तलाक की बात आती है तो बहुत से लोग सरलता से बात को हजम नहीं कर पाते। तलाक के साथ हम बहुत सी अन्य वीभत्स सी बातें जोड़ देते हैं। उसे कभी भी सामान्य रूप से यह मानकर नहीं ले पाते कि ये दो व्यक्ति एक दूजे के साथ खुश नहीं हैं, ये कोई असाध्य दुखी भी नहीं हैं, विवाह से पहले या हो सकता है कुछ समय बाद तक, ये हँसमुख, प्रसन्नचित्त, जीवन से खुश लोग थे। तो अब क्या हुआ कि ये दुखी हैं? यही कि अब ये विवाहित हैं, एक दूसरे के साथ रहने, एक दूसरे को झेलने को मजबूर हैं। कहीं यही तो इनके कुम्हलाए चेहरों, गायब हँसी का कारण तो नहीं है?
प्रायः लोग विवाह के बाद खुश रहते हैं। शारीरिक सुख के साथ उन्हें बात करने, सुख -दुख में साथ देने, घर, जीवन, जीवन के उद्देश्य, विचार, उत्तरदायित्व शेयर करने को कोई अपना मिल जाता है। एक ऐसा अपना जिसकी उन्नति, खुशी व सुख उनका दोनों का एक ही है।
किन्तु बहुत बार ऐसा नहीं हो पाता। बहुत बार जैसा कि हम प्रायः तलाक के मामलों में मानकर चलते हैं, दो में से एक क्रूर होता है़ / उदासीन होता है / परदुख में खुश होने वाला / क्रोधी / मारपीट करने वाला / बुरी आदतों वाला / धोखेबाज / लालची, दहेज माँगने वाला / शारीरिक या मानसिक रूप से प्रताड़ित करने वाला होता या होती है या उसके परिवार वाले ऐसे होते हैं। ऐसे में जब यह बात समाज को पता चलती है तो लोग ओह बेचारी / बेचारा कहते हैं और या तो निभाने को कहते हैं या फिर बीच बचाव, सुलह, समझाना चाहते हैं। यह सब न हो पाए तो अन्त में तलाक या अलगाव स्वीकार कर लेते हैं।
किन्तु कई बार दोनों ही ठीक ठाक सामान्य व्यक्ति होते हैं किन्तु जब साथ होते हैं तो खुश नहीं रह पाते। वे दूध व शक्कर की तरह घुलमिल नहीं पाते अपितु तेल व पानी की तरह सदा अलग ही रहते हैं। या उससे भी बुरा तब होता है जब दोनों मिलकर घातक मिश्रण बन जाते हैं और विषैले हो जाते हैं। हम तब भी चाहते हैं कि अब विवाह हो गया तो कैसे तो भी निभाते जाएँ। बच्चे हो गए हैं तो हर हाल में निभाएँ। चाहे जीवन असह्य व नारकीय ही क्यों न लगे।
न जाने हम यह स्वीकार नहीं कर पाते कि आवश्यक नहीं है कि अच्छे खासे भले लोग भी अच्छे मित्र बन जाएँ। बन भी जाएँ तो सदा मित्र बने रहेंगे इसकी कोई गारन्टी नहीं है। किसी के साथ आप समय बिताना पसन्द करते हैं किन्तु किसी से बचना चाहते हैं। किसी के साथ महीने दो महीने साल दो साल मित्रता रहती है फिर उसकी कोई बात आपको असह्य लगने लगती है।
हम मनुष्य ही क्या पशु तक रैन्डमली या अटकलपच्चू तरीके से किसी के साथ नहीं बैठते। वे भी किसी विशेष के साथ बैठना, खेलना, खाना पसन्द करते हैं। और यदि वह ही कभी गलती से भी उन्हें काट खाए तो वे फिर उससे दूर ही रहना पसन्द करते हैं। सो वे भी चुनाव करते हैं और उस चुनाव से सदा के लिए बँधते नहीं भी हैं। बहुत से पक्षी जीवन भर के लिए जोड़ी बनाते हैं। किन्तु पक्षियों में असहमति के कितने कारण या बिन्दु होंगे? क्या यह कि....
'चलो उठते हैं नाश्ता कर आते हैं।'
'न मुझे नहीं उठना अभी। रोज सुबह सुबह नाश्ता कर लो का हल्ला मचा देती हो। तुम्हें भूख लगी है तो जाओ ,खा आओ। मेरी जान क्यों खाती हो?'
'आज कौन सा दाना / कीड़ा खाएँ? धान खा आएँ या फिर पहले बरगद के फल? यह टिड्डी खाएँ या वह सुन्डी?'
