मुर्गे की बाँग, ब्लॉगवाणी, भारत सरकार और oxymoron
जो बात बहुत समय से मन में आती थी, हाल ही में मैंने उस छोटी से बात को यूँ ही एक लेख का रूप दे दिया। बात बस इतनी सी थी.. ..'कहते तो हो 'बहुत बढ़िया' तो फिर पसन्द पर क्लिक क्यों नहीं करते ?'
बहुत संभव है, बल्कि यही सच होगा कि ब्लॉगवाणी वाले बहुत समय से सोच रहे होंगे कि ऐसी सुविधा दी जाए कि पसन्द का विजेट सीधे से ब्लॉग पर ही लगा हो । जो चाहें वे उसे अपने ब्लॉग पर चिपका लें। हमने भी चिपका लिया। परन्तु मुर्गे की तर्ज पर हम यह भी सोच रहे हैं कि हमारे बाँग देने से ही सवेरा हुआ। सवेरा तो यूँ भी होने ही वाला था। विशेषकर तब तो होकर ही रहता जब कि कई सारे सूरज आकाश में अपनी चमक बिखराने को लालायित हैं। सूरज की सार्थकता, महत्व को कम तो नहीं करना चाहती, पूँजीवाद की लाख बुराइयाँ हों, परन्तु कई लाभ तो हैं ही, सबसे बड़ा यह कि सब अपना अपना सूरज चुन सकते हैं। ऐसे में सूरज भी अपने ही गर्व में जब तब बादलों के पीछे नहीं छिपते। जानते हैं कि हम नहीं तो कोई और सही और ग्राहक जाकर किसी और सूरज की धूप ताप आएगा।
हमारे ये ब्लॉगजगत के सूरज, कई कई एग्रीगेटर्स, बहुत सारे चिट्ठों को एक स्थान पर एकत्रित कर पाठकों को चिट्ठे देखने की सुविधा व चिट्ठाकारों को अपने चिट्ठे लोगों तक पहुँचाने का एक बढ़िया मंच प्रदान करते हैं। अब सवेरा चाहे मेरे अंदर बैठे मुर्गे(क्या शाकाहारियों के अंदर भी एक मुर्गा बैठा होता है? या शाकाहारियों के अंदर ही, क्योंकि वहाँ सुरक्षित जो महसूस करता होगा) की बाँग देने से हुआ हो या बस जब होने ही वाला था तो सही समय पर हमने बाँग दे दी, कारण जो भी रहा हो, परन्तु जिन पाठकों ने कहा था कि पसन्द की सुविधा चिट्ठे में ही होनी चाहिए उनकी माँग/इच्छा तो आज ब्लॉगवाणी ने पूरी कर ही दी।
यह देखकर मेरा पूँजीवादी मन बाग बाग हो गया। एक और सुविधा! हम उस जमाने की उपज हैं जब स्कूटर का अर्थ होता था वैस्पा या लैम्ब्रेटा और पसन्द का अर्थ होता था कि जो भी पाँच सात साल में मिल जाए वही घर के दरवाजे की शोभा बढ़ा रहा होता था। कार याने,एम्बैसेडर या फिएट!(यह भी आम आदमी या औरत नहीं खरीदते थे, केवल बड़ी हस्तियाँ या बहुत पैसे वाले खरीदते थे। तब जीवन में मिलने वाली सुविधाओं के पेड़ पर स्कूटर बहुत ऊपर और कार बहुत बहुत ऊपर टंगे होते थे। ) टैलिफोन भी एक विलास का सामान होता था। तभी तो आज भी हमें सब कारें एक सी ही नजर आती हैं। ब्रॉन्ड के नाम पर वे ही दो कारें याद रहती हैं। सदा की तरह मैं विषय से भटक रही हूँ (यदि कोई विषय था तो!)। तो हुआ यूँ कि मैं अपने एक मित्र को अपनी बाँग व पूँजीवाद का महत्व बता रही थी। सोचने की बात है कि निजी क्षेत्र माँग उठते से ही उसे पूरा करने की चेष्टा करता है। लोगों ने widget माँगा और उन्हें मिल गया। यह बात और है कि ब्लॉगवाणी के पाठक अधिक से अधिक कुछ हजार हैं और सरकार के नागरिक , सौ करोड़ से अधिक ! परन्तु फिर ब्लॉगवाणी या किसी निजी संस्था के पास साधन भी तो सरकार से बहुत कम ही होते हैं। सरकार के पास चाहे हमारी हजारों माँगे हैं तो फिर उन्हें पूरा करने के लिए कर्मचारियों की एक बहुत बड़ी फौज भी तो है। यह बात और है कि वे यह न सोचते हों कि वे हमारी माँगें पूरी करने के लिए हैं न कि उनकी अपनी !
