वह सोचता है
वह बन भंवरा गुनगुनाएगा
जब न बचेंगे बगिया में कोई फूल बाकी,
वह बन बादल बरसेगा
जब खेत में न होगा एक हरा पौधा बाकी,
वह बन चिड़ा चहकेगा
जब न होगा पेड़ पर एक भी पत्ता बाकी,
वह लौट आएगा अपने नीड़ में
जब न बचेगा नीड़ में कोई तिनका बाकी,
वह बन सागर पुकारेगा मुझे
जब नदिया में न होगा एक बूँद नीर बाकी,
वह सोचता है
मैं दौड़ उसकी बाँहों में समा जाऊँगी,
जब न होगी मुझमें एक भी साँस बाकी ।
घुघूती बासूती
न बचेंगे बगिया में कोई फूल बाकी
ReplyDeleteन होगा एक हरा पौधा बाकी
न होगा पेड़ पर एक भी पत्ता बाकी
जी ये बातें? ? ... इतना कठोर बिंब?
गहरे भाव है। क्या आप किसी पीडा से गुजर रही है? पता नही क्यो ऐसा लगा।
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी कविता।
ReplyDeleteइतनी सुन्दर, टिकाऊ, मजबूत कविता के लिए बधाई। पर इसमें 'मैं सोचता हूँ' दोनों बार अवांछनीय लगा । इस से कविता की मजबूती कम हो गयी। हटा ही दें तो कविता की सुन्दरता और मजबूती बढ़ जाएगी। सुझाव है। अन्यथा न लें।
ReplyDeleteपीडा को उकेरती सुन्दर कविता ....
ReplyDeleteकम शब्द...गहरे भाव....
अपनी संवेदनाओं को रचना के माध्यम से बखूबी अभिव्यक्त किया है।
ReplyDeleteह्म्म!! सशक्त!! पर दर्द झलकाता हुआ।
ReplyDeleteकविता मे कुछ दुःख झलक रहा है।
ReplyDeleteसीधी-सच्ची-सरस। जेपी नारायण
ReplyDeleteहमतो यही कहेंगे कि तीसरी लाईन के बाद की नौबत ही ना आये यानि कि बगिया में फूल हमेशा रहें, लेकिन कविता अच्छी है और भाव सुंदर।
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