जरा कल्पना कीजिए आप कार से कहीं जा रहे हैं एक अपाहिज भिखारी अपने पहिएँ लगे पटरे याने अपनी पटरागाड़ी पर बैठा भीख माँग रहा है। आपके मन में करुणा उभरती है और आप सौ सौ रुपए के दो नोट कार की खिड़की से अपना हाथ बढ़ा उसकी तरफ करते हैं, भिखारी नोट पकड़ता है और एक नोट सड़क पर गिर जाता है और भिखारी उसे उठा लेता है। किन्तु तभी एक पुलिस वाला आकर आपको सड़क पर कचरा फैलाने / सड़क पर कचरा फेंकने के अपराध पर जुर्माना लगा देता है। जुर्माना भी कोई सौ दो सौ रुपए का नहीं पूरे पच्चीस हजार रुपए का ! असम्भव लगता है ना ! मुझे भी। किन्तु यही बात अमेरिका में हुई, रुपयों में नहीं डॉलरों में हुई। अब तो सम्भव लगने लगी है?
अपाहिज भिखारी व्हील चैयर पर था। दयालु व्यक्ति का अपाहिज भाई भी व्हील चैयर उपयोग करता था व भिखारी को देख उसे अपने भाई का ध्यान आ गया। उसने दो दो डॉलर के दो नोट उसे दिए। एक नोट के सड़क पर गिर जाने पर उठाए जाने के बावजूद भी उसपर पाँच सौ डॉलर का जुर्माना लगा।
अब आते हैं हमारे अपने प्यारे देश व उसके नित स्नान करने वाले व बहुत से बिना स्नान किए पानी भी न पीने वाले सफाई पसन्द नागरिकों की तरफ। मैं रोज शाम वर्ली सी फेस पर सैर करने जाती हूँ। सैर के लिए यह जगह मैरीन ड्राइव सी ही है। पिछले अक्तूबर नवम्बर में सड़क जितने चौड़े इस प्रामेनेड/ फुटपाथ को तोड़कर दोबारा बनाया गया या कहिए इसका सुंदरीकरण किया गया। पूरे में सुन्दर पेवर ब्लॉक्स लगे हैं। सड़क की एक तरफ बैंच हैं जिनपर बैठ समुद्र देख सकते हैं व समुद्र की तरफ बैठने लायक ऊँचाई की काफी चौड़ी दीवार है जो कड़पा पत्थर या वैसे दिखने वाले पत्थरों की स्लैब्स से ऊपर व सामने की तरफ ढकी हुईं हैं। कुल मिलाकर इस सीफेस की सजावट व बनाने में कोई कँजूसी नहीं की गई है, न नगर निगम ने न प्रकृति ने।
समुद्र से आती ठंडी हवा में समुद्र को, समुद्र में होते सूर्यास्त को या सी लिंक को देखते हुए यहाँ सैर करना बहुत आनन्ददायक लगता है। पिछले साल जब हम यहाँ नए नए आए थे तो इस सड़क की साफ सफाई देख मन खुश हो जाता था। एक भी फेरी वाला यहाँ नहीं होता था। शिकायत हो सकती थी तो बस डस्टबिन की कमी की और कुत्तों को सैर कराने वालों से कुत्तों के निपटने के बाद सफाई न करने से। किन्तु डस्टबिन की कमी भी खलती नहीं थी क्योंकि खाली हाथ टहलते, दौड़ते, जौगिंग करते लोगों को डस्टबिन की आवश्यकता भी नहीं थी।
किन्तु अब इस प्रामेनेड पर बीसियों फेरी वाले घूमते रहते हैं। फेरी वालों के साथ स्वाभाविक है, कागज, पॉलीथीन, प्लास्टिक व पेपर कप, गिलास, चम्मचें व भु्ट्टे भी आ गए और उपयोग के बाद फेरी वाला और उसका ग्राहक तो अपने रास्ते चले जाते हैं किन्तु यहाँ क्या हुआ था उसके सबूत के तौर पर सड़क पर पड़े रह जाते हैं कागज, पॉलीथीन, प्लास्टिक व पेपर कप, गिलास, चम्मचें व भु्ट्टे के अवशेष। वही सड़क जिसे देख हर बार मन खुशी से पुलकित हो जाता था अब विशुद्ध भारतीय सड़क का रूप धारण कर चुकी है।
