कुछ दिन पहले एक बन्धु ने अपने चिट्ठे में लिखा था कि किस प्रकार एक विशेष प्रकार के अपराधियों को मार पीट कर उन्हें उनके करे की सजा देनी चाहिए । तब भी मुझे लगा था कि यह गलत है व भावना में बहकर न्याय नहीं होता । मेरा सबसे बड़ा भय यही था कि किसी निर्दोष को सजा न मिल जाए या, जोश में आकर लोग अपराध से अधिक सजा न दे डालें , या कुछ लोग यह रास्ता अपने शत्रुओं को मजा चखाने के लिए न उपयोग करें ।
कल के टाइम्स औफ इन्डिया में एक समाचार पढ़ा । अमेरिका में एक संस्था इनोसेन्स प्रोजेक्ट द्वारा निर्दोष लोगों को न्याय दिला रही है । इसने २०० ऐसे व्यक्तियों को, जिन्हें लम्बी कारावास हुई थी व जो कुल मिलाकर २४७५ वर्ष कारावासों में बिता चुके थे, डी एन ए के प्रमाणों द्वारा मुक्ति दिलवाई है । यदि आप हिसाब लगाएँगे तो हर निर्दोष ने औसतन १२वर्ष व साढ़े चार महीने कैद में गुजारे ! २००वाँ व्यक्ति जेरी मिलर, उम्र ४८ वर्ष, ने २४ वर्ष कैद में बिताए हैं । उसे एक ४४ वर्षीय महिला का बलात्कार करने के लिए सजा दी गई थी । किसी अपराधी ने बलात्कार करके महिला को कार के बूट में बन्द कर दिया था । ऐसा कर वह भाग गया और कुछ लोगों ने, जिन्होंने उसे देखा था, उस अपराधी का चित्र बनवाने में मदद की । इसी चित्र के आधार पर जेरी पकड़ा गया ।
क्या आप इस व्यक्ति व उसके परिवार की व्यथा की कल्पना कर सकते हैं ? पहली तो बात किसी भी निर्दोष व्यक्ति को जब दोषी करार दिया जाता है तो यह उसके व उसके परिवार के साथ अन्याय है व यह उनके मान सम्मान को धूल में मिला देता है । किन्तु बलात्कार का दोष तो ऐसा है कि जिसपर लगे यह उसके व उसके प्रिय जनों के बलात्कार सा है । सोचिये उसकी पत्नी या महिला मित्र या प्रेमिका की मनोदशा ! यदि उन्हें न भी विश्वास होता हो तब भी उनके मन में संदेह तो आता होगा । क्या होगी उसके माता पिता व परिवार की दशा ! कौन परिवार सह पाएगा कि उनका पुत्र एक बलात्कारी है ?
जब भी कोई अपराध होता है, विशेष रूप से जघन्य, तो सब लोग, पुलिस, मीडिया , सरकार आदि, जल्द से जल्द अपराधी को पकड़ना चाहते हैं व लोगों का क्रोध शान्त कतना चाहते हैं ।
यह सही भी है किन्तु किसी भी निर्दोष को सजा देना एक नया अपराध करने से भी बड़ा अपराध है । जिसके साथ अपराध किया गया हो उसे लोगों की सहानुभुति तो मिलती है किन्तु इस बेचारे के साथ तो न न्याय, न सहानुभूति !
अतः हमें याद रहना चाहिये कि एक पीड़ित को न्याय दिलाने के चक्कर में आवेश में आकर एक निरअपराधी को सजा नहीं होनी चाहिये । जब मैंने यह समाचार पढ़ा तो मुझे बचपन में अपने साथ घटी एक घटना याद आ गई ।
घटना
जब मैं लगभग १२ वर्ष की थी तो एक बार मेरे माता पिता व अड़ोसी पड़ोसी सब एक विवाह में गए हुए थे । हमारे घर दूर दूर थे व इस स्थिति में दूर दूर तक कोई भी घर में नहीं था । एक चोर हमारे घर आया । मैंने उसे देख लिया, और.... हँसिये नहीं, उसे पकड़ने उसके पीछे भागी । बेचारे चोर ने ऐसी बच्ची की कल्पना नहीं की होगी । सो वह भी भागा, वह आगे और मैं पीछे , रात के अन्धकार में बगीचे में पहुँच गए । अचानक एक लाइट के नीचे शायद उसे यह खयाल आया कि वह एक बच्ची से डर कर भाग रहा है , सो वापिस मेरी तरफ आया । तब मुझे भी लगा कि कुछ अधिक ही वीरता हो गई । सो चिल्लाई.. भैय्या, चोर,चोर , पकड़ो । चोर रुक गया और मैं भी रुक रही । शायद उसने सोचा होगा कि जब छोटी बहन इतनी बड़ी वीरांगना है तो बड़ा भाई कैसा होगा । हम दोनों खड़े थे फिर वह भागने लगा और मैं फिर से उसके पीछे ! तब तक भाई भी आ गया और मैंने चिल्ला कर कहा कि दूसरी तरफ से जाओ । घर के चारों और बगीचा था और मैं उसे घेर कर पकड़ना चाहती थी । वह बेचारा !
