घर से निकले तो तीन दिन हो गए परन्तु कल ही दिल्ली पहुँचे । उस आधे बचे दिन को ना गिनकर आज को ही पहला मान रही हूँ । आज ही AIIMS में डॉक्टर से मिलना था । फोनकर लिया था घर से चलने से पहले भी और दिल्ली से भी । नौ बजे पहुँचने को कहा था । सो दौड़ते भागते पौने नौ बजे ही पहुँच गए । अन्य डिपार्टमेन्ट्स की अपेक्षा यहाँ कम भीड़ है । परन्तु जो भीड़ है वह हृदय को विचलित कर रही है । छोटे छोटे बच्चे इलाज के लिए पहुँचे हैं । माता पिता न जाने कैसे अपने बच्चों के दुख के साथ जी रहे हैं । फिर न जाने दिल्ली या भारत के किस हिस्से से किस आस के साथ इन्हें लेकर यहाँ आए हैं । कुछ भाग्यवान कार से आए होंगे, शेष बस या रिक्शे से । एक माँ अपनी सुन्दर व शरीर से बेहद स्वस्थ दिखने वाली बच्ची के साथ है । वह बच्ची कभी भी कोई भी आवाज निकालती है । मुझ जैसों के लिए केवल निरर्थक हृदय दहला देने वाली चीख परन्तु शायद माता पिता के लिए कुछ अर्थपूर्ण। धीरे धीरे देखती हूँ कि वे भी उसकी आवाजों को समझ नहीं पाते । उसकी गति विधियों से लगता है कि शायद autestic हो । वह बार बार अपनी हरकतों को दोहराती है । किसी का छूना या बात करना उसे पसन्द नहीं । कभी कभार किसी अन्य बच्चे पर थोड़ा सा आक्रामक हो जाती है ।
एक अन्य बच्चा है बेहद दुबला पतला व शान्त । पिता उसे व्यस्त रखने को उसे पैन व कागज देते हैं । वह कागज पर बहुत अधिक झुककर लिखता है । आँखें कागज से लगभग चिपकी हुईं । मुझे स्कूल में अपने बच्चों को ऐसा करने पर टोकना व उन्हें आँखें चैक करवाने को कहना और बहुत बार उनका चश्मा लगवाना याद आ रहा है । इन बच्चों में भी मुझे अपने स्कूल के बच्चे दिख रहे हैं । मन करता है कि उनसे बोलूँ और खेलूँ और उनकी डॉ की प्रतीक्षा को थोड़ा सहनीय बना दूँ । नहीं जानती कि प्रतीक्षा तो अभी शुरू ही हुई है ।
एक अन्य बच्चा है जिसकी आँखें पलटी सी हुईं हैं । शरीर का एक भाग ठीक से काम नहीं करता । पिता और चाचा उसे बहला रहे हैं । वे उसे बंगलौर और बनारस भी दिखा लाए हैं । कुछ ऐसे ही दो और बच्चे हैं । एक बेहद बेचैन २४ वर्षीय बच्चा, हाँ बच्चा ही है । अपनी माँ को हैरान परेशान किये हुए है । ग्यारह बज रहे हैं अभी तक डॉक्टर नहीं आईं हैं । साढ़े ग्यारह पर अभी भी नहीं । लगभग पौने बारह बजे लम्बे लम्बे डग भरती व थकी सी डॉक्टर आतीं हैं । बड़ी आशा से लोग एक दूसरे का नम्बर पूछ रहे थे । परन्तु डॉक्टर नए मरीजों से शुरू करती हैं । समझ नहीं आता कि क्यों । मुझे तो लाभ ही होगा परन्तु नए मरीज का पूरा इतिहास जानने व पहले कराए इलाज की फाइल देखने में बहुत समय लगता है । जबकि पुराने मरीज से हाल चाल पूछकर दवाई बदलकर या जो भी चिकित्सा चल रही है उसे चालू रखने को कहने में कम समय लगेगा । पहला नया मरीज अन्दर है । आधे घंटे से अधिक हो गया है । २४ वर्षीय बेचैन बच्चा बार बार पूछ रहा है कि उसकी बारी कब आएगी । माँ ने उसकी ओर से मुँह मोड़कर दूसरी तरफ कर लिया है । पिता यहाँ वहाँ घूमकर मन बहला रहा है । आखिरकार मरीज बाहर आता है, अगला मरीज अन्दर जाता है । उसे भी अन्दर गए ४० मिनट हो जाते हैं । २४ वर्षीय जाकर कमरे के अन्दर झाँक आता है । यह मरीज बाहर आता है तो अन्दर से पुकार आती है कि मरीजों के रिश्तेदार अन्दर जाएँ उनसे कुछ प्रश्न पूछे जाने हैं । शायद कोई मेडिकल छात्र अपनी रिसर्च के लिए उनसे प्रश्न पूछना चाहता है । छोटे से कमरे में रिश्तेदार चले जाते हैं । बेचैन बालक एक बार फिर अन्दर का चक्कर लगाने जाता है और वहीं बैठ जाता है । पिता किसी तरह से उसे बाहर लाता है ।
