पहचान में न आता था तो नाराज होते कि अब क्या रंगे आपको । फिर सब स्त्रियों की टोली निकल पड़ती और हर घर में जाकर रंग खेलना । वह पानी की हौदी में लगाई गई डुबकियाँ । फिर जब बिटिया आ गईं तो हमारा खेलने न जाना और ग्यारह बजे तक होली का रंग न जमना और पड़ोस की आंटी का हमसे बिटिया छीनकर जबर्दस्ती होली खेलने भेजना ! वापिस आकर बिटिया का हमें पहचानने से इन्कार व घंटो नहाने पर हमारे पास आना ।
जब बच्चे कुछ बड़े हुए तब अलग ही रंग जमना शुरू हुआ । उनके मित्र होली से पहले दिन ही हमारे घर आ जाते थे । सारी रात उनकी मस्ती चलना । सुबह से रसोईघर में बड़े बड़े भट्टों में सारी कॉलोनी के लोगों के लिए खाना बनना , नाश्ता तो हम कई दिन से बना रहे होते थे । बगीचे में सामने के लॉन व आँगन में स्त्रियों व बच्चों की होली चलती थी व पीछे की तरफ पुरुषों की । जिसने जन्म में भी होली न खेली हो उसे भी हम होली खेला कर ही दम लेते थे । पूरे भूत बन जाने के बाद वहीं पर पहले से रखे चार छः साबुन की टिकियाओं से चेहरे व बाँहों का रंग छुटाया जाता था और तेज पानी की धार में पाइप से एक दूसरे को नहलाते थे । फिर धूप में सूखने बैठ जाते थे । तब तक गरम कॉफी आ जाती थी और हम सब मिठाई व नमकीन पर टूट पड़ते थे । गर्मागर्म पकोड़ों या मसाले वड़े और कॉफी का स्वाद जो तब गीले सिर, गीले कपड़ों में आता था वैसा फिर कभी नहीं आया । खूब मस्ती होती, गीत होते, मजाक होते और तब तक खाना लग जाता ।
कल भी सब आएँगे, पर हम अपना सिर बचाएँगे । मस्ती भी होगी खाना पीना भी । पर अब न साथ में बच्चे हैं न आज रात बच्चों के मित्र होंगे । न कल घर के हर स्नानागार में कोई न कोई बच्चा नहा रहा होगा । न वह हमारे पुराने मित्र हैं न वह जगह । जीवन में बाईस घर बदले हैं व लगभग उतनी ही जगहें, पर अब लगता है हम स्वयं ही बदल गए हैं । तभी तो गुझिया, गोजे, सिहल आदि बनाने की जगह यह लिख रहे हैं । और गहरे गाढ़े रंग बनाने की जगह हल्दी व टैल्कम पावडर से खेलने का मन बना रहे हैं !
फिर भी जानती हूँ कल सुबह होते न होते होली का पागलपन सिर पर सवार हो जाएगा ।
शायद आज रात होली दहन से ही शुरू हो जाएगा । और शुरू होगा ढोलक की थाप के साथ
होली है !
और मन गा उठेगा..
तेरो कुर्तो रंगीलो ,कुर्तो वालो रंगीलो ,
..मना,मोहिनी मदनमाला मेरो मन ले रंगीलो ।

घुघूती बासूती

Sunday, February 25, 2007

घुघूती बासूती क्या है, कौन है ?

