ये भी कोई समय है बाहर जाने का ?
बात उस समय की है जब मैं १८ या १९ वर्ष की रही होउँगी। कॉलेज की परिक्षाओं में कुछ ही दिन बचे थे।
परीक्षा की तैयारी के लिए छुट्टियाँ चल रही थीं । मैं रात भर जागकर पढ़ी थी । लगभग ५ बजे अचानक माँ घबराई हुईं मेरे कमरे में आईं और बोलीं कि पिताजी की तबीयत बहुत खराब थी । उन्हें हर्निया की तकलीफ थी और उसी के दर्द से वे छटपटा रहे थे । मैंने झट से जितने भी रुपये मेरे पास थे वे जेब में डाले और माँ पिताजी को बोल रिक्शा लेने भागी । सुबह सुबह के इस समय में बड़ी कठिनाई से एक रिक्शा वाला साथ आने को तैयार हुआ । बड़ी कठिनाई से पिताजी को रिक्शे में बैठाया और उनको पकड़े हुए मैं साथ बैठ गई । माँ को उन दिनों एन्जाइना व उच्च रक्तचाप की शिकायत थी, सो उन्हें घर ही रुकने को कहा । दर्द से छटपटाते पिताजी को बैठाए रखना कठिन हो रहा था । रास्ते में ही उनकी आँखें न जाने कैसी हो पलटने लगीं । वे बोले कि वे रिक्शे से उतरना चाहते हैं व भूमि पर मरना चाहते हैं । ना ना करते भी वे उतर गए । रिख्शे वाले भैया की सहायता से उन्हें फिर से बैठाया ।
कुछ ही देर में हम हस्पताल की एमर्जेन्सी वाले हिस्से पर पहुँचे । अब तक पिताजी की स्थिति बहुत खराब हो चुकी थी परन्तु काउन्टर पर बैठी स्त्री मुझसे फॉर्म भरवाना चाहती थी । मैंने उससे कहा कि किसी डॉ को पिताजी को देखने दो और मैं फॉर्म भर दूँगी । परन्तु वह नियम बताने लगी । मुझे एक डॉक्टर आता दिखा । मैंने उसका हाथ पकड़ा और बोला कि चलो मेरे पिताजी को देखो । वह उन्हें अन्दर ले गया और बोला ये स्ट्रैन्ग्यूलेटेड हर्निया है । अभी हाथ से ठीक कर देता हूँ । मैं बाहर आई और फॉर्म भरा । बाद में डॉक्टर मुझसे बात करने लगा और बोला कि आपने बहुत अच्छा किया जो समय पर ले आईं । कल ही एक वृद्ध इसी तकलीफ से इसी समय आया था और मेरे देखने तक खत्म हो गया ।
८ बजते बजते और डॉक्टर भी आने लगे । मुझे अचानक वे डॉक्टर दिखे जिन्होंने कुछ वर्ष पहले मेरा एपैन्डिसाइटिस का औपरेशन किया था । वे मुझसे पूछने लगे कि मैं वहाँ क्यों आई थी । मेरे बताने पर उन्होंने पिताजी को देखा और बोले कि जल्द से जल्द औपरेशन करवा लेना ही बेहतर है क्योंकि ऐसा फिर से किसी भी दिन हो सकता है । उन्होंने पिताजी को अगले दिन की ही तारीख दे दी ।
मैं पिताजी के साथ रही और अगले दिन औपरेशन के समय माँ भी आ गईं । एक मामूली सा औपरेशन था । ९ बजे वे पिताजी को अन्दर ले गए और ११ बज गए थे और कोई कुछ नहीं बता रहा था । हारकर मैं नर्स के रोकते रोकते सीधे अन्दर पहुँच गई । पिताजी की स्थिति खराब थी । डॉ एक घेरे में उनके चारों ओर थे । जिस सर्जन ने औपरेशन किया था उसने मुझे बताया कि एनेस्थिशिया या किसी अन्य कारण से उनकी स्थिति बिगड़ रही थी । एक इन्जेक्शन, जो उनके पास नहीं था, की आवश्यकता थी जो आधे घंटे के अन्दर लग जाए तो स्थिति संभल सकती है । मैंने कहा नाम लिख दो । नाम लेकर मैं माँ को पिताजी ठीक हैं व मैं दवा लेकर अभी आई कहकर भागी ।
