हम सब चाहते हैं कि हमारी सड़कें, हमारे शहर साफ सुथरें हों, कि हमें हर समय यह परेशानी न हो कि सामने देखें या नीचे जहाँ कचरा, विष्ठा, खुले मैनहोल, नालियाँ, गड्ढे आदि हों। हर मोड़ पर, हर कुछ दूरी पर कचरापेटियों के बाहर कचरा न बिखरा पड़ा हो और हमें नाक पर रुमाल रखकर न चलना पड़े। अपने शहर, गाँवों व देश का हाल देखकर हमें अपनी ही नजरों में न गिरना पड़े।
सरकारें, नगरपालिकाएँ बड़े बड़े पुल, सड़के बनवा सकती हैं, समुद्र के ऊपर पुल बना हमारा रास्ता छोटा कर सकती हैं, संसार को बता सकती हैं कि देखो हम भी विकास की दौड़ में आगे आ रहे हैं। किन्तु यदि हम इन सबपर कचरा बिखेरते रहेंगे तो संसार की कोई भी सरकार या नगरपालिका उसे साफ नहीं रख सकतीं। गंदगी के बीच हमारा सिर झुका ही रहेगा।
हम देखते हैं कि कचरा बीनने वाले स्त्री पुरुष व बच्चे, कचरे के डब्बों से रीसायकलेबल कचरा बीनकर ले जाते हैं। किन्तु ऐसा करने के लिए यदि डब्बा ठीक ठाक आकार का हुआ तो उसके भीतर हाथ डालकर या उसे पलटकर काम का कचरा निकालते हैं। यदि बहुत बड़ा हुआ तो स्वयं उसके भीतर घुस जाते हैं। फिर यदि आपके पास समय है तो देखिए क्या होता है। वे हमारा फेंका हुआ कचरा पॉलीथीन के थैलों से बाहर निकालते हैं, थैले को अपनी बड़ी सी बोरी में डालते हैं। थैली से बाहर निकाल फैलाए हुए कचरे में से अपने काम का कचरा चुनते हैं। एक और बड़ी सी काली थैली जो हम अपने घर के डस्टबिन में लगाते हैं ताकि हमारा डस्टबिन गन्दा न हो जाए बाहर निकालते हैं, उसमें से मेरे या आपके घर का कचरा बाहर निकालते हैं, हमारे द्वारा फेंके हुए चिप्स, नमकीन, या दाल चावल या फिर सब्जी, मटर, पनीर, मक्खन, दूध के पैकेट वे अपने हाथों से, जो सात आठ वर्ष के पतले, मैले, नन्हे हाथ भी हो सकते हैं, बीनकर अपनी बोरी में डाल लेते हैं। वे हमारे घरों से बहुत अच्छे से पॉलीथीन में पैक किए गए मासिक श्राव के पैड की थैली भी संभाल लेते हैं और हमारे बच्चों के मलमूत्र से भरे डिस्पोजेबल डायपर्स की थैलियाँ भी।
आजकल एक विज्ञापन आता है 'डर्टी हैबिट' वाला। रुमाल से नाक मुँह पोछना 'डर्टी हैबिट' है जिसके चलते वर ठुकराया जाता है, सड़क चलता अंकल छोटे बच्चों द्वारा रोक कर टोका जाता है। किन्तु इस 'डर्टी हैबिट' को छोड़कर जिन अलग अलग सुदृढ़ टिशू से नाक अलग से, आँख अलग से व मुँह अलग से पोछा जाएगा वे जाएँगे कहाँ? इन्हीं कचरा उठाने वालों द्वारा समेटकर उनकी बोरी में? क्या कोई इन मानवों को भी बताएगा कि यह गन्दगी को खन्गालने, उसमें बहुमूल्य निधि ढूँढने, सम्भालने, उसके लिए अपने डस्टबिन पर अतिक्रमण करने वाले से झगड़ा करना आदि 'डर्टी हैबिट्स' हैं? और इन 'डर्टी हैबिट्स' से हमारे संसार को साफ रखना, हमारा कचरा आधे से भी अधिक रीसायकल करना, उससे अपनी आजीविका कमाना और रीसायकल करने में लगे गोदाम मालिकों, कारखाना मालिकों, मजदूरों को आजीविका प्रदान करना व उनसे फिर फिर बने सस्ते सामान व उनके उपयोग करने वालों को सस्ते दामों में सामान उपलब्ध कराना भी क्या 'डर्टी हैबिट्स' हैं?