तभी यह भी कह गई कि काश भारत सरकार भी हमारी जमाने से लगाई जाती चुनाव में 'इनमें से कोई नहीं'का विकल्प दें वाली गुहार ब्लॉगवाणी की तरह सुन लेती! हम बहुधा किसी अपेक्षाकृत कम बुरे व्यक्ति को अपना मत देने से बच भी जाते और अच्छे नागरिक की तरह मतदान भी कर आते। अब प्रश्न यह उठा कि क्या मैं बाज़ार की तरह सरकार व शासन के भी विकल्प चाहती हूँ, extra constitutional authority चाहती हूँ। स्वाभाविक है कि उत्तर था, नहीं बिल्कुल नहीं। परन्तु यह भी सच है कि जिसका विकल्प न हो वह अपना काम मजे से धीमी गति से करता है, यदि करता हो तो। सरकार का विकल्प चाहती तो नहीं परन्तु यह भी सच है कि जहाँ भी शून्य(vacuum)बना नहीं, कुछ ना कुछ उस स्थान को भरने को आ ही जाता है। चाहे वह नक्सलवादी हों,धर्म वाले हों या गाँव का जमींदार!घर में भी आप अपने बच्चों की ओर ध्यान न दीजिए और देखिए वह पड़ोस की चाची,मामी या मित्रों में आपके विकल्प के रूप में सलाहकार ढूँढ ही लेंगे। विद्यालय में अध्यापक नहीं पढ़ाते तो उनका शून्य ट्यूशन कक्षा के ट्यूटर भर देते हैं। शून्य असंभव है। सुदूर गाँवों,आदिवासी क्षेत्रों में न्याय तो क्या बस व पानी, बिजली भी नहीं मिलती। सो उस शून्य को भरने कहीं नक्सलवादियों,कहीं अलगाववादियों, कहीं धार्मिक नेताओं के कंगारू कोर्ट लग जाते हैं। तुरन्त न्याय मिलता है। न्याय चाहे क्रूरता की परिकाष्ठा छूता हो, जैसे भरी सभा में दस डंडे,निर्वस्त्र कर देना,या खौलते तेल में हाथ डलवाना। जिस भी ब्राँड का हो परन्तु न्याय तो है ही। चाहे 'अन्यायी न्याय' ही क्यों न हो। 'अन्यायी न्याय!' एक और oxymoron ! अब इसका अर्थ मत पूछिए। यह दो कारों, दो स्कूटरों के विकल्प और कोई भी फोन न मिल पाने, बिना टी वी(जब टी वी ही नहीं तो चेनल्स कहाँ से होतीं!) के जमाने का शब्द है। जब विकल्प न होते थे तो लोग ऐसी ही oxymoronish बातें घुमा फिराकर करते थे। हम अब भी करते हैं। चलिए क्यों शब्दकोष देखने का कष्ट करवाएँ, मैं ही बता देती हूँ..'a figure of speech in which apparently contradictory terms appear together'. ग्रीक से बने इस शब्द का शाब्दिक अनुवाद है pointedly foolish. यदि rotundly foolish होता तो हम कह सकते थे कि काफी कुछ हमारी तरह! यह rotund लैटिन से है। अब और अर्थ नहीं बताएँगे नहीं तो अनर्थ की सीमा तक लिखते जाएँगे।
खैर,जाते जाते,धन्यवाद ब्लॉगवाणी।
खेद के साथ कहना पर रहा है कि अपने नेटवर्क की गति कुछ ऐसी चल रही है कि लगता है वीरगति प्राप्त ही होने को है,सो किसी के भी चिट्ठे को पसन्द करने का पावन काम तो क्या पढ़ना भी नहीं हो पाया।
घुघूती बासूती
जाते जाते....
