हे कौओं के राजा ! क्या आप जानते हैं कि यहाँ जहाँ मैं रहती हूँ एक भी कौआ नहीं पाया जाता ? आपके शासन में इतना अन्याय क्यों ? अब हम सात साल से काले कौआ नहीं मना रहे । क्या सभी कौए फेयर ऍनड लव्ली का उपयोग कर कबूतर बन गए ? फौरन एक फरमान जारी कर इस पर रोक लगाइये राजन् !
काले कौआ के दिन( काले कौआ कुमाऊँ में संक्रान्ति के समय मनाए जाने वाला त्यौहार है ।) हमारा मन तरह तरह के आकार जैसे, ढोलक, डमरू, लौंग, फूल आदि के शकरपारे बनाने, उन्हें माला में पिरोने फिर उन्हें काले कौओं को बुला बुला कर खिलाने को मचलता है । किन्तु यहाँ पूर्णतया काला तो क्या अधकाला कौआ भी नहीं दिखता । मोर, कोयल और तरह तरह के पक्षी तो बहुत आते हैं पर क्या कोई कुमाऊनी कौओं का हिस्सा इन्हें खिलाएगा ?
श्याम वर्ण कृष्ण की इस कर्मभूमि में श्याम या अर्धश्याम कौओं का यह अकाल मेरे गले नहीं उतरता । देखो तो इनकी याद में मैंने एक गीत (पैरोडी) रच डाला है ।
अब तक मुझे यह समझ नहीं आ रहा था कि अपनी विनती लेकर किसके पास जाऊँ । आपके नाम का अर्थ तो मुझे पता था पर आपको पता है कि नहीं यह शंका थी , किन्तु अब तो शंका निवारण हो गया । सो हे राजन् ! गीत भी प्रस्तुत है.........
सारे कौए कहीं खो गए
हाय हम कौए विहीन हो गए
सारे ......
हाय हम काले कौए मनाने से रह गए !
हाथों ने बनाए जो शकरपारे
वे सारे धरे रह गए
सारे .........
बिन कौए ये समय जो बीता
क्या कहें हम पर क्या क्या बीता
कौए न आए जबसे हम यहाँ हैं आए
हाय हम कौए .........
तुमने हमसे की थी जो काँव काँव की बातें
उनको दोहराते हम जो टेप किये होते
हमसे शकरपारे खाने के दिन खो गए
हाय हम कौए .........
बहुत से शिकवा और गिला है
कौओ हमको ये गम मिला है ।
सारे....
हाय....
कुछ कीजिए काकेश !
आपकी ही कौआ भक्त,
घुघूती बासूती
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जमाना बीत गये वो डमरू, वो चक्र, वो अनार, वो डायमंड रूपी शकरपारे खाये हुए, मुद्दत हो गयी काले कौआ गाये हुए। आपने फिर से याद दिला दिया।
ReplyDeleteधन्यवाद ..पहले तो इसलिये कि आपने इस नाचीज को अपने शीर्षक में जगह दी . और फिर विनती भी कर डाली ..आपको विनती नहीं आदेश देना है घुघुती जी .. आपको शायद मालूम नहीं कि हमारी (कौवा) बिरादरी में घुघुति को ज्यादा सम्मान की नजर से देखा जाता है .घुघुति ग्रे है और कौवा काला. अब ये तो नहीं मालूम की हम वहां कौओं को भिजवा पांएगे की नहीं ( क्योकि मुए कौवे मोदी जी से खफा हैं ) लेकिन हां उतरैणी की घुघुतिया जरूर मना लेंगे एक पोस्ट के माध्यम से.
ReplyDeleteतनी उचर-अ-हो कागा हमार अंगना । भोजपुरी के बिदेसिया शैली का यह गाना । अब न कौआ उड़ता है न मेहमान आते हैं । घुघुती जी कौओ को ले आइये । कहीं से भी । हमारा मन भी किसी मेहमान के आने की दस्तक के लिए इन कौओं को उड़ाने के लिए मचलता है
ReplyDeleteधन्य हैं काक महाराज! जिनकी इतनी प्रतीक्षा है. पैरोडी-प्रार्थना तो कमाल की है.
