समलैंगिकों के बारे में व जो परिवार वे रचते हैं उनके क्या जीवन मूल्य होंगे इसकी चिन्ता करता हुआ एक लेख पढ़ा।
हर प्राकृतिक वस्तु लाभदायक ही है यह धारणा अपने लाभ के लिए वनस्पति से बनी अपनी औषधियाँ, साज सज्जा शिंगार का सामान, चेहरा, बाल, शरीर चमकाने वाले सामान बेचने वालों की फैलाई अफवाह है। प्रकृति जहाँ ममतामयी माँ बन हमें अपने भरण पोषण का हर सामान उपलब्ध कराती है वहीं वह यम बन हमारी मृत्यु का हर सामान भी उपलब्ध कराती है। बीमारियों के कीटाणु, बीमारी फैलाने वाले परजीवी, मनुष्य को हानि पहुँचाने वाले साँप बिच्छू, बड़ी संख्या में मारने वाले भूकम्प, बाढ़, तूफान, सूखा प्राकृतिक ही होते हैं। तरह तरह के विष भी प्रकृति में पाए जाते हैं। भाँग, तम्बाकू, धतूरा ही नहीं एल्कोहोल भी प्राकृतिक रूप से पुराने सड़ते फलों जैसे अंगूरों में बनता पाया जाता है। क्या हम हर फल तोड़कर खा सकते हैं? शहरी लोग शायद सोचते होंगे किन्तु सब फल खाए नहीं जाते। शहरी जिन फलों को नहीं जानते उन्हें छोड़िए रीठा जिससे बाल व कपड़े धोए जाते हैं वह भी फल है और उसे खाया नहीं जाता। सामान बेचने के लिए कही गई लाइन 'नैचुरल है तो अच्छी है' विज्ञापन के लिए ही ठीक है।
मनुष्य का इतिहास ही प्रकृति की हर वस्तु को अपने अनुरूप ढालने और आवश्यकता पड़ने पर प्रकृति से संघर्ष कर उसे अपने अनुकूल बनाने का इतिहास है। किसी जमाने में हमारा चौपाया होना ही प्राकृतिक था न कि दो पैरों पर चलना। हमारा नग्न रहना प्राकृतिक था न कि अन्य जानवरों की खाल अपने ऊपर लपेट लेना। हाथों का उपयोग ही हम तब कर पाए जब हम प्रकृति विरुद्ध जाकर दो पैरों पर चलने लगे। यही बात हमें पशुओं से अलग करती है। प्रकृति को साधते हुए, उसे हानि पहुँचाए बिना ही मानव सभ्यता चलती रह सकती है। यदि हम प्राकृतिक क्या है और अप्राकृतिक क्या है पर विचार करें तो समझेंगे कि पूरी तरह से प्राकृतिक व्यवहार को सही मानने से तो समाज चलेगा ही नहीं। क्योंकि.......
