उसने पति की आँखों में आँसू कभी न देखे थे। पति ही क्या अपनी भी आँखों में नहीं देखे थे, बच्चों की आँखों में भी बहुत ही कम। ऐसा कहा जा सकता है कि अपने परिवार में आँसू लगभग नहीं ही देखे थे। पति को तो माता पिता की मृत्यु पर भी रोते नहीं देखा था, कुछ अपनों की अकाल मृत्यु पर भी नहीं, बहन व बेटियों के विवाह में भी नहीं।
सो उस दिन क्या हुआ कि आमिर खान के सत्यमेव जयते देखते समय उनकी आँख से अश्रुधारा बह रही थी। वह रसोई में खाना बनाते बनाते, खाने की मेज पर सब्जी काटते हुए, चलते फिरते काम करते हुए शो देख कम, सुन अधिक रही थी। कढ़ाही में सब्जी छौंक, दाल प्रेशरकुकर में डाल वह भी टी वी के सामने पंखे के नीचे बैठ गई। अमेरिका में ले जाकर पति द्वारा सताई, भूखी रखी पत्नी अपनी बात बता चुकी थी। केरल की लेक्चरर निशाना की जान जाने के बारे में बताया जा चुका था। पंजाब की युवती अपने पति को आस्ट्रेलिया पढ़ने भेजने व उसकी व उसके परिवार की माँगों को पूरा करके भी पति को न पाने की कहानी सुना रही थी।
अचानक कुछ कहने को उसने पति की तरफ देखा तो आँसू ठोड़ी से नीचे लुढ़क रहे थे। यह कैसे हो सकता था। स्त्रियों, लड़कियों पर होते अत्याचारों को लेकर वे दोनों काफी चिन्तित होते थे, बेटियों के माता पिता होने के कारण अपने समाज का यह घिनौना स्वरूप जहाँ उन्हें लज्जित करता था वहीं चिन्तित भी करता। किन्तु आँसू!
"तुम्हारी आँख तो ठीक है ना?"
"हाँ।"
"फिर आँसू क्यों?"
कोई उत्तर नहीं।
"रो रहे हो?"
कोई उत्तर नहीं।
वह उठकर जाकर दूसरी आँख को देखती है। धारा वहाँ से भी बह रही थी।
जीवन में कितने दुख आए किन्तु आँसू नहीं आए। फिर आज ये आँसू क्यों? वह पूछती है वे कोई उत्तर नहीं देते।
"तुम तो कभी नहीं रोते थे।"
"इन लड़कियों के जीवन के जो सबसे सुखद साल होने चाहिए थे यूँ रुला तड़पा कर बितवाए गए हैं। इस उम्र में मनुष्य कितना उल्लसित होता है, कितना आशावादी होता है।"
तभी रानी त्रिपाठी आ गई। वह क्या आई, उसके पति के चेहरे की मुस्कान लौट आई। वे ऐसे मुस्करा रहे थे, हँस रहे थे जैसे वह उनकी अपनी बेटी हो जिसने अन्याय के विरुद्ध झुकने की बजाए उसे ललकारा। वह पति को ही बार बार देख रही थी। पति के आँसू सूख रहे थे व आँखें भी अब मुस्करा रही थीं।
अब वे दोनों यही कह रहे थे कि रानी ने बिल्कुल सही किया सिवाय उसी दिन शादी करने की घोषणा करने के। क्योंकि दहेज का लोभी न होने का अर्थ एक बहुत बड़े खोट से मुक्त होना तो होता है किन्तु इस खोट के अतिरिक्त भी कई बातें देखने की होती हैं, जैसे कि स्वभाव, जीवन दर्शन, अन्य जीवन मूल्य आदि। दहेज का लोभी न होना अपने आप में चरित्र का एक बड़ा गुण हो सकता है किन्तु सबकुछ नहीं। रानी खुश है यह देख व उसका आत्म विश्वास देख उन दोनों को बहुत सन्तोष हो रहा था।
