बच्चों का खो जाना एक हृदयविदारक घटना होती है। जिस परिवार का बच्चा खो जाता हैं उनका जीवन तो जीते जी नरक बन जाता होगा। मुझे लगता है खोने में मिलने की आशा की किरण चाहे रहती है परन्तु जब बच्चा सालों साल घर नहीं लौटता होगा तो अनिश्चितता और बच्चे के साथ क्या हो रहा होगा सोच सोचकर माता पिता व परिवार के सदस्यों की हालत बहुत दुखद होती होगी। मृत्यु होने पर रो धोकर उस सत्य को अन्त में मान लिया जाता है। उस दुख के साथ जीना सीख लिया जाता है।
हर बड़े शहर में माता पिता सदा इस बात के प्रति सजग भी रहते हैं और भयभीत भी कि उनका बच्चा कहीं खो न जाए। मुझे याद है जब मैं अपनी सवा साल की बेटी को लेकर पहली बार मुम्बई पहुँची तो सबसे पहले उसे अनजान व्यक्ति की धारणा सिखाई। निर्लज्जता से यह बताया कि कुछ लोग अपने होते हैं कुछ पराए। इससे पहले उसे यही पता था कि सभी अपने होते हैं। पहले ही दिन वह जाकर एक भिखारिन से बड़े प्रेम से बातें करने लगी। लगभग उसका हालचाल पूछने के अंदाज में। तब स्ट्रैंज मैन, स्ट्रैंज वुमैन व अंकल, आँटी में अंतर बताया। बिजली के बिल की लाइन में खड़ी वह मुझसे पूछती कि क्या यह व्यक्ति अंकल है या स्ट्रैंज मैन !
कल जब मैंने पढ़ा कि अहमदाबाद स्टेशन में बाल सहाय केन्द्र के पोस्टर लगाए गए हैं और पुलिस कर्मचारियों को जब कोई अकेला बच्चा नजर आता है तो वे उससे पूछताछ कर उसको घर पहुँचाने की कोशिश करते हैं, बहुत खुशी हुई। पुलिस इंस्पैक्टर डी बी जाडेजा को जब नौ वर्ष की एक बच्ची स्कूल यूनिफॉर्म में कन्धे पर बैग लटकाए स्टेशन पर घूमती दिखी तो उन्होंने उसे बुलाया, उसके रोने पर उसे चुप कराया और बाल सहाय केन्द्र का बोर्ड उसे दिखाया। फिर पूछने पर उसने बताया कि उसे जबर्दस्ती स्कूल भेजा जाता था सो वह अपने घर हिम्मतनगर से भाग आई थी। उसे उसके घर पहुंचाया गया।
छह महीने पहले एक बारह वर्ष का बच्चा इस केन्द्र में आया और उसने बताया कि चार लोगों ने उसका अपहरण कर लिया था और वह उनसे बचकर भाग आया है। पुलिस को उसकी कहानी पर शक तो हुआ परन्तु उन्होंने राजकोट में उसके घर फोन कर पता किया तो पता चला कि माँ के उसकी शैतानी पर डाँटने पर वह घर छोड़कर आ गया था। अब सहायता लेने के लिए उसने कहानी बनाई थी। खैर, जो भी हो उसे अपने माता पिता से वापिस मिला दिया गया।
सरकार व पुलिस की सहायता से यह केन्द्र चलाया जा रहा है। सन २००८ में इस केन्द्र ने ११५ बच्चों को उनके माता पिता के पास पहुँचाया। यदि यह केन्द्र ना होता तो इन ११५ बच्चों का भविष्य क्या होता सोचकर ही कंपकंपी हो आती है।
भारतीय मानवाधिकार समिति के अनुसार भारत में प्रति वर्ष ४५,००० बच्चे खो जाते हैं। इनमें से ११,००० कभी नहीं मिलते। नेशनल सेन्टर फोर मिसिंग चिल्ड्रन के अनुसार घर छोड़कर भागने वाले बच्चों की संख्या १०,००,००० प्रति वर्ष है। अर्थात हर ३० सेकेन्ड में एक बच्चा घर छोड़कर चला जाता है। एक अनुमान के अनुसार केवल १० प्रतिशत मामलों में ही पुलिस के पास रिपोर्ट दर्ज करवाई जाती है। कैसी विडंबना है कि बच्चे अपने ही घर को छोड़कर दर दर की ठोकरें खाने को तैयार रहते हैं। यदि इसमें से कुछ प्रतिशत बच्चे भी असामाजिक तत्वों के हाथ आ जाते होंगे तो भी स्थिति की भयावहता का अनुमान लगाया जा सकता है। क्या यह बेहतर नहीं होगा कि बच्चों को फिल्म व डॉक्यूमेन्ट्री के द्वारा घर छोड़ने के भयानक परिणामों से अवगत कराता जाए? यह बात भी सोचने की है कि बच्चे घर छोड़कर क्यों जाते हैं? आज जब हम वयस्क संतान पर वृद्ध माता पिता की देखभाल का उत्तरदायित्व कानूनन डालना चाहते हैं तो माता पिता अपने ही जन्मे बच्चे के उत्तरदायित्व से कैसे मुक्त किए जा सकते हैं?