कई मरीजों के रिश्तेदार अपना दुख एक दूसरे को सुनाकर बाँट रहे हैं । कुछ मेरे कानों में भी पड़ता है । बेचैन बच्चा अपनी माँ द्वारा बताई बातों को सुन रहा है, कहीं कहीं वह माँ द्वारा बताए वृतांत को सही कर सुनाता है । 'नहीं मम्मी, मैं तब १२ साल का था जब बीमार पड़ा था । ग्यारह का नहीं । अब मैं २४ का हो गया हूँ । पर जाने क्यों ठीक ही नहीं होता। तब से तो इलाज चल रहा है ।'उसके पीछे बैठी महिला किसी मन्दिर में जाने की सलाह देती है । 'वहाँ का पुजारी हर पूर्णिमा को इलाज करता है । काफी अन्तर पड़ जाता है उसके इलाज से । मैं अपने लड़के को भी लेकर गई थी अब देखो कितने आराम से बैठा है। यहाँ का इलाज रोको मत पर वहाँ का भी शुरु कर दो ।' बेचैन बच्चे का पिता पता नोट करता है ।
रिश्तेदार बाहर निकलते हैं ,एक और मरीज अन्दर जाता है। उसे भीतर गए भी लगता है युग बीत गए हैं। बेचैन बहुत बेचैन हो गया है । वह कहता है, 'घर चलो । फिर कभी आएँगे ।'माँ के घर जाने से इन्कार से वह बहुत परेशान हो जाता है । कहता है,'जबसे मैं पैदा हुआ हूँ यहीं बैठा हूँ ।' कोई भी मुस्करा नहीं पाता । सब एक दूसरे की पीड़ा को समझते हैं । कुछ भी हास्यास्पद नहीं लगता । शायद सिवाय अपने मनुष्य व बीमार होने के !
दो बजे मेरी बारी आती है । मैं लज्जित हूँ क्योंकि बहुत से बच्चे अब भी बाहर बैठे हैं । बेचैन अन्दर आकर बैठ जाता है । मैं कहना चाहती हूँ कि आप पुराने मरीजों को देख लीजिये, ये जल्दी निबट जाएँगे । तब तक बेचैन सलाह देता है,'आन्टी, डॉक्टर आन्टी, पहले बच्चों को देख लो ना !' डॉक्टर मुस्कुराकर कहती है,'सबको बारी बारी देखूँगी । पहले नए मरीज देख रही हूँ ।'मेरे कहने को कुछ नहीं बचता । बेमन से अपने बारे में व अपने कष्टों को बताकर वहाँ से भागना चाहती हूँ । परन्तु वे विस्तार से जानना चाहती हैं सो बताती हूँ । ऐसा लगता है कि मैं कोई गुनहगार हूँ । वे एक टेस्ट कराने को कहती हैं जिसके लिए मुझे अगस्त में तारीख मिलती है । मैं वहाँ से छूटकर छोटे बच्चों पर नजर नहीं डाल पाती और गुनहगार सी वहाँ से सिर झुकाए निकल जाती हूँ ।
मुझे अपने गुजरात के डॉक्टर पर आश्चर्य होता है कि वे मुझे यहाँ ना भेजकर किसी निजी हस्पताल में क्यों नहीं भेज सकते थे । केवल इसलिए मुझे वहाँ भेजकर वहाँ की भीड़ और बढ़ाई क्योंकि उन्हें इस डॉक्टर पर विश्वास है । बाद में पता चलता है कि गंगाराम में इन सबकी शिक्षिका काम कर रही हैं व वही टेस्ट तुरन्त हो सकता है । सोचती हूँ कि AIIMS में केवल उन्हें जाना चाहिये जिनका इलाज और कहीं ना हो सके या जो निजी हस्पतालों का बिल ना दे सकें । ऐसे में भी पहले एक अन्य सरकारी हस्पताल होना चाहिये ताकि केवल बहुत कठिन व असाध्य रोग वाले ही वहाँ से AIIMS भेजे जाएँ । परन्तु वे क्या करें जिनके डॉक्टर उन्हें वहाँ ही भेज दें ? मैं बच्चों में इतनी उलझी थी कि इतने सारे अन्य वयस्कों व वृद्धों की ओर ध्यान ही नहीं दिया । ना ही इस ओर ध्यान गया कि कहीं कोई खाली पेट टेस्ट ना कराने हों सो चार बजे तक मैंने कुछ खाया पीया भी नहीं था । अब कुछ खाने का मन भी नहीं हो रहा था । सोचती हूँ कि अपने बच्चों या किसी प्रिय के बीमार पड़ने से स्वयं का बीमार पड़ना कितना कम कष्टप्रद है ।
घुघूती बासूती
Tuesday, April 15, 2008
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hospital में मरीजों और उनके अभिभावकों की भीड़ के बीच उनकी मनोव्यथा का सटीक चित्रण किया है आपने.