कह रहे थे कि काश, रानी की तरह हर लड़की व उसके माता पिता समझ पाते कि पैसे से बेटी रूपी बला को अपने सर से उतार किसी और के सर रखा जा सकता है किन्तु बेटी रूपी एक व्यक्ति की खुशियाँ कभी नहीं खरीदी जा सकतीं। सो यदि आप अपनी बेटी को प्यार करते हैं, उसका व्यक्ति के रूप में आदर करते हैं तो उसकी खुशियाँ खरीदने की चेष्टा भी मत कीजिए। यदि आप लड़की हैं तो किसी को अपने लिए वर खरीदने मत दीजिए। प्रायः इस वर का मूल्य पैसों के साथ साथ आपका स्वाभिमान भी होता है।
उसने पति को कभी ऐसे कार्यक्रम देखते नहीं देखा था। उसने पति को कभी रोते नहीं देखा था। स्त्रियों का आदर करते हैं यह तो वह जानती थी, उनके साथ अन्याय होता नहीं देख सकते यह भी जानती थी, किन्तु वे उनकी पीड़ा को इस तरह महसूस करते हैं यह वह नहीं जानती थी। उस दिन उसने पति का एक नया ही रूप देखा।(वह सोचती है व सोचकर मुस्कराती है कि बुढ़ापा व सेवानिवृत्ति उसे उनके न जाने कितने कितने नए व पुराने छिपे हुए रूप दिखाए, ये रूप देखने के लिए उनका उसके सामने बैठा होना भी तो आवश्यक है। )
उसने यह भी देखा कि किसी भी सत्य के सत्य से अधिक, कटु सत्य या भयावह सत्य ही क्यों न हो, उसकी प्रस्तुति कैसे की जाती है यह बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। यदि समाज को बदलना है तो निर्जीव आँकड़े बताते रहने से कुछ नहीं होगा। समाज की बुराइयों को इस तरह से समाज के सामने लाना होगा कि लोग सोचने को मजबूर हो जाएँ। इस लिहाज से आमिर खान का सत्यमेव जयते अब तक सफल रहा है। वे कलाकार हैं, मनुष्य के हृदय को निचोड़कर रख देने की कला में माहिर, तो यदि एक भले काम में उनकी कला का उपयोग किया जाए तो क्या बुरा है ! लोग कहते हैं कि वह नया क्या कह रहा है किन्तु अपनी या आपकी बात यूँ कहना कि सुनने वाला हिल जाए भी तो एक कला है। शायद इसीलिए लोग नुक्कड़ नाटकों में समाज की समस्याएँ उठाने की कोशिश करते थे।
घुघूती बासूती
बिलकुल सच कहा....
ReplyDeleteबात को इस तरह कहा जाये के जनमानस के ह्रदय तक पहुंचे तब तो सार्थकता है.....
आपका आलेख बेहद सार्थक और सशक्त...
सादर.
अनु
बूंद बूंद से ही घडा भरता है ऐसे प्रयासों से यदि थोडा भी बदलाव आये या एक जीवन ही बदल जाये तो सार्थक है,।
ReplyDeleteBahut hee sahee likha hai aapne!
ReplyDeleteमनुष्य के हृदय को निचोड़कर रख देने की कला की बात सो सटीक है किन्तु प्राय: कोमल हृदय ही सम्वेदनाएं महसुस करते है। नासूर दिलो को कितना भी भावुक किया जाय, देखा और भूल गया। और असली जरूरत नासूर हृदय में उष्मा भरी सम्वेदनाएं जगाने की है।
ReplyDeleteआपकी अंतिम पक्तियों से पूरा इत्तेफाक ..सही बात है कोई नई बात नहीं, इन मुद्दों पर अरसे से लिखा जाता रहा है, मुहीम चलाई जाती रही है.परन्तु इतने प्रभावशाली ढंग से यदि कोई यह काम कर रहा है कि लोगों के दिल पर असर कर रही है तो इसमें बुरा क्या है.
