मेंढक
हृदय में एक दर्द इक जमाने से धंसा था
मन में एक कांटा ना जाने कबसे गड़ा था,
चुभता था वह रह रहकर अन्तस् में उसको
कितनी बातें दर्द की याद करातीं थीं उसको ।
इस दर्द को ना वह छोड़ पाती थी
ना दर्द ही कभी छोड़ पाता था उसको,
अन्दर वह पल पल घुटती रहती थी
इस घुटन ने तोड़ डाला था उसको ।
इक दिन उसने एक सुनसान जगह में
झाँका व फुसफुसा कह दी बात कुँए में,
सोचा था कि मन हल्का हो जाएगा
जब मन की बात वह कुँआ सुनेगा ।
उसने ना जाना कि कुँए में मेंढक था रहता
कुछ गरम आँसू उसके जा मेंढक पर गिरे,
निकला बाहर मेंढक शब्द उससे ये कहता
मैं हूँ भाग्यशाली, तेरे मोती मुझपर आ झरे ।
सुन ली है बात मैंने तेरे दर्द व दुख की
जानता है क्या वह भी बात तेरे दर्द की,
कब से तुम सीने से लगाए बैठी थी इसको
आज मैं ना सुनता तो ना कहती किसी को ।
वह बोली कुछ मोड़ भी आते हैं जीवन में
और कभी मिल जाते हैं अन्धे से ये रास्ते,
मुड़ना भी पड़ता है नई राह की खोज में
सहनी पड़ती बेवफाई भी प्यार के वास्ते ।
यह कह वह चली गई अपनी दुनिया में
मेंढक भी जा कूदा वापिस अपने कुँए में,
सोच रही थी वह कि कहीं मेंढक यह
कहानी का राजकुमार तो ना था वह ।
मेंढक भी सोच रहा था कि वह नारी
जो जाने कहाँ से आई कुँए पर उसके,
कहीं वही तो ना थी उसकी राजकुमारी
शायद भाग्य बदलने आई थी उसके ।
घुघूती बासूती
Saturday, December 01, 2007
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कुंए का मेंढक और कविता का राजकुमार !!
ReplyDeleteबहुत जटिल है, अभी समझने का प्रयास कर रहा हूं पर अच्छी लगी.
राजकुमारी द्वारा चुमने की कथा पहले कह देती तो कईयों को सरलता रहती.
ReplyDeleteकूए का मेंढ़क कूएं में....
बहुत गहरी चोट कर दी आपने !!
ReplyDeleteचेतन जो जड़ सा हो जाए तो ऐसा लेखन उसे फिर हरकत में ला देता है.. !
धन्यवाद
कुंए का मेंढक और कविता का राजकुमार गहरी अनुभूति दिल को छूती हुयी , बहुत सुंदर , बधाईयाँ !
ReplyDeleteआपका लेखन तो अपनी सरलता के लिए जाना जाता रहा है!!
ReplyDeleteआपकी भाव प्रस्तुति कब से जटिल होने लगी।
लेकिन चिन्ता न करें ऐसा भी नही है कि एकदम उपर से ही निकल जाए!!
बहुत गहरी रचना…
ReplyDeleteएक सांस में पढ़ा, पूरी तरह लगा की कोई कहानी सुना रही हैं…।
बढ़िया है. लोककथा का अच्छा इस्तेमाल.
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