होली का दिन था । हस्पताल की दवाई की दुकान पहुँचने से पहले ही लड़कों ने रंग दिया । दुकान में पूछा तो दवा वहाँ नहीं थी । एक औटोरक्शा करके मैं अन्य दुकानों में ढूँढने लगी । रास्ते में लड़कों की टोलियों ने रिक्शा रुकवाकर अच्छे से रंग दिया । मैं बिना प्रतिवाद किए रंगवा कर दुकानों में इन्जेक्शन ढूँढती रही । आखिर मिल गया तो उसी रिक्शे में मैं भागी वापिस आई । इन्जेक्शन डॉक्टर को दिया फिर कुछ हालत सुधरने पर उन्हें एमर्जेन्सी वार्ड में रखा गया । दो दिन बाद मेल सर्जिकल वार्ड में ले जाया गया । सारे समय मैं उनके साथ रही । मेल सर्जिकल वार्ड में स्त्री अटैन्डेन्ट का रहना मना था परन्तु मैं यह कहकर कि घर में कोई पुरुष नहीं है तो क्या वे अकेले रहेंगे , उनके साथ रही ।
मैं यह बात केवल यह बताने को कह रही हूँ किसी भी समय किसी स्त्री को चाहे काम से या जिस भी कारण से बाहर जाना पड़ता है । ऐसे में वह स्त्री होने के कारण हाथ पर हाथ धरे तो नहीं बैठ सकती ।
क्या किसी पिता को सुबह होने की प्रतीक्षा में केवल इसलिए मरने दिया जाए क्योंकि उसकी केवल पुत्रियाँ हैं या उसके पुत्र उससे दूर रहते हैं ? क्या होली का दिन होने के कारण कोई पुत्री बाहर सड़क पर पुरुषों के भय से नहीं निकलेगी और पिता के लिए आवश्यक दवाई नहीं लाएगी ?
मैं यह जानती हूँ कि मैं रात भर पढ़ने के कारण पैन्ट्स शर्ट में थी । यदि मैं फ्रॉक में भी होती तो भी वैसे ही भागती । यदि नाइट सूट में होती तब भी ।
सो किसी स्त्री को लोगों की समझ में गलत समय या गलत कपड़ों के कारण परेशान नहीं किया जा सकता । यह बहाना गलत है । यह स्त्री को भारत के नागरिकों के पूरे अधिकारों से वंचित रखता है ।
घुघूती बासूती
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अति प्रेरणादायक,
ReplyDeleteऎसी वर्णनात्मक सूक्ष्मता बहुत कम ही दृष्टिगोचर होती है । Keep it up !
बहुत अच्छा लिखा आपने ...और "स्त्री" एक बेटी माँ , बहन, पत्नी के अलावा पुरूष की ही तरह एक इंसान भी है ये बात की पुष्टि की ...
ReplyDeleteआशा है २००८ के साल में आप इसी तरह उम्दा लेखन करते हुए, स्वस्थ व खुश रहेंगीं --
स्नेह,
- लावण्या
नीरज ने है लिखा तुम्ही हो जीवल की परिभाषा
ReplyDeleteनारी बिन अस्तित्व किसी को कहाँ कभी मिल पाया
यत्र पूज्यते नारस्य, यह हमने सदा पढ़ा है
पता नहीं फिर कैसे ऐसा विषम समय है आया.
प्रिय घुघूती जी, आप की यह पोस्ट पढ़ी। बहुत उत्तरदायित्वपूर्ण है। जहाँ कुछ याद न रहे वही पूजा है बस।
ReplyDeleteप्रेम, धन्यवाद!
- विमला
आपकी बात से पूरी सहमति. उन ताक़तों की भी पोल खोलिए जो महिला-पुरुष की बराबरी के विरोधी हैं.
ReplyDeleteदुनियां कहां से कहां पहंच गई। हम भी बढ़ रहे हैं। लेकिन सोच के स्तर पर अब भी पूरे के पूरे feudal बने हुए हैं। इस सोच को तोड़े बगैर हमारा सारा विकास खोखला है, अधूरा है, अमानवीय है। बहुत ही अच्छा लिखा है आपने।
ReplyDeleteaapki post sadaiv mun ko sumbal pradaan karti hai...aabhaar
ReplyDeleteवाह जी ये हुई बात आपने तो सीधे गाडी को चौथे गियर मे डाल कर बैक कर दिया है..इससे अच्छा जवाब नही हो सकता था..पिछली छिछली कहानियो का...