पहले जहाँ युवा व अधेड़ जोड़े हाथ थामे या और भी अधिक सटे, संसार से बेखबर समुद्र की तरफ मुँह किए गुटरगूँ करते पाए जाते थे अब एक दूजे का हाथ थामने की बजाए हाथ में कागज की पुड़िया, प्लेट या कप थामे भेल या कुछ और टूँगते नजर आते हैं। वह गुटरगूँ की मधुर सी लगभग न सुनाई देने वाली आवाज गायब होकर अब खाते हुए की जाने वाली चप चप की आवाज में परिवर्तित हो गई है। सैर करने वाले थककर बैठने वालों का स्थान अब बिना पैसे लगी सीट पर बैठ जी भर चबाने वालों ने ले ली है। समुद्र बेचारे को भी अब कम ही लोग ताकते हैं, अधिकतर अपनी पुड़िया पर नजर गड़ाए होते हैं। यहाँ से वहाँ तक जहाँ भी नजर जाए कागज, पॉलीथीन, प्लास्टिक व पेपर कप, गिलास, चम्मचें व भु्ट्टे एक दूसरे से स्थान के लिए लड़ते नजर आते हैं। अब हवा गालों को सहलाने व बालों, दुपट्टों, आँचलों को उड़ाने से अधिक कागज व पॉलीथीन को उड़ाने में व्यस्त रहने लगी है।
भारत में टहलते, दौड़ते, जौगिंग करते लोगों की अपेक्षा हर जगह पर खाने पीने वालों की संख्या कहीं अधिक है। जब तक यहाँ खाना पीना नहीं मिलता था तो पूरे के पूरे परिवार शाम को अपने घरों से उठ प्रामेनेड (घूमने फिरने की जगह ) पर आने की बजाए खाने सुस्ताने के अन्य ठिकानों पर जाते होंगे। अब तो खाते पीते माता पिता और उनके आधा या चौथाई दर्जन बच्चे फुटपाथ पर गेंद, क्रिकेट, गुब्बारे, तरह तरह के मेलों में मिलने वाले से खिलौनों से खेलते तेज चलने वालों के पैरों में उलझते गिरते पड़ते पाए जाते हैं। थककर यदि बैठना चाहो तो बैठने से पहले गहराती शाम में आँखें फाड़ फाड़ कर देखना पड़ता है कि विभिन्न भोजन, आइसक्रीम व पेयों के अवशेषों पर तो कहीं नहीं बैठ रहे।
अब तो मन एक ही प्रश्न पूछता है कि हम भारतीय हर जगह, हर समय इतना खाते क्यों है? यदि खाते ही हैं तो खाना व पेय डालने के लिए अपने साथ अपना कटोरा व कमंडल क्यों नहीं रखते? तब कम से कम न खाने वालों को खाने वालों की जूठन लगे कागज, पॉलीथीन, प्लास्टिक व पेपर कप, गिलास, चम्मचों व बैठने के स्थानों से तो न जूझना पड़ेगा। अब डस्टबिन की अपेक्षा व उनके उपयोग की अपेक्षा तो हमसे की नहीं जा सकती। हम तो जहाँ बैठ जाते हैं वहीं खाते हैं और वहीं कचरा फैलाते हैं। काश कोई कचरा फैलाने का पच्चीस हजार तो नहीं पच्चीस रुपए का ही जुर्माना तो हर बार कचरा फैलाने पर लगाता। शायद तब सरकार का खजाना ऊपर तक भर जाता और सरकार को टैक्स लगाने की आवश्यकता भी न रहती।
घुघूती बासूती
जैसा देश वैसा व्यवहार :) मनुष्य तो हर जगह सामान है !
ReplyDeleteपुलिस के पास दरोगा कम हैं। सिपाही को पावर नहीं। जुर्माना कौन लगाए?
ReplyDeleteमेरे विचार में पुलिस में एक नया जुर्माना काडर बनाया जाए। बेयरफुट डाक्टर्स की तरह बिना वेतन दरोगा जैसा, जिन्हें वसूले गए जुर्माने का परसेंटेज मिले।
नतीजा - एक सप्ताह में सारे देश से कचरा साफ।
कचरा निस्तारण और कचरा अनुशासन, दोनों ही भारी समस्यायें हैं। पहले तो सारे पाप गंगाजी में धुल जाते थे। पाप कम थे गंगाजी बड़ी थीं, सो नुकसान का पता ही नहीं चलता था। अब पापी और पाप, सुरसा के मुख की तरह बढ रहे हैं और सांस्कृतिक गौरव उसी जगह टिका हुआ है। लड़का लड़की हाथ पकड़ लें तो संस्कृति संकट में पड़ जाती है, पूरा देश मैला कर दें, तो ... किसे फ़र्क पड़ता है।
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन रचना....