१. प्राकृतिक है शक्तिशाली का अशक्त पर शासन।
२. प्राकृतिक है शारीरिक रूप से अधिक बलशाली, लम्बाई चौड़ाई में बड़े नर का मादा पर, हर उपलब्ध मादा पर शासन, जब चाहे जिस किसी से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करना या करवाना, अप्राकृतिक है विवाह की संस्था।( किन्तु शायद इसी अप्राकृतिक संस्था ने मानव को आज की स्थिति/ ऊँचाइयों तक पहुँचाया है। )
३. प्राकृतिक है बीमार होना, अप्राकृतिक है इलाज, औपरेशन।
४. प्राकृतिक है स्त्री पुरुष के बच्चे पैदा होना, अप्राकृतिक है परिवार नियोजन।
५. प्राकृतिक है बीमार, निर्बल बच्चों का बड़े होने से पहले मरना, समय से पहले जन्मे बच्चों का मरना, किसी भी प्रकार के विकार वाले बच्चे का मरना, अप्राकृतिक है उन्हें बचाना।
६. प्राकृतिक है कपड़े न पहनना, अप्राकृतिक है कपड़े पहनना।
७. प्राकृतिक है इन्सटिंक्ट को मानना, अप्राकृतिक है नियम, कानून, धर्म को मानना।
प्रकृति बहुत क्रूर होती है, उसके नियम मानें तो जैसे भिन्डी के पेड़ पर भिन्डियाँ लगने, पकने, सूखकर बीज तैयार होने के बाद पेड़ का कोई काम नहीं बचता और प्रकृति अपनी कुशलता दिखाते हुए उसे वापिस खाद बना उसकी मिट्टी बना उसे मिट्टी में मिला देती है ठीक वैसे ही प्रकृति हमें भी संतान उत्पत्ति की उम्र खत्म होने के बाद केवल उतनी ही देर जीने देना चाहती है जब तक संतान इस लायक न हो जाए कि अपनी रक्षा कर सके, वह उम्र गुजरने के बाद वह प्रायः हमें भी मिट्टी बनाने, मिट्टी में मिलाने को तत्पर रहती है। यदि हम अप्राकृतिक तरीके अपनाकर रोगों से न लड़ें, बीमार अंग की काँटछाँट कर उसे ठीक न करवाएँ, कठिन प्रसव के समय फोरसेप्स, सिज़ेरियन आदि तरीके न अपनाएँ तो संसार में क्या प्राकृतिक क्या अप्राकृतिक इस बहस को करने लायक हम रहेंगे ही नहीं।
क्या धर्म प्राकृतिक हैं? धर्म कब कहाँ प्रकृति ने उगाए? क्या धर्मों में किए जाने वाले अंगों की काटछाँट प्राकृतिक है? क्या बाल, नाखून काटना प्राकृतिक है? क्या विपरीत लिंगी प्रति आकर्षण अप्राकृतिक है? क्या उसे दबाना, रोकना, उस आकर्षण व उससे उपजी स्थिति पर सजा देना प्राकृतिक है? प्रकृति के नियम मानने वालों को तो किशोरों के विपरीत लिंगी प्रति आकर्षण पर खुश होना चाहिए न कि उन्हें अलग करना, उन्हें एक दूजे से दूर कर उन पर पाबन्दियाँ लगानी चाहिए। अपने अपने धर्म की हर अप्राकृतिक बात को तो लोग पत्थर की लकीर मानते हैं, उन्हें मानते समय तो वे प्रकृति के विरुद्ध जाने से जरा भी नहीं डरते। क्या धर्म, जाति, नागरिकता के आधार पर मनुष्य को बाँटना प्राकृतिक है? शायद कबीलाई सोच प्राकृतिक है किन्तु धर्म व जाति तो बिल्कुल नहीं।
समलैंगिकता प्राकृतिक हो या अप्राकृतिक किन्तु जब तक समलैंगिक अपनी विचारधारा, अपनी जीवनशैली की आग में अन्य को नहीं जलाते, उन्हें अपनी तरह से जीने देना ही सही है। गड़बड़ तब होती है जब समलैंगिक समाज के भय से इतरलिंगी से विवाह रचा लेते हैं। यह धोखा कर वे इतरलिंगी के साथ भयंकर अन्याय करते हैं।
