स्त्री व हमारा समाज 3
मैंने बहुत पहले दो चिट्ठे स्त्रियों व हमारे समाज में उनके स्थान व उनकी समस्याओं आदि पर लिखे थे । मैं यह श्रृंखला चालू रखना चाहती थी परन्तु आलस्य जैसे किन्हीं कारणों से चालू नहीं रख पाई । कल जबसे मैंने मुम्बई वाली घटना के बारे में सुना है तब से उबल रही हूँ । किन्तु मैं जानती हूँ उबाल की स्थिति में कुछ लिखने पर बाद में पछताना भी पड़ सकता है अत: कल अपने लेखन को मैंने केवल टिप्पणियों तक सीमित रखा ।
खुल्लमखुल्ला मोलेस्ट करेंगे हम इनको
इस धरती पर नहीं जीने देंगे हम इनको
जमकर बेइज्जत रोज करेंगे हम इनको
जन्मने से पहले मार डालेंगे हम इनको
चैन से ना जीने देंगे कहीं भी हम इनको
जीवित जला डालेंगे जब चाहे हम इनको ।
भारत के एक बहुत बड़े पुरुष वर्ग का स्त्रियों के प्रति यह नारा बन गया है ।
मुझे लगता है कि हमारे समाज में स्त्रियों का अस्तित्व, उनकी अस्मिता, उनका जीने का अधिकार ही संकट में पड़ गया है । उनपर अत्याचार भ्रूण की अवस्था से लेकर मरने तक होता है । इस विषय पर पूरी चर्चा होनी चाहिये परन्तु आज का लेख मुम्बई की घटना से ही सम्बंधित रखने का यत्न करूँगी ।
भारत में जो हो रहा है वह अधिक निन्दनीय इसलिये भी है क्योंकि जो अपराध अन्य देशों में पुरुष अकेले में सबसे छिपकर करते हैं, वे अपराध भारत में ये संयुक्त रूप से एक भीड़, समूह या समाज का हिस्सा बनकर खुल्लमखुल्ला करते हैं । माना अपराध तो अपराध ही रहेगा चाहे वह एकान्त में हो या भीड़ में ! परन्तु जब वह अपराध खुल्लमखुल्ला होता है तो वह चोरी से डाके समान बन जाता है । चोरी से बचने के रास्ते निकाले जा सकते हैं परन्तु डाके से नहीं । चोर से मनुष्य इतना भयभीत नहीं रहता जितना डाके से । फिर जब वही अपराध सार्वजनिक स्थान पर एक समूह के रूप में किया जाता है तो पीड़ित व्यक्ति जान जाता है कि उसे समाज में से कोई भी बचाने नहीं आएगा, कि वह निरीह और अकेला है । उसे अपनी निरीहता पर या तो क्रोध आएगा और वह कोई फूलन देवी बन जाएगा या वह अवसाद में घिर जाएगा, या हीन भावना का शिकार हो जाएगा, या फिर स्वयं कठोर व निर्मम हो जाएगा और जिसपर
भी वश चले उसपर अन्याय करेगा ।
मुम्बई की घटना में सामूहिक शारीरिक शोषण, मानसिक व भावनात्मक शोषण हुआ । उन स्त्रियों व उनके साथ के पुरुषों के आत्म सम्मान को जबर्दस्त चोट पहुँचाई गई । कोई आश्चर्य ना होगा जब ऐसे भुक्त भोगी कन्या भ्रूण को जीना ना देना चाहें । मुझे तो तब भी आश्चर्य नहीं होगा जब वे स्त्रियाँ पुत्रों को भी जन्म देना ना चाहें । इतनी कम उम्र में संसार का इतना विकृत चेहरा देखना और उससे ऊपर उबरना कोई सरल काम न होगा ।
कुछ मित्रों व सखियों ने इन स्त्रियों के वस्त्रों पर आपत्ति उठाते हुए उन्हें अधनंगी होने के कारण अपने पर यह मुसीबत स्वयं बुलाने का जिम्मेदार ठहराया है । कुछ ने रात के उस समय घर या होटल से बाहर निकलने को गलत बताया है । कुछ ने आधुनिक, पाश्चात्य सभ्यता को इसका कारण माना है । ये सब मिथक हैं व इन्हें हम केवल अपने आप, अपने समाज, अपने देश, प्रदेश को निर्दोष ही नहीं निष्पाप साबित करने के लिए उपयोग करते हैं ।
जहाँ तक अनुचित वस्त्रों की बात है तो हमारी साड़ियाँ व छोटे से ब्लाउज भी इस लिहाज से कोई बहुत सही नहीं हैं । यदि वस्त्रों के कारण ऐसा होता तो शकुन्तला व उसकी सखियों को तो जब तब ऐसी घटनाओं से गुजरना पड़ता । क्या आज तक किसी साड़ी, सलवार कमीज या बुर्के वाली का बलात्कार नहीं हुआ ? गाँवों में जिन स्त्रियों को डाकिन, चुड़ेल, डायन आदि कहकर सारे गाँव में पीटते हुए नंगा घुमाया जाता है, जिनका सिर मुँडवा दिया जाता है, क्या वे पाश्चात्य कपड़े पहनती हैं । भारत के विभाजन के समय व अलग अलग दंगों में जिन स्त्रियों के साथ बलात्कार हुआ क्या वे अधनंगी घूम रही थीं ?
