कल ही गुड़गाँव में विकास व आकाश नामक दो चौदह वर्षीय लड़कों ने अपने एक सहपाठी अभिषेक त्यागी को पाँच गोली मारकर खत्म कर दिया । एक बच्चा अपने पिता आजाद सिंह की पिस्तौल स्कूल ले आया था और स्कूल खत्म होने पर अभिषेक की हत्या कर दी । याने यह कार्य उन्होंने क्षणिक गुस्से में नहीं किया बल्कि सोच समझ कर योजना बद्ध तरीके से पूरे होशो हवास में किया । ये बच्चे कोई बिना माँ बाप के, अभावों में सड़क पर पलने वाले नहीं थे । ये खाते पीते परिवारों के बच्चे थे । स्कूल था यूरो इन्टरनेशनल स्कूल, गुड़गाँव ! यहाँ क्वालिटी पढ़ाई मिलती है , बच्चों व अध्यापकों का अनुपात भी बहुत अच्छा है । कुछ दिन पहले ही किसी और शहर में बारहवीं कक्षा के एक लड़के को उसके साथ ट्यूशन पढ़ने वाले लड़कों ने मिल कर हॉकियों से पीट पीट कर मार डाला ।
यह अभिषेक हमारा या तुम्हारा बेटा हो सकता था । ये हत्यारे भी हमारे या तुम्हारे बेटे हो सकते थे । समाज और बच्चे इतने गुस्सैल क्यों हो गये हैं ? किसी से पटती नहीं तो उसे मार डालो । जिस लड़की को चाहो, वह तुम्हें ना चाहे तो उसके चेहरे पर एसिड डाल उसका चेहरा विकृत कर दो ।
संसार क्षुब्ध है,आश्चर्यचकित है । यह क्या हो रहा है ? मनोवैज्ञानिक , मनोचिकित्सक, अविभावक, अध्यापक सब सन्न हैं । क्यों हो रहा है यह मौत का तांडव ? कहाँ जा रहे हैं हमारे बच्चे ? क्यों वे अपना व दूसरों का विनाश कर रहे हैं ?
अरे भाई यह रॉकेट विज्ञान नहीं है, एकदम सीधी सी बात है । क्या हमने सुना नहीं है ‘बोए पेड़ बबूल के तो आम कहाँ से होएँ ?’ अब जो फसल हमने बोई थी उस ही को काटने में कैसा संकोच ? हमने अपने बच्चों को दिया ही क्या है ? एक दूषित पर्यावरण,टूटते या शिथिल पड़ते रिश्ते ! भागम भाग के जीवन में किसी तरह बच्चे के मुँह में दूध की बोतल डाल दी, नैपी बदल दिया और सोचा कि हमारे ममत्व व पितृत्व का यहीं अन्त हो गया । एक नर्सरी,एक स्कूल में दाखिला दिला दिया, एक ट्यूटर लगा दिया । अरे भाई, उसे लाड़ कौन करेगा ? कौन उसके स्व को महत्व देगा ? कौन उसके साथ खेल खेलेगा ? कौन उसके सामने आदर्श रखेगा ? टी वी, कम्प्यूटर, या कार्टून ? अब तो परिवार में इतने बच्चे भी नहीं होते कि वे आपस में खेलते रहें । कार्टून के संसार में कोई मरता नहीं है । कितना भी पीट लो, ऊपर से ट्रक, ट्रेन कुछ भी निकाल लो, व्यक्ति या प्राणी पिचक भले ही जाएगा , किन्तु इतना लचीला होता है कि फिर खड़ा हो जाता है । कम्प्यूटर खेल भी बच्चों को गोली मारना ,चाकू मारना सिखाते हैं ।
एक क्लर्क, एक मजदूर बनने के लिए तो योग्यता चाहिये, किन्तु एक नए जीवन के निर्माण के लिए किसी योग्यता की आवश्यकता नहीं । बस जन्म दे दो, खर्चा कर दो और सोचो की उत्तरदायित्व खत्म । फिर आप अपने निजी जीवन में लड़ो ,जूझो, देश, समाज, धर्म एक दूसरे पर चढ़ाई करें , युद्ध करें तो क्या बच्चों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा ? क्यों ? वे तो कच्ची मिट्टी हैं और जो खाका संसार व समाज का उनके सामने खींचोगे वे उस ही के अनुरूप ढल जाएँगे । तुम तो विनाश की होली खेलो और उनसे आशा करो संयम की ? सब तरफ अन्याय करो और सोचो कि बच्चे किशोर व युवा समझदार होंगे, न्याय में विश्वास करेंगे, शान्ति से रहेंगे ?