'मुझसे क्या पूछते हो? तुम्हें जो पसन्द हो खा लो। मैंने क्या तुम्हारे निर्णय लेने का ठेका लिया है? न, न वह तिलचट्टा मत खाओ। फिर पेट खराब होगा तो नानी याद करा दोगे। पता नहीं माँ ने खाने की तमीज भी नहीं सिखाई।'
'मुझे तो घोंसला उन नीले फूलों व पीली पत्तियों से बना चाहिए। ध्यान रहे नीचे पीली पत्तियाँ और ऊपर नीले फूल। मैं सहेलियों के साथ जा रही हूँ, लौट कर आऊँ तो यह न हो कि सब उलट पुलट तरीके से लगा दिए हों। वर्ना मैं नहीं दूँगी अंडे तुम्हारे घोंसले में।'
'मत देना। मैं तो लाल फूलों व हरी घास से ही बनाऊँगा अपना घोंसला। रहना हो तो रहना नहीं तो मादाओं की कमी नहीं है। बहुत मिल जाएँगी तुमसे बेहतर व अधिक सलीके वाली।'
शायद यह सब उनके बीच कम ही होता होगा। सो शायद उनमें तलाक भी न होते हों। अब मनुष्य के पास इतनी चॉइस है कि बचपन से आदत बिगड़ जाती है। सैकड़ों रंग, शेड, नमूने, फाइबर, डिजाइन ही नहीं डिजाइनर भी हैं चुनने को। जबकि यदि कमीज थोड़ी कम पसन्द की हो तो चलेगी, कुर्ता भी, किन्तु पत्नी या पति नहीं। किन्तु यहाँ पसन्द मिलती है कमीज या कुर्ते की किन्तु जीवन साथी जो मिल गया सो मिल गया। अब काम चलाओ कैसे भी, झेलो।
लोग झेलते भी हैं। कभी समाज के कारण, कभी माता पिता के कारण, कभी बच्चों के कारण तो कभी अन्य आवश्यकताओं के कारण। यदि लड़ाई झगड़ा होता भी हो, व्यवहार, स्वभाव पसन्द न भी हो तो भी जीवन को सजा की तरह काटते जाते हैं। बीच बीच में कुछ मधुर पल भी आते हैं। घर में अच्छा नहीं लगता तो काम में , दफ्तर में, मित्रों, सहेलियों में मन लगाते हैं। बच्चों के भविष्य को संवारते हैं। आपस में बात न भी होती हो तो बच्चों के माध्यम से बात करते हैं, बच्चों की बात करते हैं।
किन्तु तब क्या जब उम्र के उस पड़ाव में पहुँच जाएँ जब नौकरी से रिटायर हो जाते हैं, मित्र, सहेलियाँ भी नौकरी के साथ छूट जाते हैं, बच्चे बड़े होकर अपना घर बसा लेते हैं। सहनशक्ति जवाब दे जाती है, चिड़चिड़ाहट आदत बन जाती है, एक के कान ठीक सुनते हैं तो एक के ऊँचा। ऊँचा सुनने वाला टी वी की आवाज से घर गुँजा देता है और दूसरे का रवीन्द्र संगीत उस शोर में डूब जाता है। यदि पुराना लगाव, प्यार भी न है जिसकी मीठी यादों में आज की चिढ़ भुला दी जाए। साथ रहने का कोई कारण नजर नहीं आए और दो वृद्धों का मन बस यही कह उठे कि और नहीं बस और नहीं। और सहा नहीं जाता। मुक्ति चाहिए।
क्रमशः
घुघूती बासूती
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लेकिन क्या करें, माया महाठगिनी हम जानी.
ReplyDeleteजीवन के उत्तरार्ध में यह दुखद पहलू है.
ReplyDeleteविचारोत्तेजक आलेख। अगले अंक के बाद अपनी प्रतिक्रिया दूंगा।
ReplyDeleteचिन्तन का विषय है...आलेख पूरा करिये.
ReplyDeleteपशु ही यादृच्छिक(randomly) (अटकल्पच्चू ) तरीके से सम्बन्ध नहीं बनाते -मनुष्य पर कोई नियम नहीं लागू होता !
ReplyDeleteबढियां विचारोत्तेजक चल रही है पोस्ट!