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
बढ़िया पोस्ट।
ReplyDeleteएकाध कचरे वाली तश्वीर लगानी थी न।
सच्ची बड़ी गन्दगी फैलाते हैं हिन्दुस्तानी...........
ReplyDeleteएक दुसरे पर थोपते हैं.....बहाना ये कि- पहले ही इतना कचरा फैला हुआ है....
जब तक कैपिटल पनिशमेंट नहीं लगाया जाएगा तब तक हम सुधरेंगे नहीं...........
सादर
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ReplyDelete.
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घुघुती जी,
मुझे लगता है कभी-कभी कि मुल्क के कुछ भागों को छोड़कर देश के अधिकाँश भागों में हम लोग कचरे के प्रति सहिष्णु हैं... हम कचरे के साथ रहने-खाने-जीने के आदी हैं, यह हमें परेशान नहीं करता, बस यह हमारे घर की चारदीवारी के बाहर फैला रहे... यह कुछ ठीक उसी तरह है जैसे नैतिकता व सदाचार के लंबे चौड़े लेक्चर पेलते हम लोगों को चारों तरफ खुल कर लिया-दिया जाता दहेज, अपने बंधु-बांधवों की हराम की कमाई से बनाये महल आदि आदि परेशान नहीं करते...
और हाँ, हर जगह हर समय खाते ही रहने को यदि देखना हो तो रेल के सफर में देखिये... डब्बे में चढ़ते ही कईयों का खाने का डब्बा खुलता है और गंतव्य आने तक उनकी जीभ व जबड़े लगातार कसरत करते रहते हैं....
...
घुघूती बासूती जी
ReplyDeleteबीच का सुंदरीकरण अभी नहीं हुआ है वो हमेसा से सुन्दर ही था बस फुटपाथ पर अब और अच्छे पत्थर लगा दिये गये है जब से ये नया सुंदरीकरण हुआ है वहा लगे सारे कचरा पेटी (डेस्ट बिन) हटा दिया गया है, क्यों, समझ से परे है , जबकि वहा पहले कई कचरापेटी हुआ करते थे और सभी उसी में कचरा फेकते थे किन्तु जब सड़क पर कचरापेटी होगा ही नहीं तो लोग क्या कर सकते है | ऐसा बहुत कम ही होता है की सामने कचरे का डब्बा हो और लोग यहाँ वहा कचरा फेके खासकर ऐसी जगह पर जो काफी साफ सुथरी रहती है | शायद यिजना बनाने वालो को वो कचरा पेटी उनके किये सुंदरी करण के बीच अच्छे नहीं लगते हो किन्तु जैसा की होता है की वो बाद का नहीं सोचते है की लोग कचरा सड़क पर फेकेंगे तो वहा का दृश्य कैसा होगा | अच्छा हो वहा पर जल्द ही कचरापेटी वापस रख दिया जाये क्योकि जैसे ही लोगों की आदत एक बार बन जाएगी कही भी कचरा फेकने की उस सी फेस पर उसके बाद आप लाख कचरे का डब्बा रखिये आप लोगों को सुधार नहीं पाएंगे |
हम भी वहा से बस २० मिनट की दूरी पर ही रहते है और अक्सर वहा जाते है खासकर मानसून के दिनों में मुंबई में कोई भी सी फेस चाहे वो रेत वाले हो या इस तरह के पत्थर वाले वो लोगों के लिए घूमने फिरने की जगह होती है ना की बस टहलने की जगह निश्चित रूप से जब हम घर से बाहर निकलते है तो घूमने में खाना पीना भी शामिल होता है और मौसम मानसून का हो और साथ में बच्चे तो ये मुमकिन ही नहीं है की खाना पीना ना हो वो पिकनिक स्पाट जैसा है और लोग उसी के लिए वहा जाते है | मानसून के पूरे मौसम में आप को वहा हर शनिवार और रविवार को इस भीड़ का सामना करना ही होगा क्योकि ऐसी जगहों पर लहरे दीवारों पर टक्कर मार मार कर सड़क पर आती है जिसमे भींग कर लोग आन्नद लेने के लिए ही ऐसे समुन्द्र के किनारों पर जाते है | विश्वास कर सकती है तो करीये हम अब जब भी वहा जाते है मजबूरी में अपना कचरा अपने साथ घर तक लाते है क्योकि वहा कोई भी कचरे का डब्बा नहीं होता है उसे फेकने के लिए |
वैसे आप कल की बात तो नहीं कर रही होंगी कल तो बहुत बारिश थी पर दो रविवार से तो हम भी सपरिवार वहा जा रहे है हो सकता है एक दूसरे के बगल से गुजरे भी हो पर हम दोनों ही एक दूसरे को पहचानते नहीं सो मिलने से रह गये :) |
