Thursday, January 15, 2009
काले कउवा, मधुमेही कउवा ! आ रे कउवा, खा ले शुगराइटी घुघुतवा !
बचपन में आज के दिन बहुत उत्साह होता था। कल उत्तराखंड में कुमाँऊनी बच्चे काले कउवा नामक त्योहार मनाते हैं। आज सभी घरों में भाँति भाँति की आकृति के शक्करपारे जिन्हें कुमाँऊनी में घुघुत (घुघूती के पति घुघूत नहीं, घुघूती व घुघूत तो पक्षी हैं!) कहते हैं, बनाते हैं। ये डमरू,खजूर,लवंग,ढोलक तलवार, ढाल, दाड़िम के फूल व न जाने किन किन आकार के होते हैं। बहुधा बच्चे अपनी माँ से अपने मन पसन्द के आकार के घुघुत बनवाते हैं। इन्हें सूई से धागे में पिरो कर मालाएँ बनाईं जाती हैं। संक्रान्ति के अगले दिन बच्चे सुबह सुबह उठकर काले कउवों की खोज में निकल जाते हैं। पहाड़ों में वैसे भी काले कउवे बहुत पाए जाते हैं। बच्चे काले कउवों को बुला बुलाकर उन्हें ये घुघुत खिलाते हैं। साथ में अपनी भी पेटपूजा करते जाते हैं। वे कुछ इस तरह से कउवों को बुलाते हैं..
ले कउवा बड़
मुकें दे सुणों घड़।
(ले कउए वड़ा
मुझे दे दे सोने का घड़ा।)
पहाड़ की गरीबी देखकर तो यह नहीं लगता कि कउवों ने कभी किसी की बात मानी हो, वड़े तो खूब चाव से खा जाते हैं परन्तु कभी बच्चों की माँगें पूरी नहीं करते।
आज शाम शायद मैं भी घुघुत बनाउँगी। परन्तु न तो कउवे आएँगे न उन्हें खिलाने को कोई बच्चा घर में होगा। सोचती हूँ, जब घुघूती और घुघूत को ही मिलकर ये घुघुत खाने हैं तो क्यों ना शक्कर की जगह शुगराइट शक्कर के विकल्प में उपयोग करूँ। तलने की जगह ओवन में बेक करूँ। मेरे घुघूत को मधुमेह जो है। घी तेल भी मना है। कउवे नहीं आएँगे तो किसी भी चिड़िया या गिलहरी को खिला दूँगी। जब कउवे सोने के घड़े देने से मुकर जाते हैं तो मैं भी क्यों न ऐसे वैकल्पिक घुघुत ही उन्हें खिलाऊँ ? और यदि वे न आएँ तो किसी और को क्यों न खिलाऊँ ?
बहुत पहले मैंने यहाँ कउवे न होने की बात की थी और कउवों की तरह ही, हमारे ब्लॉग जगत से गायब काकेश जी से 'काकेश जी से विनति' में कउवों को यहाँ भेजने की गुहार लगाई थी। उन्होंने मेरी विनति सुनी भी थी। (सबूत के तौर पर मैंनेकुछ फोटो भी लिए हैं। ) कुछ समय के लिए कउवों ने यहाँ दर्शन भी दिए परन्तु अब फिर से वे गायब हो गए हैं। जिनकी भी कउवों के सीधी हॉटलाइन पर बात होती हो उनसे फिर निवेदन है कि कउवों को, विशेषकर मधुमेही व हृदयरोग से ग्रस्त कउवों को, कमसे कम कल के लिए, यहाँ भेज दें। उनका शक्कर विहीन, बेक्ड घुघुतों से स्वागत होगा।
उनके स्वागत में घुघुत पिरोए,
घुघूती बासूती
एक और सम्बन्धित पोस्टः
'मकर संक्रान्तिः घुघुतिया और मेले ही मेले'
घुघूती बासूती
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मकरसंक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाएँ,
ReplyDeleteमैंने तकनीकि प्रश्नोत्तरी ब्लॉग 'तकनीक दृष्टा तैयार किया है, समय हो तो अवश्य पधारें:
---ब्लागिंग या अंतरजाल तकनीक से सम्बंधित कोई प्रश्न है? अवश्य अवगत करायें:
तकनीक दृष्टा/Tech Prevue
कौए अब रह ही कितने गये हैं? मैनें तो एक लम्बे अरसे से न तो कौआ देखा है, न गौरैया, न ही गिद्ध। आपके घुघुत तो बिना पंख वाले डायबेटिक कौए ही खा पायेंगे।
ReplyDeleteसब से पहले आप कॊ मकरसंक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाएँ,
ReplyDeleteभाई हमारे यहां खुब मोटे मोटॆ ओर सूंदर सूंदर कोवे होते है, ओर अगर आप उन्हे रोजाना खाना दो तो वो हाथ पर भी बेठ जाते है, कहो तो दस बारह भेज दुं
कौए तो विलुप्त होते जा रहे हैं.
