एक सहेली ने अपने पड़ोस की बात व इससे उपजे हुए अपने प्रश्नों के बारे में यह बताया.......
एक पड़ोसी दम्पत्ति हैं। दोनो ही नौकरी करते हैं। तीन महीने पहले उनका बच्चा पैदा हुआ। पत्नी घर से ही काम कर रही है। पहले से ही चाभी लेकर उनकी अनुपस्थिति में भी काम करने वाली एक महरी व एक कुक हैं। बच्चे के आगमन के बाद उसकी देखभाल के लिए भी एक आया रख ली गई। किन्तु कोई आया टिकती ही नहीं। हर कुछ दिन बाद एक नई आया खोजी जाती है।
अभी कल ही पति ने किसी काम से फोन किया तो पुरुष ने फोन नहीं उठाया। बाद में उसने उनके घर की घंटी बजाई। दरवाजा खोलने पर उसने अपना दुखड़ा बताया कि घर आते से ही पत्नी आया का रोना लेकर बैठ गई। वह बोला बाद में बात करेंगे और स्नान करने चला गया। फिर कुछ खा पीकर समस्या के बारे में सुना। उसने बताया कि अब कल या तो उसके माता पिता, या उसके सास ससुर आकर बच्चे को सम्भालेंगे या फिर पत्नी ही मायके या ससुराल चली जाएगी। आया जब मिलेगी तो वापिस आ जाएगी।
उसके जाते ही उसके पति बोले, 'बेचारा......(पति )'! फिर उन्होंने उसे सारा किस्सा सुनाया। उनकी सारी सहानुभूति उस युवा पति के साथ थी। वह बोली कि एक अट्ठाइस तीस वर्ष का हट्टा कट्टा नवयुवक जो पूरा दिन दफ्तर में था, जिसने बच्चे को स्तनपान नहीं कराया, लंगोट नहीं बदले, रोने पर चुप नहीं कराया, जिसने कई बार आया को सोते से नहीं जगाया, बार बार जगाकर आया के क्रोध व काम छोड़ देने की धमकी और अन्त में अपना हिसाब माँगती आया को नहीं झेला, और इस तनाव भरे वातावरण में कम्प्यूटर पर अपना काम भी नहीं निपटाया। दफ्तर से टिप्पणी करने वाले व फेसबुक आदि पर टिपियाने, बतियाने वाले सभी मित्र दफ्तर जाने व वहाँ काम करने की भयंकर थकान के बारे में उससे बेहतर जानते हैं।
पत्नी ने नौ माह गर्भ में सन्तान को पाला पोसा, दफ्तर भी गई, फिर प्रसव पीड़ा सही, स्तनपान करा रही है, घर से दफ्तर का काम कर रही है, आया, महरी, कुक से काम भी करवा रही है, एक आँख बच्चे पर भी रख रही है। गर्भावस्था, प्रसव व स्तनपान का उसके शरीर व मन पर कुछ तो प्रभाव पड़ता होगा। दो कोशिकाओं से एक २० या २१ इंच के ३ से ४ किलो के बच्चे को अपने अंदर रचना, विकसित करना शरीर से क्या मूल्य वसूलता होगा यह कल्पना ही किसी संवेदनशील व्यक्ति को हिला सकती है। किन्तु स्त्री न जाने क्यों वज्र की बनी मानी जाती है।
यदि वह टोके तो... 'क्या तुम मजाक भी नहीं समझ पाती?'
वह बोली, 'न जाने स्त्री के प्रति असंवेदनशीलता यदि टोक दी जाए तो वह मजाक कैसे बन जाती है? क्यों स्त्री सम्बन्धित बातें मजाक हैं? उसका थकना मजाक, उसकी आवश्यकताएँ मजाक, उसका कष्ट, उसका मोटा होना, पतला होना, गुस्सा होना, अपने अधिकारों को माँगना, सब मजाक।'
मैं सोचती हूँ.......
समाजशास्त्री शायद इस मजाक की क्रिया, उसके पात्रों, पात्रों की समाज, संसाधनों व सत्ता में स्थिति, उनकी श्रेष्ठता या हीनता पर कुछ लिख चुके होंगे। मैं भी इसे समझना चाहती हूँ।
क्यों चुटकुलों में पति ही पत्नी के घर से कुछ दिन के लिए बाहर याने मायके जाने पर, उसके मरने पर, किसी के साथ चले(भाग ) जाने पर, खुश होता है? क्यों चुटकुले में पत्नी चाहिए विज्ञापन निकलने पर हजारों पति उसके उत्तर में लिखते हैं, मेरी पत्नी ले लो, मेरी पत्नी ले लो?