ReplyDeleteप्रवीण शाह जी, आपने बिल्कुल सही कहा। हमारी मानसिकता, नैतिकता इतनी गिर चुकी है कि उसे उठाना पहाड़ उठाने सा कठिन हो गया है। हम इतने गिर चुके हैं कि हमें अब अपनी कमियाँ नजर भी नहीं आती। जैसे कचरे व सड़ाँध के बीच रहकर हमारी नाक सड़ाँध से बेखबर जीना सीख गई है वैसे ही हम अनैतिक हो गए हैं व अनैतिकता के प्रति सहिष्णु भी। हम तभी नींद से जानते हैं जब रिश्वत या हेराफेरी कम से कम कुछ हजार करोड़ की हो, स्त्री को सरे आम नंगा किया जाए न कि बस उसे हैरान परेशान या थोड़ा बहुत पीटा छुआ जाए, सड़क पर भीख माँगते बच्चे हमें जगाते नहीं, हम तब उद्वेलित होते हैं जब कोई हमारे जैसे घर का बच्चा अगवा कर बेच दिया जाए। हम तो वे हैं जिनके समाज के चारों तरफ दर्पण भी लगा दिए जाएँ तो हम अपने बाल संवारने के अंदाज में अपनी पुरानी सभ्यता व ज्ञान की दुहाई देने लगेगें, कल का गौरव तो हमें दिखेगा किन्तु आज के अपने कोढ़ हमें तब भी नजर न आएँगे।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
अंशुमाला, हम भी सदा अपना कचरा अपने साथ ढोते पाए जाते हैं।
ReplyDeleteऔर हमसे बीस मिनट दूर रहकर भी कभी मिलना ना हुआ? यह क्या बात हुई? मैं तो हर शाम सूर्यास्त होते होते वहाँ सैर व व्यायाम कर रही होती हूँ। शनि व रविवार को ही प्रायः नहीं जाती। यदि आपको कोई श्याम श्वेत बालों वाली, सलवार कुर्ते वाली, गले से बस्ते की तरह बायीं तरफ मोबाइल/कैमरा रखने वाला पर्सनुमा लटकाए कोई चश्मे वाली मोटी स्त्री व्यायाम करती नजर आए या तेज तेज चलती या मोबाइल पर बेटियों से बतियाती नजर आए तो हाय घुघूती कहकर देख लीजिएगा!
घुघूती बासूती
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ReplyDeleteद्विवेदी जी, आपके सुझाव वाला नियम मुम्बई में पहले से ही है। देखिए।
ReplyDeleteFollowing introduction of the Greater Mumbai Cleanliness and Sanitation Byelaws 2006, it was essential for Municipal Corporation of Greater Mumbai (MCGM) to device a workable mechanism to ensure proper implementation of the byelaws. Thus, MCGM has innovated an initiative with Public-Private Partnership. MCGM has invited private security agencies to come forward take charge of few wards and deploy clean-up marshals at ward level. The clean-up marshals are specially trained with the basic information on byelaws and the basic know-how essential for doing their job in the field.
The Litter Cops:
The clean-up marshals are suppose to act as the watch dogs of MCGM who patrol all the areas within the ward to keep check on people littering the public places. They will be wearing the uniform as prescribed by MCGM and will be carrying Identity Cards with them. These marshals shall patrol the wards round the clock with special focus on chronic spots identified and they will fine the offenders who are found dirtying the city.
Salient Features:
Some of the salient features of the campaign are as follow;
1. In order to ensure that the security agency will not indulge into wrong practices, fine tickets will be printed by the MCGM itself, along with tamper proof holograms on it.