ReplyDeleteअच्छा आलेख.
मकर संक्रांति की आपको बधाई एवं मंगलकामनाऐं.
ऐसा करें घुघूती जी आप काकभुशुण्डी का आह्वान करें -वही प्रगट हो आपकी शेष सभी मनोकामनाएं पूरी करेंगे ! आह्वान विधि आसान है रामचरित मानस के काकभुशुण्डी-गरुण संवाद का पारायण करें और प्रसाद रूपी घुघूत अपने घुघूत जी को अर्पित कर दें -बस हो गया अनुष्ठान पूरा -यह विधि बताने की इस ब्रह्मण की दक्षिणा उधार रही आप पर !
ReplyDeleteआजकल घुघुतिया त्यार और कौथिग मेरे आसपास चल रहा है लेकिन यह चलना चलना जैसा कुछ लगता ही नहीं ,ठीक वैसे ही जैसे रस्मी तौर पर संकरात की खिचड़ी..लगता है मुठ्ठियों से समय की रेत झर रही है.
ReplyDeleteपंत जी ने लिखा है-
अहे ! निष्ठुर परिवर्तन !
अरे मुझे भी तुरंत से काकेश जी का स्मरण हो आया ! कहाँ हैं वे ?
ReplyDeleteबधाई आप को भी, अब ओवन के जमाने में फोटो से ही काम चलाया जा सकता है, वैसे भी कौवों ने सोने का घड़ा तो देना नही है।
ReplyDeleteआपको लोहडी और मकर संक्रान्ति की शुभकामनाएँ....
ReplyDeleteआपको मकर संक्रांति की बधाई एवं मंगलकामनाऐं.
ReplyDeleteले कउवा बड़
मुकें दे सुणों घड़।
(ले कउए वड़ा
मुझे दे दे सोने का घड़ा।)
सच बचपन....।
मकर संक्रांति की शुभकामनायें. बहुत सुंदर लेख. आज पहली बार हमें पता चला की घुघूती क्या है. अपने सभी मित्रों से पूछ पूछ कर थक गए थे. आभार.
ReplyDeleteसब बातें बीते वक्त की होती जा रही है ..अब न कोवे दीखते हैं अधिक न उनकी आवाजे
ReplyDeleteसुब्रह्मनियम जी, नमस्कार। पता तो ठीक से शायद अभी भी नहीं चला है। घुघुति एक पहाड़ी चिड़िया है। मुझे बहुत प्रसन्नता होगी यदि आप मेरा यह लेख पढ़कर समझें कि घुघूती बासूती क्या है, कौन है। लिंक दे रही हूँ थोड़ा सा समय निकाल कर पढ़ियेगा।
ReplyDeletehttp://ghughutibasuti.blogspot.com/2007_02_01_archive.html
धन्यवाद।
घुघूती बासूती
हम इस दिन कौओं को गुलगुले व बड़े (पकौड़े) खिलाते थे.
ReplyDeleteले कउवा लगौडा
ReplyDeleteमुकें दे भल्ल दगौडा।
Aap ko bhi Gugutiya aue makar sankranti ki shubhkaamnaye.
ReplyDeleteaapne achhi tasveero ke sath achha likha hai.
परम्पराओं को आज के परिपेक्ष्य में मनाने का लाजवाब आइडिया खोज लिया जी. बहुत शुभाकामानाएम और बधाई आपको मकर सक्रांति पर्व की.
ReplyDeleteराम राम.
अब तो कांव कांव सुने ज़माना हो गया ....
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लेख
ReplyDelete---
आप भारतीय हैं तो अपने ब्लॉग पर तिरंगा लगाना अवश्य पसंद करेगे, जाने कैसे?
तकनीक दृष्टा/Tech Prevue
अहा! कितना सही कहा आपने...
ReplyDeleteघुघूती जी यहाँ गोवा मे तो बहुत कौवे है (इसपर हमने एक post भी लिखी थी link नीचे दे रहे है । )और हमारे घर मे जो पेड़ है उनमे ही न जाने कितने कौवे सपरिवार रहते है । चलिए उनमे से कुछ कौवों को हम आपके यहाँ भेज देते है । :)
ReplyDeletehttp://mamtatv.blogspot.com/2008/10/blog-post.html#comments
आपकी पोस्ट के अहसान में अपने घर पर मां द्वारा बनाई गई घुघुतों की माला की फ़ोटो कबाड़ख़ाने में चस्पा करने जा रहा हूं.