ReplyDeletevery very inspiring post,yes even we r girls,we can also ahndle emergency situations and can do whateever boys can do.daughters can be as equaly responsible as sons.and they should be.great writng.
ReplyDeleteबहुत ही प्रेरणादायक लेख।
ReplyDeleteये सिर्फ मानसिकता और सोच है कि औरत कमजोर होती है ।
आपके संस्मरण ने अतीत में पहुँचा दिया और कई यादें ताज़ा हो गईं. सहज प्रवाह में जो आप जीवन के संस्मरण कह जाती हैं, किसी भी औरत के कठिन जीवन को सहज बनाने का स्त्रोत बन सकते हैं.
ReplyDeleteआपने बिलकुल सही बात रखी है समाज के सामने...औरत होना कोई अभिशाप नही है,वक्त पड़ने पर वह भी पुरूष की तरह ही हर कार्य कर सकती है...
ReplyDeleteएक जिम्मेदार बेटी का कर्तव्य जो आपने निभाया है वो स्तुत्य है. देखा गया है की बेटियाँ जिस तरह का साथ अपने माता पिता का निभा जाती हैं वो कई बार बेटों के बस का भी नहीं होता. आप के जैसी बेटी होने पर किसी भी पिता को गर्व हो सकता है.
ReplyDeleteअगर आप अपनी पोस्ट का अंत ये लिख कर ना करती तो बहुत अच्छा होता क्यों की अन्तिम वाक्य आप की पोस्ट के साथ इन्साफ नहीं करता. "सो किसी स्त्री को लोगों की समझ में गलत समय या गलत कपड़ों के कारण परेशान नहीं किया जा सकता । यह बहाना गलत है ।" इस वाक्य से आप की पोस्ट का सन्दर्भ ही बदला नजर आता है.
नीरज
प्रेरक!
ReplyDeleteकाबिले तारीफ़!
ब्लॉग का कलेवर काफी सुंदर लगा . विपदा या अवसर स्त्री-पुरूष देखकर नही आते और न ही जुझारूपन . इसलिए अपनी पहचान मर्द या औरत के रूप में नही बल्कि एक समर्थ व्यक्तित्व के धारक के रूप में बनायें . मेरी शुभकामनाएं ...
ReplyDeleteबहुत अच्छी बात आपने कही,घुघुती जी.आप केवल संवेदनशील ही नही कर्तब्यानिष्ठ भी हैं.मैं आपकी बात से बिल्कुल सहमत हूँ कि एक बेटी जिस तरह से अपने माता पिता या मानसिक रूप से जुड़े किसी भी सम्बन्ध के प्रति सेवा भाव रख और निबाह सकती हैं,साधारणतया पुरूष आदतन तनिक लापरवाह प्रवृत्ति के होने के कारन उतना नही कर paate.(वैसे अपवाद सब जगह होता है.बहुत सरे पुरूष भी इतने संवेदनशील और सेवाभाव wale होते हैं कि देख कर दंग रह जाना पड़ता है कि ,ये इतना कैसे कर लेते hain).पर स्त्री की इसी समर्त्य और शक्ति के कारण शायद सामाजिक व्यवस्था मे पारिवारिक और संबंधों के निर्वहन का उत्तरदायित्व स्त्री पर सौंपने की व्यवस्था कि गई है.उत्तरदायित्व की भावना भी मन कि होती है और उसका निर्वहन तन मन धन (जब जिसकी आवश्यकता हो) से की जाती है और इस क्रम मे पहनावे कि बात करना अनावश्यक है,नही?????
ReplyDeleteसंभवतः मेरे शिवजी के ब्लॉग पर किए टिपण्णी ने आपको इतना आहात किया है कि आपको बार बार यह दुहराने कि आवश्यकता पड़ रही है.मैं टू खोज ही रही थी कि आपसे किस प्रकार क्षमा प्रार्थना करूँ.सो आपको स्पष्टीकरण दे देती हूँ.कृपया अपनी मित्र रचना जी तक भी मेरी बात पहुँचा दीजियेगा.मैं आभारी रहूंगी.और सच कहती हूँ कि मेरी किसी भी परिधान विशेष पर टिपण्णी नही थी और न ही मुझे पाश्चात्य परिधान से कोई परहेज है. क्षमाप्रार्थी हूँ उन समस्त सुधि जानो से जिन्हें भी मेरे वाक्यांश से कष्ट पहुँचा भले प्रतिक्रिया दी हो या न दी हो.मेरा परम कर्तब्य बनता है कि मैं स्पष्टीकरण दूँ.
