गेहूँ की पिसाई तीन रुपया!
सरकार गरीबी की रेखा से नीचे की आबादी को राशन में शायद २ रुपए किलो गेहूँ उपलब्ध करवाती है। सबसे पहले तो समस्या यह है कि बहुत से लोगों के पास राशन कार्ड ही नहीं होता। राशन कार्ड होने पर भी शहरों में जब गरीब मकान बदलते हैं तो यह कार्ड तभी उपयोग किया जा सकता है जब नए मकान का पता आदि दर्ज कराया जाए। इस काम के लिए मकानमालिक के साथ हुए करारनामे की आवश्यकता होती है जो बहुत से मकानमालिक उपलब्ध नहीं करवाते। मैं केवल अपनी महरी से सुनी बात कह रही हूँ, गलत भी हो सकती है।
यदि यह मान भी लिया जाए कि अधिकतर गरीबों को राशन में गेहूँ मिल रहा है तो भी उसकी पिसाई मुम्बई में १ जनवरी से ३ रुपया प्रति किलो हो गई है। रागी(मडुए)की ४ रुपए प्रति किलो हो गई है। क्या गरीब स्त्रियाँ एक बार फिर से हाथ की चक्की पर आटा पीसने को बाध्य होंगी? चार पाँच घरों में काम करने के बाद क्या वे यह कर पाएँगी?
जब खाद्यान्नों के बढ़ते हुए मूल्य मध्यम वर्ग की कमर तोड़ रहे हैं तो गरीबों की स्थिति क्या हो रही होगी?
जब से मेरी बाँह पर प्लास्टर चढ़ा है, मैं सब्जी खरीदने नहीं जा पा रही। मैंने पहले कई बार देखा था कि महरी किसी न किसी के लिए सब्जी खरीदकर लाती थी। मैंने पूछा कि क्या वह मेरे लिए भी ला देगी तो उसने कहा कि आजकल वह सब्जी खरीदने जाती ही नहीँ क्योंकि भाव इतने अधिक बढ़ गए हैं। जब अपने लिए लाती थी तब दूसरों के लिए भी खरीद लाती थी। उसने सब्जी खाना बन्द कर दिया तो क्या अब वह गेहूँ भी बिन पिसा खाने को बाध्य होगी?
चलती चक्की देख कर दिया कबीरा रोय..
तीन रुपए पिसाई के दे, रोना हो तो रोय!
घुघूती बासूती
Monday, January 11, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
अति अति चिंतनीय विषय पर सटीक व्याख्या !
ReplyDeleteस्वामी विवेकानंद ने कहा है सबसे बड़ा पाप निर्धन होना है, पर उनका क्या जो सारे देशवासियों को ही निर्धन बनाने पर आमादा हो गए है "हे इतावली माता और हे भोंदू पुत्र "!!!
Ye mahngayi jo na karvaaye.
ReplyDelete--------
बारिश की वो सोंधी खुश्बू क्या कहती है?
क्या सुरक्षा के लिए इज्जत को तार तार करना जरूरी है?
Sarkaar desh ke jansankhya niyantran ke prati atyant gambheer hai...MANHGAAYI , sabse jabardast upaay use lagti hai,isliye wah iske prati ekdam nishchint hai...
ReplyDeleteहमारे यहां तो २ रु. किलो पिसाई है . अभी तक १.५०रु थी . जब चीनी ४४ रु किलो है तो महंगाई तो बडेगी
ReplyDeleteजनता की क्या हालत हो रही है? हुक्मरानो को इस से कोई मतलब नहीं। लेकिन जनता सीख रही है वह जब देती है तो छप्पर फाड़ कर और जब लेती है तो चमड़ी उधेड़ कर लेती है।
ReplyDeleteपैसे हवा हुए जा रहे हैं और सामान गायब ...और मंत्री जी के इस पर पूछे जवाब कडवे ....
ReplyDeleteआपके हाथ में क्या हुआ ..प्लास्टर कैसे चढ़ गया ?
हमारे देशवासियों को चमड़ी उधेड़ना ही तो नहीं आता वरना कब की अक्ल ठिकाने आ गयी होती इन राजनीतिबाजों की. जब चमड़ी उधेड़ने की तैयारी होती है तभी ये जनता को और अधिक गहरे जाल में फांस देते हैं
ReplyDeleteपिसाई की सोचके सरकार दो रुपये किलो चावल भी दे रही है ! सब्जी छोड़ी ! गेंहूं भी छोड़ दीजिये !
ReplyDelete(जीबी इस मुद्दे पर कुछ दूसरे गंभीर पहलू भी हैं कभी फुर्सत से चर्चा करेंगे फिलहाल खेद सहित ऊपर वाली टिप्पणी दे दी है इसी से काम चलाइये)
रंजू जी, कार दुर्घटना हुई।
ReplyDelete>यहाँ दी है।
घुघूती बासूती
धान से मँहगी पिसाई!!!
ReplyDeleteजनता जब लेती है.....पता नहीं कब लेगी...
चलती चक्की देख कर दिया कबीरा रोय..
ReplyDeleteतीन रुपए पिसाई के दे, रोना हो तो रोय!.......
सही है,
जमीनी हालात तो और भी निराशा जनक हो चले हैं.
जिस हिसाब से मंहगाई बढ़ रही है लगता है सिर्फ हवा पर गुज़ारा करना पड़ेगा गरीब लोगों को...बहुत अच्छी और सार गर्भित पोस्ट...ये आपके हाथका फ्रेक्चर कब हो गया...???
