tag:blogger.com,1999:blog-388180122024-03-08T05:50:42.022+05:30घुघूतीबासूतीGhughuti Basutighughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.comBlogger407125tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-59491638853006347762023-06-17T21:18:00.002+05:302023-06-17T21:18:29.142+05:30हम बेल पर लगी ककड़ियाँ<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEggF2sDcCUTfBff_aJNsmTfVO4HcT9U8TOymsJxN58cMNlHNWmmcvflGg3Wnw69VdgDjMThnasd91wKXXopabhe1k4Jj9LLfWaz9oS1CGHjIf1qKlogQqwphArXDWx34miXKx9Ackm51fw15bmC51TMmzaqLYyS20lUn6erS4hyTV-VuCALcKQ" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="" data-original-height="900" data-original-width="1600" height="180" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEggF2sDcCUTfBff_aJNsmTfVO4HcT9U8TOymsJxN58cMNlHNWmmcvflGg3Wnw69VdgDjMThnasd91wKXXopabhe1k4Jj9LLfWaz9oS1CGHjIf1qKlogQqwphArXDWx34miXKx9Ackm51fw15bmC51TMmzaqLYyS20lUn6erS4hyTV-VuCALcKQ" width="320" /></a><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEggF2sDcCUTfBff_aJNsmTfVO4HcT9U8TOymsJxN58cMNlHNWmmcvflGg3Wnw69VdgDjMThnasd91wKXXopabhe1k4Jj9LLfWaz9oS1CGHjIf1qKlogQqwphArXDWx34miXKx9Ackm51fw15bmC51TMmzaqLYyS20lUn6erS4hyTV-VuCALcKQ" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"></a><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEiIgup7mIaz4w6aPcBEarzV77a6tlHNd1kGuDYDr5arzauv7XUHnPCuoJcyW11r9nDsFV0qNn9F2Hc8k8QwEzGHjdvEizsRYrE1syC7pF8PBw9w5SJhoACgP3srQTpoh4LlpVI0pPwVgZNUu503qnCV2GG8PzdxVO1P8zWnPuJ_ffiyPSeGKsI" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="" data-original-height="1600" data-original-width="1200" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEiIgup7mIaz4w6aPcBEarzV77a6tlHNd1kGuDYDr5arzauv7XUHnPCuoJcyW11r9nDsFV0qNn9F2Hc8k8QwEzGHjdvEizsRYrE1syC7pF8PBw9w5SJhoACgP3srQTpoh4LlpVI0pPwVgZNUu503qnCV2GG8PzdxVO1P8zWnPuJ_ffiyPSeGKsI" width="180" /></a></div><br /></div><br /><p></p><p>एक उम्र ऐसी आती है कि हर महीने दो महीने में (पति के व्हट्स एप ग्रुप में ) समाचार आता है कि यह या वह चला गया. कोई सोए में तो कोई दो चार दिन की बीमारी में.</p>परसों जिनकी मृत्यु का समाचार मिला उन्हें मैं स्कूल के दिनों से जानती थी. बहुत ही प्यारे व्यक्ति. ( थे कहने में मन कचोटता है) उतने ही निरापद जितना कोई नवजात. लगभग दस वर्ष पहले पति उनसे मिले थे . उन्हें पार्किन्सन रोग था. वह ओजस्वी मित्र ऐसे रोग से जूझ रहा होंगे सोचकर मन खिन्न हो गया. हो सकता है मृत्यु शायद उनके लिए मुक्ति ही रही हो.<br />पति के रिटायर होते ही सबसे पहले जिनकी मृत्यु का समाचार मिला था वे घर आते रहते थे. फिटनेस के शौक़ीन वे जिम जाते थे. ६७ वर्ष के अविवाहित व्यक्ति किसी के द्वारा अंकल कहलाना सह नहीं पाते थे. उनकी अस्सी वर्षीय माताजी उनसे भी अधिक शौक़ीन थीं. पार्टियों में अवश्य जातीं. ये मित्र सोए सोए संसार को विदा कह गए. उनकी माँ पर सुबह क्या गुज़री होगी सोच पाना भी कठिन था.<br /><br />कोविड काल में तो हमारी उम्र के वृद्ध वृद्धा वैसे गए जैसे आंधी तूफ़ान में पुराने पेड़. कभी कभी लगता है जो जो मित्र चले गए उनकी एक सूची बनाई जाए. पता नहीं आखिरी व्यक्ति जो रह जाएगा कौन होगा और वह कितना अकेला होगा.<br />लगता है हम सब एक बेल पर लगी हुई ककड़ियाँ हैं. जो पक पक कर बेल से अलग हो रही हैं. हम जो इस आयु तक पहुंचे हैं कि अपने आप से बेल से अलग हो जा रहे हैं भाग्यवान हैं. वे जिन्हें अकाल मृत्यु ने बलात बेल से तोड़ लिया कम भाग्यवान थे. कुछ वैसे ही जैसे जब बाल के गिरने का समय आ जाता है वह अपने आप झड़ जाता है. यदि उसे खींचकर निकाला जाए तो बहुत दर्द होता है.<br /><br /><span style="background-color: white; color: #2b2b2b; font-family: LocalFont, -apple-system, BlinkMacSystemFont, "Segoe UI", Roboto, Oxygen-Sans, Ubuntu, Cantarell, "Helvetica Neue", sans-serif; font-size: 16px;">उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् .</span><div><span style="background-color: white; color: #2b2b2b; font-family: LocalFont, -apple-system, BlinkMacSystemFont, "Segoe UI", Roboto, Oxygen-Sans, Ubuntu, Cantarell, "Helvetica Neue", sans-serif; font-size: 16px;">घुघूती बासूती </span></div>ghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-50590814916514966562023-06-10T02:58:00.003+05:302023-06-10T02:58:28.074+05:30टपका<p> टपका</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEj2SCTMlKBMktSvukLpDeMfOvN4VRTvCFmeiL_vRygD2kKY_uGJ7Vp1gziabGXeUQ75y_2hDzocaUHuqr0lWyoBuFOcNe38fEoSOMsw34dprHeQYclskdqY18iqiCvrrr-GNOlcSu6T4sa4XynwR0CmB5ZCskDhq40VNATamoS9K7vzxEYEl2k" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="" data-original-height="1600" data-original-width="720" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEj2SCTMlKBMktSvukLpDeMfOvN4VRTvCFmeiL_vRygD2kKY_uGJ7Vp1gziabGXeUQ75y_2hDzocaUHuqr0lWyoBuFOcNe38fEoSOMsw34dprHeQYclskdqY18iqiCvrrr-GNOlcSu6T4sa4XynwR0CmB5ZCskDhq40VNATamoS9K7vzxEYEl2k" width="108" /></a></div><br /><p></p><p>शहरों में रहते हुए बहुत कुछ छूट जाता है, जैसे प्रकृति, खेत, फलों के बाग। सो शहरों के पास के किसानों ने अपनी आय का एक नया साधन ढूँढ लिया है। किसी ने फार्म हाउस बनाकर उसे किराए पर देना शुरू किया है, किसी ने आम के मौसम में आम पार्टी रखना शुरु किया है।</p><p>पहले से पैसे देकर आप आम पार्टी में जा सकते हैं। आम के बाग में आपका स्वागत होता है। वहाँ आप घूम फिर सकते हैं। चाय, जलपान, खाना पीना खरीदकर कर सकते हैं। आम तोडकर उन्हें तुलवाकर खरीद सकते हैं। फलों के जैम, मुरब्बे, अचार खरीद सकते हैं। कुछ फार्म में आप जानवरों को खिला पिला भी सकते हैं। </p><p>हम भी अपनी नतिनी और उसके माता पिता के संग गए। नतिनी को लम्बे से डंडे से पेड़ से फल तोड़ना सबसे अधिक अच्छा लगा, उसके बाद उसे जानवरों को खिलाना पसन्द आया।</p><p>मैंने नतिनी को टपके आम के बारे में बता रखा था कि उससे अधिक स्वाद कोई भी आम नहीं हो सकता। किन्तु दुर्भाग्य से हमें वहाँ टपका आम नहीं मिला। टपका आम वह आम होता है जो पूरी तरह से पेड़ पर ही पकता है और फिर पकने के बाद अपने आप पेड़ से टपक जाता है। अन्यथा किसान जब आम पूरी तरह से बड़ा हो जाता है तो उसे तोड़कर पाल में पकाता है। पाल अर्थात किसी बन्द जगह जैसे पेटी आदि में पुआल आदि रखकर उनके बीच आमों को रखकर बन्द कर देना। फिर फल की अपनी गर्मी से फल पक जाते हैं। हमारे बचपन में हमने पिताजी को पुआल की जगह अमलतास के पत्ते उपयोग करते देखा था। हम भी पति की नौकरी के समय बड़े बगीचों वाले घरों में रहे ओर ऐसे ही आम पकाते रहे। </p><p>इस फार्म यात्रा के बाद नतिनी माता पिता के साथ घूमने यात्रा पर चली गई। टपका आम खिलाना रह गया। उनके वापिस आने से पहली शाम जब हम पति पत्नी सैर कर रहे थे, तो अचानक बहुत जोर से कुछ गिरने की आवाज आई। हम रूककर क्या गिरा देखने लगे। अचानक पति की नजर पास के आम के पेड़ पर पड़ी जिसपर काफी आम लटक रहे थे। समझ आया कि आम गिरा है। पास खड़ी एक कार की छत पर एक बड़ा सा आम पड़ा हुआ था। मन टपका कहकर बल्लियों उछलने लगा। हम उस आम को घर लाए। वजन किया तो वह ६८४ ग्राम का निकला। वह पूर्णतया पका हुआ था। </p><p>अगले दिन बच्ची ने जीवन का पहला टपका आम खाया। वह किसी विशेष प्रजाति का नहीं था। कभी किसी गुठली से अपने आप उगा एकदम ठेठ देसी आम था। उसका स्वाद भी उसकी तरह से ही ठेठ उसका निजि एकदम अलग था।</p><p>घुघूती बासूती </p>ghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-37063428550949976182022-05-13T22:08:00.002+05:302022-05-13T22:08:22.835+05:30संयोग <p><br /></p><div data-block="true" data-editor="7p28q" data-offset-key="6pvhd-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"><span data-offset-key="6pvhd-0-0" style="font-family: inherit;"><div class="" data-block="true" data-editor="7p28q" data-offset-key="2sufr-0-0"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="2sufr-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><br /></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="7p28q" data-offset-key="6pvhd-0-0"><div><span data-offset-key="6pvhd-0-0" style="font-family: inherit;"><span data-text="true" style="font-family: inherit;"><div class="" data-block="true" data-editor="7p28q" data-offset-key="2sufr-0-0"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="2sufr-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="2sufr-0-0" style="font-family: inherit;"><span data-text="true" style="font-family: inherit;">पश्चिम बंगाल के पहाड़ों और सिक्किम से लौट आई. किन्तु उस पर बाद में.</span></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="7p28q" data-offset-key="fti5a-0-0"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="fti5a-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="fti5a-0-0" style="font-family: inherit;"><span data-text="true" style="font-family: inherit;">कई अन्य बातें हैं जो अपने को लिखवाना चाह रही हैं. </span></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="7p28q" data-offset-key="6h97b-0-0"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="6h97b-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="6h97b-0-0" style="font-family: inherit;"><span data-text="true" style="font-family: inherit;">बागडोगरा हवाईअड्डे पर उतरने के बाद सिलिगुड़ी में एक रेस्टोरेंट में पहली मंजिल या उससे भी कुछ ऊपर( पहाड़ होने के कारण कुछ अधिक चढ़ना पड़ा) खाना खाने गए. खाना ख़त्म होने के बाद निकलने ही वाले थे और हाथ मुंह धो रहे थे कि अचानक पहले एक आदमी भागता हुआ सीढिया उतरने लगा फिर एक स्त्री और फिर कई और लोग. कुछ भगदड़ सी मचती देख मन आशंकित हुआ. पहले हुए फसादों का ध्यान आया. और बच्चों को सचेत किया.