वर्तमान समय मी अधिकांश खबरी चैनल जिस तरह के और जिस तरह से खबरें परोसते हैं,अक्सर ही हिम्मत नही पड़ती मुख्य समाचार को विस्तार मे देखने की.सो उक्त घटना भी चलते फिरते कानो मे इसी रूप मे आई कि '' ३१ दिसम्बर की रात........... मनचलों द्वारा सामूहिक छेड़खानी की सनसनी दास्तान........'' इसके आगे न कुछ सुनने जानने की जरुरात समझी न ही इस और कोई उपक्रम किया.प्रतिक्रिया भी किसी घटना या लेख विशेष पर नही किया.नाम से जाहिर है,एक स्त्री हूँ और सचमुच नही मानती कि बलात्कार और दुर्व्यवहार केवल उन्ही स्त्रियों के साथ होता है जो कम वस्त्रों से सुस्सज्जित होने मे विश्वास रखती हैं या इन घटनाओं की जिम्मेदार स्त्रियाँ होती हैं.यह तो नारी का वह दुर्भाग्य है जो युगों से सीता द्रौपदी से लेकर स्त्री शरीर होने भर से किसी न किसी रूप मे हर स्त्री को ढोनी और भोगनी पड़ती है. किंचित यह पीड़ा,विक्षोभ,असमर्थता ही उस रूप मे फूट पड़ती है जब स्त्री स्वयं को ही कोसने लगती है कि जब तुम्हारे शरीर मे वह बल नही कि अपने बल पर अपनी शील और मर्यादा की रक्षा करने मे यथेष्ट सक्षम हो सको तो उस पुरूष समाज से क्या अपेक्षा कर सकती हो जो कभी आततायी बनकर तुम्हे अपमानित करता है,कभी दूर खड़ा तमाशबीन बना उसका आनंद लेता है और कभी निर्विकार भाव से यह मानते हुए कि पीड़ित उसका सगा नही और रक्षा करने को उद्धत होना उसका कर्तब्य नही मान लेता है.उनके बारे मे मुझे कुछ नही कहना जो रिश्तेदार होते हुए भी स्वयं को हर प्रकार से मर्यदामुक्त मानता है.इस समाज का ही हिस्सा,उसकी इकाई अपराधी,मूक दर्शक और रक्षक तीनो है.
एक अत्यन्त साधारण साहित्यप्रेमी और पाठक भर हूँ,पर कहना चाहूंगी कि यदि किसी के नाम का परचम ब्लॉग जगत मे ,साहित्य जगत मे या समाज मे रूप ,गुन,धन ,मान,ऐश्वर्यशाली व्यक्ति के रूप मे नही फहरा रहा है तो इसका यह मतलब नही हुआ कि समाज समुदाय मे व्याप्त अव्यवस्था,विसंगति या विभत्सता को देख वह विचलित नही होता होगा,उसका खून नही खौलता होगा.एक साधारण मनुष्य और लंबे अनुभवों को देख भोग चुकी स्त्री हूँ.संवेदनाएं भी रखती हूँ और समझ भी.
भेद तो ईश्वर ने संरचना से लेकर सामर्थ्य तक मे कर दिया है.स्त्री को मन धैर्य ममत्व की असीमित गुणों से समृध्ध कर और पुरुषों को भी अन्य गुणों के साथ शारीरिक बल देकर.मेरे हिसाब से स्त्री इस धरा पर असीमित सामर्थ्य से विभूषित ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना है.न दुनिया की समस्त स्त्रियाँ सच्चारित्र होती हैं न सभी पुरूष दुशचरित्र.. पर अन्तर यह है कि कुसंस्कार और अंहकार से ग्रसित पुरूष जब स्त्री को भोग की वस्तु मान अपमानित करने को उद्धत हो जाता है तो बहुत कम स्त्रियाँ अपने शील और मर्यादा कि रक्षा मे सफल हो पाती हैं.हर व्यक्ति यदि अपनी मर्यादा और कर्तब्य का पालन ही करने लगे तो फ़िर समस्या ही क्या रह जायेगी.पर हम इसकी कामना और प्रार्थना भर कर सकते हैं.तबतक अपनी रक्षा के लिए यह मानकर चलना पड़ेगा कि सभ्य सुसंस्कृत सक्षम और प्रगतिशील दिखने की होड़ हम विचार और कर्म क्षेत्र मे आगे बढ़कर तो कर सकती हैं पर जिस किसी भी परिधान और व्यवहार से उनकी पाशविक वृत्ति उभर सकती है,हमे केवल भोग्य रूप मे देखने को उत्सुक हो सकती है ,उस से परहेज करने मे कोई बुराई नही है.
