यदि साड़ी, दुपट्टा, आँचल ना होता,
यदि, चूड़ी, सिन्दूर, मंगलसूत्र ना होता,
यदि करवाचौथ, छलनी, चाँद न होता,
तो हिन्दी फिल्मों का क्या होता ? एक लेख, एक चिन्ता ।
‘मेरी दुनिया है माँ तेरे आँचल में’ । क्या सुन्दर गीत था और क्या गजब आवाज ! अभी भी मुझे टेबल टैनिस के खिलाड़ी नील की आवाज याद आती है और याद आता है हम जैसे नौसिखिया किशोर खिलाड़ियों का उन्हें मंत्रमुग्ध हो सुनना । बचपन में तीन या चार वर्ष की उम्र में एक फिल्म देखी थी, नाम तो याद नहीं, परन्तु उसका लगभग अन्तिम दृष्य अभी भी आँखों के सामने आ जाता है, नायिका समुद्र की ओर शायद आत्महत्या करने के विचार से जा रही है, साड़ी का लम्बा आँचल तेज हवा में उड़ रहा है । दृष्य बेहद उद्वेलित करने वाला था । अब सोचती हूँ कि यदि वही नायिका जीन्स/ट्राउजर्स, टीशर्ट में होती तो क्या उतनी ही सहानुभूति पाती ? यदि पाती भी तो क्या अभी भी मेरे स्मृतिपटल पर यूँ अंकित होती ?
‘हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का’ को कौन भूल सकता है ?
हमारे जमाने की फिल्मों में जैसे ही किसी के पति की मृत्यु होती थी, स्त्री के आँसू बाद में पोछे जाते थे, चूड़ियाँ बड़ी फुर्ती से पहले तोड़ दी जाती थीं । कभी समझ नहीं आया कि आराम से उन्हें उतार क्यों नहीं दिया जाता था । उसकी बिन्दी पोछ दी जाती थी (तब स्टिकर बिन्दियाँ शायद नहीं चली थीं) ।
सिन्दूर व मंगलसूत्र जहाँ स्त्री की परम उपलब्धि माना जाता था, वहीं यही सभी नाजायज विवाहों की जड़ भी होता था । किसी मन्दिर में जाकर मंगलसूत्र पहना दिया और चुटकी भर सिन्दूर डाल दिया और हो गया एक समाज व कानून की दृष्टि में अमान्य विवाह ! मंगलसूत्र का एक और भी जबर्दस्त उपयोग होता था । आँखों में आँसू लिए काँपती आवाज से जब स्त्री अपना मंगलसूत्र बेचने जाती थी तो यह बताने की आवश्यकता नहीं रह जाती थी कि उसका पति बीमार है और घर में एक पैसा नहीं है। बदमाश, लफंगा, शराबी, जुआरी पति एक झटके में अपनी असहाय, पतिव्रता पत्नी के गले से मंगलसूत्र निकालकर बेचने को ले जाता था और पत्नी अपने सूने गले को पकड़े बिसूरती रह जाती थी ।
कभी किसी दुखी नवविवाहिता को दिखाना हो तो वह सजधजकर करवाचौथ का व्रत रखे पति की प्रतीक्षा कर रही होती है और पति कहीं और रंगरेलियाँ मना रहा होता है । (मुझे लगता है ‘साहिब बीबी और गुलाम’ एक बहुत ही क्रान्तिकारी सी फिल्म रही होगी, जहाँ नायिका बहुत ही जल्द सजने सजाने का कार्यक्रम बन्द कर अपना दुख कम करने के लिए एक नया रास्ता अपनाती है ।)
कहने का तात्पर्य यह है कि इन चिन्हों के बाद कहानी में क्या हुआ/क्या हो रहा है, एकदम साफ हो जाता था । जैसे कि केमिस्ट्री में हर ऍलीमेन्ट का एक सिम्बल/ चिन्ह होता है वैसे ही ये चिन्ह भी होते थे ।
मुझे आज के फिल्म निर्माताओं पर बहुत दया आती है, वे ये सब चिन्ह इतनी सरलता से उपयोग नहीं कर पाते । उन बेचारों को गाकर, नाचकर, आइटमगर्ल लाकर यही बातें बतानी पड़ती हैं । कभी कभी तो यह सब करने के बाद भी देखने वाला सोचता रह जाता है कि वह क्या देखकर आया है ।
घुघूती बासूती
Tuesday, October 30, 2007
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Ghughuti ji, Asha hai aap bilkul maje mei hain --
ReplyDeleteSahee mudda uthaya hai aapne --
America ki badee oomara ki Mahilaoon ko Pant aur T -shirt mei dekhne ke baad , main bhee yehee sochtee thee ki, Bharatiya STREE , apne pehnave se , Sanskriti se judee rahe tab tak uski CHAVI , alag hee rehti hai
Haan,
aaj kal ki Filmon mei ( Hindi ) jo Item Girls ke Dance dekhtee hoon to itna jaroor kahoongi ki , aaj kal ki Heroines, kafi, weight concious ho gayeen hain.
Aur,
peechlee generations ki heroines se, unka taiyyar hone a dgang bhee , ekdum badal gaya hai --
-- Lavanya ( Maafi chahtee hoon, Angrezi mei type kiya hai ise )
क्या बात है!!! आजकल नये नये आयाम देखने मिल रहे हैं रोज..सब ठीकठाक तो है?? :)
ReplyDeleteबहुत अच्छा। हमारे फिल्म ज्ञान - जो लगभग जीरो है, में अच्छा इजाफा हुआ!