</span></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="7p28q" data-offset-key="e7oeh-0-0"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="e7oeh-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="e7oeh-0-0" style="font-family: inherit;"><span data-text="true" style="font-family: inherit;">नीचे उतरे तो पता चला कि दो साल का एक बच्चा ऊपर खिड़की से नीचे गिर गया था. इसलिए माता पिता नीचे भागे थे.</span></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="7p28q" data-offset-key="1t5ha-0-0"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="1t5ha-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="1t5ha-0-0" style="font-family: inherit;"><span data-text="true" style="font-family: inherit;">अब वे लोग बच्चे को अपनी कार में हस्पताल ले जाते दिखे.</span></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="7p28q" data-offset-key="buclb-0-0"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="buclb-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="buclb-0-0" style="font-family: inherit;"><span data-text="true" style="font-family: inherit;">किन्तु बच्चे को कुछ भी नहीं हुआ था. एक खरोंच भी नहीं लगी थी. बात अविश्वसनीय है . </span></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="7p28q" data-offset-key="5lg1e-0-0"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="5lg1e-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="5lg1e-0-0" style="font-family: inherit;"><span data-text="true" style="font-family: inherit;">नीचे भी खाना पकता है. वहाँ का कुक शायद धुएँ , गर्मी या फिर रसोई की बोरियत से बाहर साँस लेने आया. अचानक उसने ऊपर देखा और उसे बच्चा गिरता दिखा. उसने बच्चे को लपक लिया. अचानक से वह कुक उस परिवार के लिए न जाने क्या बन गया. भगवान, देवता, रक्षक या न जाने क्या?</span></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="7p28q" data-offset-key="7heta-0-0"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="7heta-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="7heta-0-0" style="font-family: inherit;"><span data-text="true" style="font-family: inherit;">मेरा बड़ा मन था कि उस कुक से मिलूँ. उसे देखूं. किसी के प्राण बचाने का अवसर सबको तो नहीं मिलता. न जाने वह स्वयं कितना स्तब्ध होगा. उसने जो किया वह शायद एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी और उसने अपने जीवन का सबसे बहुमूल्य काम एक पल में कर दिया.</span></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="7p28q" data-offset-key="e8sh8-0-0"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="e8sh8-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="e8sh8-0-0" style="font-family: inherit;"><span data-text="true" style="font-family: inherit;">अपने टी वी रिपोर्टर्स की तरह उससे पूछ सकती थी कि उसे कैसा लग रहा है. किन्तु स्त्री होने का सबसे बड़ा प्रशिक्षण हमें जो जन्म से मिलता है वह है मन की न करना. सो उससे नहीं मिली.</span></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="7p28q" data-offset-key="6pvhd-0-0"><div class="_1mf _1mj" data-offset-key="6pvhd-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;"><span data-offset-key="6pvhd-0-0" style="font-family: inherit;"><span data-text="true" style="font-family: inherit;">किन्तु अचंभित अब तक हूँ.</span></span></div><div><span data-offset-key="6pvhd-0-0" style="font-family: inherit;"><span data-text="true" style="font-family: inherit;">घुघूती बासूती </span></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="7p28q" data-offset-key="80qej-0-0"></div></span></span></div></div><div class="" data-block="true" data-editor="7p28q" data-offset-key="80qej-0-0"></div></span></div><div data-block="true" data-editor="7p28q" data-offset-key="80qej-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"></div><div data-block="true" data-editor="7p28q" data-offset-key="80qej-0-0" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"></div>ghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-30972053683998589112021-06-14T20:15:00.003+05:302021-06-14T20:15:23.565+05:30पिताजी<p><u> पिताजी</u></p><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">पिताजी में सदा हर काम, हर बात, जीवन के प्रति उमंग होती थी. छोटी छोटी बातें उन्हें खुश कर देती थीं. मैंने उन्हें कभी किसी काम को टालते नहीं देखा. ( माँ कभी कभी मजे से टाल देती थीं , सिवाय पुस्तक, पत्रिका, समाचार पत्र पढने को ) हर समय उर्जा और उत्साह से भरे होते थे. मृत्यु से तीन महीने पहले तक मेरे पास थे. सुबह शाम इतना तेज चलते हुए सैर करते थे कि सब लोग देखकर दंग रह जाते थे. छोटे छोटे बच्चे अपने अपने गेट पर खड़े होकर उनकी प्रतीक्षा करते थे. वे एक दूसरे की भाषा नहीं समझते थे. किन्तु बच्चे उन्हें नमस्कार करने को खड़े रहते थे.</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">उनकी मृत्यु से तीन महीने पहले मैंने उन्हें कहीं पांच किलोमीटर दूर पैदल चलकर अपने साथ घूमने जाने को कहा तो वे उसी क्षण चल पड़े. </div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">पिताजी को उनके भगवान, माँ के प्रति अद्भुत अकूत प्रेम, उनके उद्यम, उनकी निडरता से अलग करके नहीं देख सकती.</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">जाने से एक माह पूर्व मेरी उपस्थिति में ही उन्हें मृत्यु का आभास हो गया था. या उनके शब्दों में काल उन्हें एक महीने का नोटिस दे गया था. </div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या तुम माँ का ध्यान रखोगी , उन्हें अपने साथ रखोगी और भाई के पास से ले जाती , लाती रहोगी. मेरे हाँ कहने के बाद उन्होंने बस मुझे अपने परिवार और बच्चियों का ध्यान रखने को कहा और उसके बाद एक भी बार संसार की समस्याओं के बारे में नहीं सोचा.</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">उस एक महीने उन्होंने लगातार केवल राम नाम ही जपा. हाथ से माला ले लेने पर वे उँगलियों पर काल्पनिक माला जपते रहे. अपनी अन्य दैनिक पूजा, आराधना को शायद बिस्तर पर होने के कारण छोड़ दिया. या शायद वे अपने हिस्से की कर चुके थे. कोई मिलने आता तो मुस्करा कर हाथ जोड़ देते. और फिर अपने जाप में लग जाते. भाई के प्रति उनका स्नेह ही उनका अंतिम सांसारिक लगाव रह गया था.</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">उन्हें न भोजन, न पानी , न दवा में रूचि रह गयी थी. न उन्हें कोई कष्ट था, न पीड़ा. डॉक्टर ने उनपर कोई जबरदस्ती न खिलाने न, दवा की जिद करने को कहा था. उनका कहना था कि उनके organs और शरीर धीरे धीरे बंद हो रहे हैं, बस उनके आराम का ध्यान रखना है. </div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">जब भी उनके अंतिम दिनों को याद करती हूँ तो लगता है उनका जपा यह मन्त्र उनपर फलीभूत हुआ. बिलकुल जैसे फल पकने पर अपनी शाखा से अलग हो जाता है वे प्राणों/ जीवन/ शरीर से अलग हो गए. </div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">ॐ त्र्यम्बकम् यजामहे </div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम् . </div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">उर्वारुकमिव बन्धनान् </div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्.</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">रात एक बजे उनके पूरी शक्ति से बिलकुल स्पष्ट अंतिम शब्द थे , हे राम !</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">पापा, हमारे लिए भी जपा था न!</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">जन्मदिन की शुभकामनाएँ पिताजी! आपको बहुत बहुत प्यार. आपके लिए कभी नहीं रोई. कोई कारण ही नहीं था या है. जैसा स्वच्छ , स्वस्थ, कार्यशील , विवेकपूर्ण , आनन्दमय जीवन आपने जिया, विरले ही जी सकते हैं. आपके पास कितना कम धन था और कितना अधिक आनन्द था.</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">आपके लिए ही निर्वाण षट्कम में 'चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम्' कहा गया होगा.</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">वैसे मैं सदा आपके साथ शिव को ही जोडती थी. मुझे बचपन भर लगता था वे आपके मित्र हैं. किन्तु आप अंत समय राम जपते रहे.</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">एक और बात सदा कुछ भी अच्छा, बहुत स्वाद खाते, बहुत अच्छा पहनते, जीते समय याद आती है. आप सदा कहते थे, 'तुमने खा लिया, मेरा पेट भर गया. ' आशा है आप सदा की तरह तृप्त होंगे. चाहे भूमि के कणों में, चाहे वायु में, चाहे आकाश में या अपने प्रिय पेड़ पौधों, हरियाली में या यदि कोई राम है तो उसके पास या किसी संसार की वृहत चेतना में बहते हुए. साथ में मेरा स्नेह भी बहता होगा पापा. Love you.</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">घुघूती बासूती </div>ghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-54205193274885319342020-11-07T14:41:00.010+05:302020-11-07T14:45:58.931+05:30जिसके भीतर जो होगा वही बाहर निकलेगा।<p>यह बात हम हर समय देखते हैं। सबसे अधिक तब जब व्यक्ति को चोट लगे, बहुत पीड़ा हो। हमारे बचपन में हम ऐसे में हे राम, उई माँ, कुमाँऊनी में ओ इजा (माँ), ओ बौज्यू (पिता) सुनते थे। आजकल शिट, फ़... सुनते हैं।