कुछ दिन मित्र लोग जब स्त्री पुरुष, पति पत्नी वाले चुटकुले पढ़ें तो उनमें पति के स्थान पर पत्नी और पत्नी के स्थान पर पति पढ़कर देखें। तब जब वहाँ किसी पत्नी को पति के न मरने पर बिलखते देखें, दफ्तर में ही पड़े रहते, सहेलियों के साथ भटकते (ताकि पति को झेलना न पड़े) देखें, पड़ोसी के सौन्दर्य पर लट्टू होते देखें तो बताइए कि क्या यह सब सुनना पढ़ना भौंडापन, लगभग अश्लील नहीं लगता? क्या हँसी आती है या उबकाई?
यह भी सोच रही हूँ कि क्या सच में उसका पति मजाक कर रहा था या उसे सच में सहानुभूति युवा पति से थी? क्या उसे युवा पत्नी की थकान का अनुमान नहीं था? या क्या वह उस विषय में सोचना ही नहीं चाहता था? क्योंकि पत्नियाँ थकने लगेंगी तो जब भी घर में पैर रखें तो स्वयं को थका मानने व परिवार को ऐसा मनवाने वाले पति का क्या होगा? प्रबंधन गुरु व शिव खेरा जो कई पुस्तकें लिख चुके हैं एशियन मेल की बात करते हैं। वे घर पर सदा थके रहने वाले एशियन मेल की बात करते हैं।
और यह सच है। बचपन से हमें सिखाया जाता था कि पुरुष दफ्तर, कारखाने, दुकान, स्कूल आदि से थका आता है। सहेलियों, मित्रों के पिता जब घर आ जाएँ या उनकी छुट्टी के दिन उनके घर जाने को मना किया जाता था क्योंकि उनके पिता आराम कर रहे होंगे। बाद में स्त्रियों को भी काम पर जाते और वहाँ से वापिस आते देखा। एक बार भी नहीं कहा गया कि मित्र की माँ आराम कर रही होगी। उन्हें दफ्तर, स्कूल से आते ही कपड़े बदल रसोई में घुसते, बच्चों को होमवर्क कराते देखती । पत्नी के साथ ही काम करने वाले पति को पत्नी पानी, चाय, नाश्ता देती और फिर खाना बनाने लगती। उसी दफ्तर से वही काम करके आए पुरुष को आराम चाहिए और स्त्री को नहीं। और फिर भी सुनती हूँ, बेचारा पुरुष!
पुनश्चः सुखद बात यह है कि नई पीढ़ी के बहुत से दम्पत्तियों को मिलकर रसोई सम्भालते देखती हूँ, गर्भवती पत्नी के लिए खाना बनाते, उसका मन प्राण से ध्यान रखते देखती हूँ तो लगता है कि भविष्य शायद बेहतर हो, कि शायद मेरी पीढ़ी की, एक वर्ग की माँओं ने अपने बेटों को अच्छे जीवन मूल्य दिए हैं, कि शायद स्त्रियाँ अब जीवन में आगे बढ़ने का उतना मूल्य न चुकाएँ जितना अब तक चुकाती रही हैं, शायद अब वे भी काम से आकर कभी कभार कह सकें, 'मैं आज बहुत थकी हूँ।'
घुघूती बासूती
तस्वीर खींच दी आपने ... औरतों को थकने का अधिकार नहीं होता ...धरती का प्रतिरूप है ना ...हर तरह का बोझ झेल लेगी प्रसव से लेकर सब कुछ ..हमारी पीढ़ी थोड़ी बदली है पति साथ देते है ..जिम्मेदारियां बांटते है ..साथ चलते है .. पर ये स्थिति सभी जगहों पर नहीं है ..जहां परिवार साथ रह रहा होता है वहां ...पति चाहकर भी कामकाजी पत्नी का साथ नहीं दे पाते
ReplyDeleteबिलकुल सच्ची बात....दिल तो दुखता है जान कर,सुन कर,महसूस कर..
ReplyDeleteमगर हां...नयी पीढ़ी से उम्मीद अवश्य है..
