'जब थामा नहीं हाथ'
मन कितना था,जानती हो?
यदि थाम लेती हाथ तो
दिल को भी थामना होता ,
यदि थाम लेते दिल
तो हाथ कैसे थामते ?
और यदि लड़खड़ा जाती
तो कैसे दे पाते सहारा?
मैंने तो गिरकर बारबार
स्वयं उठना सीखा है ,
माथे की हर चोट को
हँसकर भूलना सीखा है ।
किसी दिन सिर पर जैसे
बन जाता है हिमालय ,
कभी अरावली बनता है
और कभी मेरे बचपन की
शिवालक की पहाड़ियाँ ,
जिन पर मैं चढ़ती थी
आज वे मेरे सिर पर
बनती बिगड़ती हैं ,
चढ़ती हैं, उतरती हैं ।
और लोग कहते हैं
जीवन में न्याय नहीं है ।
मुझे तो न्याय ही दिखता है
जितना ऊँचा चढ़ोगे उतना ही
नीचे गिरा स्वयं को पाओगे ,
जितना लम्बे होओगे उतना ही
सिर जोर से जमीन से टकराएगा ।
घुघूती बासूती
Wednesday, October 17, 2007
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जितना ऊँचा चढ़ोगे उतना ही
ReplyDeleteनीचे गिरा स्वयं को पाओगे ,
जितना लम्बे होओगे उतना ही
सिर जोर से जमीन से टकराएगा
अच्छा दर्शन! ख्याल रखा जायेगा :)
लताओं सा कोमल रूप लेकर ऊचाँइयों को छूने पर गिरने का डर नहीं रहेगा. अहम लेकर ठूँठ सा बढ़ना गिराता ही नही तोड़ भी देता है.
ReplyDeleteसारगर्भित कविता
अच्छी कविता..हमेशा की तरह.
ReplyDeleteजितना ऊँचा चढ़ोगे उतना ही
ReplyDeleteनीचे गिरा स्वयं को पाओगे ,
बहुत सटीक एवं भावभरी बात
बहुत ही सरल शब्दों में बहुत ही गहरी बात कही है आप ने मैम, बहुत खूब
ReplyDeleteनीचे के भाव बहुत सुंदर…………मगर यहां से समझ नहि आया………'जब थामा नहीं हाथ'
ReplyDeleteमन कितना था,जानती हो?
यदि थाम लेती हाथ तो
दिल को भी थामना होता ,
यदि थाम लेते दिल
तो हाथ कैसे थामते ?
और यदि लड़खड़ा जाती
तो कैसे दे पाते सहारा?
मेरी ही गलती है क्यूकी जानती हू, कविता समझी नही जाती महसूस की जाती है। pls dont take it otherwise
बहुत बढ़िया भावपूर्ण!!
ReplyDeleteतो एक बात तो साबित हो रही जी कि कुछ दिन के लिए ब्लॉग से गायब रहने के बाद आप शानदार लिखती हैं।
बहुत बढिया..
ReplyDeleteखूबसूरत विचार खूबसूरत तरीके से पेश किया गया है...
बहुत गहरी भावपूर्ण रचना है, बधाई.
ReplyDeleteजितना ऊँचा चढ़ोगे उतना ही
नीचे गिरा स्वयं को पाओगे ,
जितना लम्बे होओगे उतना ही
सिर जोर से जमीन से टकराएगा ।
--मीनाक्षी जी ने भी बहुत सुन्दर बात कही है, वाह!!!
बेहतरीन कविता…
ReplyDeleteअच्छे भाव उभरे हैं
अद्भुत!!!
बहुत अच्छा
ReplyDeleteअच्छी अभिव्यक्ति,अच्छे भाव उभरे हैं.बधाई.
ReplyDeleteचलने वाला लडखडा सकता है, लड्खडाने वाला गिर सकता है... गिरने से चोट आ सकती है..मगर जिन्दगी का सफ़र रुकता नहीं .. हर चढाई के अन्त में एक ढलान शुरू होती है.. फ़िर ऊंचाई का गुमान व्यर्थ है..... परन्तु जो पीडा होती है वह है
ReplyDeleteगम नहीं इस बात का कि तलवे चाटे
मगर जो तलवे चाटे उनमें भी छेद था