आश्चर्य है ऐसे ही वैचारिक भावभूमि में मैं पिछले तीन दिन से पड़ा रहा हूँ ...आगे पढने की उत्सुकता बलवती हो गयी है !
manviya vyahar ke sandarbh mein gahrati samvednayon ka vishleshan
ReplyDeleteजीवन उलझाते उलझाते बस यह भूल जाते हैं कि सुलझाना कब से प्रारम्भ करना है। बड़ा ही सार्थक आलेख।
ReplyDeleteबुढ़ापे का यह संभावित पक्ष बेहद डरावना है जबकि मैं अभी काफी कम उम्र हूं इसलिए उम्मीद नहीं छोडना चाहता :)
ReplyDeleteआपने अपनी बात बडे विस्तार से की। जिस समाज में पचास के बाद के दोनों आश्रमों में संसार से अलग होकर सेवा करते हुए जग छोडने की बात की गयी थी वहाँ तलाक़ जैसे हल की ज़रूरत शायद थी ही नहीं। लेकिन अंततः हम सब ग़लतियों के पुतले ही हैं, ऊपर से इस क्षणभंगुर शरीर की सीमायें!
ReplyDeleteवैसे हमारे समाज में तलाक़ के साथ स्टिग्मा लगने का एक कारण यह भी है कि हमारे अधिकांश तलाक़ आपके द्वारा शुरू में बताये कुत्सित कारणों से ही होते हैं। उनसे ऊपर उठें, तभी तो अन्य कारणों की नौबत आये। जो उठ चुके वे आपकी बात से असहमत कैसे हो सकते हैं?
सुन्दर और सामयिक लेखन। अगले अंक की प्रतीक्षा है।
कभी कभी तो अलगाव ही ज़िन्दगी से जुड़ाव का माध्यम बन जाती है... फिर कोई क्या करे.. पर सही कहा है आपने.. बचपन से ही इतने चौएस मिलते हैं.. आदत बिगाड़ देती हैं...
ReplyDeleteपरवरिश पर आपके विचारों का इंतज़ार है..
आभार
घुघूती बासूती जी, संभव है कि जो हम को 'सत्य' दिख रहा है, वो द्वैतवाद के कारण वास्तव में एक चलचित्र समान 'असत्य' अर्थात भ्रम हो - काल-चक्र के विपरीत दिशा में चलने के कारण!
ReplyDeleteजिसे वर्तमान यानी घोर कलियुग में 'आम आदमी' के लिए अज्ञानतावश मानना संभव नहीं है...
फिर भी पक्षियों के और मानव जीवन के तुलनात्मक विचार प्रस्तुति सुंदर लगी :)
कहते हैं कि योगी तो पक्षियों की भाषा समझने में सक्षम थे! अथवा, संभव है 'सतयुगी' पक्षी मानव भाषा में ही बोलते हों :)
आपका आलेख जैसे ही पढना आरम्भ किया कुछ ही दिनों पूर्व घटित घटना आँखों के सामने तैर गयी...
ReplyDeleteमेधावी बच्चा देश के अग्रणी संस्थान में इंजीनियरिंग द्वितीय वर्ष का क्षात्र था, माता पिता दोनों ही बहुत अच्छे,पर मत विभिन्नता भारी...एक दुसरे से तलाक को प्रतिबद्ध हो चुके थे..बच्चे ने उन्हें समझाने की पूरी कोशिश की और जब उसे लगा की वह इस अलगाव को नहीं टाल सकता तो बिल्डिंग के दसवीं फ्लोर से उसने छलांग लगा दी...
विचारोतेजक लेख।
ReplyDeleteकुछ महानगरीय मामले छोड़ दें तो आम भारतीय दम्पति तलाक को आखिरी विकल्प के तौर पर ही चुनता है।
अगली किस्त की प्रतीक्षा है।
ReplyDeleteयूँ तो बच्चे अब बाहर हैं और घर में केवल हम पति-पत्नी। अब यदि एक दूसरे से कुढ़ते न रहें, तो साथ का धर्म कैसे निभाएँ?
सोच रहा हूँ की यह कहाँ पहुंचाएगी. आगे की कड़ी का बेसब्री से इंतज़ार है.
ReplyDeleteJanamdin ki dheron dher badhai
ReplyDeleteघुघूती जी को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं
ReplyDeleteकह दो बस और नहीं बस और नही ' अब किसी और मरीचिका के पीछे जाना नही मुझे
ReplyDeleteकह दो बस और नहीं बस और नही
ReplyDeleteअब किसी और मरीचिका के पीछे जाना नही
घुघूती बासूती जी, जनम वार / जन्मदिन की अनेकानेक बधाई!
ReplyDeleteजन्मदिन, जनमवार की शुभकामनाओं के लिए सभी मित्रों का आभार।
ReplyDeleteघुघूति बासुति
पहली दफा आपके ब्लॉग पर आया हूँ.आपकी पोस्ट और उस पर हुई टिप्पणियों को पढकर नई जानकारी और सोच मिली.
ReplyDeleteआपके जन्मदिन का भी मुझे पता चला.मेरी आपके जन्मदिवस के शुभ अवसर पर हार्दिक बधाई और ढेर सी शुभकामनाएँ.
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है.