सादर
अनु
यह दोनो को समझना चाहिए कि जीवन में सब दिन एक समान नहीं होते। प्रसव पीड़ा को, दफ्तर से लौटने के बाद घर में किये गये श्रम को, बच्चे की किलकारियाँ हर लेती हैं। क्षणिक कष्ट में घबराने और इक-दूजे पर आरोप मढ़ने से कुछ भी हासिल नहीं होता। सब दिन होत न एक समाना, एक कटे बाटी-चोखा में एक कटे शमशाना। इसलिए यही कहना अच्छा है कि...
ReplyDeleteधैर्य हो तो
रहो थिर
निकालेगा धुन
समय कोई।
देवेन्द्र, क्या मैं आपको नाम से पुकार सकती हूँ? आपकी फोटो देख निश्चित किया कि यह धृष्टता न होगी. सो, देवेन्द्र, कोई किसी पर आरोप नहीं मढ़ रहा. मेरी पीढ़ी से ही प्रश्न किए जा रहे हैं. मेरी पीढ़ी में स्त्री थकती न थी. उसे कभी, कभी का अर्थ कभी ही है, कभी पति से सहायता मांगने का अधिकार न था, चाहे प्रसव हुआ हो या अबोर्शन या ऑपरेशन.
ReplyDeleteमैं महानगरों की बात नहीं कर रही, आम भारत की बात कर रही हूँ. जहाँ हर हाल में पति का ध्यान रखना पत्नी धर्म था, चाहें वाह स्वयं किसी भी हाल में हो.
घुघूतीबासूती
देवेन्द्र! देखकर आपने तय किया है तो सही ही किया होगा। आपके लेखों को पढ़कर इतना यकीन तो किया ही जा सकता है।..आभार।
Deleteमैने महानगरों के संबंध में ही टीप दिया क्योंकि पोस्ट में संदर्भ महानगरों के ही हैं। मेरा आरोप मढ़ने से आशय महानगरी जीवन शैली में पति-पत्नी द्वारा एक दूसरे पर आरोप मढ़ने से है। आम भारत के संबंध में भी अपनी बात कही...
धैर्य हो तो
रहो थिर
निकालेगा धुन
समय कोई।
...समय कोई धुन निकालेगा से मतलब यही है कि शिक्षा का प्रसार होगा, लड़कियाँ आत्मनिर्भर होंगी, पुरूषवादी सामंती समाजिक व्यवस्था बदलेगी और एक दिन ऐसा आयेगा कि महिलाओं को हर हाल में अपने पतियों को ध्यान रखने का धर्म-शास्त्र बदलेगा।
...आगे से कमेंट स्पष्ट ही करने का प्रयास करूंगा।..धन्यवाद।
आपकी बात पर यही कहूँगी.. तथास्तु. ऐसा ही हो मित्र.
Deleteघुघूतीबासूती
हम्म...नई पीढी के दंपत्ति, अब मिलजुलकर काम करते हैं..पति,अपनी पत्नी का बहुत ख्याल भी रखते. हैं..पर अफ़सोस यही है कि महानगरों,बड़े शहरों में ही...छोटे शहरों,कस्बों,गाँवों में आज भी हालात बदले नहीं हैं.
ReplyDeleteलड़कियों के पास अपनी आवाज़ ही नहीं है कि वे भी आह-कराह करें....बीमार होने पर काम करने से मना कर दें...या फिर अतिरिक्त काम का बोझ अपने सर पर ना ढोएँ.
उम्मीद यही है कि शिक्षा के प्रसार और उनके आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने पर स्थिति बदलेगी.
बिल्कुल रश्मि, तभी तो मैंने कहा है कि एक वर्ग की माँओं ने अपने बेटों को अच्छे जीवन मूल्य दिए हैं. काश ये मूल्य सभी माँओं ने अपने बेटों को दिए होते.
ReplyDeleteघुघूतीबासूती
गाँवों में तो आज भी आपकी पीढ़ी वाला हाल है. पति अगर चाहे भी तो पत्नी की मदद नहीं कर सकता क्योंकि उसके ऐसा करने पर उसके दोस्त-रिश्तेदार उसे 'जोरू का गुलाम' कहकर जीने ही नहीं देंगे. लेकिन हाँ, शहरों में आज स्थिति बदली है. हमारी पीढ़ी के सभी लड़कों को घर के काम आते हैं और वो इसमें अपनी पत्नियों की मदद भी करते हैं, चाहे वो नौकरी करती हो या नहीं.