एक तरफ कूँआ तो दूसरी तरफ खाई !
एक तरफ बहना तो दूसरी तरफ भाई !
गन्नों में जा बाढ़ से बाहर छलांग लगाई !
ऐसे उस बेचारे ने हमसे अपनी जान छुड़ाई !
इस घटना के कुछ दिन बाद मैंने उस चोर को दो तीन बार देखा । मैं अपने पिताजी के साथ थी व आसपास सब जान पहचान वाले लोग थे । चाहती तो पकड़वा सकती थी । कुछ और नहीं तो दो चार हाथ तो उसे पड़ ही जाते । किन्तु उस उम्र में भी मुझे इस बात का एहसास था कि कम से कम शून्य दशमलव एक प्रतिशत तो गलत होने की संभावना है । आज भी मुझे उसकी वे भेदती आँखें याद हैं, वह अवश्य सोचता होगा कि मैंने उसे पकड़वाया क्यों नहीं । किन्तु मैं जानती हूँ मैंने ठीक किया था । यदि मैं पूरी तरह से आश्वस्त नहीं थी तो मैं उसपर आरोप नहीं लगा सकती थी ।
घुघूती बासूती
Friday, April 27, 2007
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वाह ! बढिया रहा आपके बचपन का किस्सा ! रहमदील इन्सान खुदा की जबाँ बोलता है ! आज भी आ के लेखन मेँ ऐसी ही सँवेदना व सौजन्य झलकता है -
ReplyDeleteपढकर खुशी हुई पढकर खुशी हुई घुघूती जी ! बधाई!
स स्नेह,
लावण्या
बचपन का किस्सा बढ़ा जोरदार रहा, और निर्दोष के लिये कही ापकी बात बिल्कुल सही है।
ReplyDeleteकमाल का लेख..इतनी गहरी संवेदना वाले व्यक्ति के भीतर इतना साहस भी.. वाह..
ReplyDeleteअरे बाप रे आप इतनी खतरनाक आई मीन साहसी हैं .. जानकर खुशी हुई. उस बेचारे चोर ने तो आपको खूब दुआयें दी होंगी.बढ़िया संवेदनात्मक लेख .
ReplyDeleteसभ्य समाज में पुलिस ,जज और जल्लाद के काम अलग-अलग हैं।इन में से दो या तीनों मिला देने पर अन्याय होने की सम्भावना बढ़ जाती है।
ReplyDeleteचलचित्रात्मक किस्सा पढ़ कर/ देख कर आनन्द हुआ । यह जरूर उत्तराखण्ड नहीं होगा-मेरा अनुमान है । वहाँ के बारे में पढ़ा था कि जेलें खाली रहती हैं।उत्तराखण्ड आन्दोलन से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार कुंवर प्रसून ने जेल का(शराबबन्दी सत्याग्रह में निरुद्ध) एक अनुभव लिखा था- जेल में सरकारी खर्च पर रहने के लिये एक व्यक्ति चाँदनी रात में,'गुमानू,ताला तोड़ूँ?' यह जोर-जोर से चिल्ला कर गिरफ़्तारी देता था । क्या पता ?आपके और आपके भाई के हाथों खुद को पकड़वाना ही चाहता हो?
कविता कब बनी ?
वाह!
ReplyDeleteआपका किस्सा तो बहुत जबरदस्त रहा।
आपकी किस्सागोई कमाल की है,सबसे अच्छी बात सही शब्दों का चयन और बेबाक, बिना घालमेल वाला वर्णन। जो जैसा घटा वैसा का वैसा, यही इस लेख को बेहतरीन बनाती है।
लेख के पीछे छिपे उपदेश को भी ग्रहण किया गया।धन्यवाद।
बहादुरी को मान गये।
ReplyDeleteएक तरफ कूँआ तो दूसरी तरफ खाई !