जहाँ तक समय की बात है तो बहुत से भारतीय त्यौहार, आदिवासी नृत्य आदि भी रात के समय ही मनाए जाते हैं । क्या किसी ने दिन में होते गर्बे की बात सुनी है ? तो क्या इन सब में भाग लेती स्त्रियों के साथ भी यही सब किया जाएगा ?
जो हर बुरी बात में पाश्चात्य सभ्यता का रोना लेकर बैठ जाते हैं उनसे अनुरोध है कि वे वहीं रुक जाएँ जहाँ वे विदेशियों के आगमन से पहले थे । ना पाश्चात्य दवाई खाएँ, ना पाश्चात्य वाहनों, जैसे बसों, कारों आदि में बैठें ।
क्या यह सब करने से क्या हमारा समाज आदर्श समाज बन जाएगा ? क्या भारतीय सभ्यता हर बुराई के लिए रामबाण है ? यह वही सभ्यता है जिसमें एक अन्य सभ्यता वाली स्त्री, शूर्पनखा के राम व लक्ष्मण से बारी बारी अपने से विवाह करने के प्रस्ताव भर से उसकी नाक काट दी गई थी । यहाँ दिन रात लड़के / पुरुष लड़कियों / स्त्रियों के सामने ना केवल विवाह जैसे आदरपूर्ण प्रस्ताव अपितु आती क्या खंडाला या फिर कई अन्य धृष्टतापूर्ण प्रस्ताव आए दिन रखते रहते हैं । क्या उन सबकी नाक काट दी जाती है या काट दी जानी चाहिये ? नहीं, आदर्श नारी को तो ऐसे प्रस्ताव पर शरमाकर वहाँ से भाग जाना चाहिये । फिर राम लक्ष्मण ने भी ऐसा ही क्यों नहीं किया ? क्यों ये दोहरे मापदंड बनाए गए हैं ? उस पर तुर्रा यह कि हमारा समाज विश्व में सबसे अच्छा , सबसे अधिक नैतिक , सबसे पुरातन और न जाने क्या क्या है । होगा , अवश्य होगा । परन्तु ऐसी भुक्त भोगी स्त्रियाँ भी क्या यह बात मानेंगी ? जब भी स्त्रियों के बराबरी के मुद्दे उठते हैं तो तोते की तरह आप लाख उन्हें बताएँ कि यह वह देश व संस्कृति है जहाँ "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता:" को मूल मंत्र मानकर चला जाता है, परन्तु क्या कोई इस बात को मानेगा ? शायद मानेगा, परन्तु मानेगी कोई भी नहीं !
सच तो यह है कि हमसे बड़े पाखंडी संसार में कहीं नहीं पाए जाते । स्त्रियों को पूजते हैं और फिर जब मन में आए उसे मूर्ति की तरह तोड़ देते हैं फिर खंडित मूर्ति की तरह उसे फेंक देते हैं । यह वह देश है जहाँ शायद हम अपने बेटों को सिखाते हैं कि नारी केवल एक माँस का टुकड़ा है, एक गुड़िया है, उससे खेलो, उसे नोचो या मुँह में ही डाल लो । या फिर जब मन चाहे उसे जला डालो । ऐसे ही पुरुष हमारे आज और कल हैं, हमारे भाग्य विधाता हैं । शायद हमारे नेता भी हों या बन जाएँ ।
वाह ! "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता:" क्या पूजा की हमने इन मेहमान स्त्रियों की !
इस विषय पर पुरानी पोस्ट्स....