क्या हम पल भर को भी सोचते हैं कि वे सब वस्तुएँ जो हमारे जीवन को और व और अधिक आरामदेह बनाती हैं वे कहाँ से आती हैं और उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है कि कहाँ जाती हैं?
किसी जमाने में हम अलग अलग थैले या कनस्टर या डब्बे लेकर अपने घर का सामान लाते थे। गेहूँ लाते थे, उसे चुनते थे और फिर डब्बे में डाल पिसवाने ले जाते थे। यदि हमें ले जाने में शर्म आती थी तो किसी सहायक या सहायिका के हाथ चुनवाते व पिसवाने भेजते थे। बदले में उन्हें पैसे देते थे। तेल लेने जाते तो या तो तेल का डब्बा, पीपा साथ ले जाते या फिर डब्बे, कनस्टर में पैक्ड खरीदते। सब सामान या तो कागज की पुड़िया में आता या फिर कागज के थैलों में। घर आते ही हमें उन्हें अपने डब्बों में सहेजना पड़ता।
आज आटा, चावल, साबुन, तेल, दाल, नमकीनें सबकुछ बढ़िया पॉलीथीन की थैलियों में, कई बार तो ज़िप लॉक वाली थैलियों में आती हैं। दही प्लास्टिक के डब्बों में, दूध थैलियों में या फिर कार्टन्स में ताकि हम बिना उबाले बस कप में उड़ेलें और पी लें। हर वस्तु 'उपयोग करो और फेंको' के सरल मन्त्र के साथ परोसी जाती है। बस पैसा फेंको तमाशा देखो। और पैसा न हो तो?
तो.....
तो हमारे फेंके में से अपने काम का चुनो, सहेजो, बेचो, कमाओ, खाओ।
मैं न समतावादी हूँ, न समाजवादी। यदि हम शुद्ध स्वार्थ के दर्शन पर भी काम करें तो भी हम गलत हैं। हमारा स्वार्थ है कि हमारी गलियाँ, सड़कें, नगर साफ रहें। गन्दगी फैलती है कूड़े से। कूड़ा वह है जो हम अपने घर से उठाकर बाहर चाहे पैकेट में अच्छे से छिपा, लपेटकर ही बाहर की कचरापेटी में डालते हैं। यदि कचरा बीनने वाले न होते तो नगरपालिका को और अधिक कचरा उठाना पड़ता, और अधिक ट्रक लगते, और अधिक सफाई कर्मचारी, डीज़ल चाहिए होते, अधिक खर्चा होता। हमारे शहरों के कचरा डम्पिंग ग्राउन्ड्स और भी जल्दी भर जाते, वे और भी ऊँचे पहाड़ बन जाते। नई जमीन ली जाती, और खर्चा होता और सड़ान्ध होती।
यदि कचरा बीनने वाले होंगे तो कचरा कम हो जाएगा। किन्तु उनसे अमानवीय काम करते हुए यह क्यों अपेक्षा की जाए कि वे ध्यान से हमारे कचरे में हाथ डालें किन्तु उसे उड़ाए, बिखारें, फैलाएँ नहीं। अपने काम का ले लें और शेष कचरे को अच्छे से वापिस कचरापेटियों में पैक कर दें। क्या यह अपेक्षा करना सही है? एक कुत्ता भी अपने काम से निपट अपनी ही गन्दगी से दूर भागता है तो ये मानव उसे फिर से पैक क्यों करेंगे? गन्दगी से कमाने वाले, गन्दगी में जीने वाले सफाई की तरफ इतने जागरुक क्यों होंगे? जबकि साफ सफाई में जीने वाले हम अपने घर के सिवाय हर जगह कचरा फैलाते हैं।