जहाँ तक संतान का प्रश्न है तो जब भयंकर, कट्टर, अवैज्ञानिक, समाज के अन्य धर्मानुयायियों से शत्रुता रखने व उन्हें खत्म करने की चाह रखने व यही विचारधारा बच्चों को सिखाने और अन्य लोगों में किसी न किसी तरह फैलाने वाले लोगों को भी संतान की लाइन लगाने का अधिकार है तो अप्राकृतिक तरीके से एक या अधिकाधिक दो बच्चे पैदा करने वाले समलैंगिक संसार का क्या और कितना बिगाड़ लेंगे? कम से कम मैंने तो आज तक किसी समलैंगिक को इतरलिंगियों को खत्म करने, किसी को मारने, सताने, जलाने, जबर्दस्ती उन्हें समलैंगिक बनाने या अपनी विचारधारा फैलाने की कोशिश करते नहीं देखा सुना। वे तो केवल संसार में, समाज में, अपने लिए भी थोड़ी सी जगह चाहते हैं। हमें खतरा समलैंगिकों से नहीं, उनके छिपे रहने व इतरलिंगी से विवाह रचा एक पाखंड जीने से है और है असहिष्णु लोगों से।
जितने अपराध संसार में आज हो रहे हैं वे प्रायः इतरलिंगियों की संतानें ही कर रही हैं। गुवाहाटी में एक नवयुवती का चीरहरण करती, उसे नोचटी, सिगरेट से जलाती, उसके शरीर के साथ खिलवाड़ करती वह भीड़ क्या प्राकृतिक इतरलिंगियों की संतानें न थीं? समलैंगिकों की संतानें उनसे बदतर तो क्या होंगी? जो जन्म देने से पहले गुड्डे गुड़ियों का ध्यान रख, उनकी लंगोट बदल, बॉटल से दूध पिला बच्चा पालने का अभ्यास कर रहे हैं क्या वे अपनी संतान इन हिंसक बलात्कारियों के इतरलिंगी माता पिता से किसी तरह से भी बुरी तरह से पालेंगे? मुझे तो नहीं लगता।
घुघूती बासूती
विचारोत्तेजक पोस्ट ..
ReplyDeleteसाधुवाद.
सोचने पर मजबूर. अब यही तो कर सकते हैं. यह तो प्राकृतिक ही कहलायेगा! भिन्डी के पेड़ का उदहारण एकदम भेजे में घुस गया. आभार.
ReplyDeleteसमलैंगिकता प्राकृतिक हो या अप्राकृतिक किन्तु जब तक समलैंगिक अपनी विचारधारा, अपनी जीवनशैली की आग में अन्य को नहीं जलाते, उन्हें अपनी तरह से जीने देना ही सही है। गड़बड़ तब होती है जब समलैंगिक समाज के भय से इतरलिंगी से विवाह रचा लेते हैं। यह धोखा कर वे इतरलिंगी के साथ भयंकर अन्याय करते हैं।
ReplyDeleteBilkul sahee kaha aapne! Aise 3 wiwah maine qareeb se dekhe hain jahan ladkene apni samlaingikta chhupane ke liye shadee kar lee aur ladkee ka jeewan barbaad kiya..
excellent musings mam well balanced and 2 the point
ReplyDeleteसहमत हूँ..... हर बात विचारणीय है.....
ReplyDeleteआपने तो इतने विस्तार से इतनी अच्छी तरह समझाया है कि सबके दिमाग के सारे पट खुल जायंगे.
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा आलेख
अर्सा बाद कुछ पढ़ा जो पठनीय है ।
ReplyDeleteनिश्चित रूप से आप ने बहुत बेहतर तरीके से वो बात कह दी जो हम कहना चाहते थे पर शायद हम उतने अच्छे से वो बात कह नहीं पाये |
ReplyDeleteस्पष्ट आलेख की साफगोई प्रभावित करती है . त्रासदी सामान्य माने जाने वाले रिश्तों में भी होती है /हो सकती है !
ReplyDeleteअनुमति की प्रत्याशा में पोस्ट शेयर कर रहा हूं !
ReplyDeleteप्रकृति को भी संस्कारित किया है मनुष्य ने तभी वह जीने लायक बनी है इसीलिए उसे संस्कृति कहा गया। इसके विपरीत जो मनुष्यता के विपरीत हो उसे विकृति कहा गया। आपका विश्लेषण खूब है।
ReplyDeleteप्राकृतिक और अप्राकृतिक पर एक विचारवान लेख -कुछ अंशों से नारीवादी सहमत नहीं होंगे पक्का :-)
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया और तर्कसम्मत तरीके से अपनी बात रखी है आपने.. शतप्रतिशत सहमत
ReplyDeleteतर्क संगत बात है आपकी , दूसरे को किसी प्रकार बाधित किये बिना, कोई अपने ढंग से रहना चाहता है तो उसका वैसे रहने का अधिकार मामने में क्या हर्ज !