ReplyDeleteघुघूती जी,
ReplyDeleteआपकी हर बात से सहमति हैं.आमिर खान का प्रस्तुतिकरण का अलग अंदाज लोगों को सचमुच सोचने को मजबूर कर रहा हैं.प्रोग्राम के लोकप्रिय होने में उनकी स्टार छवि का भी असर हैं लेकिन उनकी मेहनत को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता.मैंने यहाँ कई लोगों को इस आधार पर आमिर की आलोचना करते सुना हैं कि उन्होने पितृसत्ता की आलोचना नहीं की या दहेज या कन्या भ्रूण हत्या के कारणों की तरफ ध्यान नहीं दिलाया.तो मेरा ये मानना हैं कि कारणों के बारे में सबको पता हैं और जो लोग कारणों की बात कर रहे हैं उन्हें आमिर कौनसा रोक ही रहे है.और वैसे भी हर बात को हर बार केवल स्त्री पुरूष वाले नजरिये से ही देखना बोझिल सा भी लगने लगता हैं.मुझे नहीं लगता कि केवल इसी तरीके से लोगों को समझाया जा सकता हैं यदि आमिर के तरीके से कोई फायदा होता हैं तो इससे दिक्कत क्या है!
सुज्ञ जी,
ReplyDeleteआपकी बात बिल्कुल सही हैं मैं भी ऐसा ही सोचता हूँ .लेकिन मुझे लगता हैं हमारे बीच लोगों की एक कैटेगरी और हैं.इन लोगों को न हम भावुक कह सकते हैं न असंवेदनशील ही,बस ये लोग इस तरह की समस्याओं के प्रति या तो अनजान हैं या बेफिक्र हैं.आपने भी देखा होगा आमिर खान बार बार युवाओं की बात पर बल दे रहे हैं उन्हें जागरुक करने की बात कर रहे हैं.यहाँ वो कच्चे घडे को मनचाहा आकार देने की बात आ जाती हैं.आपको बताऊँ मेरा एक छोटा भाई है जो करीब साढे अठारह साल का हैं और स्वभाव से मौजी हैं.क्रिकेट और फिल्मों में रुचि हैं,पढाई में औसत हैं.जब मैंने आमिर के शो का पहला एपिसोड देखा तब वह क्रिकेट खेलने गया था उसके आने के बाद मैंने इस शो की कुछ ज्यादा ही बडाई कर दी क्योंकि मुझे बहुत पसंद आया था और चाहता था कि वह भी देखे.फिर उसने रात को इसका रीपीट टेलीकास्ट देखा.मुझ समेत सारे घरवाले ये देखकर हैरान थे कि उसकी भी आँखों से आँसू बह रहे थे.जबकि आज तक हमने उसे ऐसा नहीं देखा.कन्या भ्रूण हत्या करने वालों के खिलाफ उसे बहुत गुस्सा आ रहा था.इस संबंध में उसने मुझसे बहुत से सवाल भी पूछे.इसके बाद उसने बाकी के दोनों ऐपिसोड भी अपने क्रिकेट प्रेम को भूलकर देखे.मुझे नहीं लगता अब ये बातें उसके दिमाग से आसानी से निकल पाएँगी.यह असर आमिर की उपलब्धि हैं.पता हैं कोई चमत्कार नहीं होने वाला लेकिन कुछ लोगों पर सकारात्मक असर पड रहा हैं तो भी कोई कम बात नहीं.
एक कलाकार, निर्माता, निर्देशक और प्रस्तोता के रूप में आमिर सफल हो चुके हैं। इस से आगे की भूमिका अदा करने से उन्हों ने इन्कार कर दिया है. नाटक, फिल्म या पुस्तकें लोगों तक एक संदेश पहुँचाती हैं। लोगों को आंदोलित करती हैं। जो लोग आंदोलित होते हैं वे प्रेरक की ओर देखते हैं कि वह आगे का मार्ग प्रशस्त करेगा। लेकिन जब प्रेरक आगे का मार्ग नहीं दिखाता। आगे के मार्ग पर चलने के लिए नेतृत्व की आवश्यकता है। इस के लिए कोई रेडीमेड नहीं मिलता। उसे जरूरत के हिसाब से तैयार करना पड़ता है। नाटक, साहित्य और फिल्म के माध्यम से प्रेरित करने वालें को वह मार्ग भी दिखाने की आवश्यकता है जिस से ऐसा नेतृत्व तैयार किया जाता है जिस के पीछे लोग चल पड़ते हैं,एक बड़ी ताकत बन जाते हैं। तब परिवर्तन सामने दिखाई देने लगता है। लगता है उसे हासिल कर लिया जाएगा। तब आखिरी हमला बोलना पड़ता है।
ReplyDeleteआमिर ने तो नाटक दिखा कर हाथ ऊँचे कर लिए हैं। मैं समझता हूँ आमिर के अलावा भी देश में ऐसे बहुत लोग हैं जो आगे की भूमिका अदा कर सकने में सक्षम हैं उन्हें आगे आना चाहिए।
शायद कोई तकनीकी समस्या हैं,मेरी दोनों ही टिप्पणियाँ दिखाई नहीं दे रही हैं.
