पिछली बार आपने कब 'पाँच पैसे का सिक्का' देकर कुछ खरीदा था? खरीदना तो छोड़िए, पिछली बार आपने कब 'पाँच पैसे का सिक्का' देखा था? कठिन है ना याद करना ! बहुत से तो ऐसे होंगे जो सोच भी नहीं सकते कि किसी युग में पाँच पैसे में अच्छी खासी नामी कम्पनी की टॉफी मिल जाती थी, या पाँच पैसे में अन्तर्देशीय पत्र मिलता था।
आज माँ के मुँह से 'वहाँ मेज पर एक पाँच पैसे का सिक्का पड़ा है' सुनकर विचित्र लगा। पाँच पैसे का सिक्का मेज पर कैसे आया? उनका स्थान तो मेरा पुराने सिक्कों वाला डब्बा है जो किसी सिक्का इकट्ठा करने की शौकीन नतिनी या नाती या किसी बच्चे को मिलेगा। मैं अचम्भित थी तभी याद आया कि मेज पर एक पाँच रुपए का सिक्का पड़ा है।
मैंने पूछा, 'पीले रंग का है ना?'
वे बोली, 'हाँ।'
मैंने कहा, 'माँ, वह पाँच रुपए का सिक्का है।'
वे बोली, 'ओह।'
कुछ देर को मैं उस भविष्य में खो गई जब पचास रुपए का, या यूँ ही रुपए का मूल्य गिरता गया तो शायद पाँच सौ का सिक्का यहाँ वहाँ मेज पर पड़ा होगा और मैं लाठी हाथ में लिए बिटिया से बोल रही होऊँगी बेटा एक पाँच रुपए का सिक्का मेज पर पड़ा है और वह सोचेगी कि ऐसे सिक्के तो उसके या उसकी संतान के कॉइन कलैक्शन में पाए जाते हैं, मेज पर नहीं। मेरे मन में, शायद अवचेतन में ही सही तब 'पाँच रुपए का सिक्का' कुछ वही कीमत रखेगा जो माँ के अवचेतन या बिना सोचे समझे पलों में पाँच पैसे का सिक्का!
वे अपने कमरे में चली गईं और मैं भूत, वर्तमान व भविष्य के बारे में सोचती रह गई। माँ का भूत व वर्तमान मेरे भविष्य में गडमड हुआ जा रहा था। मैं भी उनके कमरे में चली गई ताकि एक बार फिर उनसे 'एक पैसे की चार जलेबी जिनके ऊपर दही डला होता था' वाली बात सुन सकूँ।
वे तब छोटी थीं, बारह साल से पहले की कोई भी उम्र रही होगी याने १९३५ से कभी पहले की बात है। बारह साल में उनका विवाह हुआ था। नानी को दमा रहता था। जिस दिन दमे के कारण सुबह सुबह सब बच्चों, देवरों के लिए नाश्ता न बना पातीं तो बच्चों को एक एक पैसा देतीं। हलवाई की दुकान से बच्चे 'एक पैसे की चार जलेबी जिनके ऊपर दही डला होता था' लाते। वह खाने के बाद नानी गरम दूध पीने को देतीं। दही व दूध का यह मेल मुझे समझ तो नहीं आता किन्तु मुझे तो अपने बचपन में नित जलेबी खाने का औचित्य भी नहीं समझ आता।
बचपन में यह किस्सा सुन मैं माँ से कहती कि उनके स्थान पर मैं होती तो रसोई के बाहर बच्चों ( या शायद बच्चियों)के लिए जो चूल्हा बना होता था उसमें ही मैं तो अवश्य अपने लिए व अन्य बच्चों के लिए कुछ बना लेती। रसोई में बनाना तो मना था क्योंकि छुआछूत जो मानी जाती थी। किन्तु माँ के शब्दों में मैं व भाई, हम बच्चे थे ही कब, हम तो बूढ़े पैदा हुए थे। हुड़दंग जो नहीं मचाते थे। या शायद इसलिए कि 'चार जलेबी जिनके ऊपर दही डला होता था' खरीदकर नहीं खाते थे।
जिसने एक पैसे की चार जलेबी खाईं हों उसके लिए पाँच पैसे बीस जलेबियों के बराबर हैं। एक किलो में शायद बीस या बाइस जलेबियाँ आती हैं और शायद आज जलेबियाँ सौ रुपए किलो मिलती होंगी। तो हुए न उनकी नजरों में पाँच पैसे आज के सौ रुपए के नोट के बराबर ! वे मेरे कमरे में 'पाँच पैसे का सिक्का पड़ा है' कहने पर मेरे जाकर उसे सम्भालने की आशा करें तो क्या आश्चर्य?