<br /><br />स्कूली दिनों में एक बार बहुत कष्ट में हस्पताल के एमर्जेंसी वार्ड में रहना पड़ा था। एक व्यक्ति भद्दी गालियाँ दे रहा था, चीख चीख कर। सारा कमरा उसकी गालियों से गूँजायमान रहता था। एक बार उसने एक डॉक्टर को झन्नाटेदार थप्पड़ भी मारा जो सबको सुनाई दिया। मैंने डॉक्टर से इस विषय में पूछा तो उसने कहा कि वह एक सड़क दुर्घटना में घायल है। बचने की आशा नहीं है। बहुत दर्द है, इसलिए ऐसा कर रहा है। यह सामान्य है। </p><p><br />परिवार में मैंने तब तक कभी अपशब्द नहीं सुने थे। किन्तु मस्तिष्क में बैठ गया कि अति कष्ट में अपशब्द निकलना सामान्य है। एक भय भी कि कभी मैं भी ऐसा करूँगी।</p><p><br />तीन चार साल बाद पिताजी को स्ट्रेन्ग्युलेटेड हर्निया में दर्द से तड़पते हुए देखा, उन्हें रिक्शे में लाद हस्पताल ले गई। दर्द असह्य होने पर वे रिक्शे से उतर जमीन पर लेट तड़पने लगे। मृत्यु भूमि पर आए शायद और भूमि पर तड़पन अधिक सुविधाजनक था। मुझे भय था कि अब गालियाँ बरसेंगी किन्तु वे हे राम और ओ इजा, ओ बौज्यू ही कहते रहे। जब तक डॉक्टर ने हर्निया को ठीक नहीं किया वे राम और माता पिता को ही गुहार लगाते रहे।</p><p><br />जब बेटियों का जन्म होना था तो मुझे फिर भय था कि प्रसव पीड़ा में कहीं मुँह से गालियाँ ना बरसें। किन्तु ऐसा नहीं हुआ। <br />फिर कितने ही औपरेशन हुए, हर्निया हुआ, हर बार होश में आने पर पति से यही पूछा कि मैं बेहोशी में क्या बड़बड़ा रही थी। अपशब्द कभी नहीं थे। </p><p><br />पिताजी ने पूरी शक्ति से हे राम कहकर प्राण त्यागे।</p><p><br />सो कष्ट और अपशब्दों का सम्बन्ध हमारे भीतर क्या है से है ना कि पीड़ा से।</p><p>किन्तु अब बाहर, घर परिवार सब जगह ये ही शब्द सुनाई देते हैं। कोई इसे बुरा नहीं समझता, यदि समझता होता तो इसका इलाज करता। इलाज बहुत कठिन नहीं है। जिन शब्दों को हम बोल रहे हैं उनको कल्पना में देखो, सूँघो महसूस करो। शायद बोलने का मन ना करे।</p><p><br />राम या भगवान की जगह नास्तिक कुछ अन्य शब्द बोल सकते हैं, माँ, पिता, गुलाब, कमल, कार्ल मार्क्स, माओ, अमेरिका, चीन या कुछ भी। वे सब शिट और फ़... से तो बेहतर ही होंगे अपने भीतर संजोने को।</p><p><br />घुघूती बासूती<br /></p>ghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-30335612551006535962018-05-07T09:57:00.000+05:302018-05-07T09:57:19.684+05:30एक सपने की हत्या<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कुछ मैंने की, कुछ तूने की<br />
कुछ मिलकर हम दोनों ने की<br />
इक सपने की हमने हत्या की ।<br />
<br />
समझौतों का ये जीवन जीया<br />
मिलकर गरल कुछ हमने पीया<br />
जो करना था वह हमने न किया ।<br />
<br />
थोड़ी तूने, थोड़ी मैंने ये दूरी बनाई<br />
मिलकर हमने थी जो सेज सजाई<br />
उसके बीचों बीच ये दीवार बनाई ।<br />
<br />
कुछ तू ना समझा कुछ मैं न समझी<br />
बातों बातों में कब जिन्दगी ही उलझी<br />
मिल हमें जो सुलझानी थी ना सुलझी ।<br />
<br />
अपनी अलग अलग राहें चुन लीं<br />
मन की हमने ना बातें सुन लीं<br />
अंधेरी हमने अपनी राहें कर लीं ।<br />
<br />
कुछ तू आता कुछ मैं आती पास तेरे<br />
मन से जो सुनता मन के बोल मेरे<br />
मैं जीती तेरे लिये तू जीता लिये मेरे ।<br />
<br />
पर ऐसा कभी कुछ भी हो ना सका<br />
थोड़ा मैं थी थकी थोड़ा तू था थका<br />
जीवन हमें कितना कुछ दे न सका ।<br />
<br />
ध्येय हमारा हरदम इक ही था<br />
संग जीना और संग मरना था<br />
फिर सपने को क्यों यूँ मरना था ।<br />
<br />
अब आ मिल कुछ संताप करें<br />
सपने के मरने का विलाप करें<br />
हम दोनों मिल पश्चात्ताप करें ।<br />
<br />
घुघूती बासूती</div>
ghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.com20tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-3830017962552805692018-05-07T06:37:00.000+05:302018-05-07T06:44:51.347+05:30क्यों उसे ऐसा लगा कि गुलाबी या जामुनी रंग लेने से उसका जेंडर ही बदल जाएगा?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कुछ दिन पहले एक स्त्री को उसके कार्यालय में उसके बच्चे के क्रेश/ डे केयर से फ़ोन आया , 'आपका बच्चा सम्भाले नहीं सम्भल रहा है, तोड़ फोड़ कर रहा है, आकर उसे ले जाइए.' स्त्री की नई नई नौकरी है और वह भी अपनी सोसाइटी, जहाँ बच्चे का क्रेश भी है, से बहुत अधिक दूर. बच्चे को लेने पहुँचने में डेढ़ घंटा आराम से लग सकता था. उसने क्रेश संचालिका से कहा, 'आप मेरी बात मेरे बच्चे से करवा दीजिए.' संचालिका बोली , 'नहीं, मैं बात नहीं करवा सकती ,वह मेरा फोन भी तोड़ देगा. ' असहाय माँ बोली,' मेरी बात तो करवाइए. फोन तोड़ देगा तो मैं नया खरीद दूँगी .' बहुत बार कहने पर संचालिका बच्चे से बात करवाने को तैयार हो गयी.<br />
बच्चे से बात करने पर पता चला कि सब बच्चे रंग बिरंगे कागजों पर चित्रकारी कर रहे हैं. बच्चे को गुलाबी रंग का कागज दिया गया. उसे बदलने को कहने पर जामुनी रंग का कागज दिया गया. ये दोनों रंग वह पसंद नहीं करता क्योंकि वे लडकियों के रंग हैं. कागज न बदलने पर उसे इतना गुस्सा आया कि उसने कागज फाड़ दिया. रंग फेंक दिए. रोकने पर और भी अधिक उत्पात करने लगा.<br />
माँ के बहुत समझाने और कल उसकी पसन्द के रंग का कागज देने के आश्वासन पर वह शांत हुआ.<br />
वह बच्चा इतना विचलित, क्रोधित क्यों हुआ होगा? क्यों उसे ऐसा लगा कि गुलाबी या जामुनी रंग लेने से उसका जेंडर ही बदल जाएगा? वे लोग कुछ समय पहले ही अमेरिका से भारत रहने आए हैं. अमेरिका में रंगों को लड़के लडकियों के रंगों में बाँट दिया गया है. कोई भी लड़का गुलाबी या जामुनी रंग पहनना या उपयोग करना नहीं चाहता. कोई भी लड़की नीला रंग पसंद करती है या नहीं कहना कठिन है किन्तु लड़की के लिए उपहार आदि लोग गुलाबी या जामुनी रंग में ही लेते हैं. आप गुब्बारा खरीदने जायेंगे तो गुब्बारे वाला लडकी को गुलाबी या जामुनी रंग का गुब्बारा ही देगा.<br />
अब यह समस्या भारत में भी होने लगी है. स्त्रियों के लिए विशेष टैक्सी हो या लोकल ट्रेन के डिब्बे का रंग सुनिश्चित करना हो तो वह गुलाबी या जामुनी ही होगा. इससे सुविधा तो हो सकती है किन्तु रंगों को भी स्त्री पुरुष के रंगों में बाँट देना कहाँ तक सही है?<br />
पता नहीं हमारा समाज कहाँ जा रहा है? कुछ वर्ष पहले हमने आतंक के रंग निश्चित किए. वह रंग जो हमारी संस्कृति में त्याग , बलिदान, ज्ञान, सेवा व शुद्धता का प्रतीक है उसे राजनीति ने आतंक से जोड़ दिया. तब भी मुझे रंगों का यह विभाजन सही नहीं लगा था. मैंने एक लेख <span style="background-color: white; color: #333333; font-family: "verdana" , "arial" , sans-serif; font-size: 16.25px;">'रंग हो जाने चाहिए बेरंग'</span><br />
http://ghughutibasuti.blogspot.in/2009/06/blog-post_04.html लिखा था.<br />
आज भी मुझे नन्हें बच्चों के मन में इस तरह रंगों का विभाजन करना बिलकुल नहीं भाया. क्या इस तरह हम बच्चों से रंगों में अपनी पसंद निर्धारित करने का अवसर नहीं छीन रहे? क्या हम रंगों के प्रति बच्चों को सहज नहीं रहने दे सकते? विशेष रंग उनपर थोप कर हम उनका पसंद करने का अधिकार ही उनसे छीन ले रहे हैं.<br />
घुघूती बासूती </div>
ghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-70982640705023994502016-08-29T16:13:00.000+05:302016-08-29T16:13:05.510+05:30फसल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
<br class="Apple-interchange-newline" />हम वह काटते हैं </div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
जो हमने बोया था</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
और वह भी </div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
जो बेशर्मी से </div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
अपने आप उग आया हो</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
बिन बुलाए मेहमान सा</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
जिसे हम देख न पाएँ हों</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
गुड़ाई के समय</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
या निकालने में अलसा गए हों</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
या फिर सहिष्णुता दिखाते हुए</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
छोड़ दिया हो उसके हाल </div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
और वह भी जिसके बीज</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
किसी षणयंत्र के अन्तर्गत</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
छिड़क दिए गए हों </div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
हमारे खेत में</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
कोयल के अंडों की तरह</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
जो पैदा हुए और पलते रहे</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
हमारी फसल के बीच।</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
अब पक चुकी है फसल</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
और हम काट रहे हैं,</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
जो बोया सो काट रहे हैं</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
सोचते हुए,</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
हैरान और परेशान से</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
कभी अपने बीजों के नमूने</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
और कभी फसल का </div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
मिलान करते हुए,</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
किंकर्तव्यविमूढ़ कुछ पल</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
फिर लग जाते हैं</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
अनाज की बिनाई के</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
असाध्य से काम में।</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