ReplyDeleteआपको उत्तरायणी और काले कव्वा की बधाई!
rochak rachna ke liye saadhuvaad
ReplyDeleteकभी कौए हमारी जिंदगी का हिस्सा हुआ करते थे । शगुन के लिए कौए उडाने का जिक्र तो लोकगीतों में खूब है। अब तो उन्हें मुंडेर पर देखे ज़माना हो गया। हां दिल्ली में गाजीपुर सब्जीमंडी के पास कचरे के पहाड़ पर मंडराती कौओं की सेना जरूर देखता रहता हूँ।
ReplyDeleteमकरसंक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाएँ
sunder!
ReplyDeleteबचपन ी यादे ताजा करने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद!!!!!!!!
ReplyDeletebahut sundar lekh....accha laga padh kar..
ReplyDeleteकौए गायब हो रहे हैं। कोयल का उन के पीछे कतार में खड़े हैं। उन के अंडे कौन सेगा।
ReplyDeleteदरअसल घुघुतिया को पालने-पोसने वाला समाज बदल गया है. पुराने पहाड़ का सामुदायिक जीवन, अस्तित्व से जुड़ी चीज थी. साथ रहना ख़ुद को बचाए-बनाये रखने के लिए जरूरी था. इस जीवन शैली में गुंथे थे घुघुतिया, फूलदेई, ख़तड़ुआ जैसे जाने कितने त्योहारों. हम में से जिनका बचपन उत्तराखंड के गांवों में बीता है, वो इन त्योहारों की सामाजिक-आर्थिक महत्ता को समझ सकते हैं. अब पहाड़ के ग्रामीण उस तरह किसान नहीं रहे. नौकरियों और दूसरे उद्यमों ने वहां शहरीकरण को हवा दी है. इंडीवीडुअलिज्म का बोलबाला है. सामुदायिकता अब उलझन लगने लगी है. जिस फूलदेई के दिन हम बचपन में बड़े उत्साह से घर-घर जाकर चावल इकट्ठा करते थे, अब खाते-पीते परिवार उसे भीख मांगने जैसा मानने लगे हैं. अब सिर्फ़ निर्धन परिवारों के बच्चे ही इस त्योहार को ढो रहे हैं. ऐसे में रोजी-रोटी के लिए महानगरों में भटक आए हम जड़विहीन अधेड़ बंजारों के लिए इन त्योहारों का मतलब एक नॉस्ताल्जिया से ज्यादा कुछ नही. क्योकि हमारे बच्चों के जीवन (जैसा हमने उनके लिए चुना है) के सूत्र इनसे कहीं नहीं जुड़ते.
ReplyDeleteफ़िर भी आपकी पोस्ट उदास करती है और याद दिलाती है कि जो कुछ हमने जोड़ा है, उसमे सब अच्छा ही अच्छा नही. कुछ बेहद जरूरी चीजें हम पीछे कहीं भूल आए हैं. बधाई. काले कउवा इस बार आप दोनों के लिए अच्छी सेहत का कटोरा लेकर आए.
मकरसंक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाएँ
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ReplyDeleteमैंनें यह पोस्ट इतनी देर से क्यों पढ़ा ?
लानत है, मुझ पर !
यह मात्र संस्मरण नहीं..
बल्कि बेहद मार्मिक चित्रण उन क्षणों का..
जो पकड़ से निकल गये हैं ।
उनका मधुमेह और भोजनप्रेम मैं इसमें पढ़ पा रहा हूँ ।
इससे लड़ें, हार नहीं होगी !
Thanks for reminding and best wishes to both of you.
ReplyDeletethanks for remembering ghughutiya tyaar. Best wishes for New Year and Ghghutiya
ReplyDeletehttp://punybhoomi-bharat.blogspot.com काले कावा काले (उत्तरायणी पर्व )की बधाई
ReplyDeletenani ki yaad aa padi,
ReplyDeleteSo True So Nostalgic....
ReplyDeletePlease check tis out as well:
http://darpansah.blogspot.com
शहरों से कऊवे गायब हो रहे हैं..............पर हमारे दुबई में भी बहुत भरमार है इन की.
ReplyDeleteआप को लोहडी की बहुत बहुत बधाई
इस बात पर कहने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं बचे....कहीं मेरी अच्छी बात को कांव-कांव ही ना समझ लिया जाए....कौवे मुझे तो अच्छे ही लगते हैं....!! कम-से-कम वो धूर्त तो नहीं होते....!!
ReplyDeleteआपने जो मसला उठाया है, वो तो दुरुस्त है ही... लेकिन आलेख मिट्टी की सौंधी ख़ुशबू लिए है।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया पोस्ट....
ReplyDeleteलै कावा ढाल, मिकें दे सुनै थाल|
ReplyDeleteकाले कावा काले (उत्तरायणी पर्व )की बधाई|
वाह बहुत खूब
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