2. In one area, only one security agency will be allowed to operate.
3. All the clean-up marshals working for implementation of Byelaws will have to wear uniform, as prescribed by the MCGM.
4. The revenue model offered to the security agencies is such that; they will share 50% of the fine amount collected in each ward and will deposit the rest 50% amount with the respective ward office of MCGM.
5. The money generated by MCGM through this campaign will be further diverted to the expenses various activities for Solid Waste Management in the city, such as; provision of dustbins etc.
6. It is expected that, the citizens, elderly, college students also take part in this campaign by working as clean-up marshals in their wards through the concerned security agencies.
7. In order to ensure the effective performance, MCGM has empowered the citizens to do the third party audit of this campaign at ward level. The Advanced Locality Management groups and the other citizens’ groups and the NGOs working in the same field shall take the onus of the campaign in their respective wards and shall work in close association with the concerned security agencies and the ward officials. They can help in spreading awareness on the byelaws in their locality and also can keep an eye on the chronic spots in their locality to see whether there is any improvement as a result of the campaign.
घुघूती बासूती
्यही तो कमी है हमारे देश मे कोई भी कानून सख्ती से लागू नही होता वरना देश का नक्शा ही दूसरा होता विश्व पटल पर्।
ReplyDeleteगन्दगी फैलाना तो यहाँ भी अपराध है और दिल्ली में १०० रूपये ज़ुर्माने की सजा है . लेकिन यहाँ की आबादी और पुलिसमेंन का अनुपात बहुत ज्यादा है . फिर भी इसे रोकने के लिए जनता को जागरूक होना पड़ेगा . स्कूलों में पढाया भी जा रहा है लेकिन आमिर बाप की औलाद पढ़ती भी कहाँ है .
ReplyDeleteयही तो स्वतंत्र भारत का जन्म सिद्ध अधिकार है !!!!!!!!!!!
ReplyDeleteयह समस्या हर एक देख रहा है उससे जूझ भी रहा है पर उपाय तो दिनेश राय जी का ही कारगर हो सकता है ।
ReplyDeleteहर जगह कूड़ा फैला देख कर मन दुखी हो जाता है..
ReplyDeleteसब को अपने अपना स्तर पर सुधार करना होगा तभी कुछ हो सकता है ...
ReplyDeleteइस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - बुंदेले हर बोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी ... ब्लॉग बुलेटिन
hamari mansikata jab tak nahi sudharegi is desh ka kuchh nahi ho sakta..
ReplyDeletehttp://chahalpahal-kavita.blogspot.in/
भारत में अक्सर लगता है कि लोगों का विश्वास है कि घर में सफाई होनी चाहिये, फ़िर कूड़े को घर के बाहर या पीछे फ़ैंक दीजिये, चलेगा. एक ओर नहाना, स्वच्छ कपड़े पहनना, पूजा करना, दूसरी ओर मन्दिरों के बाहर भी हर ओर गिरा कूड़ा!
ReplyDeleteघुघुती जी,
ReplyDeleteइस जगह को कई बार फिल्मों में दिखाया गया है।
दरअसल पहले भी यहां कुछ फेरीवाले थे लेकिन बढ़ती जनसंख्या के साथ फेरीवालों की भी अब तादाद बढ़ गई है।
एक दो बार तो मैं भी श्रीमती जी के साथ वहां घूमा हूँ...सेंग-चने टूंघते हुए टहलने का आनंद भी लिया है :)