क्या आप नही मानते कि हम मे से ही अधिकांश युवा और आकर्षक दिखने की होड़ मे फंसी नारी ख़ुद को '' हाट '' और ''सेक्सी'' कहलाने मे गर्व का अनुभव करती हैं.आर्थिक स्वतंत्रता,पारिवारिक उत्तरदायित्व से मुक्ति से लेकर पुरूष समाज मे व्याप्त मद्यपान,धूम्रपान या इस तरह के बहुत सारे बुराइयों को अपनाना ही पुरुषों की बराबरी करने का पर्याय मानती हैं.ये स्त्रियाँ समाज और संस्कृति को किस दिशा मे लिए जा रही हैं??किसी भी जाति,धर्म ,देश,भाषा,काल और संस्कृति की अच्छी बातें अपना कर सम्रिध्ध और प्रगतिशील नही रह सकती हम?? .चाहे पृथ्वी हो प्रकृति हो या नारी हो दोहन सदैव से ही स्त्री का होता आया है और होता रहेगा,क्योंकि देने का जो सामर्थ्य इसके पास है उसका दोहन हर कोई करना चाहता है,मौका गंवाना नही चाहता.पर इसी के मध्य पहले स्वयं को समझना,पहचानना और इसी समाज मे सबके बीच रह, अपनी अस्मिता की रक्षा का मार्ग हमे ख़ुद ही निकालना पड़ेगा.व्यक्ति या व्यवस्था को गलियां दे कोस कर जी हल्का किया जा सकता है पर उन सवालों से नही बचा जा सकता जो स्त्रियों को स्वयं से पूछना है.
अच्छा लिखा है. जिन्दगी सीखाती है. किसने कहा बेटी बेटे का स्थान नहीं ले सकती?
ReplyDeleteमुझे लगता है उस समय कोई भी ऐसे ही भागता, लड़की हो या लड़का.
ज़िंदगी के ऐसे ही कुछ खट्टे मीठे, अच्छे बुरे अनुभव आपको को परिस्थितियो से झुझने का संबल प्रदान करे हैं....आप सचमुच बेहद प्रेणना दायी अनुभव लिखती हैं........
ReplyDeleteप्रेरणा दायक
ReplyDeleteभगवान सबको ऐसी ही बेटी दे और हर बेटी को ऐसी ही हिम्मत दे
ReplyDeleteआपका दुखद संस्मरण जिस स्री-प्रश्न से जुड़ा है, वह स्थितियां आज के सिनेमाई मर्दवादी दौर में और भी चुनौतीपूर्ण हो चली हैं। जरूरत इनके खिलाफ और ज्यादा मुखर होने की है. पहली बार आपको पढ़कर जान सका। नमस्कार।
ReplyDeleteआप के पिता जी स्वस्थ हो कर घर लौटे जान ker achhaa lagaaa......shirt pant galat pahanaavaa nahii...aaap kii himmat kii daad detii hun
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है.
ReplyDeleteजैसे जैसे आपकी बात आगे बढती गई मुझे लगा कि वाइल्ड वैस्ट के किसी काउ ब्वाय की कहानी सुन रहा हूं। मैं कल्पना कर रहा था कि जैसे जैसे समस्या बढती गई आपकी ऊर्जा भी बढती गई होगी और अंतत: आपने सभी समस्याओं को निपटा कर अपनी हैट सीधी की और अपनी पिस्तौल की नाल से निकल रहे धुएं को फूंक मारी होगी।
ReplyDeleteजिन्दगी के ऐसे अनुभव हमें और अधिक जीवंतता दे जाते हैं यह सीधा-सीधा डोपामीन सीक्रेशन और उसके बाद के आनन्द से जुडा है। इसकी महत्ता टीन एज में अधिक होती है। इसलिए यह आपके लिए यादगार अनुभव बन गया।