क्या आप जानते हैं कि कुछ लोगों के अनुसार इस संसार की लगभग आधी आबादी फल है ? आश्चर्यचकित मत होइये । वैसे मैं हुई थी । सुनकर कुछ अजीब सा लगा । समझ नहीं आया कि ग्लानि हो, अपमानित महसूस करूँ, गुस्सा होऊँ, उपेक्षा करूँ या हँसू । अब सोचती हूँ कि जब मुझे अपने निठल्लेपन पर गुस्सा आता था, सामने कुछ ठोस करने का कोई रास्ता न होता था तो मैं स्वयं को एक वनस्पति सा महसूस करती थी । ये व्यक्ति तो वनस्पति न कह कर उसका भी एक छोटा सा भाग कह रहे थे ।
उनके हिसाब से स्त्री एक फल है जिसे कोई भी गपाक से खा सकता है । बस हमारी इतनी ही औकात थी उनकी नजरों में !
हुआ यूँ कि मैं अचानक टी वी वाले कमरे में आई और ये महाशय दंगों के विषय में बोल रहे थे । मारकाट तो खैर हुई ही, उनसे पूछा गया कि क्या बलात्कार आदि भी हुए थे ? वे बोले अब यदि सामने फल पड़ा हो तो आदमी खा ही लेगा ! पूछा गया कि क्या तुमने भी खाया ? बोले हाँ, हमने भी एक खाया ।
अब कहने को क्या बचता है सिवाय इसके ...
जहाँ नारी को पूजा जाता है वहाँ भगवान बसते हैं । जहाँ इन भगवानों को खाने को नारी रूपी फल चढ़ाये जाते हों वहाँ कौन बसता है ?
घुघूती बासूती
पुनश्च
ये प्रश्न केवल गुजरात के संदर्भ में नहीं पूछ रही, हर दंगाई चाहे वह दंगे धर्म, आस्था, राजनीतिक कारणों, समाज में परिवर्तन लाने, अलग राज्य या देश या स्वतंत्रता पाने के लिए हों, के संदर्भ में पूछ रही हूँ । मेरा सभी पाठकों से निवेदन है कि यदि इस नजरिये पर सार्थक चर्चा कर सकते हैं तो कृपया अवश्य कीजिये । यदि यह एक राज्य को गाली देने का मंच बनाना चाहते हैं तो ऐसा न कीजिये । सजा दोषियों को देनी चाहिये, भर्त्सना दोषियों की होनी चाहिये और न्याय की माँग होनी चाहिये चाहे अन्याय कहीं भी हुआ हो, किसी ने भी किया हो ।
घुघूती बासूती
दंगों में हम अमानवीयता का सबसे जघन्य रूप देखते हैं। यह सोच कर भी झुरझुरी हो जाती है कि ऐसी सोच किसी एक आदमी की नहीं है। दिमागी तौर पर बीमार ऐसे कट्टरवादी लोग बिल्कुल सामान्य लोगों की तरह हम लोगों के बीच ही रह रहे हैं जो बस ज़रा सी चिंगारी मिलने पर भङकने का जैसे इंतजार करते हैं। बात सिर्फ गुजरात की नहीं है, ये कभी भी, कहीं भी और किसी के साथ भी कुछ भी हो सकता है।
ReplyDeleteदंगों में हम अमानवीयता का सबसे जघन्य रूप देखते हैं। यह सोच कर भी झुरझुरी हो जाती है कि ऐसी सोच किसी एक आदमी की नहीं है। दिमागी तौर पर बीमार ऐसे कट्टरवादी लोग बिल्कुल सामान्य लोगों की तरह हम लोगों के बीच ही रह रहे हैं जो बस ज़रा सी चिंगारी मिलने पर भङकने का जैसे इंतजार करते हैं। बात सिर्फ गुजरात की नहीं है, ये कभी भी, कहीं भी और किसी के साथ भी कुछ भी हो सकता है।
ReplyDeletehe ram!inhe apni karni ka fal kab milega?