बड़े क्षुब्ध मन से मैंने इस विषय पर यह कविता लिखी है .........
बिखरा बचपन भटका यौवन
सोच रहे हैं सैकड़ों मनोवैज्ञानिक
कहाँ गलत हो गया यहाँ
वह था भोला, प्यारा बच्चा फोटो का
यह हत्यारापन उसे मिला कहाँ
वह तो रहता था श्रेष्ठ देश में
उसे यह वहशीपन मिला कहाँ
सारी सुख सुविधाएँ मिलती थीं उसे
फिर वह उच्च संस्कृति में बौराया कैसे यहाँ
सोचो डॉक्टर, सोचो शिक्षाविद्
सोचो नेता, सोचो पंडित
सीधा सा यह जीवन का गणित है
यह रॉकेट विज्ञान नहीं !
देखो बच्चों के बिखरे बचपन को
देखो उनके भटके यौवन को
विश्व भर में हो रहा यही है
एक देश की यह बात नहीं
टी वी के सामने बीतता है बचपन
वही उसे सहलाता, लाड़ लड़ाता है
अपनों के पास समय नहीं है
कम्प्यूटर साथ निभाता है
वे ही साथी हैं, वे ही शिक्षक
नए खिलौने, पिस्तौल, कारतूस
यही सब तो उसने जाना है ।
अपने पूर्वाग्रह उसे हम हैं दे देते
हिंसा, घृणा और वैमनस्य
उसके नन्हें बाल हृदय को
समझ न पाते हम फूहड़ नादान बड़े
जब चाहे वह समय और साथ हमारा
ले आते हम सारा बाजार उठा
उसे उठाओ गोदी में, लगा सीने से
स्नेह की उसकी प्यास बुझाओ
चाहे कितनी ही कमी हों उसमें
ना जतलाओ निराशा उसमें
ढूँढ ढूँढ गुण उसके निखारो
उसका व्यक्तित्व जरा ।
घुघूती बासूती
सहमत. आपकी भावनाओं को अच्छे से समझ सकता हूं मैं. बच्चों को सिर्फ पालने की नहीं बल्कि अच्छा नागरिक और इंसान बनाने की जिम्मेदारी भी मां बाप की ही होती है. जिस घटना का आपने जिक्र किया उसके पीछे उन बच्चों के परिवारों के बीच चल रही व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता का हाथ भी है. बहरहाल आशा करता हूं कि आपका संदेश अन्य लोगों तक पहुंचेगा.
ReplyDeleteउसके नन्हें बाल हृदय को
ReplyDeleteसमझ न पाते हम फूहड़ नादान बड़े
आज के युग में यही सत्य है. आज की पीड़ी हमारा ही product है. 25% दोष बाहर के वातावरण को दिया जा सकता है लेकिन बाकि रचना और उसका रूप घर से ही बनना शुरु होता है.
सोच रहा था कौन इस विषय पेर सबसे पहले लिखेगा।
ReplyDeleteअभी अभी आपका लेख पढ़ा।
आपके विचारों से सहमत हूँ।
G विश्वनाथ, जे पी नगर, बेंगळूरु
एक ज्वलंत विषय पर बड़ी बेबाकी से आपने अपनी बात रखी है. आप बधाई की हक़दार है. ये सच ही है कि ये सब जो हो रहा है हमारे बोये हुए विष वृक्ष का ही परिणाम है.