मुझे लगता है आज के कम्प्यूटर के युग में खोए बच्चों को जब तक कोई अपहृत नहीं कर लेता अपने घर पहुँचाना इतना कठिन भी नहीं होना चाहिए। यदि सभी खोए बच्चों का एक फोटो सहित डैटा बेस बना लिया जाए तो जब भी कोई बच्चा रेलवे स्टेशन में या सड़कों में अकेला जीवन यापन करता दिखे तो उसकी फोटो को यहाँ डालकर मिलान किया जा सकता है। यदि यह सुविधा सब थानों में ना भी हों तो भी मुख्य नगरों में बनाई जा सकती है और उनकी सहायता छोटे थाने भी ले सकते हैं। ऐसे सॉफ्ट वेयर होंगे भी और बनाने असंभव भी नहीं होंगे।
इसके लिए एक और काम भी किया जा सकता है। जैसे सभी करदाताओं को पैन नम्बर दिया जाता है वैसे ही जन्म का पंजीकरण करवाते समय एक स्टील के पैन्डेन्ट या ऐसी ही शरीर में पहनने योग्य वस्तु में बच्चे की नागरिक संख्या भी दी जा सकती है। वहीं इस संख्या के साथ पंजीकरण केन्द्र के कम्प्यूटर में माता पिता का पता आदि भी लिखा जा सकता है। यह सब जानकारी कम्प्यूटर में रहे और समय समय पर पता बदलने के साथ माता पिता उसे सही करवाते रहें तो समस्या का सरल समाधान हो सकता है। पैन्डेन्ट बच्चे के गले में तब तक पहनाया जा सकता है जब तक वह बड़ा ना हो जाए। बड़े होने पर भी वह पर्स में रखा जाए तो दुर्घटना आदि होने पर तुरन्त पता चल सकता है कि वह कौन है और परिवार को सूचना दी जा सकती है। सब खोए बच्चों का अपहरण नहीं हुआ होता। शायद बाद में वे गलत हाथों में पड़ जाते होंगे। ऐसे में एक बड़ी संख्या में बच्चों को उनके घर पहुँचाया जा सकता है। शायद यह उपाय व्यवहारिक न हो तो ऐसे में हमें व्यवहारिक उपाय ढूँढने होंगे। इसके लिए लोगों से सुझाव माँगे जा सकते हैं।
काम कठिन तो हो सकता है किन्तु कोई भी कीमत बच्चों की सुरक्षा से बड़ी नहीं हो सकती। खोए बच्चों का बचपन तो खो ही जाता है और यदि वे जीवित रहें तो उनका शेष जीवन भी शायद गुमनामी में ही बीतता होगा।
नोटः ये आंकड़े समाचार पत्र व नैट से लिए गए हैं। गल्तियों की संभावना हो सकती है।
घुघूती बासूती
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आप बहुत ही सधा हुआ लिखती हैं. आपने एक ऐसा मुद्दा उठाया है जिससे करीब से मैं भी जुड़ी रही हूँ, बच्चे अक्सर भला बुरा में बहुत ज्यादा अंतर नहीं कर पाते हैं, घर से किसी बात को लेकर बार बार कहने से अक्सर उन्हें गुस्सा आ जाता है और इसी गुस्से में वो घर छोड़ कर चल देते हैं. अगर लोग और पुलिस थोड़े से जागरूक हों तो ऐसे बच्चे घर पहुंचा दिए जा सकते हैं क्योंकि वो अक्सर उसी शहर में कहीं पर होंगे. पर हाँ ऐसे बच्चे जो बहुत छोटे हो और अपने घर का पता न बता सकें, उनके पास कोई न कोई ऐसी पहचान तो होनी ही चाहिए जिससे उन्हें वापस घर पहुँचाया जा सके. एक डाटाबेस बनाना जरूरी तो है, पर देश की जनसँख्या इतनी है की अभी तक वयस्क लोगों के बारे में पूरी जानकारी का डाटाबेस तक नहीं बना है. ऐसे में यह कार्य थोडा मुश्किल लगता है.