ReplyDeleteएक तरफ बहना तो दूसरी तरफ भाई !
गन्नों में जा बाढ़ से बाहर छलांग लगाई !
ऐसे उस बेचारे ने हमसे अपनी जान छुड़ाई !
:)
बचपन की घटना शानदार लगी! अच्छा संदेश दिया है आपने।
कल ही गुजरात पुलिस के कुछ अधिकारियों को फ़र्जी मुठभेड के आरोप में "बुक" किया गया है, उन्होंने फ़र्जी मुठभेड में किसे मारा था... हमारे उज्जैन के सोहराब लाला को... सोहराब जो कि मालवा का डॉन बनना चाहता था, जिसके घर के कुँए से ढेर सी AK 47 बरामद हुईं, जिसका वर्षों से आपराधिक रिकॉर्ड रहा... उसे हमारा मीडिया बेकसूर बता रहा है, वह आदमी वर्षों तक हमारी न्याय व्यवस्था को धता बताकर आराम से बाहर घूमता रहता और अपराध करता रहता, लेकिन अब उसे हीरो की तरह पेश किया जायेगा मानो पुलिस ने उसे मारकर किसी महात्मा को मार दिया हो... बासूती जी इस विषय पर मैं अलग से एक पोस्ट लिखने वाला हूँ कि "अपराधियों के साथ कैसा व्यवहार होना चाहिये" और मानवाधिकार की परिभाषा क्या हो ? लेकिन मेरा स्पष्ट मत है कि अब "गंगाजल" (भाग-दो) नीति अपनाने का वक्त आ गया है,,, सिर्फ़ हर शहर में दो-चार ईमानदार पुलिस वाले चाहिये जो इसे अंजाम दे सकें...
ReplyDeleteबड़ा ही रोचक और साहसिक वृत्तांत रहा आपका और साथ ही न्याय और निर्दोष व्यक्तियों के प्रति आपका दृष्टिकोण।
ReplyDeleteआपके साहस को देख कर आपके बारे में विचार कुछ मॉडीफाई करने पड़ रहे हैं. चोर के पीछे दौडने का काम तो शायद मैं नहीं कर पाता!
ReplyDeleteसुभद्राकुमारी चौहान जैसा भी कुछ लिखें.
आपके निर्दोष को सजा वाले विचार पर मेरा मत कुछ भिन्न है. पर मत भेद पर क्या चर्चा करनी?
बड़ा साहसिक काम किया आपने और उससे भी ज्यादा संवेदना दिखाई।
ReplyDeleteकिस्सा अच्छा रहा, किस्सागोई और भी अच्छी।
ReplyDeleteअब ज्यूरिसप्रूडेंस के लिहाज से तो आप ठीक कह रही हैं पर कितना व्यवहारिक है पता नहीं। आपकी संवेदनशीलता अद्वितीय है।
बिल्कुल सही। हमारा कानून भी यही कहता है कि "चाहे सौ दोषी छूट जाएं पर एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए" और इसी बात को फायदा तमाम समर्थ अपराधी उठाते हैं।
ReplyDeleteइस बारे में मेरे विचार आप से बिल्कुल मिलते हैं. :-)
ReplyDeleteबासूती जी
ReplyDeleteआपने मेरा अपराधियों सम्बन्धी ब्लोग पढकर मुझे घुन बनने की अपेक्षा की है, मैं तैयार हूँ, लेकिन शायद आपने उसे ठीक से नहीं पढा, मैने लिखा है "जब तक पुलिस अधिकारी को पूरा भरोसा ना हो जाये कि यह व्यक्ति समाज के लिये घातक है" यदि मैं समाज के लिये घातक हूँ तो बेशक मुझे उडा दिया जाना चाहिये, लेकिन मैने इसकी हिमायत कभी नहीं की, कि कोई भी पुलिसवाला उठे और बगैर सोचे-समझे गोलियाँ बरसाता फ़िरे...जैसा कि कश्मीर में सेना के जवान कभी कभी कर देते हैं (तनाव में).. लेकिन उस पर ये सेकुलरवादी ज्यादा बवाल नहीं मचाते, लेकिन सोहराब चूँकि गुजरात में मारा गया इसलिये कुछ लोगों के पेट में दर्द ज्यादा है...