ReplyDeleteमेरी दीदी एक होम मेकर है, लेकिन उनकी प्रेगनेंसी और डिलीवरी के बाद जीजाजी घर के सारे कामों में हाथ बंटाते थे. ऑफिस के कितने भी थके आते थे, लेकिन दीदी की मदद ज़रूर करते. उनका कहना था कि 'तुम इस समय कमज़ोर हो, लेकिन मेरे पास ज्यादा ताकत है, मैं तुमसे ज्यादा काम कर सकता हूँ.' इस बात में भले ही कुछ अहंकार लगे, लेकिन स्त्री को शारीरिक रूप से कमज़ोर मानने वाले पुरुषों के तर्क पता नहीं तब कहाँ चले जाते हैं, जब ऑफिस से घर आकर वो निढाल हो जाते हैं और दिन भर घर के काम में खटती, बच्चों के पीछे भागती या ऑफिस से ही आयी पत्नी की थकान उन्हें दिखाई नहीं देती.
मुक्ति, आपके जीजाजी की सोच बिल्कुल सही है। अपने को अधिक बलवान मानने वाले पुरुष को घर में भी काम करना चाहिए।
Deleteघुघूती बासूती
हम दोनो मियां-बीबी थके रहते है, फिर काम पर लग जाते है, हम ही कुक, धोबी, सफाई वाले भी, अाया भी...
ReplyDeleteसही कह रहीं हैं आप!
Deleteघुघूतीबासूती
संयुक्त परिवारों की बात और थी, पर दो लोगों को तो मिल जुल कर कार्य करना होगा..
ReplyDeleteसंयुक्त परिवारों की बात और थी, पर दो लोगों को तो मिल जुल कर कार्य करना होगा..
ReplyDeleteघर शब्दों से नहीं सहयोग से सहकार से चलता है .अंग्रेजी भाषा की तरह कुछ शब्द प्रयोग रूढ़ हो गए हैं जैसे बीवी को गृह मंत्रालय कहना लेकिन नक्शा परिवारों का तेज़ी से बदल रहा है अब एक के चलाए घर चल ही नहीं सकता ,बच्चे संभाले नहीं संभलते ,पेट से सब कुछ सीख कर आरहें हैं इनकी खातिर बदलना होगा न चाह कर भी पति -सत्तात्मक समाज को, स्वयम को पत्नी पीड़ित घोषित करने वाले पूंजीवादी हैं शोषण की भाषा बोलतें हैं .अच्छा विचार मंथन चल रहा है इस पोस्ट पर .बधाई .
ReplyDeleteपोस्ट किस बात पर हैं :- )
ReplyDelete'न जाने स्त्री के प्रति असंवेदनशीलता यदि टोक दी जाए तो वह मजाक कैसे बन जाती है? क्यों स्त्री सम्बन्धित बातें मजाक हैं? उसका थकना मजाक, उसकी आवश्यकताएँ मजाक, उसका कष्ट, उसका मोटा होना, पतला होना, गुस्सा होना, अपने अधिकारों को माँगना, सब मजाक।'
कहीं भी कमेन्ट में इस बात पर चर्चा हुई ही नहीं
दो मुद्दे पोस्ट के समापन की वजह से घुल मिल गये :-)
और कमेन्ट केवल उस मुद्दे पर आये जो पोस्ट में शायद १/१० प्रतिशत था
वैसे आप की पोस्ट को जवाबी पोस्ट माना जा सकता हैं अगर आप ये दोनों लिंक क्रम से पढ़े तो
http://amit-nivedit.blogspot.in/2012/08/blog-post_22.html
http://amit-nivedit.blogspot.in/2012/08/blog-post_18.html
रचना, शायद मेरी प्रस्तुति में ही कमी रह गई। मैं इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर एक पूरी पोस्ट ही लिखने जा रही हूँ।
Deleteघुघूती बासूती
अति सुन्दर तस्वीर खींच दी है आपने लेकिन यह भी सही है कि आज के बहुत सारे युवा अपनी पत्नियों के साथ सारे काम मिलकर करते हैं |
ReplyDeleteपरिवर्तन चहुँ ओर परिलक्षित है.ताज़ा हवा के झोंके सा पहली फुहार के साथ उठती माटी की सोंधी सुगंध सा
ReplyDeleteआभार संगीता जी।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
इस जरूरी चर्चा से मेरी बोलती बन्द है । अगली पीढ़ी के बारे में उम्मीद जरूर है ।
ReplyDeleteवाह क्या कहने..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
बहुत बढ़िया .....मैं तो अपने बेटों को काम सिखाती हूँ
ReplyDeleteबहुत बढ़िया कर रही हैं आप.
