क्यों मुक्त हो जाने से तुम डरते हो
पर बन्धन के नाम से बिदकते हो,
बान्धूँ या छोड़ूँ तुम्हें, ओ मीत मेरे
क्यों इस निर्णय से सिहरते हो ?
तुमने रच डाला है शब्दों का जाल
अब उसमें ही तुम आ फंसते हो,
जब फंस जाते हो तो तड़पते हो
कसूँ या छोड़ूँ तुम्हें तुम्हारे ही हाल ?
चाहत मेरी कोई ऐसी तो न थी कि
करना पड़ता तुम्हें सबकुछ ही वार,
कुछ शब्दों को ही था माँगा मैंने
फिर चलती क्यों यूँ दिल पर धार ?
ना चाहा था कुछ लेना देना
तेरे जग में ना माँगा मैंने स्थान,
फिर क्यों लगता कि चोर हूँ मैं
ले भागी तेरे हृदय को अपना मान ?
घुघूती बासूती
Tuesday, March 25, 2008
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इसलिये लगता है की चोर हो तुम
ReplyDeleteभागी हो लेकर हृदय का दान
क्योकि बन्धन की चाह सिर्फ़ तुमको थी
चाहें बंधी हो तुम या बंधा हो तुमने
इसमे क्या है फरक
कहा तों तुमने ही था
चलो प्रीत करे सामजिक व्यवस्था के सुपुर्द
कुछ शब्दों को मांगो तुम या माँगा जीवन भर का साथ
माँगा तुमने दिया मेने फिर क्यों आज
गलानी हैं तुमको
सच कहो क्यों बन्धन रहित
नहीं एक हो सकते थे हम
पुरूष को बाँध कर पुरूष से बाँध कर
ही क्यों होती हैं नारी पूर्ण
बताओ प्रिये प्रश्न
तुम्हारा हमेशा क्यों
रहता हैं अधूरा
mehek ने कहा…
ReplyDeleteshayad ek nari ka pyar bhara bandhan koi purush nahi samajh sakta,wo koi sankhal nahi hotajis mein nari usse bandhana chahti hai,wo ek khula aakash hota hai jis mein wo apna aashiyan sajati hai,ghughuti ji bahut bhav sampurna,bahut khubsurat kavita hai,aur prashna ka teer sidha kisi ko chubh gaya lagta hai uparwali tippani padhkar.
ना चाहा था कुछ लेना देना
ReplyDeleteतेरे जग में ना माँगा मैंने स्थान,
फिर क्यों लगता कि चोर हूँ मैं
ले भागी तेरे हृदय को अपना मान ?
--अरे, कुछ पुराने अनुभाव ऐसे रहे कि आदतन डरने लगे.
मुझे तो लगता है दोनो ही एक दूसरे के हृदय को चुराये बैठे होते है...यह सब गलत बात है नारी कुछ नही चाहती है आज तो जमाना बिलकुल बदल गया है...दोनो ही बराबर है और दोनो की चाहत दोनो की जरूरत भी बराबर हैं...त्याग भी दोनो ही करते हैं दर्द भी दोनो को ही होता है एक दूसरे बिछड़ने का बस फ़र्क इतना है नारी मन कोमल होता है आँखो में गंगा-यमुना बहती रहती है और पुरूष चाह कर भी रो नही पातें...:)
ReplyDeleteप्रेम में बन्धने का अपना एक नशा होता है.वो मीठा दर्द, प्रेम करने वाली नारी ज़िन्दगी भर अपने दिल में संजो कर रखती है.हां कभी कभी किस्मत से पुरुष भी स्वत: ही प्रेम बन्धन में बंधने को उद्दत हो उठता है.
ReplyDeleteachchi rachna ke liye badhayi....hindi men nahin chap pa raha hun....
ReplyDeleteachchi rachna ke liye badhayi....hindi men nahin chap pa raha hun....
ReplyDeleteनिश्चित रूप से डर मनुष्य का विवेक और साहस दोनों को नष्ट कर देता है , अच्छी रचना , बधाईयाँ !
ReplyDeleteबढ़िया रचना है
ReplyDeletesundar
ReplyDeleteबहुत खूब
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