क्या यह बहुत कठिन है कि वह सब कचरा जो कचरा बीनने वाले बीनते हैं यानि कि जो रीसायकलेबल है और जो हमारे घरों से ही निकलता है उसे हम अलग इकट्ठा करें? ऐसे कि वे यह पूरा का पूरा रीसायकलेबल कचरा अपने बोरे में डालें और ले जाएँ। ऐसे कि उनके हाथ हमारी गन्दगी को छुएँ ही नहीं। सूखे रीसायकलेबल कचरे जैसे कि काँच, पेपर, गत्ता, कपड़ा, प्लास्टिक, पॉलीथीन, धातु, यह सब हमारे घर की सब्जियों के छिलकों, डायपर्स, बाल, बचे खाने आदि के सम्पर्क में आए बिना, साफ सुथरे अलग से ही सूखे कचरे के डब्बे में इकट्ठा हो साफ, सूखे ही उनके बोरों में चले जाएँ। ताकि कचरा इकट्ठा करने वाले का भी थोड़ा सा मान सम्मान बना रहे, हमारी सड़कें, कचरापेटी के आसपास की जगह भी साफ रहे और सबसे बड़ी बात यदि हममें जरा सी भी मानवता हो, अच्छाई हो, भावनाएँ हों तो नित कचरे के साथ वे भी पॉलीथीन की काली थैलियों में लपेट चुपके से बाहर न फेंकनी पड़ें।
जानती हूँ कि कई शहरों में सूखे व गीले कचरे को अलग फेंकने के नियम कानून हैं। मैं कोई नई बात नहीं बता रही। किन्तु नियम कानून तो बच्चों को न मारने, बच्चों स्त्रियों के साथ बलात्कार न करने, हत्या न करने के भी हैं। किन्तु कुछ लोग तो इन नियमों कानूनों को तोड़ते ही हैं। किन्तु क्या मैं और आप भी? नहीं न? तो फिर कचरे के मामले में और कचरा बीनने वालों के मामले में हृदयहीन क्यों बनें? न न, बात उनके भले की ही नहीं है हमारी भी है। हमारी सड़कों की सफाई की और.....
ये कचरा बीनने वाले व अन्य ऐसे ही काम में लगे लोग जैक इन द बॉक्स भी हो सकते हैं। दबते दबते किसी दिन उछलकर तुम्हारे हमारे ही माथे से टकराएँगे और वे तो क्या और टूटेगें, तुम्हारे हमारे माथे ही घायल होंगे। सो आत्महित में ही सही, कुछ करना चाहिए।
घुघूती बासूती
kachre ka vyapar bhi karodon arbon ka hai. jo dalal hain ve karod-arabpati hain.
ReplyDeleteकिसी वस्तु का पूर्णचक्र समझे बिना उपयोग में लाना, इसी तरह से कचरे को बढ़ाता रहेगा।
ReplyDeleteरोज यह सब दृश्य देखते सपाट सा हो जाता है, कई बार आखें पकड़ ही नहीं पातीं, इसके उबड़-खाबड़पन को.
ReplyDeleteकाश के आपका लेख लोग समझ सकें....
ReplyDeleteसादर
अनु
जी मैं कोशिश करती हूँ कि पोलीथिन को एकत्रित करके एक साथ फेंकू ताकि कचरा बीनने वाले उसे आसानी से उठा कर ले जा सके. पर शतप्रतिशत सफल नहीं हो पाती.
ReplyDeleteशोभा जी, मैं पॉलीथीन समस्या कम करने व कचरा बीनने वालों को थोड़ा सा सहयोग देने को क्या करती हूँ अगली पोस्ट में लिखूँगी। किया तो बहुत अधिक जा सकता है किन्तु समाज के हर हिस्से से बात कर सकना, बर्ताव करना या संबद्ध होना हरेक के वश की बात नहीं है, मेरे भी वश की नहीं।
Deleteघुघूती बासूती
एक कोशिश और है मेरी - कम से कम पोलीथिन बाज़ार से लाना. इसके लिए में घर से कपडे का थैला ले जाती हूँ साथ ही पहले से आई हुई पोलीथिन बैग.
Deleteएक और बात कहना चाहती हूँ "हमारे देश में जो गंदगी साफ करते है उन्हें हम गन्दा कहते है और जो गंदगी करते है उन्हें सफाई पसंद समझते है."