Deleteघुघूतीबासूती
सचमुच हालात बदलने ही चाहिये- इसे सभी सोचते हैं । और बदल भी रहे हैं । चिन्तनीय यह है कि कहीं-कहीं तो बिल्कुल नही बदले किन्तु जहाँ बदल रहे हैं वहाँ बेहद कठोरता व आक्रामक तरीके से बदल रहे हैं । रिश्तों को निस्संगता से दरकिनार करते हुए । एक सुन्दर सन्तुलन तो अधिकांशतः आज भी दुर्लभ है । स्त्री शोषित है वहाँ भी और जहाँ स्त्री को पूरे अधिकार व स्वतन्त्रता है वहाँ भी । विचारणीय आलेख ।
ReplyDeleteवैसे एक बात कहूँ कि केवल आदमियों को ही थकने का अधिकार है :) यह कहना गलत है, (वैसे आदिकाल से ऐसा ही माना जाता रहा है) ।
ReplyDeleteऔर रही बात ऑफ़िस से टिपयाने की और फ़ेसबुक करने की, तो वो तो समय मिलने पर निर्भर करता है :) थकान तो आखिर थकान होती है, क्योंकि बचपन से ही ऐसी सोच आदमियों में भर दी जाती है, कि ऑफ़िस से आने के बाद आदमी थक जाता है और औरतें नहीं थकतीं, भले ही वे कितना भी काम कर लें।
खैर बात रही अपनी तो अपन तो सभी चीजों मं आनंदित होते हैं, थकान में भी और व्यस्तता में भी ।
नई पीढ़ी मॆं हमने तो कोई बदलाव नहीं देखा, आज भी शादियाँ इसीलिये टूट रही हैं कि लड़की सुबह जल्दी उठना नहीं चाहती, नाश्ता और खाना बनाना नहीं चाहती, भले ही वह ऑफ़िस ना जा रही हो, तो इस बात में बहस की गुंजाईश बहुत ज्यादा है।
अब बाकी का टिपयाना बाद में :)
अगर आज के समय के अनुसार देखा जाए तो परिस्थितियाँ बहुत बदली हैं ..... ये सिर्फ घर के बाहर जाकर काम करने वाली पत्नियों के साथ ही नहीं है अपितु घर में रहने वाली गृहणियों के सम्बन्ध में भी सोच बहुत बदली है और पति न सिर्फ घर के काम में अपितु बहुत बड़े मानसिक सम्बल के रूप में भी सामने आये हैं .... मैं आपसे बिलकुल सहमत हूँ कि अब माँ संस्कार में पत्नी को सम्मान देना भी सिखा रही है .....
ReplyDeleteयह बिल्कुल सत्य है कि वर्तमान महानगरीय पीढी एक दूसरे का साथ निभाते हैं लेकिन यह भी सत्य है कि आया या महरी के नहीं आने पर परेशान केवल महिला ही होती है। कभी भी पुरूष चिंतित नहीं होता है।
ReplyDeleteबच्चा समय और स्थान पर निर्बर कर जिस परिवार में पैदा होता है, किसी भी सामाजिक तंत्र में तत्कालीन अपनाए जाने वाले वातावरण पर निर्भर कर, ज्ञानोपार्जन कर 'सही' 'गलत' और 'चलेगा/ नहीं चलेगा' आदि मान्यताएं धारण कर लेता है,,, जो एक ओर तो भौतिक प्रकृति के सत्य को दर्शाते सत्य, 'परिवर्तन प्रकृति का नियम है', दूसरी ओर विभिन्न स्थान में अपनाए जाने वाले 'धर्म'/ 'परम सत्य' के कारण व्यक्ति को समय के साथ बदल पाने में बाधक सिद्ध होती हैं...