ReplyDeleteइस विषय पर आज ही डाक्टर महेश परिमल जी ने भी अपनी चिंताएँ विस्तार से लिखी है. आप लोग देख सकते है.
कविता भी मार्मिक लिखी है आपने. शायद औरों को कुछ सोचने पर मजबूर करे?
शायद हमे इसी प्रगति का इंतजार था..और लीजीये अब हम विकासशील से विकसित की श्रेणी मे आ गये है..... अफ़सोस मै हमेशा पिछडा ही जीकर मरना चाहूगा....
ReplyDeleteप्रगति की खेती के साथ खरपतवार बढ़ेगा ही। यह सब उसकी निशानी है।
ReplyDeleteजो हुआ गलत हुआ....अब तो सचेतना होगा और सोचना होगा कि गल्तियाँ सुधारे कैसे...
ReplyDeleteखरी-खरी इसे ही कहते हैं!!
ReplyDeleteहम क्या बन गए हैं रहें है इससे भी ज्यादा मायने यही रखता है कि हम क्या बना रहे हैं। आने वाले कल को हम क्या दे रहे हैं। जो दे रहे हैं उसका आंशिक नतीजा देखकर ही हम कांपने लगे है।
मार्मिक कविता पर है सत्य!!
बहुत सही लिखा है आपने, बच्चो को जिस तरह की संस्क्रिति मिल रही है, ये उसी का नतीजा है. अभी कुछ दिन पहले मुझे अपने भांजे के जन्म्दिवस पर पता चला कि लुख्ननऊ के सैंत फ्रंसिस मे उसके दोस्तो ने उसे पकड्कर घसीटा है, और ये सभी उच्च मद्यवर्ग के परिवारो के बच्चे है. और यही ये बच्चे एक दूसरे के साथ करते है, मुझे नही लगता के उनके मा-बाप ने इस पर कोइ गम्भीर तरह से सोचा है. यही मार-धाड की संस्क्रिती, सम्वेदन्हींता की ओर लेकर जाती है.
ReplyDeleteइस घटना का सबसे चौंकाने वाला तथ्य यह लगा कि हत्या तात्कालिक गुस्से मे नही बल्कि पूरी तरह योजना बद्ध थी.आज के दौर की शिक्षा बच्चों को न जाने किस तरफ ले जायेगी..
ReplyDeleteहम बहुत हतप्रभ हैं और दोषी भी हैं !
ReplyDeleteये गिरावट है। ऐसी तरक्की के यही नतीजे निकलेंगे जिसके पीछे चिन्तन न हो।
ReplyDeleteआपसे सहमत हैं।
बहुत-बहुत बधाई. हम विकसित हो रहे हैं.
ReplyDeleteजो कुछ हुआ है, हो रहा है हम सब के सामने है. बच्चों में संस्कार न एक दिन में आते हैं और ना एक दिन में मिटते हैं.. माँ बाप सारी जिन्दी अपना सर्वस्व देते हैं तब जाकर उन्हें जाकर उठाकर ये पंक्ति कहना नसीब होता है की "हाँ हमने अपने बच्चों में अच्छे संस्कार दिए हैं" अगर अभिभावकों में ही इतना गर्व ना हो तो बच्चों को कैसा दोष देना.
ReplyDeleteइसके लिए कुछ हद तक जिम्मेदार हमारा यह समाज है, जो अपने खोखले आदर्शों के बल पर स्वपन देखता है विकसित होने का , आपके पोस्ट को पढ़कर मुझे अपनी ही ग़ज़ल की कुछ पंक्तिया याद आ गयी अचानक , प्रस्तुत है -
ReplyDelete"पुतले रोज जलाते लेकिन डरते भी
रावण से भगवान हमारी बस्ती में।
फैशन में गुमराह हुए थे बच्चे भी
मुँह में दाबे पान हमारी बस्ती में।"बधाईयाँ प्रस्तुति अच्छी है !
आपने पहल कर ही दी है दोषियो के तलाश की तो अब इसका समाधान भी बता दे ताकि इस प्रगति के दौर मे ऐसी घटनाओ की पुनरावृत्ति न होने पाये।
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