बहुत अच्छा करती हैं आप. हाँ, गंदे तो हम इतने सारे कचरे को जन्म देने वाले हैं.
Deleteघुघूती बासूती
यहाँ पर भी गरीब जिप्सी या प्रवासी, कूड़े के डब्बों में से सामान खोजते हैं और लोग उन्हें "गन्दगी में हाथ डाल रहे हैं" या "गन्दे लोग हैं" कहते हैं. संस्कृति का अर्थ है खरीदो और फैंकों, कचरे के ढेर बनाओ और जिनका धन्यवाद करना चाहिये कि वह लोग हमारे कचरे को दोबारा काम में लाने का काम कर रहे हैं, उन्हें गन्दा कहो.
ReplyDeleteजी हाँ सुनील जी, यही हो रहा है।
Deleteहमारे एश्वर्य, अमीरी का प्रतीक यही हो गया कि हम कितना कचरा पैदा कर सकते हैं, ठीक वैसे ही जैसे पर कैपिटा इन्कम। जितना अधिक विकसित देश या समाज उतना अधिक किलो कचरा प्रति व्यक्ति!
घुघूती बासूती
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसमस्या अनियंत्रित भोग-उपभोग की है, 'युज एण्ड थ्रो' ने उपभोग को भी विकट बना दिया है। कचरे को हमने बढ़ा दिया है। वस्तुतः हमारा अतिभोग और अपव्यय ही उन कचरा बीनने वालों के मुख का स्वच्छ निवाला है। उपभोग संयम, व्यर्थ न करने का विवेक और आवश्यक व्यर्थ का योग्य निपटान ही इस समस्या का समाधान हो सकता है।
ReplyDeleteसच में हमारी जीवन शैली ही प्रकृति विरोधी बन गई है। हम एक पल को भी यह नहीं सोचते कि जो हम कर रहे हैं वह हमारी पृथ्वी की मृत्यु है। वह मरेगी तो हम या हमारी संतान कैसे जी पाएगी।
Deleteघुघूती बासूती
सुज्ञ जी, बिल्कुल। यूज एण्ड थ्रो तभी चल सकता है जब निर्माता व विक्रेता ही फेंके हुए को रीसायकल करने का उत्तरदायित्व लें। हमारी धरती तो एक ही है, इसे तो हम यूज एण्ड थ्रो नहीं कर सकते।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
यदि घर में थोड़ी मिट्टी वाली जगह हो तो प्लॉस्टिक के अतिरिक्त सभी कचरे को हम एक गड्ढा बनाकर उसमें डाल सकते हैं। थोड़ा पानी डाल दें और बांस से नीचे दबाते चले जांय। धीरे-धीरे वह गल कर बढ़िया खाद हो जायेगा जिसे हम अपने पौधों में डाल सकते हैं।
ReplyDeleteप्लॉस्टिक वाले कचरे(वे जो मिट्टी में गल नहीं सकते)को भी अलग से इकट्ठा करें और एक थैले में भरकर कचरे वाले डिब्बे में डाल आयें।
प्लॉस्टिक का प्रयोग कम से कम करें। सब्जी खरीदनें में तो बिलकुल ही न करें।
...आखिर कुछ तो करना ही पड़ेगा। यह हमारी जिम्मेदारी बनती है।
मैने अपनी कार में थैली रखनी शुरू कर दी है । अब उसी थैली में सारा सामान खरीदता हूँ । औरंगाबाद में अकेला रहता हूँ इसलिए अनियमित और ग़ैरज़रूरी ख़रीदारी खूब होती है, ऐसे में यह आदत मुझे फ़ायदे की लग रही है । दुकानदार अगर पॉलीथिन देता भी है तो मैं मना कर देता हूँ और हाथों में ही सामान उठा कर गाड़ी में रख देता हूँ ।
ReplyDeleteबहुत कठिन है, कचरा बीनने वालों को साधना। हमने अलग अलग किया हुआ है लेकिन उससे क्या होता है? सार्वजनिक स्थानों पर तो सारा कचरा एक ही डिब्बे में डाला जाता है।
ReplyDeleteआज के विकास की त्रासदी यही है.