वाह घुघूती जी,क्या नब्ज पकड़ी है आपने भूखे लोगों की.कमबख्तों को अक्ल ही नहीं है की जब आबादी इतनी अधिक बढ ही रही है तो ये आखिर पैदा ही क्यों हो रहे हैं.जब इनके पास किसी बड़े होटल में बैठ कर खाने के पैसे नहीं हैं तो क्यों ये अपनी भूख दो रुपये के चने या पांच रुपये की पाव खाकर अपनी मिटाने की कोशिश कर रहे हैं.वहीँ सागर में डूब कर आत्महत्या क्यों नहीं कर लेते.पर क्या करें बिचारे दूर कहीं उनके भूखे बच्चे इस आस पर हैं की पिता अपना पेट काटकर ,खुद कम खाकर उनके लिए दो रुपये भेजेगा.पर उनको नहीं मालूम की उनकी भूख कुछ अभिजातीय वर्ग की सैर में खलल डाल रही है.यही अभिजातीय वर्ग जब दुकान से दस रुपये की ब्रेड लेता है तो उसे पन्नी में डाल कर देने को कहता है. हर चीज उसे पोली पैकिंग में चाहिए. आप बड़ी बड़ी कंपनियों के उन सामानों का बहिष्कार क्यों नहीं कर देते जो सामान प्लास्टिक की पैकिंग में देते हैं.कुछ ख़ास लोगों को अपना टार्गेट बनाने की बजाय आप वहां के सफाई विभाग को क्यों नहीं पकड़ते. क्यों आप लोकल ऑथोरिटी को नहीं कहते की इन चाट ठेले वालों को कोई ऑफिस में बैठने वाला रोजगार दे दें.जब राजा बादशाहों का जमाना था तो उनके अकेले के रहने के लिए कई कई महल हुआ करते थे.और जब वो सैर को निकला करते थे तो आमो-ख़ास सब को सड़क पर निकलने की मुनाही थी. कास ये समय फिर से आ पता तो आप की सभी समस्याओं का हल ही निकल जाता.आप भाग्यशाली हैं की ईश्वर की आप पर रहमत है की आप रोज खा पी कर घूमने की गुंजाइश रखती हैं .कई लोग दुनिया में ऐसे है जो भूखा सो रहे हैं.अब आप उनके घूमने पर भी पाबन्दी लगा दीजिये.अपने बच्चों को देने वाले चिप्स चोकलेट पर भी लगा दीजिये.और हर उस चीज पर पाबन्दी लगा दीजिये जिस से एक आम इंसान को राहत मिलती हो. जिस इलाके की आप बात कर रही हैं मैंने नहीं देखा है,मैं वहां से बहुत दूर रहता हूँ.पर क्यों नहीं आप वहां पर एक बोर्ड लगा देती की "नो एंट्री फॉर डॉग्स एंड गरीब ".यहाँ बैठ कर उन लोगों की बुराई (जो की शायद ही ब्लॉग के बारे में जानते हों )करने से बेहतर था की दो लोगों को हायर कर आप .उस कबाड़ को उठवा देते ,तो सभी को खुद ही संकेत मिल जाता.हमारे देश की कई कमियों पर आपके लेख और उससे सम्बंधित कमेंट्स में पढ़ा.इसमें एक बुराई और जोड़ लीजिये.हम बस दूर खड़े होकर नुक्ता चीनी करना जानते हैं.समस्या का हल करना नहीं.एक शेर अर्ज कर रहा हूँ माफ़ी के साथ.
ReplyDelete"रहने को नहीं छत वे महलों को खड़ा करते हैं
ये वो जीवन हैं जो नालों में मरा करते हैं
भूख से तड़प कर वे जिंदगी को सजा कहते हैं
ये रईसों के चोंचले हैं जो गरीबी को मजा कहते हैं.
पंडित ललित मोहन Kagdiyal जी,
ReplyDeleteआपका कटाक्ष सर आँखों पर। आपको शायद जानकर दुख होगा कि प्रायः जो खा रहे होते हैं वे देखने में तो गरीब नजर नहीं आते। अनजाने में आपने अच्छे खाते पीते लोगों की तरफदारी कर दी। यहाँ खाते पीते दोनों अर्थों में, प्रत्यक्ष तो खा पी ही रहे होते हैं और खाते पीते इसलिए भी क्योंकि प्रायः मोटरसायकिल या कार किनारे पर लगाकर ही आते हैं। देखने में अच्छे कपड़े पहने हुए ये लोग यदि गरीब हैं तो फिर गरीबी रेखा को बहुत बहुत ऊपर करना होगा।
मुझे यह भी समझ नहीं आया कि कचरा फैलाना गरीबों की मजबूरी क्यों माना जा रहा है? इस पावन कार्य में हमारा पूरा समाज गरीबी, अमीरी, जाति धर्म जैसी बातों से ऊपर उठकर एकजुट होकर लगा रहता है।