१ ऐसा क्यों होता है http://ghughutibasuti.blogspot.com/2007/09/blog-post_06.html
२ स्त्रियों के मुद्दे पर .. कुछ प्रश्न कुछ उत्तर http://ghughutibasuti.blogspot.com/2007/09/blog-post_07.html
हर समाज की तरह हमारे समाज में भी गुण व अवगुण थे व हैं । समझदारी इसमें है कि गुणों को संभाल कर रखा जाए व अवगुणों को त्याग दिया जाए । यदि किसी और समाज से कुछ गुण मिलते हैं तो उन्हें ग्रहण किया जाए । और जो भी करें या ना करें किसी अन्य के जीवन के साथ खिलवाड़ को किसी भी मूल्य पर बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिये ।
http://१ ऐसा क्यों होता है http://ghughutibasuti.blogspot.com/2007/09/blog-post_06.html
http://२ स्त्रियों के मुद्दे पर .. कुछ प्रश्न कुछ उत्तर http://ghughutibasuti.blogspot.com/2007/09/blog-post_07.html
घुघूती बासूती
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
bahut sateek likha hai aapne. striyon ke prati jitanee hinsaa aur apmaan janak raviyaa hindustaan me hai shayad hee kisee doosare desh me ho. jis paschim ko hamaare hindustaanee bhai/bahan itanee gaali dete hai, vahaa aurat ka ek vyaktee ke roop me kahii jyadaa sammaan hai.
ReplyDeleteआपसे पूर्णतः सहमत हूँ। मुझे लगता है कि सेक्स की अनतृप्त चाह हमारे पुरुष समाज के एक बड़े वर्ग में कुंठा का स्वरूप ले चुकी है जो गाहे बगाहे इन घृणित कृत्यों के रूप में बाहर निकलती है कभी भीड़ की ओट ले कर तो कभी एकांत में.
ReplyDeleteमुंबई की घटना शर्मनाक है और कलंक है. उसके बारे में देख सुन कर खून खौल उठा.
ReplyDeleteमुझे उम्मीद थी कि आपने ठोस विचार रखे होंगे पर इस एकतरफा और पूर्वाग्रही मत से सहमत नहीं हो पा रहा हूं. आपने सिर्फ भड़ास निकाली है. एक बात और कि सारे मर्द भेडि़ये नहीं हैं. वे लफंगे सिर्फ एक कुठित वर्ग का हिस्सा हैं और बहुसंख्यक पुरुष वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करते.
आपकी सिर्फ इस बात से सहमत हूं कि हमारा समाज पाखंडी है.
सहमत होना ही पड़ेगा आपकी बात से! पाखंडी ही है हम।
ReplyDeleteआज ही ममता जी की पोस्ट पर मैने लिखा था कि हम दुहरी मानसिकता लेकर जी रहे हैं। वही बात यहां भी कहना चाहूंगा।
पक्का लिखते वक्त आपका चेहरा सोच सोच कर गुस्से से लाल रहा होगा :)
मॉलेस्टेशन और आतन्कवाद के पीछे एक सी मनोवृत्ति है।
ReplyDeleteमैं ऐसी ही पोस्ट की किसी महिला ब्लॉगर से आशा करता था। मैं आप से खुला नहीं हूँ, इसलिए नहीं बोला। अन्यथा मैं ने अनिता कुमार जी से आग्रह किया था कि इस घटना पर आप का गुस्सा पोस्ट में उतारिए तो सही।
ReplyDeleteआज आप की पोस्ट पढ़ कर तनिक संतुष्टी हुई। वास्तविकता यह है कि हम एक पुरुष प्रधान समाज में जीते हैं। महिलाओं को बराबरी का दर्जा देना, कानूनों में उन का समावेश भी पुरुष प्रधान समाज का एक ढोंग मात्र है। महिलाओं को बराबरी का दर्जा खुद प्राप्त करना होगा। कुछ परिवारों में कैसे महिलाऐं बराबरी का दर्जा प्राप्त कर लेती हैं? यह मैं ने देखा है। समाज में भी जब तक ऐसा नहीं होता ऐसी घटनाऐं दोहराई जाती रहेंगी।