घुघूती बासूती क्या है, कौन है ?
उत्तराखंड का एक भाग है कुमाऊँ ! वही कुमाऊँ जिसने हिन्दी को बहुत से कवि, लेखक व लेखिकाएँ दीं, जैसे सुमित्रानंदन पंत,मनोहर श्याम जोशी,शिवानी आदि ।
वहाँ की भाषा है कुमाऊँनी । वहाँ एक चिड़िया पाई जाती है जिसे कहते हैं घुघुति । एक सुन्दर सौम्य चिड़िया । मेरी स्व दीदी की प्रिय चिड़िया । जिसे मामाजी रानी बेटी की यानी दीदी की चिड़िया कहते थे । घुघुति का कुमाऊँ के लोकगीतों में विशेष स्थान है ।
कुछ गीत तो तरुण जी ने अपने चिट्ठे में दे रखे हैं । मेरा एक प्रिय गीत है ....
घूर घुघूती घूर घूर
घूर घुघूती घूर,
मैत की नौराई लागी
मैत मेरो दूर ।
मैत =मायका, नौराई =याद आना, होम सिक महसूस करना ।
किन्तु जो गहराई, जो भावना, जो दर्द नौराई शब्द में है वह याद में नहीं है । नौराई जब लगती है तो मन आत्मा सब भीग जाती है , हृदय में एक कसक उठती है । शायद नौराई लगती भी केवल अपने मायके, बचपन या पहाड़ की ही है । जब कोई कहे कि पहाड़ की नौराई लग रही है तो इसका अर्थ है कि यह भावना इतनी प्रबल है कि न जा पाने से हृदय में दर्द हो रहा है । घुघूती बासूती भी नौराई की श्रेणी का शब्द है ।
और भी बहुत से गीत हैं । एक की पंक्तियां हैं ...
घुघूती बासूती
भै आलो मैं सूती ।
या भै भूक गो, मैं सूती ।
भै = भाई
आलो=आया
भूक गो =भूखा चला गया
सूती=सोई हुई थी
यह एक लोक कथा का अंश है । जो कुछ ऐसे है , एक विवाहिता से मिलने उसका भाई आया । बहन सो रही थी सो भाई ने उसे उठाना उचित नहीं समझा । वह पास बैठा उसके उठने की प्रतीक्षा करता रहा । जब जाने का समय हुआ तो उसने बहन के चरयो (मंगलसूत्र) को उसके गले में में आगे से पीछे कर दिया और चला गया । जब वह उठी तो चरयो देखा । शायद अनुमान लगाया या किसी से पूछा या फिर भाई कुछ बाल मिठाई (अल्मोड़ा, कुमाऊँ की एक प्रसिद्ध मिठाई) आदि छोड़ गया होगा । उसे बहुत दुख हुआ कि भाई आया और भूखा उससे मिले बिना चला गया , वह सोती ही रह गई । वह रो रोकर यह पंक्तियाँ गाती हुई मर गई । उसने ही फिर चिड़िया बन घुघुति के रूप में जन्म लिया । घुघुति के गले में, चरयो के मोती जैसे पिरो रखे हों, वैसे चिन्ह होते हैं । ऐसा लगता है कि चरयो पहना हो और आज भी वह यही गीत गाती है :
घुघूती बासूती
भै आलो मैं सूती ।
किन्तु कहीं घुघुति और कहीं घुघूती क्यों ? जब भी यह शब्द किसी गीत में प्रयुक्त होता है तो घुघूती बन जाता है अर्थात उच्चारण बदल जाता है ।
इस शब्द के साथ लगभग प्रत्येक कुमाऊँनी बच्चे की और माँ की यादें भी जुड़ी होती हैं । हर कुमाऊँनी माँ लेटकर , बच्चे को अपने पैरों पर कुछ इस प्रकार से बैठाकर जिससे उसका शरीर माँ के घुटनों तक चिपका रहता है, बच्चे को झुलाती है और गाती है :
घुघूती बासूती
माम काँ छू =मामा कहाँ है
मालकोटी =मामा के घर
के ल्यालो =क्या लाएँगे
दूध भाती =दूध भात
को खालो = कौन खाएगा
फिर बच्चे का नाम लेकर ........ खालो ,....... खालो कहती है और बच्चा खुशी से किलकारियाँ मारता है ।
मैं अपने प्रिय पहाड़, कुमाऊँ से बहुत दूर हूँ । पहाड़ की हूँ और समुद्र के पास रहती हूँ । कुमाऊँ से मेरा नाता टूट गया है । लम्बे समय से वहाँ नहीं गई हूँ । शायद कभी जाना भी न हो । किन्तु भावनात्मक रूप से वहाँ से जुड़ी हूँ । आज भी यदि बाल मिठाई मिल जाए तो ........
वहाँ का घर का बनाया चूड़ा ( पोहा जो मशीनों से नहीं बनता , धान को पूरा पकने से पहले ही तोड़ लिया जाता है ,फिर आग में थोड़ा भूनकर ऊखल में कूट कर बनाया जाता है ।) अखरोट के साथ खाने को जी ललचाता है । आज भी उस चूड़े की , गाँव की मिट्टी की महक मेरे मन में बसी है । मुझे याद है उसकी कुछ ऐसी सुगन्ध होती थी कभी विद्यालय से घर लौटने पर वह सुगन्ध आती थी तो मैं पूछती थी कि माँ कोई गाँव से आया है क्या ? मैं कभी भी गलत नहीं होती थी । यदि कोई आता तो साथ में चूड़ा , अखरोट , जम्बू (एक तरह की सूखी पत्तियाँ जो छौंका लगाने के काम आती हैं और जिन्हें नमक के सा पीसकर मसालेदार नमक बनाया जाता है ।), भट्ट (एक तरह की साबुत दाल) , आदि लाता था और साथ में लाता था पहाड़ की मिट्टी की महक ।
वहाँ के फल , फूल, सीढ़ीनुमा खेत , धरती, छोटे दरवाजे व खिड़कियों वाले दुमंजला मकान ,गोबर से लिपे फर्श , उस फर्श व घर की चौखट पर दिये एँपण , ये सब कहीं और नहीं मिलेंगे । एँपण एक तरह की रंगोली है जो कुछ कुछ बंगाल की अल्पना जैसी है । यह फर्श को गेरू से लेप कर भीगे पिसे चावल के घोल से तीन या चार उँगलियों से बनी रेखाओं से बने चित्र होते हैं । किसी भी कुमाऊँनी घर की चौखट को इस एँपण से पहचाना जा सकता है । दिवाली के दिन हाथ की मुट्ठियों से बने लक्ष्मी के पाँव ,
जो मेरे घर में भी हैं बनते हैं । वे जंगलों में फलों से लदे काफल, किलमोड़े, व हिसालू के वृक्ष । जहाँ पहाड़ों में दिन भर घूम फिर कर अपनी भूख प्यास मिटाने के लिए घर नहीं जाना पड़ता, बस फल तोड़ो और खाओ और किसी स्रोत या नौले से पानी पियो और वापिस मस्ती में लग जाओ । वे ठंडी हवाएँ ,वह बर्फ से ढकी पहाड़ों की चोटियाँ, चीड़ व देवदार के वृक्ष !
बस इन्हीं यादों को , अपने छूटे कुमाऊँ को , अपनी स्व दीदी की याद को श्रद्धा व स्नेह के सुमन अर्पण करने के लिए मैंने स्वयं को नाम दिया है घुघूती बासूती ! है न काव्यात्मक व संगीतमय, मेरे कुमाऊँ की तरह !
घुघूती बासूती
पुनश्च : यह पढ़ने के बाद यदि अब आप मेरी कविता उड़ने की चाहत पढ़ें तो आपको उसके भाव सुगमता से समझ आएँगें ।
घुघूती बासूती