घुघूती बासूती
यह १९८५ के आसपास की बात होगी. मुझे याद है कि सबसे छोटी पतंग पांच पैसे की आती थी. पांच पैसे में ही संतरे की फांक जैसी बड़ी कम्पट (संतरा गोली) आती थी या पांच छोटी कम्पट आती थीं.
ReplyDeleteकुछ घरों में मैंने देखा कि लोगों ने पांच पैसे और दस पैसे के सिक्कों से महल भी बनाये थे जो देखने में बहुत भोंडे लगते थे.
क्या आपको लौटरी का चार्ट याद है? उसमें छोटे प्लास्टिक के खिलौने, कलाकारों के पिक्चर पोस्टकार्ड, कैसेट, और टॉफी लगीं होतीं थीं. एक टिकट पांच पैसे का होता था और नंबर लगने पर वह चीज़ मिल जाती थी. एक तरह का जुआ ही था वह.
जाने कहाँ गए वो दिन.......................
ReplyDeleteअनु
सच ही है, अब दोनों का आकार एक जैसा ही हो गया है।
ReplyDeleteजी चिंता मत कीजिए,
ReplyDeleteसरकार इतना ज्यादा नहीं 'गिरने' देगी, रूपये को.
अब एक जीरो हटाया जाएगा.
१०० = १०
Bada saral aur tazagee bhara lekhan hota hai aapka!
ReplyDeleteएक छोटी सी बात को आपने रोचक किस्सा बना डाला... बहुत बढ़िया
ReplyDeleteआज दोनों का आकार और मूल्य एक जैसा ही है
ReplyDelete:-)
ReplyDeleteबेटा क्वाइन कलेक्शन मोड में है आजकल, (छुट्टियॉं चल रही हें तथा उसके नानाजी ने उसे क्वाइन एल्बम गिफ्ट की है, इसलिए) उसके पॉंच पैसे तो हैं पर 1,2 व 3 पैसे नहीं हैं...वायदा किया है कि कहीं से जुटाकर उसे दूंगा।
ReplyDeleteशानदार ब्लाग लेखन...गूगल से लेकर कुछ सिक्कों की तस्वीर लगाएं तो और प्रासंगिक रहेगी :)
मसिजीवी, १, २ और ३ सब पैसे हैं.क्वाइन कलेक्शन करने वाला छोटा बच्चा नहीं, वह भी आ जाएगी/ जाएगा कभी न कभी. इसी आस में न जाने कितने कलेक्शन प्रतीक्षारत हैं. :)
ReplyDeleteघुघूतीबासूती
तो इस तरह से सिक्कों के बहाने फिर से बचपन जिया जा रहा है :)
ReplyDeleteआखिर आप लोगों को बेचारी जलेबी से खुन्नस क्या है :)
कुछ भी कहिये अपनी पूरी सहानुभूति है जलेबी जी के लिए :)
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (09-06-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
मुद्रा का अवमूल्यन और नैतिकता का अवमूल्यन हमेशा साथ साथ चलते है और बुजर्गों के पास इन दोनो के स्वर्णीम और गौरवमय संस्मरण होते है।
ReplyDeleteअली, अली सा कहूँ या केवल अली?अली ही कहती हूँ. तो भाई, बंधु, मित्र, मैं गांधारी के ससुराल वाली हूँ या यह कहिए गांधारी व मेरा ससुराल एक है वही हस्तिनापुर! सो मित्र, यदि पति को मधुमेह हो तो मेरी खुन्नस बेचारी जलेबी से होगी ही होगी. अन्यथा मेरी रसोई से गुड़ व शक्कर का रसोई निकाला यूँ ही तो न हुआ. न जाने कितने दशक बीत गए कुछ मीठा चखे हुए. मेरी तो स्वर्ग में सीट सुरक्षित है.