ReplyDeleteहम प्रकृति से लेते क्या हैं और उसे बदले में क्या,
देते हैं.विचारणीय प्रस्तुति.
हमें तो थैला लेकर सामान लाना भी भारी लगता है दूकानदार के मना करने पर भी हम उसे मजबूर करते हैं कि हमें वह प्लास्टिक के थैले में ही सामान दे । उसे तो सामान बेचना है तो वह तो देगा ही ।
ReplyDeleteहम तो कचरा सॉर्ट कर भी लें पर ले जाने वाले तो सब एक ही में कर देते हैं ।
जैसे अखबार रद्दी वाले ले जाते हैं वैसे ही प्लास्टिक का कचरा भी कहीं देने का विकल्प होना चाहिये चाहे मुफ्त ही हो पर हो ।
गीला कचरा तो खाद बन ही सकता है ।
मुझे तो यूज़ एंड थ्रो के कांसेप्ट से ही डर लगता है. बड़ी मजबूरी में करना पड़ता है. पर मैं भरसक कोशिश करती हूँ इससे बचने की. अपने स्तर पर तो मैं भी सूखा और गीला कचरा अलग-अलग ही फेंकती हूँ और सामान लाने के लिए खुद की थैली ले जाती हूँ. अब तो मेरे यहाँ के दूकानवाले भी जान गये हैं कि मेरे लिए पालीथीन नहीं देनी है. सुपर स्टोर में तो पालीथीन मिलती ही नहीं.
ReplyDeleteलेकिन सच में दिल्ली के अधिकांश लोगों का सिविक सेन्स बहुत खराब है. ये लोग अपने घर से इस तरह कूड़ा फेंकते हैं, जैसे उस गली या सड़क से उन्हें दुबारा गुजरना ही नहीं है.
कचरे वाले यहाँ दिल्ली में कूड़ेदान के अन्दर कम ही दीखते हैं. अधिकतर बाहर से ही चीज़ों को उठा लेते हैं. कुछ तो अपना ठेला लेकर खड़े रहते हैं, और जब मेरे जैसे कुछ लोग कूड़ा फेंकने जाते हैं, तो उनके काम की चीज़ें ठेले में डाल देते हैं. इन लोगों का कूड़ेदान के अन्दर जाना मना है शायद. अब तो सुबह एम.सी.डी. की कूड़ागाड़ी आती है और अधिकतर लोग उसी में कूड़ा डालते हैं. पर बढ़ता कचरा और उसके प्रति लोगों का असंवेदनशील रवैया अक्सर मुझे भी विचलित कर देता है.
स्वतंत्रता दिवस महोत्सव पर बधाईयाँ और शुभ कामनाएं
ReplyDeleteइसे जीवन का सत्य कहें तो हरेक व्यक्ति एक दिन श्मशान घाट पहुँच जाता है कूड़े/ कचरे समान शरीर की मिटटी/ राख को धरती माता की मिटटी में मिला देने के लिए, भले ही अपने जीवन काल में महल में ही रह कर ऐश किया हो, अथवा झोंपड़ी में गरीबी में दिन गुजार! और कुछेक का नाम इतिहास के पन्नों में कुछ समय के लिए अंकित भी हो सकता है.... और कुछ एक का नाम, राम समान पुरुषोत्तम जैसे, अमर भी हो सकता है - रामदेव आदि नाम रख कर...:)
ReplyDeleteक्या करना चाहिए हमें? कुछ मंथन इस पर भी हो
ReplyDeleteबिल्कुल. इस पर मंथन होना ही चाहिए.
Deleteघुघूती बासूती
सचमुच, अपनी धरती, अपने पर्यावरण, अपने समाज का कितना कचरा कर रहे हैं हम। काश, हम कचरा टाइप लोग इस बात को समझ पाते।
ReplyDelete............
डायन का तिलिस्म!
हर अदा पर निसार हो जाएँ...
आलेख और टिप्पणियाँ, दोनों ही ध्यान देने योग्य हैं। समस्या जितनी कचरा उत्पन्न होने की है, उतनी ही उसके समुचित निस्तारण की भी है। कचरा बीनने वालों की समस्या का एक करुण मानवीय पहलू है जिसपर खासतौर पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
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