जाने वह गये कहाँ
जो मेरे मन में बसते थे
खो गये वह कहाँ
जो साँसों में रहते थे
छूट गये वह कहाँ
जो सपनों में मिलते थे ।
जिनके आने से मन नाचा करता था
जिनके होने से हर पल सपना लगता था
वह आते थे तो हर क्षण छोटा लगता था
समय पँख लगाये तब उड़ता रहता था ।
राहों में बिछते थे फूल जहाँ
अब काँटे ही काँटे हैं पड़े वहाँ
सीने में अरमान बसते थे जहाँ
अब अंगारे हैं सुलग रहे वहाँ
चाहत की खिलती थी कलियाँ जहाँ
अब आँसुओं का है सैलाब वहाँ ।
सूनी सूनी सब राहें हैं
खाली खाली पैमाने हैं
छलकी छलकी सी आँखें हैं
सूनी सूनी सी बाँहें हैं ।
लम्बे से ये रस्ते हैं
डगमग करते हैं पाँव
गये कहाँ वे वृक्ष सभी
कोमल थी जिनकी छाँव
कल-कल करते वे झरने
वह मेरा प्यारा सा गाँव ।
जाने वह खुशबू गयी कहाँ
जो अन्त: तक में बस जाती थीं
जाने है वह प्रेम हिना कहाँ
जो मन तक को रंग जाती थी ।
जाने वह तेरे गीत कहाँ
जो कानों में रस बरसाते थे
जाने वह सुख सरिता कहाँ गयी
जिसमें हम गोते खाते थे
वे बाँहों के हार कहाँ
जो हमें गले लगाते थे ।
वे साँझें,वे दिन जादू वाले,
सतरंगी आकाश,वे बादल मतवाले,
वे मीठी बातें,तेरे वे बोल रसवाले
कामदेव के तीर से,नयना वे मदवाले ।
वे सारे जुगनू गये कहाँ
जो तेरी राह दिखाते थे
वे धक-धक करते हृदय कहाँ
जो तेरे आने का राज बताते थे
वे सारे तारे गये कहाँ
जो तुम तोड़ ले आते थे ।
छोटे छोटे वे सुख अपने
वे अपने रंगी ख्वाब कहाँ
इक दिन भी ना मिलने पर
वह मीठी सी कसक कहाँ ।
कहाँ गये वे दीपक सारे
जो मेरी आँखों में जलते थे
गये कहाँ वे सारे सपने
जो मेरी आँखों में पलते थे
गये कहाँ वे सारे फूल
जो अपनी बगिया में खिलते थे ।
कहाँ गयी वह चुम्बक सी शक्ति
जो तुम्हे खींच ले आती थी
कहाँ गयी वह प्रेम चाँदनी
जो प्रेम रस बरसाती थी ।
कहाँ गया वह मेरा यौवन
जो दीवाना तुम्हें बनाता था
कहाँ गया वह बचपन का नेह
जो मनमीत हमें बनाता था
कहाँ गया वह अपना सपना
जो रंगी जहां बनाता था ।
मिलकर चलते एक राह पर
जाने कब छूटा तेरा हाथ
रोते हँसते, मिलकर चलते
न जाने कब छूटा तेरा साथ ।
अब ढूँढ रहीं आँखें तुझको
इन जीवन की राहों में
खोज रही हूँ यादों में तुझको
इन जीवन के पन्नों में
बुला रही खुशबू तुझको
इस जीवन के उपवन में ।
लौट के आ जा प्रियतम मेरे
अब तो जीवन बीत चला
कुछ साँसें हैं साथ मेरे
जीवन घट तो अब रीत चला ।
घुघूती बासूती
Tuesday, April 24, 2007
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पूरी कविता है. हर पहलू का अहसास. शुभकामनायें.
ReplyDeleteअति उत्तम। वैसे तो कविता की बहुत समझ नहीँ है मुझे पर यह अच्छी लगी और संग्रहणीय है।
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगा इसे पढ़कर!
ReplyDeleteसुन्दर रचना है, भावों का सजीव चित्रण किया है आपने. मगर कभी कभी ऐसा भी होता है
ReplyDelete"जिनके आने की उम्मीदों पर गुजारी कितनी रातें,
सामने से ही जब वो गुजरे तो बुलाया ना गया"
सीधी सरल प्रभावशाली कविता.
ReplyDeleteकवि की कल्पना है।इतना नकारात्मक नहीं होगा ,सब।
ReplyDeleteराहों में बिछते थे फूल जहाँ
ReplyDeleteअब काँटे ही काँटे हैं पड़े वहाँ
सीने में अरमान बसते थे जहाँ
अब अंगारे हैं सुलग रहे वहाँ
चाहत की खिलती थी कलियाँ जहाँ
अब आँसुओं का है सैलाब वहाँ ।
सूनी सूनी सब राहें हैं
खाली खाली पैमाने हैं
छलकी छलकी सी आँखें हैं
सूनी सूनी सी बाँहें हैं ।
bahut hi sundar likha hai aapne ..very nice words
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteगये कहाँ वे सारे सपने
ReplyDeleteजो मेरी आँखों में पलते थे
वे अब भी वहीं (यहीं) हैं, बस ऑंखो को रोको न वरना सपने भी भला कहीं मरा करते हैं
परिचर्चा पर पढ़ी थी तब भी ये बहुत अच्छी लगी थी और आज पुन: पढ़कर भी वैसा ही अनुभव हुआ ।
ReplyDeleteकविता की कोमलता में अजब सा एहसास छिपा है जो प्रथम बार में समझ नहीं आता पर धीरे-धीरे उतरने लगता है…।
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