जहाँ तक कम कपड़े पहनने का प्रश्न है। आज भी अनेक ऐसे प्रारंभिक समाज हैं जहाँ महिलाऐं पुरुषों की तरह केवल कमर पर ही वस्त्र पहनती हैं। लेकिन वहां तो ऐसा नहीं होता। क्यों कि उन समाजों में महिलाओं को बराबरी का अथवा उस से ऊंचा दर्जा हासिल है। वास्तव में महिलाओं को शरीर ढक कर रखने की सलाह देना या उस के लिए कोई सामाजिक या धार्मिक नियम बनाना पुरुषों द्वारा महिलाओं पर आधिपत्य स्थापित रखे रखने का ही एक तरीका है। अन्यथा ये नियम दोनों के लिये बराबरी के क्यों नहीं हैं। पुरुष इतना कमजोर है कि वह अपने फूहड़पन पर काबू नहीं रख सकता और समाज में अपने आधिपत्य का सहारा ले कर उस का दोष महिलाओं पर ही डालना चाहता है। वही पुरुष परिवार और परिचितों के बीच कैसे खुद को काबू में रख पाता है? खुद में अधिपति होने का बोध ही फूहड़पन को जन्म देता है।
आप को इतनी अच्छी पोस्ट के लिए साधुवाद।
mam
ReplyDeleteyou have penned down emotions that all woman bloggers are feeling
सम्मानित , अपमानित होती हूँ मै
ReplyDeleteसम्मानित , अपमानित होती हूँ मै
क्योंकी मै स्त्री हूँ , माँ हूँ , बहिन हूँ , पत्नी हूँ
उनसे तो मै फिर भी लाख दर्जे अच्छी हूँ
जिनका कोई मान समान ही नहीं हैं
जब भी
सम्मानित , अपमानित होती हूँ मै
जिन्दगी की लड़ाई मै , आगे ही बढ़ी हूँ
औरो से उपर ही उठी हूँ
नहीं तोड़ सके हैं वह मेरा मनोबल
जो करते है सम्मानित , अपमानित मुझे
क्योंकी मैने ही जनम उनको दिया है
दे कर अपना खून जीवन उनको दिया है
दे कर अपना दूध बड़ा उनको किया है
नंगा करके मुझे जो खुश होते है
भूल जाते है उनके नंगेपन को
हमेशा मैने ही ढका है
"आपसे पूर्णतः सहमत हूँ। मुझे लगता है कि सेक्स की अनतृप्त चाह हमारे पुरुष समाज के एक बड़े वर्ग में कुंठा का स्वरूप ले चुकी है जो गाहे बगाहे इन घृणित कृत्यों के रूप में बाहर निकलती है कभी भीड़ की ओट ले कर तो कभी एकांत में."
ReplyDeleteमै सहमत हू मनीश जी से..पहले शायद हमारी अपनी सामाजिकता के वश कुछ किस्से भी कम थे और शायद बाहर भी कम आते थे..लेकिन अब खुलापन बढा है तो पशु भी ज्यादा खुल गये है..अपनी पाशविक हरकते करने मे...
हमारे पाखण्ड का नतीजा है यह. हमने अपने साथ १०-१२ मुखौटे रखे हुए हैं. जगह और भीड़ के हिसाब से उसे बदलते रहते हैं.
ReplyDeleteजब आपको लगता है की कोई अपने मन में आपके प्रति शक लिये हुए है तो आपका जीना हराम हो जाता है. एक पुरूष के नाते ऐसी घटना के बाद लगता है हर महिला कहीं मुझ में भी भेड़िये को तो नहीं देखती होगी. मन ही मन शक करती होगी. सारी पुरूष जाति अपमानित होती है ऐसे घटनाक्रम से.
ReplyDeleteGHUGHUUTI JII,JALTEY MUN PAR AAPKI POST NE KUCHH CHIINTE DIYE HAIN...DHUUAN AB BHI UTH RAHA HAI.....AAPNEY HUM SABKEY BHAAV SAAMNEY RAKH DIYE...BAHUT AABHAAR
ReplyDeleteआपने इस पर बहुत ही खुल कर और सटीक लिखा है।
ReplyDeleteपूरी तरह से सहमत हूं आपकी टिप्पणी से.
ReplyDeleteचान्द और मंगल ग्रह पर पहुंचने की चाह रखकर भी हम आदि मानव से भी गयी गुजरी स्थिति में क्यों हैं ?
विकास व प्रगति की परिभाषा क्या है समझ ही नही आता .
अंतत: जिम्मेदारी तो हम सभी की है.
सभी लोग पहले ही काफ़ी कुछ कह चुके… अब तो सिर्फ़ इतना ही कहना चाहूंगा कि आपने "समाज के ठेकेदारों को उधेड़कर रख दिया", बेहतरीन लेख्…
ReplyDeleteआपकी बात सही है कि भारतीय सभ्यता स्त्री के लिए कोई रामबाण नहीं है पर मैं यहाँ स्पष्ट कर दूं कि हम जब इस विचार करें तो किसी एक ग्रंथ का हवाला नहीं दे सकते, क्योंकि इस संस्कृति का विकास चरणबद्ध हुआ है और किसी में भी स्त्री के साथ ऐसा अन्याय करने का समर्थन नहीं है जैसा आजकल हो रहा है. आजकल समस्या यह है कि पाश्तात्य और पुरातन सभ्यता के बीच जो द्वंद है उसमें सबसे अधिक परेशानी स्त्रियों को ही झेलनी पर रही है और यह देखकर दुख होता है.
ReplyDeleteदीपक भारतदीप
You hit the nail on the head --
ReplyDeleteAbsolutely correct !