ReplyDeleteहमारे प्राचीन ज्ञानी, योगी, सिद्धों, पहुंची हुई आत्माओं आदि, ने गहन अध्ययन/ साधना कर इस के पीछे महाकाल, निराकार ब्रह्म, शक्ति रुपी अमृत शिव, अर्थात सृष्टिकर्ता-पालनहार-संहारकर्ता (त्रैयम्बकेश्वर, ब्रह्मा-विष्णु-महेश) का हाथ होना जाना, और मानव की क्षमता भी इसी प्रकार सतयुग के आरम्भ में १००% से कलियुग के अंत तक ०% हो जाना भी जाना...और मानव जीवन को रामलीला अथवा क्रिह्न्लीला अर्थात ड्रामा समझा!!!
इसी लिए, जैसे हर व्यक्ति माया जगत द्वारा बौलीवूड/ हॉलीवुड में निर्मित फिल्म का आनंद लेता है, वैसे ही जीवन को भी दृष्टा भाव से जीने का उपदेश दिया... किन्तु कलियुग में भी हरेक अपने को सिद्ध मान इसका पालन नहीं कर पाता (भले ही 'गीता'/ 'रामायण' आदि भी यदाकदा पढता हो), और तथाकथित माया के कारण काल-चक्र में काल के प्रभाव से क्यूँ न उलझता चला जाता प्रतीत होता हो (भले ही अपनी शक्तिशाली सरकार को ही क्यूँ न एक के बाद दूसरे घोटाले में फंसते क्यूँ न देख ले, और फिर भी आशा करते की समय करवट लेगा और सब सही हो जाएगा...:)... ...
बहुत सहज तरीके से एक गम्भीर मुद्दा उठाया है आपने। यहां मैं अपने आपको गुनहगार पाता हूँ। यद्यपि मेरी पत्नी वर्किंग वूमन नहीं है, और उसे घर और बच्चे संभालने को काफी वक्त मिलता है, लेकिन मुझे कई बार लगता है कि मुझे भी उसका हाथ बंटाना चाहिए और मैं करता भी हूँ, लेकिन यह भागेदारी जितनी मेरी ओर से होनी चाहिये, शायद नहीं है। आपकी पोस्ट पढ्कर इस बारे में जागरुकता का एहसास हुआ।
ReplyDeleteसंवेदनशील मुद्दे का पूरी संजीदगी से विश्लेषण किया है आपने
ReplyDeleteसत्य .. है आपकी पोस्टें सदैव ही गंभीर, विचारणीय मुद्दे उठती हैं इसमें जरा भी शंका नहीं है कि अधिकांशतः घरों में स्त्री चाहे वह कामकाजी हो या सामान्य गृहणी उसके आराम का ही क्यों अधिकांश बातों का ख्याल नहीं रखा जाता है, एक छोटे शहर के एक माध्यमवर्गीय परिवार से होने के नाते हम इस बात को नजदीक से देखने के बाद भी समाज व अपने ही परिवार को जागरूक नहीं कर पाते हैं, इसके लिए खुद को शर्मिंदा मह्सूस् कर रहा हूँ , पर अब समय धीरे धीरे बदल रहा है भविष्य निश्चित ही अच्छा होगा !
ReplyDelete.
ReplyDelete.
.
नई पीढ़ी में निश्चित तौर पर बदलाव आया है, अब पति-पत्नी बराबर के भागीदार हैं... परंतु कभी कभी सोचता हूँ कि कहीं यह अच्छा बदलाव वापस फिर पहले सा न हो जाये, एकता कपूर मार्का पुरूष सत्तावादी घरेलू भारतीय संस्कृति को ग्लोरिफाई करते सीरियलों के चलते जो हर चैनल पर छाये हैं... अच्छा ही है एक तरह से कि इनको देखने वालों में अधिकाँश महिलायें ही होती है...
...
आने वाला समय निश्चय ही बेहतर होगा...
Deleteनिराश न हों. वक्त बदल रहा है. आजकल मैं जिस छोटे भाई के घर (कोच्ची) में हूँ वहां गजब हो रहा है. बहू दुपहर को ट्यूशन पढ़ाने भर जाती है. प्रातः पति उठकर झाड़ू पोछा लगाता है. काफी बनाके पिलाता है और साढे आठ तक अपने दफ्तर के लिए (शिपयार्ड) निकल पड़ता है. दुपहर का खाना केन्टीन का होता है. शाम सात तक घर लौट आता है. लौट आने पर पत्नी वीणा उठा लेती है, पुत्र अपना वओलिन और पति मृदंग बजाने लगते हैं. हर शाम संगीत भरी रहती है.
ReplyDelete