</div>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: normal; letter-spacing: normal; line-height: normal; orphans: 2; text-align: start; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
घुघूती बासूती</div>
</div>
ghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.com28tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-71130426186717253282016-05-05T17:56:00.000+05:302016-05-05T18:05:28.312+05:30'मजे में हूँ।'<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
उत्तर में कितना सच हो कितनी औपचारिकता?<br />
<br />
कोई कहे, 'नमस्ते। कैसी हो?' तो क्या उत्तर दिया जाए?<br />
<br />
मजे में /आनन्द है/ बढ़िया/ सब ठीक है/ आपकी कृपा है? क्या तब भी, जब सर फटा जा रहा हो, हाल की बीमारी से दिखना भी कम हो गया हो, कान तो लगभग बहरे हो गए हों, मस्तिष्क की सोचने, समझने की शक्ति खत्म हो गई हो, कुछ याद न रहता हो, भूरे सलवार कुरते के साथ जामुनी दुपट्टा लेकर बाहर चली जाती होऊँ, बच्चे बीमार चल रहे हों, पति का मधुमेह बढ़ गया हो, कामवाली छुट्टी पर चली गई हो, ढंग से सोए हुए जमाना बीत गया हो, घर के खर्चे में आधा खर्चा दवाई और डॉक्टर की फीस का हो, कमी थी तो घर पर मेहमान आने वाले हों?<br />
या फिर सच बता दिया जाए? सुनने वाला अफ़सोस करेगा कि क्यों पूछा था।<br />
<br />
मुझे याद है लगभग पच्चीस साल पहले एक तीन साल की बच्ची होती थी जिससे कैसी हो पूछने पर वह सच बता देती थी। कहती थी, 'मेले पैल में फोला हो गया है। मुझे खाँछी हो गई है। मेली नोज़ी लीक कल लही है। मुझे जोल का बुखाल आ गया है।'<br />
<br />
उसने 'हैलो, हाओ आर यू?' के उत्तर में 'फ़ाइन, थैंक यू' कहने की परिपक्वता, समझ व सांसारिकता नहीं सीखी थी। वह तो 'बच्चे मन के सच्चे' का जीताजागता उदाहरण थी।<br />
<br />
सो अब कई बार कोई पूछता है कि कैसी हो तो मेरा मन करता है उस तीन साल की बच्ची की तरह ही उत्तर दे दूँ, किन्तु सामने वाले का खयाल कर औपचारिकतावश प्रायः झूठ बोल देती हूँ, कहती हूँ, 'मजे में हूँ।'<br />
<br />
घुघूती बासूती</div>
ghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-86382809716944080322016-03-31T21:24:00.001+05:302016-03-31T21:24:52.971+05:30बच्चों के साथ क्वालिटी समय या अनमना समय<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
अपनी नतिनी तन्वी को हर शाम सोसायटी के पार्क खेलने ले जाती हूँ। बहुत अच्छा और बड़ा पार्क है। छोटे बच्चों के साथ प्रायः माता पिता, दादा दादी, नाना नानी या आया आती हैं। अभी तक मेरे सामने कोई गम्भीर दुर्घटना तो नहीं घटी किन्तु कई बार बच्चों को झूले से चोट लगते देखती हूँ। प्रायः ये दुर्घटनाएँ रोकी जा सकती हैं। दो बातें अभिभावकों का ध्यान अपने बच्चे की सुरक्षा से भटका देती हैं, एक तो है मोबाइल दूसरा अन्य अभिभावकों से बातें करने में खो जाना।<br />कल ही एक छः सात साल की बच्ची झूले पर बैठकर लगातार अपनी माँ को पुकारे जा रही थी। प्रायः बच्चों को झूला तो मिल जाता है किन्तु झुलाने वाले गायब हो जाते हैं। बच्चे झूला छोड़ना भी नहीं चाहते सो जाकर बुला भी नहीं पाते। उन्हें भय रहता है कि एक बार अपनी बारी निकल जाने दी तो न जाने कब बारी मिलेगी। खैर, बच्ची लगातार बुलाती रही किन्तु माँ नहीं आई। अचानक बच्ची नीचे गिरी और उठने लगी। उठने पर लकड़ी के झूले की पट्टी निश्चित उसके सर पर लगती। मैं पास में ही तन्वी को झुला रही थी। स्टे डाउन, डोन्ट गेट अप चिल्लाती उसके झूले को पकड़ने दौड़ी। भाग्य से इसके पहले कि झूला उसके सर से टकराता मेरे हाथ में था।<br />इस बार माँ पल भर में ही पहुँच गई थी और मुझे आभार कह बच्ची को डाँटती हुई यह कहते हुए घसीटते हुए ले गई, हुण तेन्नू कदे एथ्थे नहीं लावाँगी। तेन्नू झूटे लेणा वी नहीं आन्दा। <br />उसका इतना जल्दी पहुँच जाना सिद्ध करता है कि वह आस पास ही थी किन्तु बच्ची की पुकार को जानबूझ कर अनसुना कर रही थी।<br />परसों एक और माँ बच्ची को पींग लेना सिखा रही थी और न सीख पाने पर फटकार रही थी कि मुझे विश्वास नहीं होता कि तुम मेरी बेटी हो। माँ में सिखाने धैर्य नहीं था और बच्ची को रुआँसा कर वह चलती बनी।<br />कुछ दिन पहले एक वृद्ध एक पाँच सात महीने के बच्चे को गोद में लकर आए। उन्होंने दस बारह साल की अपनी पोती के हाथ में बच्चा दे उसे झूले पर बैठा दिया। बच्ची झूले को पकड़े या बच्चे को? सो उसकी एक बाँह झूले की चेन के दूसरी तरफ से निकाल बच्चा गोद में बैठा दिया। फिर एक तरफ से चेन पकड़ उन्होंने जो झुलाना शुरु किया लगा कि वे भूल गए हैं कि नन्हा सा बच्चा एक ही हाथ के सहारे बच्ची ने पकड़ रखा है। और एक ही तरफ से चेन को लगातार हिलाते रहने से न केवल झूला तेज जा रहा था बल्कि बहुत टेढ़ा जा रहा था। मुझे लग रहा था कि बच्चा अब गोद से छिटकेगा ही। भाग्य से बच्चे का पिता डैडी, डैडी, रोको, रोको, इतना तेज मत झुलाओ कहता हुआ आया और बच्चे को अपने साथ ले गया।<br /><br />एक दिन लगभग दो वर्ष की बच्ची अकेली घिसलपट्टी की सीढ़ियाँ चढ़ रही थी। उसका पिता मोबाइल पर व्यस्त था। लड़खड़ाती हुई बच्ची के पिता से जब मैंने पूछा क्या यह अकेली सीढ़ी चढ़ सकती है तो उसने कहा, हाँ थोड़ा चढ़ जाती है किन्तु गिर सकती है। फिर उसका ध्यान बच्ची पर गया जो काफी ऊपर चढ़ डगमग हो रही थी। लपक कर उसने बच्ची को सम्भाला, किन्तु उसे नीचे उतार वापिस मोबाइल पर व्यस्त हो गया।<br />ऐसा भी नहीं है कि अधिक ध्यान रखने से बच्चों को चोट नहीं लगेगी किन्तु इतनी लापरवाही आश्चर्यचकित अवश्य करती है। यह बात भी समझ नहीं आती कि क्या हम अपने बच्चों को कुछ मिनट का अबाधित, बिना किसी अन्य से मोबाइल पर बतिआए समय नहीं दे सकते। बच्चों के साथ ऐसे अनमने और जबरन बिताए समय का क्या लाभ? शायद इसीलिए क्वालिटी समय की इतनी बात होती है। आखिर हमारे बच्चे से अधिक महत्वपूर्ण और वह भी उसके साथ खेलने के समय में, संसार में क्या हो सकता है?<br />घुघूती बासूती<br /></div>
ghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-56563985147808084662016-01-30T01:35:00.001+05:302016-01-30T01:42:27.750+05:30मैं बनी बेबी मगरमच्छ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आज याने ३० जनवरी को मेरी नतिनी तन्वी तीन साल की हो जाएगी।<br />और २९ की मेरी शाम कुछ ऐसे बीती उसकी नतिनी बनकर।<br />
<br />जब से प्ले स्कूल जाना शुरु किया है उसे जुकाम पकड़े रहता है। बीच बीच में बुखार भी हो जाता है। शायद यह उसकी वायरसों से पहली मुठभेड़ है इसलिए। आज भी जुकाम अधिक था इसलिए निश्चय किया गया कि शाम को उसे पार्क खेलने नहीं ले जाया जाएगा, (पार्क भी मैं ही ले जाती हूँ) और घर में ही उसका मनोरंजन किया जाएगा। <br /><br />उसका जन्मदिन आज स्कूल में मनाया गया। कल घर में और परसों बाहर जाकर मनाया जाएगा। उसका मन बहलाने को निर्णय किया गया कि दो उपहार आज ही दे देंगे। किन्तु तन्नी तो इतनी मस्त है, आज के भौतिकतावादी समय के बिल्कुल विपरीत है कि कमसे कम दस बार उपहार की बात करने पर भी उसे उपहार लेने में जरा भी रुचि नहीं थी। बाज़ार जाने पर भी कुछ चुनने को कहो तो अधिक से अधिक एक खिलौना उठा लेती है और कहती है, 'मेरे पास हैं।'<br />
<br />सो जो खेल उसने खेला उसका आरम्भ उसका दूध खत्म करवाने के लिए मैंने ही किया था। उसके पास कुछ चुम्बक वाली सपाट मछलियाँ, व्हेल, डोल्फिन, कछुआ, स्टार फिश, ओक्टोपस, लाइट हाउस आदि हैं। मैंने धूप में बैठकर अपनी उंगलियों से मुँह की आकृति बनाई और उसे मगरमच्छ कहा और उसकी मछलियों पर और दूध पर इस आकृति से आक्रमण करवाया, क्योंकि मगरमच्छ भूखा था सो यदि दूध नहीं पीती तो दूध भी पी लेता। उसने दूध तो पी लिया किन्तु उसे खेल इतना पसन्द आया कि घंटों मेरे साथ यही खेल खेलती रही।<br />
<br />कुछ देर तो उसकी उँगलियाँ मगरमच्छ का मुँह बन मेरे हाथ से मछलियाँ खाती रहीं किन्तु बाद में मैं याने मेरी उँगलियाँ बेबी मगरमच्छ बना दी गईं। और वह याने उसकी उँगलियाँ नानू मगरमच्छ। उसकी उँगलियाँ शिकार पकड़ उन्हें चबाती और फिर 'च्यू च्यू ग्राइंड ग्राइंड' करने के बाद मेरी उँगलियों को खिला देतीं। (इस बात का संकेत कि चबाने का काम उसे कितना उबाऊ लगता है इसलिए नानू बन वह मुझे चबा कर खिला रही थी।) सब तरह की मछलियाँ कछुआ आदि खिलाने के बाद उसने मुझे लाइटहाउस भी खिला दिया। स्वाभाविक था कि मेरे नन्हे मगरमच्छीय पेट में दर्द भी हुआ। फिर उसने मुझे दवाई पिलाई जो अलग अलग चुम्बक वाले अक्षर थे और खेल जारी रखा। पहली नीले अक्षर वाली दवाई जब बेबी मगरमच्छ को पिलाई गई तो उसने कड़वी है की शिकायत की। तब वह लाल अक्षर वाली दवाई लाई और बोली कि लाल याने मीठी। मेरे द्वारा पेट भर गया कहने पर वह मेरे पेट के ओने कोने में कहीं जगह ढूँढ और खिलाती ही रही।<br /><br />उसके उपहार ज्यों के त्यों पैक किए हुए पड़े ही रह गए। किन्तु साठ वर्षीय बेबी मगरमच्छ को एक तीन साल की ऐसी मगरमच्छ नानू मिल गई जो 'च्यू च्यू ग्राइंड ग्राइंड' करके उसके मुँह में खाना ही नहीं लाइटहाउस भी डाल देती है। वैसे आज तो उसने मुझे भयंकर माँसाहारी भी बना दिया।<br />
<br />स्कूल वाला केक मुझे क्यों नहीं मिला पूछने पर उसने बताया कि वह केवल बच्चों के लिए था और सुबह के समय तक मैं नानू ही थी, बेबी मगमच्छ नहीं, सो मैं केक के लिए अयोग्य थी।<br />घुघूती बासूती</div>
ghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-50621675123916470122015-09-18T01:22:00.000+05:302015-09-18T01:22:00.910+05:30'दो रुपए का नोट'<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बात सन १९८० की है। हम तब मुम्बई में गोरेगाँव में नए नए रहने आए थे। बचपन सीमेन्ट कारखानों की बस्तियों में गुजरा था। शहर के नाम पर चन्डीगढ़ में हॉस्टल में रही थी। कुछ समय पुणे में छुट्टियों के समय बिताया था। कभी छुटटियों में पहाड़ जाते थे। विवाह के बाद दिल्ली गई जरूर किन्तु घर से बाहर कम ही निकली। विवाह के बाद भी एक वैसी ही सीमेन्ट कारखाने की बस्ती में रही थी। शहरों की भीड़भाड़ और कठिनाइयों से लगभग अनजान थी। चोरी, जेबकतरी से न कभी पाला पड़ा था न सावधान रहना ही सीखा था।<br />पति का दफ्तर चर्चगेट स्टेशन के ठीक सामने था। एक दिन सोचा कि पति के साथ बिटिया के लिए कुछ खरीददारी की जाए। प्रायः जब तक वे घर लौटते दुकानें बन्द हो चुकी होती थीं। सो निर्णय हुआ कि मैं ही शाम को बिटिया के साथ उनके दफ्तर पहुँच जाऊँ और फिर हम साथ खरीददारी को निकल जाएँ।<br />मुम्बई की पहली लोकल ट्रेन यात्रा करने के लिेए मैं गोद में बिटिया को उठाए और दूसरे कन्धे पर पर्स लटकाए गोरेगाँव स्टेशन पहुँच गई। टिकट खरीदा और लोकल ट्रेन आने पर महिला कम्पार्टमेंट में बैठ गई। बैठते से ही बिटिया को कुछ देने को पर्स खोला तो उसके अन्दर रखा मेरा वॉलेट गायब था। टिकट भी उस ही में रखा था और पैसे भी। जेबकतरे जी ने वॉलेट निकाल कर मेरा पर्स बन्द करने का कष्ट भी किया था। मेरे चेहरे का उड़ा रंग देख एक छात्रा ने पूछा कि क्या हुआ। मैंने उसे वॉलेट गायब होने के बारे में बताया। वह मुस्करा कर बोली, 'निश्चिन्त रहिए। मैं चर्नी रोड पर उतर रही हूँ। आपको वहाँ से चर्चगेट का टिकट खरीदकर दे दूँगी।' चर्नी रोड चर्चगेट से एक स्टेशन ही पहले है।<br />पर्स की एक जेब में मुझे एक 'दो रुपए का नोट' मिल गया। उसे देखकर मुझे जितनी खुशी हुई वह आज कभी हजार के नोट को देखकर भी नहीं हो सकती। मैंने उसे कहा कि मेरे पास 'दो रुपए का नोट' है। वह बोली कि 'आप टिकट नहीं खरीद सकेंगी। खरीदने के लिए बाहर निकलेंगी तो टिकट चेकर पकड़ सकता है। मैं ही खरीदकर आपको दे दूँगी।'<br />खरीददारी का तो सारा मूड उखड़ चुका था। अब तो बस किसी तरह पति के दफ्तर पहुँचना ही उद्देश्य रह गया था। मन ही मन यह मनाते कि कोई टिकट चेकर ना आ जाए, मैं सोचती रही कि यदि आया तो यह कहने पर कि वॉलेट चोरी हो गया वह मेरी बात मानेगा थोड़े ही। हर बिना टिकट यात्री यही तो कहता होगा। खैर, टिकट चेकर नहीं आया और किसी तरह चर्नी रोड स्टेशन आ ही गया।<br />हम ट्रेन से उतरे। वह मुझे वहीं प्लैटफॉर्म पर छोड़ वहीं रुकने को कह टिकट लेने जाने लगी तो मैंने बड़ी कातरता से अपना वह इकलौता 'दो रुपए का नोट' आगे बढ़ा दिया। मन में यह संशय भी था कि यह मुम्बई है। कहीं यह आखिरी पूँजी भी लेकर वह गायब हो गई तो क्या होगा। वह हँसने लगी और बोली,' पहले मैं टिकट लाती हूँ, आप पैसे बाद में देना।' थोड़ी देर में वह टिकट लेकर आ गई और उसने मुझसे पैसे लेने से मना कर दिया। बोली, 'अपने पास रखिए कहीं पति दफ्तर में नहीं मिले तो फोन करके किसी को बुलाने के काम आएगा।'<br />मैं पति के दफ्तर पहुँची और बिना खरीददारी किए हम घर लौट आए। खरीददारी कैसे करते? सारे पैसे तो जेबकतरे की जेब में चले गए थे। वह क्रेडिट कार्ड, ए टी एम, मोबाइल फोन के युग से बहुत पहले का युग जो था।<br />बाद में दो बार और जेब, नहीं, पर्स कटा, एक बार फिर मुम्बई में और एक बार दिल्ली में। किन्तु तब तक 'सारे अन्डे एक ही टोकरी में रखने' की आदत छूट चुकी थी। कुछ जेब में या जेब नहीं हुई तो एक कपड़े की छोटी सी थैली में रख कपड़ों में पिन करना सीख लिया था। यह सिलसिला तब तक चला जब तक हर एअरपोर्ट, स्टेशन, मॉल आदि में तलाशी का सिलसिला शुरू नहीं हुआ। उस बात को इतने साल बीत गए हैं किन्तु उस भली छात्रा की मुस्कान कभी नहीं भुला सकती।<br />आज भी जब कोई व्यक्ति ट्रेन में पर्स चोरी हो जाने, सामान चोरी हो जाने या जेब कट जाने की बात कहता है तो लोगों के रोकने पर भी कुछ तो सहायता कर ही देती हूँ ताकि वह घर तक तो पहुँच जाए या घर से किसी को सहायता के लिए बुला सके। क्या पता मेरी तरह वह सच ही बोल रहा हो।<br />घुघूती बासूती<br /><br /></div>
ghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.com33tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-59405655944334288092015-08-15T18:06:00.001+05:302015-08-15T18:06:33.775+05:30हँसना, खाँसना, छींकना, हिचकी लेना मना है।<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बुधवार की शाम हम घर आ रहे थे। बूँदाबादी हो रही थी। हम उस इलाके से निकल रहे थे जहाँ बहुत से इन्फोर्मेशन टेक्नॉलोजी के दफ्तर हैं। शाम को जबर्दस्त ट्रैफिक हो जाता है। सड़क के दूसरी तरफ एक मोटरसायकिल की दुर्घटना दिखी। अवश्य कोई युवा होगा या होगी। मन ही मन मनाया कि चोट अधिक ना लगी हो। बहुत सी मोटरसायकिल भी रुक रही थीं। फिर मन ही मन मनाया कि कोई दोस्त भी रुका हो। <br />रास्ते में बड़ी बेटी का घर है। उसके घर कुछ काम से गए। निकलते निकलते रात हो गई।<br />पति कार धीरे ही चलाते हैं। कारों के बीच में प्रायः स्कूटर या मोटर सायकिल को जगह नहीं मिलती। वे किनारे किनारे ही चलाते जाते हैं। हमारी कार के सामने उन्हें जगह मिल जाती है और सदा दो पहिया वाहनों का एक झुँड हमारी और अगली कार के बीच जगह पा जाता है। उन्हें देख यही लगता है कि ये हमारे ही तो बच्चे हैं। जब से हमारे बच्चे बड़े हुए हैं हर युवा अपनी संतान सा ही लगता है।<br />हम अपनी सोसायटी के काफी पास आ गए थे। भीड़ भी कम हो गई थी। एक पुल के नीचे दाएँ बाएँ विभाजन हैं। एक छोटा ट्रक गलत तरफ से हमारे सामने आया। फिर एक कार। दोनो की हेडलाइट फुल बीम पर थीं। वे आँखों को चुँधिया कर चली गईं। कार रोक कर उनको जाने दिया। हम चले ही थे कि एक और की हेडलाइट ने लगभग अन्धा ही कर दिया। बारिश और इन दोनो के चलते बिना किसी रोशनी, बिना किसी पेन्ट या लाइट रिफ्लेक्टिव पेन्ट के डिवाइडर के नाम पर बने कन्क्रीट की छोटे सी दीवार नुमा सिमेन्ट के रंग के डिवाइडर को पति देख नहीं पाए और जहाँ वह शुरु हुआ उसी जगह उस से कार टकरा गई। यह डिवाइडर हर कुछ दिनों बाद कुछ और लम्बा कर दिया जाता है। सड़क पर ना तो कोई लाइट हैं और ना ही डिवाइडर आने की कोई चेतावनी।<br />हमने सीट बेल्ट तो पहन रखी थीं इसलिए चोट नहीं आई। एकदम से तीन युवक अपनी अपनी मोटर सायकिल रोक सहायता के लिए आ गए। हमें कार से उतारा। पति का सीट के नीचे गिरा चश्मा ढूँढ कर दिया। हमें चोट तो नहीं लगी, हस्पताल ले चलें आदि पूछा। एक का घर पास था, वहाँ ले चलने को कहा। घर से पानी लाने का प्रस्ताव रखा। पानी है कहने पर हमारी कार से पानी निकाल कर हमें पिलाया। बारिश में ही खड़े हमारा साथ देते रहे। एक ने फोन कर टो ट्रक को बुलाया। हम दोनो को भीगने से मना कर कार में बैठने को कह स्वयं भीगते रहे। हमें हमारे घर पहुँचाने का भी प्रस्ताव रखा। हमारे जवाँई के आ जाने के बाद भी टो ट्रक के आकर कार ले जाने तक हमारे साथ बने रहे। कार को धक्का देकर टो ट्रक के सामने किया। अन्त में जब हम जवाँई की कार में बैठने लगे तब हाथ मिलाकर ही वे अपने घर गए।<br />हमें चोट तो नहीं लगी थी। शायद सीट बेल्ट से ही या व्हिप लैश के कारण छाती में काफी दर्द था। डॉक्टर को दिखाया एक्स रे आदि करवाया। सब ठीक है। बस मेरी छाती में काफी दर्द है। पाँच दिन की दवा दी, दर्द का इन्जेक्शन लगाया गया। कुछ दिन काम करना मना है। केवल लेटना या बैठना है। झुकना, वजन उठाना मना है। बेटियाँ इस बात से खुश हैं कि आखिर माँ को किसी ने तो आराम करने को बाध्य कर दिया। हाँ, हँसना, खाँसना, छींकना, हिचकी लेना मना है।<br />जिन युवाओं की मैं सदा तरफदारी करती रहती हूँ, जिनमें मैं अपनी संतान ही देखती रहती हूँ, उन्होंने अपने प्रति मेरे विश्वास और स्नेह को एक बार फिर सही सिद्ध कर दिया। उन तीनो युवकों को मेरा बहुत बहुत धन्यवाद। आगे बढ़ते रहो, उन्नति करो, मस्ती करो और समय आने पर यूँ ही किसी परेशान की सहायता करते रहो। <br />घुघूती बासूती<br /></div>
ghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-86378776446635739122015-08-08T02:19:00.003+05:302015-08-08T13:28:38.986+05:30मानव जिजीविषा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बदली अर्थात ट्रान्सफर वाली नौकरी के कई लाभ हैं तो बहुत सी हानियाँ। लाभ यह है कि आप और आपका परिवार कूपमंडूप नहीं बना रहता। हर दो या तीन साल के बाद, एक नई जगह, नया प्रदेश, नई भाषा, नए लोग, नया खानपान, नई संस्कृति देखने समझने को मिलती है। बच्चे भी जीवन में कहीं भी, किसी भी वातावरण में अपने को ढालना सीख जाते हैं। सबसे बड़ी बात, कितनी भी बड़ी असुविधा हो यह जान कि यह अस्थाई है सहन हो जाती है।<br />
हानियों में सबसे बड़ी यह है कि पति पत्नी दोनो के लिए नौकरी कर पाना असम्भव सा हो जाता है। अन्यथा जीवन भर अलग अलग रहने को अभिशप्त हो जाते हैं। प्रायः पत्नी को ही पति को इंजन मान पीछे का डिब्बा बन साथ साथ जाना पड़ता है। यदि कहीं नौकरी की सुविधा मिल जाए तो कर लो अन्यथा अगली बदली की प्रतीक्षा करो। उस पर भी यदि ये बदलियाँ एक छोटी बस्ती से दूसरी में हों तो नौकरी के अवसर होते ही नहीं।<br />
हर समय सामान बाँधने को तैयार रहना होता है। किसी जगह, प्रान्त को अपना नहीं कह सकते। मन बहलाने को कह भी लो तो वह अपना हो नहीं सकता। आप यह निश्चय भी नहीं कर पाते कि अन्त में कहाँ बसेंगे।<br />
सबसे बड़ी बात यह है कि उम्र के जिस पड़ाव में भाग दौड़ करना कठिन होता है उस समय आप नए सिरे से गृहस्थी बसाते हैं, बिल्कुल अनजान लोगों के बीच। हम भी आजकल यही कर रहे हैं। उम्र रोज याद दिलाती है कि अब आप पेड़ पर लगी मंजरी नहीं, लगभग पक चुके फल हैं, टपकने की प्रतीक्षा में। उसपर भी भगवान पर विश्वास न हो तो यह भी पता होता है कि टपकने पर कोई हाथ लपकेगा नहीं, बस धरती ही पर टपक धरती का ही हिस्सा बनना है। फिर भी इतनी दौड़ भाग!<br />
पिछले साल मेरे ही नाम और सरनेम वाली, घुघूती बासूती नहीं, वह तो मेरा अपने को दिया नाम है, मेरी एक सहेली, जिसने बिल्कुल ऐसा ही बंजारा जीवन बिताया, अन्त में पति के रिटायर होने पर बसने को इसी शहर हैदराबाद में, मेरे घर से दो सौ मीटर दूर बसने आई। उसे और मुझे दोनो को खुशी थी कि घर आसपास हैं तो बरसों बाद मिलना होगा। खूब मन से उसने नए फ्लैट में अपने मन के बदलाव कराए। खूब तोड़ फोड़ करा अपने मन का नीड़ बनाना शुरू किया। अभी तो ढंग से घर व्यवस्थित भी न कर पाई थी कि अपने अन्तिम पड़ाव पर चल पड़ी। सब कुछ धरा का धरा रह गया। अभी तो और्डर किया नया सोफा घर भी नहीं पहुँचा था कि दो बाँस पर वह चली गई।<br />
मिलने की इच्छा भी दम तोड़ गई। हाँ, उसके घर जा उसके पति और पुत्र को अपना शोक प्रकट कर आई। <br />
वाह रे जीवन और वाह री मानव जिजीविषा! सबकुछ जानते हुए भी इतना तामझाम यह जिजीविषा ही करवा सकती है।<br />