मित्र, जो वर्ग आपको अभिजात लग रहा है वही बहुतों को दीन हीन लगता होगा। अमीरी गरीबी तुलनात्मक भी हो सकती है किन्तु कचरा फैलाने या न फैलाने का नियम एक एब्सोल्यूट है। उसी प्रकार किसी स्थान पर फेरीवालों को अनुमति होना या न होना भी। बन्धु, जिस प्रेम से आप फेरीवालों व कचरा फैलाने वालों की तरफदारी को तत्पर हैं वह सराहनीय है। यदि सभी इतनी आदर्श सोच रखने लगें तो सड़कों पर चलना ही दूभर हो जाएगा। अभी तक तो अधिकतर फुटपाथ फेरीवालों को ही अर्पित हैं। ये फेरीवाले दो महत्वपूर्ण काम करते हैं एक तो अपना स्वयं का धन्धा करने का और दूसरे लोगों को सामान उपलब्ध कराने का। तो फिर एक राष्ट्रीय नीति होनी चाहिए कि सड़क के दोनों तरफ फुटपाथ और उनके किनारे फेरीवालों के लिए स्थान। और शायद अगल बगल का स्थान इस काम से फैले कचरे के लिए।
आपने सही कहा कि दूर खड़े होकर नुक्ताचीनी करना ही मुझ जैसे जानते हैं। मुझमें तो जरा भी साहस नहीं है कि वहीं खड़े किसी पुलिस वाले से शिकायत करूँ। क्योंकि अधिक संभावना तो यही है कि वह भी आपकी तरह सोचेगा और सैर करने जैसे अक्षम्य अपराध करने वाली की शिकायत वह भी जो क्षुधापूर्ती करने के पावन काम में फैलने वाले कचरे की छोटी सी समस्या को लेकर हो, सुनने का कष्ट क्यों करेगा?
मैं कितना कचरा फैलाती हूँ इसका अनुमान आपको शायद है ही नहीं। प्लास्टिक व पॉलीथीन से अपने स्तर पर मेरा युद्ध जारी रहता है। हो सके तो मेरे ब्लॉग की तरफ फिर कभी भी आइएगा। एक दो लेख और भी इससे मिलते जुलते विषय पर लगभग तैयार पड़े हैं। एक कचरे व कचरा बीनने वालों पर भी।
आप आए अच्छा लगा, आपके विचार जाने। मेरी गलतियों व भूलों की तरफ मेरा ध्यान ले जाने के लिए भी आभार।
हो सके तो अपना पूरा नाम अपने लेखों या अपने परिचय में देवनागरी में भी लिखिए जिससे मुझे भी लिखने बोलने में सुविधा हो।
आभारसहित,
घुघूती बासूती
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ReplyDeleteशायद अनजाने में आपके ह्रदय को दुखा बैठा.किन्तु यदि आप एक बार अपने लेख का अवलोकन करें तो देखिये आपने कहीं भी ये स्पष्ट नहीं किया की वो कचड़ा फ़ैलाने वाले कार ,मोटर-साईकिल से आते हैं .आपके शब्दों में बार बार "फेरीवालों" शब्द की पुनरावृत्ति हो रही थी.मैं किसी भी प्रकार का प्रदूषण फ़ैलाने वालों के पक्ष में कदापि नहीं हूँ,किन्तु जब सारे इल्जामो का ठीकरा इन्ही कमजोर वर्ग के सिर पर फोड़ा जाता है तो मेरा ह्रदय द्रवित हो जाता है. ये वो लोग हैं जो अपने मौलिक अधिकारों तक से वंचित व अपरिचित हैं और हम सबसे अधिक् कर्तव्यों के प्रति प्रतिबध्ह्ता भी इन्ही से चाहते हैं.और जहाँ जहाँ भी ऐसा होते देखता हूँ मेरा ह्रदय भावुक हो जाता है और इसी भावुकता में कभी कभी अपने ही लोगों के अहम् को ,उनके उच्च होने के अधिकारों से छेड़खानी कर बैठता हूँ . जबकि जानता हूँ की -:
ReplyDeleteसबहु सहायक सबल के कोऊ न निबल सहाय
पवन जगावत आग तें और दीपक देत बुझाय.
आपकी बिना आज्ञा के एक तो आप के ब्लॉग में घुसपैठ कर बैठा और बिना सदस्यता के आपके लेख के प्रतिकूल टिपण्णी भी कर बैठा ,जरा हिम्मत तो देखिये मेरी. क्षमा प्रार्थना के साथ साथ आपकी सजा व आपके सदस्यों के कोप भाजन का पात्र बनने के लिए ह्रदय को मजबूत कर चुका हूँ.