ReplyDeleteशायद कोई तकनीकी समस्या हैं,मेरी दोनों ही टिप्पणियाँ दिखाई नहीं दे रही हैं.
ReplyDeleteराजन जी, क्षमा कीजिए, न जाने क्यों आजकल बहुत सी टिप्पणियाँ स्पैम में पहुँच जाती हैं, जहाँ से उन्हें निकालकर लाना पड़ता है। क्योंकि मैं प्रायः नेट पर नहीं होती तो वे वहीं पड़ी रह जाती हैं।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
"इन लड़कियों के जीवन के जो सबसे सुखद साल होने चाहिए थे यूँ रुला तड़पा कर बितवाए गए हैं। इस उम्र में मनुष्य कितना उल्लसित होता है, कितना आशावादी होता है।"
ReplyDeleteमुझे भी सबसे ज्यादा यही बात खलती है...दोषी को सजा मिल गयी....पीड़ित को न्याय मिल गया...अंत में उसकी जीत हुई...उसने अपनी जिंदगी संभाल ली...पर उसके वे खोये वर्ष कौन लौटाएगा??..उसका हिसाब कौन देगा.??...अब लड़कियों का पालन-पोषण ही इस तरह से किया जाए...कि बचपन से उनकी एक आवाज़ हो.....अपना अच्छा बुरा समझने की क्षमता हो..अपने जीवन का निर्णय लेने का साहस हो.
सत्यमेव जयते...प्रोग्राम कई ह्रदय को आंदोलित कर रहा है...पर एक डर ये भी लगा रहता है..कहीं ऐसा ना हो बस जबतक इस प्रोग्राम का प्रसारण हो लोग उन विषयों की चर्चा करें...सुधार लाने की कोशिश करें...और फिर 'रात ख़त्म..बात ख़त्म' की तरह प्रोग्राम की अवधि की समाप्ति पर सब भूल जाएँ.
ये मुहिम जारी रहनी चाहिए.
घर में आंसुओं का सैलाब आता है हर रविवार ,,,,एक तसल्ली है जो हमारे दर्द है वो सही तरीके से लोगों को दिखाई पड़ रहे है और उसे महसूस भी कर रहे है
ReplyDeleteयह सब सुनकर दुख तो होता ही है, संवेदना भी जागती है..
ReplyDeleteकल 25/05/2012 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
सम्वेंदन शील विषय है सम्वेद्ना की आवश्यकता है .
ReplyDeleteमैं इस पोस्ट को सत्यमेव जयते की सफलता के रूप में देख रहा हूँ ...सचमुच बड़े भावपूर्ण दृश्य थे उस दिन ....
ReplyDeleteसत्यमेव जयते वाकई समाज को झझकोर रहा है... समाज को सीख लेनी होगी वरना बहुत देर हो जाएगी...
ReplyDeleteसमाज में कैसे कैसे अन्याय होते रहे हैं, क्या क्या अति होती है, यह अहसास दिला पाना एक बड़ी सफलता है। जिस कमी का अहसास ही न हो उसके सुधार की आशा कैसी। सहृदय लोग भावनात्मक रूप से परिपक्व होते हुए भी दूसरे के दर्द से पिघलते रहे हैं। रिटायरमेंट (और छुट्टियों) की यही बात मुझे अच्छी लगती है कि आमने सामने बैठने और भावनायें बाँटने के मौके बढ जाते हैं। आभार!
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