बात तब की है जब मैं ग्यारह वर्ष की थी । पूँजीवाद या साम्यवाद के बारे में कुछ विशेष नहीं जानती थी सिवाय इसके कि सोवियत संघ में बच्चों की देखभाल करना सरकार का दायित्व था, लोग मिलकर खेती करते थे आदि। तभी हमारे पड़ोस में एक नया परिवार रहने आया । दोनों के घरों में बगीचे थे । मेरे पिताजी को बागवानी का विशेष शौक था सो हमारा बगीचा सदा सबसे अच्छा होता था । भाँति भाँति के फलों के पेड़, फूल व सब्जियाँ साल भर लगी रहती थीं । उन दिनों हमारे इलाहाबादी अमरूद का पेड़ मीठे अमरूदों से लदा पड़ा था ।
एक शाम जब मैं बगीचे में गई तो देखा लगभग सात वर्ष की एक लड़की अमरूद तोड़ रही थी । मैंने उससे पूछा "यह क्या चल रहा है ?" वह बोली "अमरूद तोड़ रही हूँ ।" मैंने पूछा " क्यों तोड़ रही हो ?" वह बोली "खाने के लिए ।" मैंने पूछा "किससे पूछकर तोड़ रही हो ?" वह बोली "किसी से भी नहीं।" मैंने कहा "किसी के घर से बिना पूछे कुछ भी नहीं तोड़ते।" वह बोली " मेरे घर अमरूद नहीं लगे हैं तो मैं यहाँ से तोड़ रही हूँ।" मैंने कहा "ऐसा नहीं करना चाहिये।" वह बोली "वाह दीदी, सारे अमरूद क्या तुम ही खाओगी ? हम क्या खाएँगे ?"
मेरे पास इस प्रश्न का उत्तर ना तब था ना आज है । बड़े होकर जब साम्यवाद के बारे में पढ़ा तो मुझे वह बच्ची याद आ गई । साथ में यह भी कि उसके साम्यवाद ने मेरे पूँजीवाद को अपने भोलेपन से हरा दिया था ।
घुघूती बासूती
बड़े हो कर याद किया , तसवीर तब की है ! है, ना?
ReplyDeleteछोटी सी घटना और कितनी बड़ी बात!
ReplyDeleteकुछ ऐसा ही जैसा मेरी बेटी कुछ दिन पहले तक "पैसे खत्म हो गये" के हमारे जवाब पर कहती , "तो क्या हुआ , बैंक से खरीद लाओ "
ReplyDeleteरोचक प्रसंग!
ReplyDeletenanho kii baaten akasar mun kaa kuhaasaa chhant jaati hain.
ReplyDeleteबचपन "व्यवहारों" से उपर बहुत मासूम होता है.
ReplyDeleteवैसे जिसे अमरूद खाना हो वह उसके पेड़ लगाये, उसकी देखभाल करे, फिर तोड़े-खाये. इतना नहीं करना तो उसका योग्य मूल्य चुकाये.
यह अपना नैतिकतावाद है. :)
तो इन दिनों आप स्मृतियों के जंगल में सैर करने में व्यस्त है!!
ReplyDeleteबढ़िया!!
प्रत्यक्षा जी की टिप्पणी से होंठों पर एक मुस्कान अपने आप आ गई!!
प्रत्यक्षाजी की टिप्पणी पढ़्कर हंसी आ गई.. बच्चों की बातें भी :)
ReplyDeleteनहीं ये साम्यवाद कहां अच्छा दीदी की जगह क्यों बताउं अभी...भाग यहां से साम्यवाद तो ये है
ReplyDeleteहा हा हा..मज़ा आ गया बच्ची के तर्कों को पढ़कर...
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