घुघूती बासूती</div>
ghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-34366513680150744452015-04-10T01:31:00.001+05:302015-04-10T01:31:11.868+05:30सपनों के व्यक्ति<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
तुम सच नहीं हो सकते<br />
तुम सच कैसे हो सकते हो<br />
मैं स्वप्न देख रही थी<br />
तुम चुपके से<br />
मेरे स्वप्न से निकल कर<br />
मेरे संसार में आ गए<br />
आए ही नहीं तुम<br />
मेरे संसार में छा गए।<br />
क्यों, यह ना तुमने बतलाया<br />
ना मैंने पूछा<br />
बस, सच यही है<br />
कि तुम मेरी कल्पनाओं<br />
को अपनी कूची से भरते गए<br />
भरते गए, भरते गए<br />
तब तक.<br />
जब तक मैंने पूछा नहीँ कि<br />
तुम कौन हो, कहाँ से आए हो<br />
क्यों आए हो।<br />
फिर तुमने बताया कि तुम<br />
मेरी कल्पनाओं की उड़ान हो<br />
तुम ही हो वह<br />
जो मुझे पँख देता है<br />
मेरी कल्पना को उड़ान देता है<br />
मेरे चित्रों को रंग देता है।<br />
मैं मंत्रमुग्ध सपनों के इस कलाकार<br />
और उसकी कूची को देखती रही<br />
समय समय पर अपने मनमाने रंग<br />
चित्रों में भरने की जिद करती गई<br />
उसने रंग भरे मेरे कहने पर<br />
किन्तु उन रंगों में वह शेड<br />
अपने ही मन के भरता रहा।<br />
अब हाल यह हो गया है<br />
रंग मेरे अपने हैं किन्तु<br />
शेड उसके हैं<br />
मनमानी मेरी है<br />
किन्तु जिद उसकी है<br />
जीवन मेरा है किन्तु<br />
जिजीविषा उसकी है।<br />
जीती मैं हूँ<br />
थोड़ा मरता वह है<br />
मरती मैं हूँ<br />
जीवन्त वह हो जाता है<br />
रोती मैं हूँ<br />
गीली आँख उसकी है<br />
सोती मैं हूँ<br />
स्वप्न वह देखता है<br />
ओ मेरे सपनों के व्यक्ति<br />
कह तो दो ना यह<br />
केवल एक सपना है,<br />
मुझे प्रतीक्षा है जागने की<br />
उसे प्रतीक्षा है मेरे सोने की।<br />
घुघूती बासूती</div>
ghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-26258674254296453192014-12-16T02:00:00.001+05:302014-12-16T02:00:10.728+05:30वाह, बारहखड़ी!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बिटिया की कॉन्फ्रेन्स चल रही हैं। एक के बाद एक तीन हैं। देढ़ हो चुकीं। हर कॉन्फ्रेन्स कमसे कम चार दिन की।<br />जैसे तैयारी करती है, उसकी बारहवीं के दिनों की याद आ जाती है। बस अन्तर इतना है कि तब २२ महीने की बच्ची नहीं थी उसकी। हाँ यह अन्तर भी है कि तब तीन घंटे में परीक्षा खत्म हो जाती थी। रात के दस, ग्यारह, साढ़े ग्यारह न बजते थे लौटते हुए।<br />तन्वी और उसकी नानू दिन तो बिता लेते हैं। शाम होते होते मम्मा की याद आने लगती है। यदि मम्मा कॉन्फ्रेन्स में हुई तब तो मिल नहीं सकती, जब तैयारी कर रही होती है तब भी छिपी रहती है तन्वी से। अन्यथा जैसे वह मुझे कहती है, नानू लैपटॉप नहीं खोलो वैसे ही माँ को भी आदेश दे देती है।<br />कभी कहती है, मम्मा को बुलाओ। कभी कहती है मम्मा के पास चलो। ड्राइवर नहीं है कहने पर बोलती है छुकछुक गाड़ी से चलेंगे। मुझे मम्मा की लैब का रास्ता पता नहीं है कहने पर कहती है तन्नी रास्ता ढूँढ लेगी। छुकछुक गाड़ी मम्मा की लैब तक नहीं जाती कहने पर कहती है कि हम दोनो हाथ पकड़ कर वॉकी वॉकी जाएँगे। मम्मा के पास जाएँगे।<br />आज या वह आज कल बन चुका शायद, उसका ध्यान बटाने को जब हिन्दी अंग्रेजी की कई कहानियाँ सुना चुकी, ढेरों पज़ल्स सुलझा लीं, उसके फूल से आकार वाले ब्लॉक्स से एक बड़ा फूल बना चुके जो उसे सूरज लगा और नानू देखो तन्नी सूरज के चारों ओर घूम रही है कहकर उसकी बीसियों परिक्रमा लगा चुकी, पुस्तकें पढ़ चुके हम तो अचानक मुझे बारहखड़ी सूझी।<br />उसे कका ककी कुकू केकै कोकौ कंकः बहुत पसन्द आए। मम्मा भूलकर किलकारियाँ भरने लगी वह। सारे वर्ग तो ठीक रहे किन्तु प वर्ग पहुँचने से पहले खतरे की घंटियाँ बजने लगीं। पपा, अरे पापा की याद आ जाएगी। ममा मिमी, उफ़, यह शब्द तो बोला ही नहीं जा सकता। यह तो हैरी पॉटर के वोल्डेमौर्ट सा प्रतिबन्धित शब्द है। जो गाने, कविताएँ मम्मा सुनाती है, जो खेल वह खिलाती है, सब प्रतिबन्धित रहते हैं उसकी अनुपस्थिति में। उसका कमरा, उसका सामान सबसे दूर ही रखती हूँ। पति से भी फोन पर उसकी बात करती हूँ तो उसका नाम लिए बिना, नहीं तो मम्मा को बुलाओ राग आरम्भ।<br />कितना कठिन होता है माँ होकर अपने केरियर पर ध्यान देना। स्वाभाविक है कि वे अधिक आगे नहीं बढ़ पातीं। जो समय जमकर काम करने, अपने को अपने क्षेत्र में सिद्ध करने, कुछ उपलब्धि का होता है वही समय बच्चे को भी माँ चाहिए। एक समय ऐसा आता है जब माँ के पास समय रहता है, बच्चा अपने संसार में खो जाता है किन्तु केरियर बनाने का समय निकल चुका होता है।<br />विज्ञान के संसार में तो आप कुछ साल का ब्रेक लेने की सोच ही नहीं सकतीं। हर दिन कुछ नया खोजा जाता है, लिखा जाता है आपके क्षेत्र में, जिसे पढ़ना, गुनना आवश्यक है। उससे अनभिज्ञ रहकर अचानक एक दिन आप फिर से अपने क्षेत्र में नहीं कूद सकतीं। कोई आपके लौट आने की प्रतीक्षा भी नहीं करता।<br />आप काम करती हैं और पूरे मनोयोग से तो बच्चे के प्रति अपराध बोध। नहीं करतीं तो अपने काम के प्रति अपराध बोध।<br />बहुत कठिन है डगर मातृत्व की।<br />और हाँ, नानूगिरी की भी।<br />घुघूती बासूती</div>
ghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-23747797016430542272014-12-13T20:15:00.000+05:302014-12-13T20:15:40.551+05:30एक और नामकरण<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
घुघूती बासूती<br />माम काँ छू <br />मालकोट्टी<br />के ल्यालो<br />दूध भात्ती<br />को खालो<br />तन्नी खाली, तन्नी खाली, तन्नी खाली !<br />तन्नी गा रही है। <br />तन्नी, जानती हो कि घुघूती बासूती कौन है?<br />वह अपनी धुन में अपने को ही बिस्तर पर झूला सा झुलाती गाती जाती है।<br />तन्नी, नानू घुघूती बासूती है।<br />उसकी धुन भंग हो जाती है। वह सतर्क हो जाती है।<br />नहीं, तुम नानू हो।<br />हाँ, तुम्हारी नानू हूँ। किन्तु मैं घुघूती बासूती हूँ।<br />नहीं। तुम पूरी नानू हो।<br />घुघूती बासूती हूँ।<br />नानू हो।<br />नहीं तन्नी, नानू घुघूती बासूती है।<br />पूरी नानू है, तन्नी की नानू।<br />घुघूती बासूती कौन है?<br />तन्नी घुघूती बासूती है।<br />अब नाराज भी हो रही है। आवाज में हठ सा भी छा रहा है।<br />नहीं, मैं घुघूती बासूती और नानू दोनो हूँ।<br />तुम घुघूती बासूती नहीं हो। तन्नी घुघूती बासूती है। तुम नानू हो।<br />अच्छा तुम घुघूती बासूती जूनियर हो।<br />नहीं, जूनियर नहीं, तन्नी घुघूती बासूती है, पूरी घुघूती बासूती। तुम नानू हो पूरी नानू। <br />अब तो बस रो ही देगी।<br />ठीक है, तुम घुघूती बासूती हो। मैं नानू हूँ।<br /><br />लगता है कि कुछ ऐसा ही हठ रहा होगा पति के (बाल?) मन का जिसने ऐसे ही मेरा नाम छीन मुझे मिसेज...... बना दिया। क्या सच में पुरुष का मन बच्ची सा ही असुरक्षा से भरा होता है जो वह अपनी प्रिय व्यक्ति को अपना नाम दिए बिना उसके अपने होने पर विश्वास नहीं कर सकता। बार बार उसे अपने नाम से ही जानना, देखना, पहचानना चाहता है, तब भी शायद विश्वास नहीं कर पाता कि प्रिय उसकी अपनी है। चहुँ ओर, नित प्रमाण खोजता है। खोजता है, खोजता ही जाता है। क्यों?<br />घुघूती बासूती<br />पुनश्चः<br />आज के अपवादों की चर्चा नहीं करना चाहती। सब जानते हैं कि अब बहुत सी स्त्रियाँ नाम नहीं बदलती या अपने पूरे नाम के आगे पति का सरनेम लगा नाम को अधिक पूरा कर देती हैं।<br />घुघूती बासूती</div>
ghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-72090204601544050582014-11-24T12:31:00.000+05:302014-11-24T12:31:51.500+05:30बाबा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
'बाबा'। कितना प्यारा शब्द है। कान में मिश्री घोलने वाला शब्द। एक ऐसे व्यक्ति के लिए उपयोग होने वाला शब्द जिसपर हम अति विश्वास करते हैं। जो सदा रक्षा कवच बना रहता है। बहुत से लोग जैसे मराठी, बंगाली पिता को बाबा कहते हैं। मेरी जान पहचान के कुछ उत्तराखंडी बच्चे पिता को बब्बा कहते हैं। हिन्दी में भी दादा को बाबा कहा जाता है।<br />
मेरी बेटियाँ भी अपने पिता को बाबा कहती हैं। उनके पति भी उन्हें बाबा कहते हैं। तन्वी भी अपने नाना को बाबा ही कहती है। तन्वी की नानी भी इन सबके बाबा के बारे में जब बात करती है तो बाबा ही कहती है। बाबा तो अब घुघूत का नाम ही हो गया है।<br />
सो जब बाबा शब्द इन जेल जाने वाले धर्म के श्रद्धा के दुकानदारों/ ठेकेदारों के लिए उपयोग होता है तो बहुत कष्ट होता है। इतने प्यारे सम्बोधन को इन लोगों ने गाली ही बना दिया है। इनके अपराधों में एक यह अपराध भी शामिल किया जाना चाहिए़।<br />
इनके लिए कोई नया नाम गढ़ना चाहिए। धर्म के, श्रद्धा के दुकानदार हैं तो धर्मदार या श्रद्धादार या ऐसा ही कुछ। साधु, सन्त, बाबा इनके लिए उपयोग न किए जाएँ तो ही बेहतर है। जो भी हो, बाबा सम्बोधन इन पाखंडियों से वापिस ले लिया जाना चाहिए।<br />
घुघूती बासूती</div>
ghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-25248271385354451382014-11-17T23:47:00.001+05:302014-11-17T23:54:11.249+05:30तन्वी और चड़ी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आ री चड़ी तेरे काटूँ मैं कान<br />
तूने चुराए मेरी तन्नी के धान,<br />
खाए पिए चड़ी मोटी भई<br />
मटकत्ते मटकत्ते घर को गई।<br />
<br />
(मैं तो मटकत्ते ही कहती हूँ, होता मटकते होगा।)<br />
<br />
तन्वीः नानू, चड़ी कौन होती है?<br />
चिड़िया।<br />
नानू चिड़िया के कान क्यों काटेगी?<br />
उसने तन्नी के धान जो चुराए।<br />
धान क्या होता है?<br />
छिलके वाला चावल।<br />
चावल?<br />
भात, राइस।<br />
उसने तन्नी का भात नहीं चुराया।<br />
चुराया।<br />
नईंईँईं!<br />
उसके कान नहीं काटना।<br />
अच्छा नहीं काटूँगी।<br />
तन्नी को यह गाना नहीं सुनना।<br />
तन्नी को नहीं, मुझे।<br />
तन्नी को नहीं सुनना।<br />
तन्नी नहीं, मुझे।<br />
मुझे यह गाना नहीं सुनना।<br />
नहीं सुनाउँगी।<br />
(तन्वी १साल साढ़े नौ महीने की है।)<br />
<br />