ReplyDeleteमाया बड़ी ठगनि हम जानी..
ReplyDeleteजी रहे हैं ! कुछ लोग प्राकृतिक जीवन भी जी रहे हैं......शौकिया तौर पर नहीं बल्कि मज़बूरी में..( : :
ReplyDeleteकुछेक विकृतियों को अपवाद के रूप में देखा जाना चाहिए अन्यथा सृष्ठी का सञ्चालन प्रकृति के खिलाप हो ही नहीं सकता है.......
@ "जितने अपराध संसार में आज हो रहे हैं वे प्रायः इतरलिंगियों की संतानें ही कर रही हैं। " प्रथम दृष्टया यह पंक्ति जाने-अनजाने में एक नये वाद को जन्म देने का प्रयास लगती है....
आभार उपरोक्त पोस्ट हेतु.
गीता जिसने सत्य को जानने के लिए पढ़ी, और यूँ समझी भी हो, वो ही संभवतः अर्थ समझ सकता है 'माया' अथवा 'योगमाया' का, जिससे हम कलियुगी आत्माएं भटक रही प्रतीत होती हैं - की प्राकृतिक क्या है???...
ReplyDeleteगीता में कृष्ण कहते हैं कि सम्पूर्ण सृष्टि उनके भीतर समाई हुई है! किन्तु 'माया' से हर व्यक्ति उनको अपने भीतर देखता है!!!
और हमारे सिद्धों/ पहुंचे हुवे वैज्ञानिकों समान आधुनिक खगोलशास्त्री भी जान गए हैं कि ब्रह्माण्ड एक अनंत आकार के बैलून समान है जो निरंतर फूलता ही चला जा रहा है... इसलिए वास्तविक कृष्ण तो यह अनंत शून्य ही है!!!
और प्राचीन हिन्दुओं के अनुसार आम तौर पर कहा जाता है कि जो भी बाहरी अनंत ब्रह्माण्ड में है, उसका सार ब्रह्माण्ड के प्रतिरूप होने के कारण मानव शरीर के भीतर भी नवग्रह के सार और अष्ट-चक्र के माध्यम से उपलब्ध है, 'गागर में सागर समान !!!...
कृष्ण भी द्वापर के, त्रेता के सूर्य के सर्वश्रेष्ठ मॉडल, पुरुषोत्तम राम समान धनुर्धर, वीर अर्जुन को समझाते हैं कि वो केवल एक माध्यम है, एक क्षत्रिय अर्थात सिपाही जिसका काम केवल तीर चलाना है (जैसे सभी सितारों समान पृथ्वी पर प्रकाश और शक्ति का मुख्य स्रोत सूर्य अपनी रश्मियों को सभी दिशाओं में प्रति पल प्रसारित कर निभाता चला आ रहा है...
और केवल युगांत पर ही उसका तीर चलाना रुक सकता है...और 'महाभारत' में भी कुरुवंश के नाश के पश्चात केवल युधिस्ठिर ही को स्वर्ग मिल पाया... अर्थात परम सत्य का आभास पृथ्वी/ शिव के मॉडल को होना ही संभव हुवा...
अप्राकृतिक होना तभी तक अच्छा है जब यह अपने भले के लिए होने के साथ-साथ किसी को नुकसान न पहुँचाये। समलैंगिक जोड़ों का किसी बच्चे को अपने सुख के लिए पालना फिर बच्चे के बड़े होने पर उनको होने वाली मानसिक पीड़ा अप्राकृतिक होने का दुष्परिणाम है। शिखा जी का लेख दमदार है वैसे ही आपका चिंतन भी सोचने के लिए विवश करता है।
ReplyDeleteबहुत ही विचारोत्तेजक पोस्ट ! जैसा भी हो इस पोस्ट के द्वारा आपने समलैंगिको का पक्ष बहुत ही उम्दा तरीके से रखा है ! प्राकृतिक क्या है और क्या अप्राकृतिक यह एकदम स्पस्ट कर दिया है कुछ प्रश्न मन में घुमड़ रहे है कि - १- उनके द्वारा गोद ले कर पालित-पोषितों की मानसिक अवस्था उस समय क्या होगी क्या वह समाज से इतर माता पिता को स्वीकार कर पाएंगे ? २- अगर उस समय तक आपके प्राकृतिक और अप्राकृतिक वाली व्याख्या समाज की समझ में नहीं आयी तो ???