यह भी बढ़िया हैः
'पापा क्यों रोए ?'
और मेरे अंग्रेजी ब्लॉग में आज एक नन्ही सी बाल कविता की नन्ही सी पैरोडी भी पढ़िए।
'The latest nursery rhyme from Hyderabad'
घुघूती बासूती
Sunday, January 11, 2009
मुर्गे की बाँग, ब्लॉगवाणी, भारत सरकार और oxymoron
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हम भी "ब्लोगवाणी" को
ReplyDeleteआपके सँग सँग
धन्यवाद कह देते हैँ !!
-लावण्या
अजी यह मुर्गे की बांग बहुत मिटठी लगी.
ReplyDeleteधन्यवाद
हम भी "ब्लोगवाणी" को
ReplyDeleteआपके सँग सँग
धन्यवाद कह देते हैँ !!
भारत सरकार भी हमारी जमाने से लगाई जाती चुनाव में 'इनमें से कोई नहीं'का विकल्प दें
ReplyDeleteआमीन!!
अच्छा लेख लिखा है।
ReplyDeleteचलिए मुर्गे की बाग़ भी सुनाई दी सवेरा भी हो गया होगा -अभी तस्दीक़ करके बताऊंगा !
ReplyDeleteहम भारतवासियों को अपनी कोई मांग इतनी जल्दी पूरी होते देखने की आदत ही नहीं है. अक्सर तो मांग उठा कर भूल ही जाते हैं. तो सुखद आश्चर्य होता है जब सुनवाई हो जाये और वो भी तुरन्त ही.
ReplyDeleteब्लॉगवाणी ने बढ़िया काम किया है, लेकिन आप भी क्रेडिट में हिस्सेदार हैं.
विकल्प तो हर हाल में चाहिए। पूंजीवाद बुरा नहीं था, लेकिन हो गया है। वह तब तक टिकेगा भी जब तक अपने ऐतिहासिक दायित्वों को पूरा नहीं कर लेता या शेष दायित्वों को पूरा करने में पूरी तरह अक्षम नहीं हो जाता। आखिर उस का भी तो कोई विकल्प होगा ही। आप ने बहुत सुंदर आलेख लिखा जिस के अनेक आयाम हैं। कह सकता हूँ कि बहुआयामी है यह।
ReplyDeleteजब प्रतिस्पर्धा होती है तो काम करना पड़ता है, यदि एक नहीं लाता तो दूसरा लाता, आपने सुझाया. आप बधाई की हकदार है, तहे दिल से कबूलिये.
ReplyDeleteदिल्ली में निजीक्षेत्र की कंपनी बिजली सप्लाई कर रही है. प्रतिस्पर्धा के अभाव में इसके मीटर भाग रहे है. यदि एक ओर निजीक्षेत्र की संस्था इसकी प्रतिस्पर्धा में होती तो शायद हालात बेहतर होते. पहले के जमाने में घिसट घिसट कर चलने वाली एमटीएनएल और बीएसएनएल प्रतिस्पर्धा के चलते आज कैसे सरपट भाग भाग कर अच्छी सुविधायें दे रहें है! पिछले दो साल में मेरा एमटीएनएल का फोन सिर्फ एक बार तीन घंटे के लिये खराब हुआ है.