घुघूती बासूती</div>
ghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-12295076129757860722014-11-02T23:43:00.001+05:302014-11-02T23:43:45.268+05:30ट्रिक ओर ट्रीट<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
परसों शाम अचानक घंटी बजी। देखा तो बच्चों का झुँड चेहरे पर थोड़ी सी कलाकारी कर हैलोवीन मनाता आया था। कई तरह की टॉफियाँ न जाने क्यों मेरे घर एक अलमारी में शायद उनकी प्रतीक्षा में ही पड़ी थीं। सो उन्हें बाँट दी। कुछ देर बाद बच्चों का एक और झुंड आया। वे भी टॉफियाँ ले चले गए।<br />
मैं बचपन की गलियों में पहुँच गई। कभी हम बच्चे लोहड़ी के दिन यूँ ही घर घर लोड़ी माँगने पहुँचते थे। कुछ देर लोहड़ी के गीत गाते जैसे....<br />
दे माँ लोहड़ी, जिए तेरी जोड़ी।<br />
दे माँ दाणे, जीवें तेरे न्याणे।<br />
सुंदर मुंदरिए हो..,<br />
तेरा कौण बिचारा हो..<br />
दुल्ला भट्टी वाला हो,<br />
दुल्ले दी धी ब्याही हो,<br />
सेर शक्कर पाई हो ...<br />
फिर मध्य प्रदेश के मुरैना जिले की याद आती है जहाँ लड़के टेसू और लड़कियाँ झाँझी (? ) लेकर गाने गाते हुए घर घर जाते थे।<br />
लड़के गाते थे..<br />
मेरा तेसू यहीं खड़ा<br />
खाने को माँगे दही वड़ा<br />
दही वड़े में पन्नी<br />
रख दो चवन्नी।<br />
उस जमाने में तो चवन्नी की माँग भी उद्दंडता लगती थी। झाँझी वाली लड़कियाँ क्या गाती थीं समझ नहीं आता था। सब पैसा पाँच पैसा लेकर चले जाते थे।<br />
समय बदला और ५० साल बाद आज बच्चे हैलोवीन मना रहे हैं। बात लगभग वही है।<br />
घुघूती बासूती<br />
<div>
<br /></div>
</div>
ghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-11572986277930079982014-10-30T13:38:00.000+05:302014-10-30T13:38:06.934+05:30गुब्बारे<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कल शाम जब तन्वी (मेरी पौने दो साल की नतिनी) को लेकर सोसायटी में घूमने निकली तो एक अन्य ब्लॉक में कोई ऊपर की दसवीं मंजिल या उससे भी ऊपर से गुब्बारे नीचे फेंक रहा था, तीन या अधिक गुब्बारों के गुच्छे। शायद ये किसी जन्मदिन पर सजे गुब्बारे थे। तन्वी बहुत आकर्षित हुई। उसका भी मन गुब्बारे लेने का हो रहा था। मैं उसे केवल देखने से ही खुश होने को कह रही थी। मैं उसे समझा पाई कि ये गुब्बारे उसके नहीं हैं अतः वे उन्हें ले नहीं सकती, उन्हें देख सकती है, उनका पीछा कर सकती है। जब उससे पूछा कि क्या ये गुब्बारे मम्मा/ पापा/ नानू/ बाबा ने खरीदे तो उसने कहा नहीं। और समझ गई कि वे उसके नहीं हैं। वहीं पर कुछ बच्चे और उनकी माताओं का समूह खड़ा था। बच्चे तो गुब्बारे लपक ही रहे थे।<br />
एक स्त्री ने अपने बच्चे को बाँह भर गुब्बारे पकड़ाने के बाद उन पर पैर रख रखकर उन्हें फोड़ना शुरु किया। तन्वी उनको फूटता देख दुखी हो नहीं नहीं कहती रह गई। एक बार फिर तन्वी को समझाना पड़ा कि ये गुब्बारे तो उसके हैं ही नहीं तो उनके फूटने पर उसे दुखी नहीं होना चाहिए। वह कह रही थी कि नानू आँटी को रोको। फिर उसे बताया कि यदि ये गुब्बारे उसके होते तो नानू किसी भी आँटी को इन्हें फोड़ने नहीं देती।<br />
फूटे गुब्बारों के अवशेषों ने सारी साफ़ सुथरी सड़क गंदी कर दी थी। तन्वी कचरे का एक तिनका भी देखती है तो उसे कूड़ेदान के हवाले करती है। इतना सारा कचरा देख भी वह परेशान हो गई। नानू, आँटी से कहो कि गुब्बारे डक में डालें। वहीं पास में डोनाल्ड डक वाला आकर्षक कूड़ेदान था।<br />
एक बार फिर समझाना पड़ा कि मैंने तो उसके खाए केले का छिलका डक में डाल दिया है। एक दो फूटे गुब्बारे होते तो नानू उन्हें उठाकर डक में डाल देती ये तो बहुत सारे हैं और अब तो बहुत सारे बच्चे भी गुब्बारे फोड़ रहे हैं सो हम अभी उन्हें उठा नहीं सकते, बाद में उठाएँगे।<br />
मैं उसकी ट्रायसायकल को पीछे से धक्का भी दे रही थी। शाम हो गई थी सो मच्छर समूह भी अपने काटने के कार्यक्रम में जोर शोर से लगे हुए थे। गति रोकने का अर्थ उन्हें रक्तदान करना था। तन्वी तो अपने पूरे ढके शरीर व मच्छरों को भगाने वाले रिस्ट बैन्ड्स के कारण काफी सुरक्षित थी। सोच रही थी कि यदि मैं एक एक फूटा गुब्बारा उठाकर डक में डालना शुरू करूँ तो क्या इन लोगों को कुछ शर्म आएगी।<br />
गुब्बारे फोड़े जाते रहे। और हम आगे निकल गए। दो तीन चक्कर लगाने तक तो यह कार्यक्रम जारी रहा। चौथे चक्कर तक गुब्बारे खत्म हो गए थे और सोसायटी का शाम को घूम घूम कर कचरा उठाने वाला सफाईकर्मी सारे फूटे गुब्बारे उठाकर सड़क साफ कर चुका था।<br />
भारत में सफाई रखने का एक ही तरीका है कोई दिन रात हम कचरा फैलाने वालों के पीछे पीछे घूम घूमकर कचरा एकत्रित करता रहे। मोदी जी, सुन रहे हैं न आप! यहाँ आपके झाड़ू अभियान पर हँसने वाले अधिक हैं अपना फैलाया कचरा उठाने वाले बहुत कम और दूसरों का फैलाया कचरा उठाने वाले और भी कम।<br />
वैसे हमारी सोसायटी में कुछ वृद्ध मोदी जी के सफाई अधियान से जुड़े हुए हैं और बेसमेन्ट तक की सफाई का ध्यान रखते हैं। किन्तु गन्दगी के पुजारियों के लिए वे कभी भी काफी नहीं हो सकते।<br />
घुघूती बासूती<br />
<div>
<br /></div>
</div>
ghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-46763690596155542852014-10-12T22:15:00.000+05:302014-10-12T22:15:59.571+05:30करवाचौथ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: x-large;">क<span lang="EN">रवाचौथ हो</span></span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">, </span></span><span style="font-size: x-large;">हल्दी कुमकुम हो या वरलक्ष्मी या वट सावित्री या कोई भी ऐसा त्यौहार या रीतिरिवाज जैसे माँग में सिन्दूर भरना</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">,</span></span><span style="font-size: x-large;"> जो केवल सुहागिनें कर सकती हैं और विधवाएँ नहीं</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">, </span></span><span style="font-size: x-large;">उनके बारे में थोड़ा सा विचार करने की आवश्यकता तो है।</span><br />
<span style="font-size: x-large;">
</span><br />
<span style="font-size: x-large;">जो भी संयुक्त परिवार में रहे हैं उन्होंने देखा होगा कि हर ऐसे त्यौहार पर घर की कोई स्त्री फीके वस्त्र पहने अलग थलग नजर आती है। माना समय बदल गया</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">,</span></span><span style="font-size: x-large;"> अब उन्हें कोई सर गंजा करने</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">, </span></span><span style="font-size: x-large;">सफेद वस्त्र पहन त्याग का जीवन जीने को नहीं कहता</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">, </span></span><span style="font-size: x-large;">किन्तु फिर भी जब वे इन खुशियों में सम्मिलित नहीं हो पाती होंगी तो क्या आपका मन आपको थोड़ा सा भी नहीं कहता कि कहीं कुछ गलत है। हाँ</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">,</span></span><span style="font-size: x-large;"> अब विधवा विवाह भी हो रहे हैं</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">, </span></span><span style="font-size: x-large;">किन्तु प्रायः युवा निःसन्तान विधवाओं के। हमारी माँ</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">, </span></span><span style="font-size: x-large;">सास</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">, </span></span><span style="font-size: x-large;">चाची तो नहीं भाग ले पाती इन खुशियों में। सो कुछ तो है जो सही नहीं है।</span><br />
<span style="font-size: x-large;">
</span><br />
<span style="font-size: x-large;">मुझे तो जब पचहत्तर साल की उम्र में विधवा हुई अपनी माँ के पूजा के समय जब दाँए हाथ में कलाया बाँधा गया और मेरे बाँए हाथ में</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">,</span></span><span style="font-size: x-large;"> तब भी बुरा लगा। माँ से पूछा ऐसा क्यों तो वही विधवा सधवा</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">! </span></span><span style="font-size: x-large;">बचपन से माँ के घने लम्बे बालों की हम सब बच्चे सर धोने पर कंघी करते आए हैं। बाल इतने घने व लम्बे थे कि उनके तो हाथ दुख जाते थे। फिर जब बुढ़ापे में मैं उनके बाल बनाती और माँग निकाल देती तो वे टोक देतीं</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">, </span></span><span style="font-size: x-large;">माँग मत निकाल। पूछने पर फिर वही विधवा सधवा</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">! </span></span><span style="font-size: x-large;">किन्तु दो चार दिन बाद फिर भूल से मैं माँग निकाल देती। मन ग्लानि</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">, </span></span><span style="font-size: x-large;">क्रोध से भर उठता।</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"> </span></span><span style="font-size: x-large;">माँ इतनी समझदार होकर भी बिना काँच की चूड़ियों</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">, </span></span><span style="font-size: x-large;">चरयो </span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">(</span></span><span style="font-size: x-large;">मंगलसूत्र</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">), </span></span><span style="font-size: x-large;">बिछिए</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">, </span></span><span style="font-size: x-large;">बिन्दी के रहती। लगाती भी तो काली बिन्दी चिपका लेतीं।</span><br />
<span style="font-size: x-large;">
</span><br />