ReplyDeleteसही कहा आप ने घुघूती जी.. फ़िल्मों का सारा सम्प्रेष्ण चिह्नों पर ही आधारित होता है.. फ़िल्मों का ही नहीं समाज में भी कितनी बातें चिह्नों के सहारे समझी जातीं हैं.. भाषा, लिपि सब चिह्न ही तो हैं..इसीलिए समाजशास्त्र की एक महत्वपूर्ण शाखा सीमियोटिक्स है..
ReplyDeleteऔर यह बात भी सही है कि आजकल के निर्माता/निर्देशक चिह्नों का सही इस्तेमाल नहीं जानते ..
लेकिन फिल्मों में जबरदस्त ताकत है। हमारे यूपी में करवाचौथ कभी नहीं मनायी जाती थी, लेकिन शायद पंजाब का यह व्रत अब पूरे देश में फैल चुका है। पत्नियां भी पतियों से वही चाहती हैं जैसा फिल्मों में होता है, चांद देखो, फिर खाना खिलाओ, खाओ। क्या मुसीबत है...
ReplyDeleteघुघुती जी मै जहाँ तक सोचती हूँ यह व्रत पति के साथ कुछ समय प्यार से बीताने का है...अगर मानो तो सब कुछ है ना मानो तो कुछ भी नही...मेरा मानना है प्रार्थना में बहुत बड़ी शक्ती है...और इस दिन पत्नियाँ पति की लम्बी आयु की कामना करती है...मगर मै एसा नही करती मै चाहती हूँ हमारा साथ कभी ना टूटे हमारे रिश्ते में कभी टकराव न हो...और सारे घर की खुशी चाहे वो बच्चे हो या सास-ससुर...हाँ यह भी अच्छा लगता है जब वो एक दिन अपने हाथ से पानी पिलाते है खाना खिलाते है...और सास भी बहुत प्यार करती है...एक दिन का ही सही हमारे रिश्ते को त्यौहार की तरह मनाया जाता है...युगो-युगो से यह त्यौहार मनाया जा रहा है...मेरे यहाँ पंजाब की तरह नही मनाते सुबह उठ कर नही खाते...पहली रात से लेकर दूसते दिन जब तक चाँद नही निकलता हम पानी भी नही पीते...और आप यकीन किजिये मुझे भूख तो दूर की बात है प्यास भी नही लगती...
ReplyDeleteसुनीता(शानू)
घुघूति बासूति, आप कुमाउनीं तो नही। आपका उपनाम सुनकर एक खेल-कविता जो हम बचपन से सुनते-करते आ रहे हैं और अपने बच्चों को भी सुनाते-कराते हैं याद आती है।
ReplyDeleteघुघूति बासूति, माम काँ छू?
मालाकोटि।
के लालो?
दुधु-भाती।
को खालो?
मुन्ना खालो।
मुन्ना की जगह अपने बच्चे का नाम डाल दें। कविता से ज्यादा, इसको पढते समय की गई प्रकिया है।
पिछले कुछ समय से काफी हिन्दी चिठ्ठों का नियमित पाठक हूँ, इनमें आप भी शामिल हैं।
अच्छा लिखती हैं, लिखते रहिये।
अच्छा वर्णन है ।
ReplyDeleteसिम्बल्स बड़े नाटकीय तरीके से चीज़ों को रेखांकित कर देते हैं । सर पर मार कर समझाना नहीं पड़ता :-)
ReplyDeleteआपने लेटेस्ट कौन सी मूवी देखी कि सब इम्प्रेशन बिगड़ गया.....और पूरी एक पोस्ट जित्ता इंस्पिरेशन भी मिल गया ?!!
ReplyDelete:)))
सब ठीक ठाक ही तो नहीं है समीर जी । यदि होता तो लोग उपहास/सैटायर को कुछ तो समझते ।
ReplyDeleteपाण्डेय जी, हमारा भी फिल्मी ज्ञान शून्य सा ही तो है, तभी तो इतना अच्छा लिख पाए । :)
अभय जी, वे सारे चिन्ह जिनके उपयोग की समाज के किसी हिस्से को मनाही हो, जैसे विधवाओं को वे मुझे अमान्य से ही लगते हैं ।
अनिल जी,आप बिल्कुल सही कह रहे हैं । हो सकता मैंहदी व लेडीज संगीत की तरह यह त्यौहार दक्षिण में भी फैल जाए ।
सुनीता जी आपकी बात भी बहुत ठीक है । यदि उपवास करने से किसी का प्यार व उसका समय पर घर आना हो जाए तो क्या बुराई है ? वैसे ये सब अपनी अपनी श्रद्धा की बात है ।
अजिताभ जी, मेरे चिट्ठे पर आपका शंख घांट के साथ स्वागत ! :) :) :)बिल्कुल शत प्रतिशत शुद्ध कुमाँऊनी हूँ । हो सकता है आपके ही गाँव गोत्र वाली( हाहा :) ) ! कुमाँऊ में तो आमतौर पर रिश्तेदारी भी निकल ही जाती है । विवाह पहाड़ी से नहीं मैदानी से किया है । अब समुद्र के पास बसी है यह पहाड़ी चिड़िया !
आप यह लेख http://ghughutibasuti.blogspot.com/2007_02_01_archive.html
पढ़ेंगे तो आप की तरह ही इस गीत के बारे में मैंने भी वर्णन किया है ।
लावाण्या जी, प्रत्यक्षा जी व अनुराधा जी टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।
बेजी जी , कौन सी लेटेस्ट फिल्म देखी तो याद नहीं,शायद कोई कार्टून या बच्चों की रही होगी। शायद फाइन्डिन्ग नीमो ! :)
घुघूती बासूती