ReplyDeleteहाँ ये डाटाबेस तैयार करने वाला तरीका बहुत कामयाब रहेगा ...वैसे अब तक जितने भी बचचेघर पहुंचाए गए वो भी एक बहुत बड़ा काम है ...माँ बाप को भी बच्चो की अच्छी तरह देख रेख करनी चाहिए
ReplyDeleteबहुत अच्छे मुद्दे को उठाया है आपने अपने आलेख में ... आंकडों को देखकर काफी ताज्जुब हुआ ... माता पिता की बातों को न समझकर गुस्से में घर छोडनेवालों के साथ अक्सर हादसे हो जाते हैं ... खासकर बच्चों की उम्र 15 वर्ष से कम की होने पर ... चूंकि सरकारी , गैर सरकारी या अन्य किसी संस्थाओं की कोई रूचि उस बच्चे को घर पहुंचाने में नहीं होती है ... इसलिए तो वे गलत हाथों में पड जाते हें ... आपके बताए तरीके व्यावहारिक तो लग रहे हैं ... पर सरकार को रूचि दिखानी पडेगी ... तभी इस दिशा में काम हो सकता है ... जिस दिन ये उपाय होने लगेगे ... अभिभावक की चिंता दूर हो जाएगी।
ReplyDelete"किन्तु कोई भी कीमत बच्चों की सुरक्षा से बड़ी नहीं हो सकती। "
ReplyDeleteसच कहा है आपने...सोलह आने सच...इसके लिए जो भी उपाय संभव हों किये जाने चाहियें...एक सार्थक और विचारोतेजक लेख है आपका.
नीरज
http://groups.google.com/group/kidsmissing
ReplyDeletecheck this link please may be u will find it of use
regds
rachna
आपके इस पोस्ट ने सोचने पर मजबूर कर दिया. आपसे पूर्ण सहमती है. रचना जी ने एक गूगल समूह का लिंक दिया है, उसे भी देखा. उसी पेज पर एक और लिंक है एक संघठन की जो इसी काम में लगी है. यदि ऐसे ही संघठन हर शहर में बन जाएँ तो एक अच्छा खासा डाटा बेस बन सकता है और आपसी तालमेल से प्रभावकारी भी साबित होगा. ऐसे असहाय बच्चों के बारे में विचार मंथन हेतु प्रेरित करने के लिए आभार.
ReplyDeleteसार्थक
ReplyDeleteपुलिस और सरकार के सहयोग से सभी नगरों में इस तरह की सेवा आरंभ की जा सकती है।
ReplyDeleteआलेख में बहुत अच्छे मुद्दे को उठाया है।
ReplyDeleteअहमदाबाद का यह प्रयास सराहनीय है। काश हर शहर में यह मुहिम चलाया जाता।
कुछ दिनों पहले मैं भी ऐसा ही कुछ सोच रहा था. अपना बच्चा हो गया है तो सोच में बहुत फर्क आ गया है. यदि देश में सोशल सिक्योरिटी नंबर जैसी कोई व्यवस्था हो तो किसी और पृथक व्यवस्था की ज़रुरत ही नहीं. न वोटर कार्ड, न राशन कार्ड. हर आदमी एक नंबर में बदल जायेगा मगर इससे निश्चितता भी बनी रहेगी और बेहतर डाटाबेस भी. सोचिये इससे अपराध पर भी रोकथाम लगेगी और लालफीताशाही भी कम हो जायेगी.
ReplyDeleteविशेष और विशिष्ट लेख
ReplyDelete---
चाँद, बादल और शाम
गुलाबी कोंपलें
sahi aisi muhim har shahar mein ho,bahut achhi jankari mili aur nagrik number denewali baat bhi bahut achhi lagi.
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक आलेख लिखा आपने. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
shayad aapne yahan un bachchon ka paksha nahi chhua jo paida hote hin jaan boojh kar kho jaate hain.
ReplyDeleteआपके ये विचार तो सचमुच स्वागत योग हैं......इस और तो जल्द-से-जल्द ही काम होना चाहिए....इन बातों को जहां तक संप्रेषित कर सकता हूँ...करूंगा....!!