ReplyDeleteपर यह सिर्फ़ हंसी की बात नहीं है आपने एक बहुत महत्वपूर्ण पर्यावरणीय समस्या की ओर ध्यान आकर्षित किया है. कौवे और गिद्ध जैसे पक्षियों का न दिखना या कम होना आने वाले पर्यावरणीय संकट की ओर इशारा करते हैं. बायो-डायवर्सिटी -- जैव-विविधता -- को बचाये रखने का भी एक संदेश है . अब क्या कौवे 'सुभाषितानि' ( काक चेष्टा बको ध्यानम .....) और दोहों ( आदर दै दै बोलियत बायस बलि की बेर) , मिथकों ( जयंत ) और लोक-साहित्य में ही बचेंगे .
बेहतरीन पोस्ट के लिए बधाई स्वीकारें .
कुछ कौवे मेरे शहर में भी भेज देना, यहाँ सालों से काग महाराज के दर्शन नहीं हुए
ReplyDeleteकुमाऊँ के काले कौओं की तरह पूर्वांचल में होली पर,'सिरहाने से कागा जा भागा,मोरा सैयाँ अभागा ना जागा' गाया जाता था ।
ReplyDeleteकौवा लोक संस्कृति से गहराई से जुड़ा पक्षी रहा है। मिथिला की संस्कृति में भी कौवों से जुड़े पर्व और लोकगीत हैं। लेकिन पर्यावरण और पारिस्थितिकी में आए व्यतिक्रम के कारण कौवे तेजी से विलुप्त होते जा रहे हैं।
ReplyDeleteआपने इस पोस्ट और पैरोडी के माध्यम से कौवों को इतनी बेकली से याद किया, वे धन्य हो गए होंगे। मेरे ननिहाल में एक गृहस्थ साधु हुआ करते थे, नाम था काग बाबा। कौवे उनके कंधे या सिर पर विराजमान रहते। बाबा जहां जाते, कौवे हमेशा साथ रहते थे। मुझे बड़ा अजीब लगता कि कौवे जैसे कर्कश बोली वाले पक्षी से उनका इतना लगाव कैसे है।
लेकिन अब समझ में आ रहा है कि कौवों का हमारी संस्कृति में महत्वपूर्ण स्थान रहा है।
आपका लेख पढकर मुझे लता जी का गाया ,हृदयनाथ मंगेशकर के निर्देशन में , ये भजन याद आ गया
ReplyDeleteउड जा रे कागा .....
बचपन में जैसे ही कौआ घर के आंगन में काँव काँव करता हम किसी मेहमान के आने की प्रतीक्षा करने लग जाते.लेख अच्छा लगा .
ReplyDeleteकविता में अपनी लेखनी कमजोर है वर्ना एक कविता गौरैया पर जरूर बनती है. उसने हमें जनम से इतने बडे तक साथ दिया पर अब न जाने कहां गायब हो गयी है.
ReplyDeleteबढ़िया रचना।
ReplyDeleteलेकिन प्रियंकर जी से मैं सहमत हूं , जब हम छोटे थे तो हमें सुबह या शाम कौव्वों का कलरव सुनाई देता था, इधर बरसों हो गए सुने हुए, अब तो ले देकर कहीं एक कौव्वा भी दिख जाए तो बहुत है। हमारे यहां की युनिवर्सिटी में एक शोध छात्र/छात्रा ने इस बारे में शोध भी किया था
बहुत अच्छे सुंदर कविता है,..हम तो काले कौवो से बहुत परेशान है,..काश वो आपकी पुकार सुनकर
ReplyDeleteजल्दी ही चले जाएं जहाँ सम्मान ना मिले वहाँ कौन रहना चाहता है,...
सुनीता(शानू)
सुंदर प्रयास है…निश्चित ही एक पर्यावरणीय समस्या मुख उठाए सामने दस्तक दे रही है और हम सारे अनभिज्ञ बने है…नई विचार का प्रेरणापरक लेख पढ्ने को मिला…।बधाई!!
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया लिखा है. अच्छा लगा पढ़कर. देर से आ पाया और अब तो राजा साहब भी लिख चुके हैं. :)
ReplyDeletepurane din yaad aa gaye ! thanks for letting those old days come alive again !
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