वर्षों से मैं उस वृक्ष को बौना समझती थी
उसके साथ के सारे वृक्ष कितने ऊँचे थे
मैं उसे हिकारत की नजर से देखती थी
कितनी भी खाद दो, पानी दो, सेवा दो
वह तो बस बढ़ने का जैसे दुश्मन हो ।
छोड दिया मैंने उसकी परवाह करना
छोटे छोटे उसके साथ लगाए केले भी
कितने ऊँचे लम्बे पत्तों से हरे भरे थे
पपीतों ने भी थी उससे बाजी मारी
नींबू ,अमरूद, चीकू सब ही आगे थे ।
मैंने छोड दी थी कोई आशा उससे
मेरी बगिया में जैसे वह सौतेला था
बीते मौसम , बीत गए कुछ वर्ष
सब वृक्षों से हो गया था प्यार मुझे
बस यह बौना ही मुझे खटकता था ।
न जाने क्या सोच मैंने न चलाई
उस पर आरी या कुल्हाडी थी
दे दिया था मैंने उसे जीवन दान
समझती थी मैं अपने को दयावान
चलता रहा बौने का जीवन संग्राम ।
फिर एक दिन सुनी मैंने समुद्री
तूफान के आने की चेतावनी
लिपटी मैं गले अपने वृक्षों से
जानती थी जान उनकी थी
बहुत ही भयंकर खतरे में ।
रात को जोरों का तूफान आया
काँपी धरती और अंबर सारा
हो रहा था विनाश का शोर
रह रह कर वृक्षों के गिरने
की भयानक आवाज आती थी ।
भोर हुई, तूफान कुछ थमा
मैं भागी बगीचे की तरफ
विध्वंस का तांडव ही था
जहाँ तक जाती थी नजर
लाशें बिछी थीं वृक्षों की ।
पथराई नजर ढूँढ रही थी
कहीं जीवन चिन्हों को
देखा खडा था वह बौना
भागी मैं सीने से लगाया
और आँसू से उसे भिगोया ।
लम्बे ऊँचे वृक्षों की जडे
नीचे बहुत ही उथली थीं
मेरा बौना ऊपर था कम
धरती के अन्दर था अधिक
मेरा बौना तो बहुत गहरा था ।
घुघूती बासूती
१७. ४. २००७
Saturday, April 28, 2007
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एक वृक्ष के माध्यम से काफी गहरी बात कह दी आपने.
ReplyDeleteजड़ें अगर गहरी हों तो बौना भी टिक जायेगा ,
खाली डींग लगाने वाला जल्दी ही गिर जायेगा,
अच्छी कविता.
पथराई नजर ढूँढ रही थी
ReplyDeleteकहीं जीवन चिन्हों को
देखा खडा था वह बौना
भागी मैं सीने से लगाया
और आँसू से उसे भिगोया ।
लम्बे ऊँचे वृक्षों की जडे
नीचे बहुत ही उथली थीं
मेरा बौना ऊपर था कम
धरती के अन्दर था अधिक
मेरा बौना तो बहुत गहरा था ।
बहुत सुंदर और बहुत गहरी बात लिख दी है आपने ...कई अर्थ बात गयी आपकी यह रचना
कवि - मित्र राजेन्द्र राजन की एक कविता की पहली दो पंक्तियाँ याद आईं :
ReplyDelete"मैं पहाड़ पर उगा
एक छोटा पौधा
और तुम
जमीन पर खड़े एक ताड़ के पेड़"
आपकी सुन्दर कविता के लिए साधुवाद ।
गहरी बात कम शब्दों में। सुन्दर अति सुन्दर।
ReplyDeletebahut khoob ! bahut gahan bhaav |sundar prastuti|
ReplyDeleteभोर हुई, तूफान कुछ थमा
ReplyDeleteमैं भागी बगीचे की तरफ
विध्वंस का तांडव ही था
जहाँ तक जाती थी नजर
लाशें बिछी थीं वृक्षों की ।
पथराई नजर ढूँढ रही थी
कहीं जीवन चिन्हों को
देखा खडा था वह बौना
भागी मैं सीने से लगाया
और आँसू से उसे भिगोया ।
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ये लाइन दिल को छु लेने वाले है.....:cool:
बहुत सुन्दर,
ReplyDeleteगहरी जड़ों का होना ही लम्बें समय तक खड़े रहने के लिये आवश्यक है। एक वृक्ष के माध्यम से आपने बहुत गहरी बात कह दी।
धन्यवाद एवं बधाई!!!
घुघुती बासूती जी, बहुत बहुत बहुत भला लिखा है.
ReplyDeleteउसकी बनावट का कोई पहलु छोटा या बड़ा नहीं होता
ReplyDeleteहोते हैं दृष्टिकोण बड़े या छोटे…और यही खूबसूरती है इस कविता की एक दिन उसका भी आया जब सब पट गये और वह बड़ा हो गया…।व्यापक…सुंदर्…बधाई!!
"घुघूती जी,
ReplyDeleteबहुत खूब !
" जहाँ काम आवै सुई,
कहा करि तलवारि ?'
सुँदर कविता, गहरी अभिव्यक्ति !
शुभकामनाएँ...
स्नेहसहित,
लावण्या
अद्भुत!
ReplyDeleteजहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि।
Hey,
ReplyDeleteReally liked the poem. Long live the tiny folk with big dreams and bigger ideals.
Neha
Thanks for your comment sans words on my 'Mystery woman' -looks like mystery for mystery. Thanks also for the comment you made on one of my articles earlier. I have gone through your writings in this blog and also the other one 'Musings'. Written on quite a melancholy note,whatever you have expressed is touchingly heart rending.If you so prefer, would you like to go through my other writeups in Hindi besides those written English.To me you are in a veil -would like to see more of you. Thanks again.
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