ReplyDeleteचलिए, मैं आपके पक्ष में आ खड़ा होता हूं और पूर्णतया प्राकृतिक रूप से जीने की कोशिश करता हूं। अपने साथ कुछ और प्राकृतिक लोगों को जोड़ लेता हूं जो यह मानते हैं कि जिसकी लाठी उसकी भैंस।
ReplyDeleteप्रकृति में प्राकृतिक कानून ही होता है। इसे आप गलत मत समझिएगा, लेकिन व्यक्ति, समाज, राज्य और राष्ट्र के गठन के लिए कुछ नियम सिद्धांतों को अपनाना पड़ता है।
पूरे विश्व को एक गांव मानते हुए मैं खुद को विश्व का एक हिस्सा मानता हूं और पूरी दुनिया के साथ प्राकृतिक तरीके से जीता हूं। अब बलशाली होने के कारण मैं कई निर्बल लोगों की पत्नियों (यहां गायों, बकरियों, बाइक्स, मोबाइल, टीवी, निर्बल बच्चे तक शामिल हैं) का अपहरण कर उन्हें अपने पास रखता हूं। अगर कोई सत्ता मुझे ऐसा करने से रोकती है तो वह अप्राकृतिक है।
दरअसल समाज की अवधारणा ही अप्राकृतिक है। प्राकृतिक रूप से तो जंगल राज ही एकमात्र सत्ता है। आपको ज्ञात हो तो लंगूरों के समूह में जो लंगूर बलशाली और समर्थ होता है, समूह की सभी मादाओं का भोग केवल वही करता है। यह केवल स्त्री पुरुष संबंधों तक सीमित नहीं है। इसे साधनों, संसाधनों और अन्य वस्तुओं तक फैलाया जा सकता है।
समाज और राज्य जब तक सुविधाएं दे, तब तक तो वह ठीक है, लेकिन उसी के नियम जब हमारी सुविधा के आड़े आने लगें तो अप्राकृतिक हो जाते हैं...
यह पूरी टिप्पणी विषय के भीतर ही रखने का प्रयास किया गया है, इसे किसी दूसरे कोण में न मोडे़ं तो मेरी बात अधिक स्पष्ट रह पाएगी...
मैं आपके प्राकृतिक विचरण के कथन से पूर्णतया असहमत हूं...
सिद्धार्थ जोशी जी, असहमत होने की इतनी भी आदत न डालिए कि मैं जो कह रही हूँ वही बात कहते हुए भी मुझसे असहमत हैं कह दें।
Deleteमैं आपसे पूर्णतया सहमत हूँ।
कोई भी व्यक्ति जब कोई बात ऐसी कहेगा जो मुझे सही लगेगी तो मैं उससे सहमत ही होऊँगी चाहे शेष सब बातों में उससे असहमत रही होऊँ।
आभार सहित,
घुघूती बासूती
मैंने यह लेख दो बार फिर पढ़ा है, लेकिन मुझे लगता है कि मैं कुछ चूक रहा हूं। कहां चूक रहा हूं, समझ में नहीं आया...
Deleteअगर आप यह कह रही हैं कि जो बात आप कह रही हैं, वही मैं कह रहा हूं तो मुझे अभी और परिपक्व होने की जरूरत है।
अपनी टिप्पणी ने मैंने कहीं गलती की हो तो क्षमाप्रार्थी हूं...
समलैंगिकता उतनी ही प्राकृतिक है जितने नियमों के अपवाद । प्रकृति चाहती है कि हम अपनी प्रजाति को आगे बढायें ऐसे में समलैंगिकता तो अप्राकृतिक ही हुई ना ।
ReplyDeleteने = में
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