Monday, July 04, 2011

अजनबी

आ गईं तुम
फिर से?
नित आती हो
कुछ मोहित सी तुम
पल भर को तकती हो
मैं भी भ्रमित सी
विस्मृत सी,
कुछ जानी पहचानी
कुछ अपनी सी,
कुछ बेगानी
अपलक तुम्हें तकती हूँ।
जैसे जौं पर से ढेरों
भूसा हटाने पर
मिलता है
मोती सा दाना।
कुछ वैसे ही
तुम पर से हटाती हूँ
चर्बी की परतें
और हटाती हूँ
समय की रूपहली धूल।
झाड़ पोंछ तुम्हें व
अपनी यादों को
देखती हूँ
इक बार फिर से,
तो
कह उठता है दर्पण
अजनबी,
तुम जानी पहचानी सी लगती हो!
घुघूती बासूती

26 comments:

  1. कह उठता है दर्पण
    अजनबी,
    तुम जानी पहचानी सी लगती हो!

    क्या बात...क्या बात....सच समय के धूल के नीचे वो पहचानी सी सूरत सुरक्षित ही रहती है.

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  3. यादों की गर्त में बहुत कुछ छिपा रहता है ।

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  4. कह उठता है दर्पण
    अजनबी,
    तुम जानी पहचानी सी लगती हो!..
    ..सुंदर रचना,आभार.

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  5. झाड़ पोंछ तुम्हें व
    अपनी यादों को
    देखती हूँ
    इक बार फिर से,
    तो
    कह उठता है दर्पण
    अजनबी,
    तुम जानी पहचानी सी लगती हो!
    ...bahut badiya chitramayee rachna...

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  6. Aapke lekhan me ek tazagee hoti hai jo bahut achhee lagtee hai!

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  7. :):) बहुत सुन्दर ..एक समय आता है कि अपना ही चेहरा अजनबी लगने लगता है ...

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  8. दरपन झूठ न बोले.

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  9. "तुम जानी पहचानी सी लगती हो!
    घुघूती बासूती"
    आईने भी कभी झूठ बोलते हैं .....
    हाथ कंगन को आरसी क्या ?

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  10. सुंदर रचना,आभार.

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  11. ...प्यारी कविता।
    ...पल भर के लिए ही सही, खुद से जुड़ने का एहसास वाकई खूबसूरत होता है।

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  12. स्वयं से बतियाना कितना अच्छा लगता है।

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  13. ज़िन्दगी के रंग कितने भी हों लेकिन खूबसूरत चेहरे पर तो एक ही रंग अच्छा लगता है---- आत्ममुग्ध ,अत्मविश्वास --- तो आईना कैसे झूठ बोलेगा? शुभकामनायें।

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  14. बस एक वो ही तो अपनी लगती है।

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  15. यादों को कुरेदते रहे दर्पण खुद ही बोल उठेगा

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  16. क्या बात है..उम्दा!!

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  17. अति सुंदर रहस्योद्घाटन! आभार.

    कंकर जल में फ़ेंक जल के स्तर पर उठती तरंगों समान विचार आता है कि साकार मानव रूप स्वयं प्रतिमूर्ती माना गया है निराकार परमात्मा का! जो एक ही व्यक्ति विशेष के निरंतर परिवर्तनशील प्रकृति को जीवन पर्यंत प्रतिबिंबित करता है आयु के साथ भिन्न प्रतीत होते अनंत रूपों द्वारा (एल्बम में लगे एक ही व्यक्ति विशेष की जन्म से वर्तमान तक की तस्वीरों जैसे),,, जिन्हें किसी क्षण विशेष पर सीधे सादे दर्पण ही जन्म से वर्तमान तक लगभग सही प्रतिबिंबित करने में सक्षम हैं,,, किन्तु प्रकृति में विविधता का सार तो कुछेक 'जादुई शीशे' ही कर पाते हैं जिन में एक ही व्यक्ति विशेष के एक ही क्षण में हरेक में अनेक विभिन्न प्रतीत होते रूप दिख जाते हैं :)

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  18. ज़िन्दगी की भाग-दौड़ में खुद से भी अनजान होते जा रहे हैं... हम्म सही कहा है आपने..

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  19. कुछ शब्द यूँ ही अचानक एक क्षण में ही एक कविता या कविता सी कुछ या कहिए कुछ भावों को जन्म दे जाते हैं। उस दिन रश्मि के लेख पर 'क्या पता हमने देखा भी हो टी वी पर! अबकी देखूंगी तो सोचूँगी की ये तो पहचानी सी लगती हैं.' टिपियाते हुए छूटा हुआ अजनबी शब्द मन में ये भाव जगा गया। यदि ब्लॉग न होता तो किसी के सामने इन भावों को परोसने में भी झिझक होती।
    आप सबने टिप्पणी लिखकर कुछ पलों में लिखे इन भावों को इतना भाव दिया, आभार। यदि टिप्पणियाँ न होतीं तो हममें से कितने कबके हथियार डाल अपनी दुकान बंद कर खो गए होते। कभी कभी लगता है कि जैसे पाठक के बिना लेखक का होना अर्थहीन सा होता वैसे ही टिप्पणियों के बिना ब्लॉग भी सूना होता।
    घुघूती बासूती

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  20. घुघूती बासूती जी, जो आपने कहा वो मस्तिष्क का प्राकृतिक स्वभाव माना जाता है कि केवल एक शब्द विशेष ही किसी के मन को एक क्षण में ही कहीं का कहीं पहुंचा सकता है ("जहाँ न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि")...

    और प्राचीन योगी तो स्वयं 'मन' की भांति अपनी इच्छानुसार सशरीर यात्रा करने में सक्षम थे !!

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  21. सुंदर रचना,आभार|

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  22. यह कुछ कुछ आत्म चिंतन सा लगता है. बहुत सुन्दर लगी.

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  23. प्यारी सी सुन्दर सी और बहुत कुछ अपनी सी कविता ... शब्द मन को कुछ कहते हुए से है ... आत्म चिंतन या soul searching बहुत जरुरी है आज के जीवन में ..

    बधाई ..इस कविता के लिये ....

    आभार
    विजय

    कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html

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