ReplyDeleteआप ने बहुत ही सुंदर बात कही है, बच्चे के जन्म से ही उस के बारे पुरी जानकारी सरकार को रखनी चाहिये, ओर भारत के हर नागरिक के पास उस का पहचान पत्र होना चाहिये, जो १० साल तक हो फ़िर उसे नया बनबाना चाहिएय, ओर हर व्यक्ति की अंगुलियो के निशान उस के पहचान पत्र मै होने चाहिये, ओर यह अंगुलियो के निशान सब से बडी पहचान होती है, ओर जिस मै कोई धोखा घडी भी नही हो सकती, मेरे पास पहचान पत्र है, पासपोर्ट भी, ओर नये वालो पर आईंदा हम सब की उंगलियो के निशान भी होगे, जो सब से बडी पहचान है
ReplyDeleteधन्यवाद
अरे भाई ये तो आपकी ज्यादती है ! आप उस सामर्थ्यवान और तकनीकी रूप से दक्ष तथा कुशल, प्रशासन से अपेक्षा कर रहीं हैं , जोकि अपने 'नागरिकों' की पहचान ही सुनिश्चित नहीं कर सका है ! फिर उन 'नागरिकों' के खोये हुए 'बच्चों' की पहचान ?
ReplyDeleteएक अच्छे लेख , बचपन और उसके भविष्य की चिंता के लिये ह्रदय से आभार !
चाईल्डलाईन फोन नं. १०९८ जैसी सुविधा स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद से कई शहरों में चल रही है । यह फोन मुफ़्त होता है ।
ReplyDeleteबचपन से ही अस्मिता को एक संख्या और कम्प्यूटर के आंकड़ों से जोड़ देना मुझे अनुचित लग रहा है । फिर इन अस्मिताओं की 'चोरियां' भी होनी लगी हैं । दो अरब भाई जिनका 'सरनेम' सितम्बर ११ के किसी अभियुक्त से मिलता था , FBI को लाख सफाई देने के बावजूद परेशानियों से मुक्त न हो सके थे । पुअन्र्विचार की यदि गुंजाईश हो...
श्रीमान अफलातून जी , लिखने से पूर्व ही माफ़ी चाहूँगा क्योंकि प्रतिक्रिया आपने घुघूती बासूती जी से चाही थी और उन्होंने दी नहीं ! अब आप दोनों के बीच तीसरा मैं ? सरासर अशिष्टता है इसीलिए अग्रिम क्षमा मांग ली है ! मुझे लगता है कि आपकी टिप्पणी को प्रतिक्रिया मिलनी ही चाहिए !
ReplyDeleteमेरे भाई हम सारे के सारे इंसानों के अस्तित्व को "समाज नाम का वर्चुअल कम्प्यूटर" "पैदा" होते ही एक पहचान दे डालता है अब ये बात अलग है कि वह पहचान 'अंकों' के बजाये 'अक्षरों' में "कोडिफाई" होती है ! कभी सोचिये इस कोडिफिकेशन के बिना क्या होता ? आप जानते हैं कि हर सिविल सोसाइटी और सरकार इस "पहचान" को ही जानती हैं मुझे या आपको नहीं !
जहाँ तक एफ.बी.आई. वाला मुद्दा है उसका क्या ? अमेरिकन समाज तो इतना विकसित है कि सिखों और मुसलमानों का अंतर भी नहीं समझता ! उसे सांकेतिक पगड़ी और दाढ़ी भ्रमित करती है तो सरनेम की बात ही क्या है ! वैसे दो अरब लोगों के समान 'सरनेम' ही क्या ? यहाँ तो छै अरब लोगों को समान 'स्तनपाई' कह कर भी गिरफ्तार किया जा सकता है ?
इसलिए घुघूती जी के "बच्चों को पहचान देने वाले प्रस्ताव" को सैद्धांतिक स्तर पर भी खारिज करने की आपकी मांग पर पुनर्विचार करने की कृपा करेंगे ! क्योंकि पहचान समाज दे और कम्प्यूटर उसे 'दर्ज' करे इसमें बुराई क्या है !
पुनः प्रतिक्रिया के लिए खेद सहित !
आपका सुझाव इस सम्बन्ध मे विचारणीय है,साथ ही एक और सुझाव --- हर रेल्वे स्टेशन ,बस स्टॆंड आदि जहाँ पर भी सार्वजनिक रूप से दूरदर्शन का प्रसारण होता है वहाँ गुम हुए बच्चों के साथ उनके माता-पिता की फोटो का भी प्रसारण किया जा सकता है , जिससे अगर कहीं बच्चा उन्हे देखे तो वापस घर लौटने की भावना प्रबल हो (किसी भी वजह से लापता हुआ हो---स्वयं या अपहरण) अपहरण के मामले में अपहरण कर्ता बच्चे के माता-पिता को बमुश्किल ही पहचानते होंगे ।
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