चल रे मन
रे मन, चल भीड़ से परे
चल, मुझसे बात कर
कुछ अपनी सुना
कुछ मेरी सुन
तू भी अकेला
मैं भी अकेली ।
इक तू ही तो है
जिसने साथ दिया
बचपन से अब तक
तूने ही मुझे जाना है
बाकी तो सब कुछ
बस पल भर में आना
पल भर में जाना है
बस तूने ही मेरा
और मैंने ही तेरा
साथ निभाना है ।
चल रे मन,
कुछ जुगनू ढूँढे
देख तो कैसा अंधेरा है
चल, कुछ तारें ढूँढें
वे भी तो अकेले हैं
देखें बादलों ने क्या
नए आकार बनाए हैं
शायद हो बना
कोई उड़ता पक्षी
या दिख जाए
कोई थिरकती हिरणी ।
चल रे मन,
कुछ नया खेल खेलें
तू मुझे बता अपने सपने
मैं तुझे बताऊँ कुछ अपने
हाँ मन,
टूटे सपने भी चलते हैं
वे रिक्त हृदय तो भरते हैं
बता कैसे तेरे सपने टूटे
सुन कैसे मेरे सपने रूठे ।
चल रे मन,
फिर कुछ सपने बुनें
चल, हृदय पर कुछ
पैबंद ही लगाते हैं
कुछ उलझे प्रश्नों से
हम बहुत दूर चलें
क्यों कब कैसे हुआ
को हम भूल चलें ।
चल रे मन,
रात बीत गई इन बातों में
चल सुबह की लाली देखें
अब तू भी वापिस आ जा
मेरे रिक्त हृदय में जा समा
चल हम मिल पूरे हो जाएँ
तू और मैं इक हो जाएँ
मैं व मेरा मन,मन और मैं
इक दूजे के पूरक हो जाएँ।
देख सूरज उगने वाला है
नया दिन मिल हम शुरू करें।
चल रे मन ,
मेरे संग चल
न बहक इधर उधर
कर ले बसेरा मुझमें
बन जा मुझ सा बन्दी
मेरी देह के पिंजरे में ।
घुघूती बासूती
मयडम जी आजकल मन से बड़ी लंबी बातचीत हो रही है.. मनत्व की प्राप्ति पर बधाई स्वीकारें.....
ReplyDeleteमन से मौन संवाद्……बहुत सुंदर
ReplyDeleteअच्छी कविता है. सुंदर भाव.
ReplyDeleteपारुल जी कि टिपण्णी के आगे और कुछ है नही कहने के लिए.
"मन से मौन संवाद."
अद्भुत है.
ह्म्म, तो स्मृतियों के जंगल में विचरते हुए आप मन तक पहुंच गई संवाद के लिए!!
ReplyDeleteयह तो और भी बढ़िया है।
बड़ी मनमौजी कविता है. जो मन की भाषा समझ ले उससे सुखी और कौन होगा पर यह कमबख्त मन कौन सी भाषा बोलता है, पहले यह भी तो समझ आए....
ReplyDeleteसुंदर भाव, सुंदर कविता, अति सुंदर
ReplyDeleteचल अकेला......चल अकेला...
ReplyDeleteएकला चलो रे.....
अच्छे विचार
अच्छा कथन....
मन रे तू काहे न धीर धरे... यही एक गीत है जो बिना डायरी देखे याद हो पाया था और आज भी याद है...
ReplyDeleteमौन मुखरित मन से ही संवाद करके हो पाता.... बहुत प्यारी रचना.
घुघूति जी
ReplyDeleteपहली बार आपकी कविता पढ़ी । अच्छा लिखा है ।