ReplyDeleteदगें और युद्ध दोनो ही मेरे हिसाब से अमानवीय है।
ReplyDeleteइस पाशविक मनोवृत्ति में बदलाव कब आएगा!!
ReplyDeleteस्त्रियों के प्रति मन में जैसी मानसिकता होती है वही मानसिकता दंगो के दौर में खुलकर सामने आती है । बेहद शर्मनाक और घृणित मानसिकता है किसी स्त्री को मात्र एक फ़ल के समान सोचना । सिर्फ़ यही क्यों सडक चलते किसी पुरुष द्वारा स्त्री के तन को अपनी आंखो से एक विशेष भाव से देखते हुये देखकर मुझे खुद कितनी बार शर्म आती है ।
ReplyDeleteसोचता हूँ कि शायद शिक्षा इस सोच को बदल सकेगी, लेकिन पढे लिखे लोगों को व्यवहार को देखते हुये ज्यादा आशान्वित नहीं हूँ ।
ये दुर्जन तो फल मान रहे थे। पर अच्छों को भी स्त्री जाति को सम्पत्ति मानते मैने देखा है। वही ऊंच-नीच का प्रपंच भी रचते हैं।
ReplyDeleteपाशविक या सामंती वृत्ति है यह।
शायद यह सारे गुण संस्कारों या आस पास के माहौल पर निर्भर करता है। जिस तरह के संस्कार बड़ों से मिलते हैं वैसी भी ही भावना हमारे मन में होती है, भले ही वह स्त्री के प्रति हो या किसी और के प्रति।
ReplyDeleteअजब मानसिकता है. अमानवीय.
ReplyDeleteस्त्री की सामाजिक स्थिति किसी भी समाज की सभ्यता की कसौटी है..
ReplyDeleteस्त्री कोइ फल या वस्तु नहीं, शक्ती है। आज समय आ गया है कि नारी शक्ती जागे और काली एवम् दुर्गा का रूप ले कर अत्याचारियों का नाश कर दे।
ReplyDeleteयह लेख पठ कर अखण्ड ज्योति कि निम्न पंक्तियाँ स्मरण हो आयी:
"सभी बेबस हैं। आस लगाए बैठे हैं। कहीं से कोई अवतार आएगा और हमें रास्ता दिखाएगा। अवतार यदि आना ही है तो हमारे भीतर से ही आएगा, यह स्पष्ट समझ लिया जाना चाहिए। जिस देश के तथाकथित प्रबुद्ध अपने वोट का उपयोग तक नहीं करते, राष्ट्रीय मुद्दों पर खुलकर बहस में भाग नहीं लेते, कुछ सक्रिय आंदोलन चलाने की बात नहीं सोचते, वह देश कैसे सोचे कि ये 'प्रतिभाशाली' देश को उबार लेंगे। कोहरा और घना होता जाता है। हाथ को हाथ नहीं सूझता, ऐसी स्थिति दिखाई देती है। क्या करें? कुछ समझ नहीं पडता। ऐसे में गैरराजनीतिक स्तर पर, आध्यात्मिक क्रांति के स्तर पर ही कोइ पहल उठे तो उससे कुछ उम्मीद की जा सकती है। जब तक जनमानस जागेगा नहीं, बदलाव कैसे आएगा।"
-- अखण्ड ज्योति (पृष्ठ ६, अगस्त २००७)
मानव की प्रकृति ही ऐसी है - अग्नि-कण है ज्योति-ज्ञान का,गहराता साया भी अज्ञान का ! सरलता और कुटिलता दोनो को साथ लिए चलता है...!
ReplyDeleteमेरे लिए सभ्य समाज का अर्थ है समता और न्याय को सर्वाधिक बड़ा मूल्य मानने वाला समाज . जघन्य अपराध में लिप्त लोगों को अनुरूप सजा दिये बिना हम सभ्य कैसे कहा सकते हैं ?
ReplyDeletesach maniye to logo kin ye mansikta shayad uske parivesh aur rehan sehan ki den hai. jo ki waqai me bahut durbhagya purn hai
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