हमारे संविधान में चुनने का अधिकार देकर प्रतिस्पर्धा तो रखी है लेकिन राजनेता जनहितकारी काम क्यों करे? हम वोट देते हैं सिर्फ इसलिये कि वो हमारी जात का है, या कि वो हमारे धरम का है, या वो फलां राजसी खानदान का है, या कि वो हमारे गुट का है. काम करने वालों की तो जमानतें जब्त होती रहती है और शहाबुद्दीन, डीपी यादव, घोटालेबाज, तिड़ीबाज नेता बार बार लगातार जीतते रहते हैं.
हमारे राजनेता जानते हैं कि उन्हें दुबारा कुर्सी कुछ समूहों को साधने से मिलेगी इसीलिये विकास काम एकदम अन्तिम प्राथमिकता में होते हैं, प्राथमिकता में तो वोटो के कब्जेदारों को साधना होता है, सो वो साधते रहते हैं. सरकारें बेरहमी से वसूले राजस्व को संसद में बैठी कठपुतलिया खरीदने में बेरहमी से खर्च करती रहती है.
अगर इनकी सत्ता में वापिसी की शर्त सिर्फ कुछ कर दिखाना हो तो बड़े से बड़ा हरामखोर और कामचोर नेता भी सही परफार्म करने लगेगा जैसे आज एमटीएनएल या बीएसएनएल कर रहीं हैं.
जब देश के एसे हालात हो तो "पापा क्यों रोये" पढ़ना वाकई अच्छा लगता है. जलता दिल और दिमाग दोनों भीग जाते हैं.
आज तो मेरी पसंद में दनादन मामला है..वाह वाह!! बधाई..हम तो इंहा भी चटखा लगाकर फिर पढ़े हैं मगर बाद में पता लगा कि सही ही लगाये थे.
ReplyDelete:)
ब्लॉगवाणी को धन्यवाद देने में आपके साथ हमारी बांग भी सम्मलित मानी जाये, जाने कैसा सुर बना होगा...वो तो सिरिल जाने. :)
इंतजार कीजिए क्या पता कुछ साल ये भी हो जाए। वैसे ब्लोगवानी ने सुन ली तो चुनाव आयोग भी एक दिन सुन ही लेगा। वैसे शुक्रिया अच्छी सलाह के लिए।
ReplyDeleteहमें पसन्द पसन्द है।
ReplyDeleteजब सब ब्लागवाणी को धन्यवादिया रहे हैं तो हम भी काहे पीछे रहे जी? हमारा भी धन्यवाद.
ReplyDeleteरामराम.
धत्त... यानि ऑक्सीमोरोन को आक्सीजन से कोई लेना देना नहीं है तथा इसका अन्य ग्रहों से आए उन विचित्र जीवों से भी कोई लेना देना नहीं है जिन्होंने आक्सीजन पर जीने की काबलियत हासिल कर ली है।
ReplyDeleteअंग्रेजी में तंग हिन्दी के मास्टरों को कार्टून चैनल देखना कम करना चाहिए।
एक बड़ा सा शुक्रिया....
ReplyDeleteब्लॉगवाणी ने बढ़िया काम किया है, लेकिन आप कि सोच के लिए आप भी हिस्सेदार हैं.उत्साह वर्धन हेतु सादर आभार
ReplyDeleteमुर्ग महोदय की समय पर बांग का आभार
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट के लिए विनत साधुवाद
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteचलो मुर्गे नें बांग दी तो सही.....
ReplyDeleteसुन्दर आलेख हेतु बधाई स्वीकार करें........
सुन्दर आलेख
ReplyDeleteआपके मकर संक्रन्ति पर्व की बहुत बहुत शुभ कामनाऍं
ghughuti basuti...
ReplyDeletek khanchi??
dudh bhati
Maon kot ja maon kot ja maon kot ja..