<span style="font-size: x-large;">यही माँ पहले चरयो मौल जाने</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">, </span></span><span style="font-size: x-large;">हाँ टूट जाना कहना निषेध था</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">, </span></span><span style="font-size: x-large;">पर एक काला मोती धागे में पिरोकर गले में पहनती</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">, </span></span><span style="font-size: x-large;">चूड़ियाँ मौल जाने पर एक धागा ही कलाई में बाँध लेतीं। एकबार बिना बिन्दी न जाने कैसे घर से बाहर चली गईं तो पिताजी ने पहले बाजार से बिन्दी खरीद लगाई तब वे लोग आगे बढ़े। </span><br />
<br />
<span style="font-size: x-large;">
<br />
तो ऐसा क्या था जो उनके संसार में पिताजी के जाने के बाद इतना बदल गया जो माँ के पहले जाने पर पिताजी के संसार में नहीं बदलता। जबकि तर्क से सोचा जाए तो माँ की अपेक्षा पिताजी अधिक असहाय हो जाते। शायद इसीलिए सदा पत्नी कम उम्र की होती है कि पति का बुढ़ापा अकेले न कटे। वैसे भी स्त्रियाँ पुरुष से औसत पाँच वर्ष अधिक जीती हैं सो वैधव्य उन्हें ही अधिक झेलना पड़ता है। माँ पिताजी से ९ साल छोटी थीं सो साढ़े चौदह वर्ष झेला।<br />
</span><span style="font-size: x-large;">उस बच्चे की सोचो जिसकी मौसी</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">,</span></span><span style="font-size: x-large;"> चाचियाँ सब सजधजकर यह त्यौहार मना रही हैं</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">, </span></span><span style="font-size: x-large;">यहाँ तक कि बुढ़िया दादी नानी भी</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">,</span></span><span style="font-size: x-large;"> किन्तु माँ नहीं मना रही। वह पूछता होगा तो क्या कहती होगी उसकी माँ</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">? </span></span><span style="font-size: x-large;">यही कि अब मैं सुहागिन नहीं अभागिन हो गई हूँ। या तेरे पिताजी नहीं हैं न इसलिए।</span><br />
<span style="font-size: x-large;">
</span><br />
<span style="font-size: x-large;">मुझे किसी के किसी त्यौहार मनाने से कोई आपत्ति नहीं है किन्तु वह त्यौहार जो किसी के लिए वर्जित हो</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">, </span></span><span style="font-size: x-large;">कचोटता है। वैधव्य कोई पीलिया नहीं है कि इस दीवाली में हो गया तो बिना मिठाई के रह लेंगे</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;">, </span></span><span style="font-size: x-large;">अगली दीवाली में खा लेंगे। यह जन्मदिन जैसा निजी उत्सव</span><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"><span style="font-family: Mangal; font-size: x-large;"> </span></span><span style="font-size: x-large;">भी नहीं है कि कोई एक मना रहा है। यह तो सार्वजनिक किस्म का त्यौहार है जिसमें से हम कुछ को वैसे अलग कर रहे हैं जैसे कुछ का मंदिर में प्रवेश वर्जित करना। दोनो ही कहीं न कहीं गलत हैं। सोचिए।</span><br />
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घुघूती बासूती</span></div>
ghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-29355918948284737412014-10-10T16:53:00.000+05:302014-10-10T16:53:13.847+05:30यही पैसा किसी गरीब बच्चे पर खर्च क्यों नहीं करतीं?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
क के पास दो बिल्लियाँ हैं। कोई महान खानदानी, विशेष नस्ल वाली बिल्लियाँ नहीं, एनिमल शेल्टर से ली गईं सबसे कमजोर, घायल, बीमार और परजीवी टिक्स, फ्लीज़ और खुजली से पीड़ित थीं ये। एक की टाँग भी टूटी हुई थी। एक नर और एक मादा। क की महीनों की मेहनत, उसके पति के सहयोग और कितनी ही बार वेट के पास ले जाकर इलाज कराने, सारे वैक्सीनेशन कराने, स्पे कराने से वे स्वस्थ, सुन्दर, पालतू बिल्लियाँ बन गईं।<br />
<br />
उन बिल्लियों को सही खुराक मिलती है। उन्हें नहलाया धुलाया जाता है, ब्रश किया जाता है। उनके पास खिलौने हैं, बैठने, लेटने, कहीं चढ़कर बैठने के लिए बिस्तरा, टोकरियाँ, पर्च हैं।<br />
<br />
क के कई मित्रों व सहकर्मियों को क के बिल्लियों का इतना ध्यान रखने, उनपर पैसा खर्च करने से बहुत कष्ट होता है। उन्हें यह फिजूलखर्ची लगती है, समय की बर्बादी लगती है।<br />
<br />
एक दिन तो एक सहकर्मी मित्र को कुछ अधिक ही जोश आ गया। वह क के इस तरह पैसा बर्बाद करने पर बुरा भला कहने लगा। उसे बताने लगा कि कैसे वह इसी पैसे का सदुपयोग किसी गरीब या अनाथ बच्चे के लिए कर सकती है। क ने कहा," सही कह रहे हो। तुम बताओ यह कैसे किया जा सकता है।"<br />
<br />
मित्र ने कई संस्थाओं के नाम बताए और फिर क को प्रेरित किया कि वह बिल्लियों को उनके हाल पर छोड़ इन संस्थाओं में दान देकर बच्चों का उद्धार करे।<br />
<br />
क ने कहा, "ठीक है, तुम्हें बाल कल्याण में इतनी रुचि है यह देख मुझे खुशी हुई। कल ही मैं इन संस्थाओं के फॉर्म मंगाकर तुम्हें दे देती हूँ। तुम वहाँ दान करने लगना।"<br />
<br />
वह एकदम से हड़बड़ा गया। बोला," मैं? मैं क्यों? ये तो तुम्हारे लिए बता रहा था। मैं अपने पैसे बर्बाद नहीं कर सकता। मेरे पास इतना फालतू पैसा नहीं है।"<br />
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क ने कहा," अभी तो तुम मुझे इन संस्थाओं को दान देने का उपदेश दे रहे थे। अब क्या हुआ?"<br />
<br />
मित्र बोला," मैं तो इसलिए कह रहा था क्योंकि तुम बिल्लियों पर खर्च करती हो।"<br />
<br />
क ने उत्तर दिया," तुम और मैं बराबर कमाते हैं। मैं तो कमसे कम बिल्लियों पर खर्च करती हूँ। तुम किस पर खर्च करते हो? सब अपने पर?"<br />
<br />
"हाँ। और मेरे पास किसी अन्य पर खर्च करने को फालतू पैसा है भी नहीं। और यह जो तुम गरीब बच्चों की बजाए बिल्लियों पर पैसा बहाती हो, यह बर्बादी है, मीननेस है, स्वार्थ है। तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। मैं तुम्हें इससे रोक रहा हूँ तो तुम मुझे ही अक्ल बता रही हो। मैं तो कभी बिल्लियों पर पैसे खर्च नहीं करता।"<br />
<br />
क ने कहा, " हाँ, केवल अपने पर खर्च करते हो और कर रहे हो। वह बर्बादी नहीं है? मैं कमसे कम किसी का तो ध्यान रख रही हूँ, किसी के साथ तो अपनी खुशी बाँट रही हूँ। मुझे जानवरों से प्यार है तो मैं उनका भला कर रही हूँ। तुम्हें बच्चों से प्यार है तुम उनका भला करो।"<br />
<br />
मित्र गुस्से से तमतमाता बड़बड़ाता उठ गया, " भले का तो जमाना ही नहीं है। बच्चे भूखे मर रहे हैं और इन्हें बिल्लियों की पड़ी है! मुझे कहती है कि मैं अनाथालय में दान दूँ, CRY को दान दूँ। मेरे पास क्या फालतू पैसा है! हुँह!"<br />
<br />
घुघूती बासूती<br />
<br />
पुनश्चः<br />
यह किस्सा बिल्कुल सच है। ऐसे 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' कभी कभी जीवन में मिल जाते हैं और अपने कुतर्कों से हमें दंग कर जाते हैं। हम बस सोचते रह जाते हैं कि क्या ये सच में अंधे हैं, मूर्ख हैं या इन्हें सच में लगता है कि इनका दायित्व तो बस दूसरों को राह दिखाने भर का है उस राह चलना तो दूसरों का काम है।<br />
<br />
घुघूती बासूती</div>
ghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-36703351822561380342014-08-28T02:13:00.000+05:302014-08-28T02:13:35.866+05:30अपेक्षाओं के पेड़ <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
अपेक्षाओं के पेड़<br />
अपेक्षाओं के पेड़ उथले छोटे गमले में उगाना<br />
उन्हें अधिक खाद पानी न खिलाना पिलाना<br />
न अधिक धूप दिखाना व धूप से ही बचाना<br />
उन्हें कमरे की खिड़की के आले पर न रखना.<br />
उन्हें नजरों से बहुत दूर किसी बालकनी या<br />
छत के इक कोने पर ही कुछ स्थान दिलाना<br />
उन्हें इक दूजे के बहुत पास भी न सजाना<br />
न ही पड़ोसी के घने बड़े पेड़ के पास रखना.<br />
ये अपेक्षाएँ इक दूजे से चुगली करती हैं<br />
ये अपेक्षाएँ तो महामारी सी फैलती हैं<br />
गाजर घास सी बढ़ती, बुद्धि ढकती हैं<br />
बरगद के पेड़ सी इनकी जड़ जटाओं सी<br />
इक बार जो निकलती हैं तो धरती फोड़<br />
इक नया पेड़ रच ही कुछ पल ठहरती हैं.<br />
बेहतर है कि इन्हें बहुत न पालो न पोसो<br />
न निर्मल जल से न आंसुओं की धारा से<br />
इन्हें तो बस समय समय पर, बार बार<br />
नई कोपलों के फूटने से ही बहुत पहले<br />
कलियां खिलने, फलों में बदलने से पहले<br />
काट छाँट कर वापिस सही आकार दे दो.<br />
गमले की मिट्टी से इसकी जड़ो को निकालो<br />
उचित आकार में उन्हें भी काटो, और छाँटो<br />
नहीं फैलने दो कभी उन्हें जरा भी असीमित<br />
अपेक्षाओं का पेड़ है ,उसकी बोन्साई बनाओ<br />
छायादार, फलदार वृक्ष न उसको कभी बनाओ<br />
अपेक्षाओं के पेड़ उथले छोटे गमलों में उगाओ.<br />
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घुघूती बासूती<br />
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<br /></div>
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ghughutibasutihttp://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-38818012.post-21663240130733688712014-08-02T02:12:00.000+05:302014-08-02T02:12:00.533+05:30कब तुम आओगे?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
कुछ पल फिर से जी लूँगी<br />
हाल तुम्हारा सुन लूँगी<br />
अपने मन की सब कह दूँगी<br />
पलकें नहीं,<br />
हृदय बिछाए बैठी हूँ<br />
कब तुम आओगे?<br />
<br />
खो रहा है चेहरा मेरा<br />
तेरी आँखों में फिर देखूँगी<br />
खो गया है नाम ही मेरा<br />
तेरे मुख से सुन लूँगी<br />
जब तुम आओगे।<br />
<br />
शून्य होती भावनाओं को<br />
नया वेग देने को<br />
शिथिल हुए शरीर में<br />
नई संवेदना फूँकने को<br />
मुझे मुझसे मिलवाने को<br />
कब तुम आओगे?<br />
<br />
आस लगाए बैठी हूँ<br />
संवेदनी जड़ी ले आओगे<br />
जड़ फिर से चेतन होगा<br />
पंखहीन पक्षी को पंख मिलेंगे<br />
अंधियारे होंगे फिर आलोकित<br />
जब तुम आओगे।<br />
<br />
मंद पड़ रही है जीवन ज्योति<br />
साँसें लगतीं चढ़ान पहाड़ की<br />
नयन ढूँढते हैं उस तारे को<br />
जो दिखाता दिशा जीवन की<br />
बाँह पकड़ राह दिखाने<br />
कब तुम आओगे?<br />
<br />
घुघूती बासूती<br />
</div>
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