ReplyDeleteघुघूतीबासूती
बहुत ही बढिया।
ReplyDeleteपाँच पैसे कहिये तो शायद छोटी गोलियाँ ही खायी थीं लेकिन एक आने या दो आने के बर्फ़ के गोले, या मूँगफली तो मैंने भी खायी थी. पर तब माँ को स्कूल में पढ़ाने के दो सौ रुपये महीने के मिलते थे. :)
ReplyDeleteहमें दाज्जी से इकन्नी मिला करती थी। जो सवा छह पैसे के बराबर होती थी पर सौदा देने वाला छह पैसे का ही देता था। उस में स्कूल में दो कचौड़ियाँ मिल जाती थीं। और कोने वाले कन्दोई की दुकान पर छटाँक भर मोटे सेव के साथ इतना ही कलाकंद उस में आ जाता था। सेव-कलाकंद जिस अखबार के टुकड़े में मिलते थे उसे बड़े चाव से पढ़ा जाता था। यूँ कहें कि पढ़ने का अभ्यास ही वहीं से आरंभ हुआ था। लिखना तो महिनों बाद सीखा जो उन दिनों बहुत तकलीफदेह था। अखबार के हेड़िंग जैसे अक्षर कैसे भी नहीं लिखे जाते थे।
ReplyDeleteकृपया स्पैम में मेरा कमेंट चेक करें.
ReplyDelete5 paise ke sikke ke bahane purani yadon ko shiddat se yad kiya hai aapne..abhar
ReplyDeleteपाँच पैसे को कैसे भूल सकता हूँ यह तो मेरी मासिक आय हुआ करती थी। स्कूल जाने के लिए जेब खर्च। पाँच पैसे में बढ़िया चॉकलेट।:)
ReplyDeleteविषय बढ़िया था, पोस्ट और बढ़िया होनी चाहिए थी।(:
bahut sundar.
ReplyDeleteपांच पैसे से मेरी और मेरे भाई की यादें जुड़ी हुई हैं...
ReplyDeleteहमारे स्कूल के सामने पांच पैसे में लाल निम्बू {Grape fruit जो मुंबई में १२० रुपये का एक मिलता है :(})की एक बड़ी फांक मिलती थी...पर रास्ते की चीज़ खाने के लिए माँ ने मना किया था सो हम बड़े हसरत से उसे तकते थे उसे. आज भी जब हम साथ बैठते हैं..उस पांच पैसे के निम्बू की फांक की जरूर बात करते हैं.
बहुत ही बढिया।
ReplyDeleteइस घटना ने न जाने कितनी बातें याद दिला दीं। सोचने की बात है। बचपन में जब रुपये के अवमूल्यन के किस्से सुनते और समाचार पढते थे तब यही लगता था कि क्या फ़र्क पढता है। अमेरिका आकर जब 99 सेंट वाली चीज़ पर 1 सेंट वापस होते देखा तब भी आश्चर्य हुआ और सेंट कम-बेश होने की स्थिति में उसी काउंटर पर रखा सेंट बॉक्स देखा तो सुखद आश्चर्य हुआ। सिक्के खूब इकट्ठे हुए हैं, पहले भारतीय रियासतों के, फिर भारत संघ के और अब संयुक्त राज्य के। और हाँ, दही-जलेबी का नाश्ता बरेली में खूब किया है।
ReplyDeleteऔर हाँ ढउआ पतंगों के साथ पाँच पैसे के पिद्दे भी खूब उड़ाये हैं - मेलाज़्मा यूँ ही नहीं मिला। :)
ReplyDelete1975 की बात है, एक मंदिर में दर्शन को गयी थी, वहां कुछ लड़के चंदन का टीका लगा रहे थे और जैसे ही टीका माथे पर लगाते, हाथ बढ़ा देते की लाओ पांच पैसा। हमें इतना आनन्द आया था उस दिन उसके पांच पैसे मांगने के अंदाज पर की आज भी वह संस्मरण जैसा बना हुआ है।
ReplyDeleteजलेबी के साथ दही??
ReplyDeleteमेरी सहेली ने पाँच पैसे उधार लिये थे कई दिन तक लौटाये नही। जिसे वापिस लेने मै उसके घर तक चली गई थी। आज याद आती है तो हँसी आती है बचपन पर।
ReplyDeleteआपका लेखन इतना सरल और स्पष्ट है कि इंसान ख्यालों में खो जाए...
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