ReplyDeleteपर कुर्सी पर बैठने वाले के पास भी दिल होता है, ये कुछ लोग ही समझ पाते हैं.
यह अनुभव हमने भी किये हैं, पर इतना बढ़िया कभी न लिख पाये।
ReplyDeleteसमझ पा रही हूँ घुघुती जी । अस्पतालो मे जाना अब एक वेदना सी लगती है ।
ReplyDeleteबहुत मार्मिक लेख !
बहुत ही सटीक बात कही आपने.. ऐसे अनुभव तो पहले भी हुए है.. आपके लेख से वे पुन जीवंत हो गये.. बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता है आपका लेख.. बहुत अच्छे
ReplyDeleteओह!! मार्मिक!! बेहद संवेदनशील
ReplyDeleteRajesh Roshan
ओह!! मार्मिक!! बेहद संवेदनशील
ReplyDeleteRajesh Roshan
........ જે પીડ પરાઈ જાણે રે !
ReplyDeleteAIIMS हो या कोई अन्य हॉस्पिटल मरीजों की हालत देख कर मन व्यथित हो जाता है।
ReplyDeleteबहुत ही मर्मस्पर्शी लेख।
ऐसी संवेदनशीलता आजकल गायब होती जा रही है। बधाई की आप में यह बची हुई है।
ReplyDeleteकितनी अच्छी हो आप!
ReplyDeleteअस्पताल और बड़े अस्पताल के अनुभव है मुझे अपने पिताजी के बीमारी के दौरान के!! वाकई दिल दुखने लगता है।
संवेदनशील हृदय के संवेदनशील उदगार.
ReplyDeleteghughuti ji aapne jo chitran kiya hai vah bahut marmik hai,dil ko chulene wala,haa aksar marijo ke saath lamba intazaar chipak jata hai,marijo se hame puri kya bahut hamdardi hoti hai,magar hum doctor ajit ji se sehmat hai,marij ye kyun bhul jate hai ki docor ko bhi dil hota hai.
ReplyDeletewe work nonstop on our emergencydays oemtimes 2days 3days continuesly,without eating,we also get tired,still we smile and do our duty,then why patients never co-operate with us,i agree kuch marij saath dete hai,90 percent nahi.
दिल को छू लेने वाली पोस्ट...
ReplyDeleteपराई पीङा से दो-चार कराने वाले ये अस्पताली अनुभव यह अहसास कराते हैं दुनिया में इतने सारे लोग हैं जिन्हें सहायता की, सहानुभूति की जरूरत है।
ReplyDeleteईलाज की सुविधा तो सबको मिलनी चाहिए,बिना किन्तु- परन्तु के.
ReplyDeleteये पोस्ट ऐसी है की मेरे पास कुछ कहने को ही नही है..
ReplyDeleteजिस पीढ़ा से वे बच्चे और उनके अभिभावक गुज़रते हैं , वही जानते है...
आपकी संवेदनशीलता को सलाम!
ReplyDeleteदुखती रग को दबा दिया.....!!!!
ReplyDeleteHi Ghughuti Ji,
ReplyDeleteDo not have Hindi software so writing in English. What was the problem with "baichen bachcha"
It was so heart touching to read about him. People of his ages must be doing what not with their life and to think about it.....
It is not fair.
--Priti.
बेनामी जी,
ReplyDeleteमुझे जो समझ आया इसके अनुसार शायद मिरगी के दौरों से वे पीड़ित थे । शायद दवाइयों ने उनकी सोच विचार की क्षमता को सीमित कर दिया था । डॉक्टर बहुत से मिरगी के बच्चे मरीजों के लिए loboctomy या किसी ऐसे ही औपरेशन की सलाह दे रहीं थीं । कई मरीज इसकी चर्चा भी कर रहे थे ।
मैं तो इतना ही जानती हूँ कि मैं भाग्यवान थी जो केवल अपनी पीड़ा झेल रही थी, न कि अपने बच्चे या प्रियजन की !
घुघूती बासूती