पंडित ललित मोहन Kagdiyal जी,
ReplyDeleteमेरा ब्लॉग सबके पढ़ने टिपियाने के लिए है। यदि टिप्पणी विषय पर होगी और भाषा भद्र हो तो वह ब्लॉग पर सबके पढ़ने के लिए वहाँ रहेगी ही। टिप्पणी सदा वाह वाह कहती ही होगी ऐसा तो कोई नियम नहीं है। मेरे ब्लॉग के लिए किसी सदस्यता की आवश्यकता नहीं है।
मुझे यदि थोड़े सी आलोचना से समस्या होती तो फिर मैं ब्लॉग पर आती ही क्यों? आती भी तो वहाँ सबके टिप्पणी करने की सुविधा क्यों रखती? आप निश्चिन्त होकर जो गलत लगे उसे गलत कहिए। ब्लॉग लिखने का उद्देश्य ही यह है कि पाठक चिन्तन करें और विषय पर चर्चा और बहस करें।
आप आए आपका आभार। भविष्य में भी आएँ, आपका स्वागत है।
घुघूती बासूती
हाय लोग इतना खाते क्यों हैं? यही बात मुझे भी समझ नहीं आती। जहां खाया वहीं फेका। बहुत अच्छा आलेख।
ReplyDeleteहम अपनी गलतियाँ न मानने के आदी हैं...
ReplyDeleteजो कचरा फैला रहे है हम में से ही तो है हम दूसरों पर उंगली उठाने के बजाय अपनी गिरेबान में झाकते .डिग्रियां समेटने का मतलब यह नहीं की हम पढे लिखे है अगर ऐसा होता तो कचरे पर बहस न होती .कुछ नियम हम अपने लिए भी तो बना सकते है जैसे हम अपने आसपास कचरा नहीं करेंगे और जो कर रहे है उन्हे बार बार याद दिलाएंगे क़ि वे गलत कर रहे है आखिर देश और ये जमीन तो हमारी अपनी है न .......
ReplyDeleteशायद यह बहस यंहा ख़त्म भी हो जाये पर क्या यह गलत नहीं है ? पंडित ललित मोहन जी यह गरीबी और अमीरी की बात नहीं है लेखिका का विचार एक सभ्य और साफ सुथरे भारत के पक्ष में है यह बात हर हाल में जरुरी है कि हम अपने देश को साफ सुथरा रखें यंहा पर सिर्फ और सिर्फ यही बात लागू होती है । हम लोग आरम्भ से ही इन बातों की उपेक्षा करते रहे हैं मात्र इसी कारण से आज देश के लोगों के अन्दर इतनी हठधर्मिता आ गयी है कि हर गलत बात को वह सही ठहराने में निपुण हो गए हैं,
ReplyDeleteयंहा तक कि अगर कोई उन बातों पर देश का ध्यान भी दिलाये तो वंहा आप जैसे लोग मीन मेख निकालने लगते हैं, जो लोग बाहर रह कर कमाते हैं दो पैसे बचाकर अपने बेटे या परिवार को भेजते हैं क्या आप उनको इस कारण से इस गंभीर विषय से अलग कर देंगे कि वे गरीब हैं ?
ऐसा क्यों है कि हमें जो काम नहीं करना चाहिए उसे करने में अपनी श्रेष्ठता समझते है, सार्वजानिक स्थान पर कूड़ा करकट नहीं करना चाहिए तो वह करते हैं आखिर क्यों ?
मैंने तो वह जगह देखी नहीं क्या मै उस शहर में ही नहीं रहता पर जंहा भी रहता हूँ वंहा के हालात इससे अलग नहीं हैं । मै कोई कडवी बात नहीं लिखना चाहता हूँ पर सारे देश में अजीब सा परिवर्तन आ गया है, हमें यह सब सोचना ही होगा वर्ना हम अपने देश के समृद्ध भूतकाल को भी बिसार देंगे
अजय साहनी जी, आपने बात की गम्भीरता को समझा, खुशी हुई। कचरा कचरा ही रहेगा चाहे वह काला, गोरा, बूढ़ा, जवान, अमीर, गरीब कोई भी फैलाए और वह उतना ही भद्दा, अस्वच्छ, दुर्गन्धमय व हानिकारक होगा फैलाने वाला जो चाहे हो।
Deleteघुघूती बासूती