ReplyDeleteनीरज
उन्हे तो तब भी 5-6 रुपये किलो पड़ रही है असली मार तो माध्यम वर्ग खा रहा है . देखिये कब तक बरदास्त करता है
ReplyDeleteकितनी मँहगाई बढ़ गई है....
ReplyDeleteचलती चक्की देख कर दिया कबीर रोय
ReplyDeleteमहगाई की मार से साबूत बचा न कोय
तनख्वाह बढ़ा।
ReplyDeleteएक हाथ दे, दो हाथों ले।
सरकारी खर्चे कम नहीं हो रहे। महँगाई तो बढ़ेगी ही। वैसे 2 रु. किलो एक कृत्रिम मूल्य है उसके लिए पिसाई की दर भी कृत्रिम रूप से कम कैसे हो सकती है? क्या पिसाई पर भी सब्सिडी होनी चाहिए? यह तो एक अनंत दुष्चक्र होगा।
और अब मजदूरी भी बढी है। गाँव में 110 रु और शहरों में 175 रु से कम नहीं। काम देखो तो हैरानी होती है। मुद्रास्फीति का असर तो पड़ेगा ही।
शहर का मजदूर बढ़ी हुई मजदूरी का प्रयोग दारू के ब्राण्ड बढ़ाने में कर रहा है न कि अपना हाल सुधारने में। गाँवों में मजदूर नहीं मिलते।
मेरे घर के आगे पार्क में कई बार रात को हमलोगों ने मजदूरों को महँगी कैन वाली बियर के साथ भुना मुर्गा खाते पाया है, तन पर ढंग के कपड़े नहीं,सिर पर छत नहीं, बीवी बिमारी से मर रही है, बच्चे सड़कों पर घूमते मर्द/औरत, मर्द/मर्द सम्बन्धों के पाठ पढ़ रहे हैं और मजदूर जी रोज कैन वाली दारू पी कर टल्ली हो घर लौट रहे हैं। यह मंजर अब आम हो चला है।
कहीं बहुत भयानक गड़बड़ है। मैं सोचता हूँ तो पगलाने लगता हूँ।
कई पहलू हैं लेकिन यह सत्य है कि कहीं भारी खोट अवश्य है। धनी दिन दूने रात चौगुने रफ्तार से और धनी हो रहे हैं और गरीब वहीं के वहीं हैं। राम जाने मामला क्या है?
.. उफ !
वाजिब चिंता है। गिरिजेश जी ने मेरे मन की बात कह ही दी है। उसी में इतना और जोडना चाहूँगा कि महाराष्ट्र सरकार ने अनाज से शराब बनाने की योजना को मंजूरी दी थी लेकिन अदालत ने रोक लगा दी।
ReplyDeleteशायद सरकार अपनी ही मद में मस्त है और उसे हर ओर मदांध ही दिख रहे हैं ।
Hope your plaster come off soon Ghughuti ji
ReplyDeleteyes,
the poor & even ordinery people are suffering due to many diffrent hardships nowadays.
warm regards to you & wishing for aPeaceful & healthful 2010.
बहुत सटीक लिखा आपने .. महंगाई हद को पार कर रही है .. कैसे कटेंगे गरीबों के दिन ??
ReplyDeleteयह एक ऐसा मुद्दा है जिसका जो मुद्दा ही बना रहता है. प्रश्न होते हैं, मस्तिष्क झनझनाने लगता है किन्तु उत्तर या हल फिर से प्रश्नवाचक चिन्ह बनकर सामने रह जाता है. कैसी विडंबनाहै!
ReplyDeleteमहावीर शर्मा
दो रुपये किलो गेंहूँ उनके लिए है जो राशन के धंधे में हैं न कि उन गरीबों के लिए जिनका बहाना है. गिरिजेश की बात में भी दम है मगर जहां सस्ता गेहूं बेचा जा सकता है वहां सस्ता आता भी तो बेचा जा सकता है. लेकिन आखिर में बात निहित स्वार्थ पर आकर ही विश्राम करती है.
ReplyDeleteदिनेशराय जी से पूर्ण सहमति।
ReplyDeleteआपने बहुत सही तरीके से बात रखी है . महंगाई अपने-आप में चिंताजनक है, पर शासकवर्ग की उदासीनता शायद उस से भी अधिक चिंताजनक और क्रूर हो चुकी है.
ReplyDeleteआपने बिलकुल सही कहा है |क्या क्या खाना छोड़ेगे ?गिरिजेश रावजी कि बात से पूर्णत सहमत ऐसे ही लग एक तरफ तो टुन्न होते है और उनके परिवार जगह जगह मंदिरों में भंडारों पर खाना खाते हुए और भीख मांगते हुए मिल जायेगे |इतनी असमानता देख विद्रूपता देख सचमुच दिमाग कि नसे कोंधने लगती है |
ReplyDeleteजब हमारे शहर में तीन चार साल पहले रिलांस फ्रेश कि शुरुआत हुई थी तब रो ज अख़बार में आता था chaहे आलू प्याज कितने भी मंहगे हो जाय रिलायंस हमेशा ५ रूपये में ही बेचेगा |आज तक कभी ५ में नहीं बीके १९ .९० रपये के किलो ही बिकते है और सीधे किसान से खरीदे जाते है वहां /और जनता हार समय ठगी जाती है आवाज उठाने वाला कोई नहीं |
आपकी चिंता बिलकुल जायज है....मैं भी अक्सर सोचती हूँ.....ये मजदूर और कामवालियां क्या खाते होंगे...सब्जी,दाल के दाम तो आसमां छू रहें हैं... ..अब गेहूं की पिसाई का भी ये हाल...इनका मेहनताना उस हिसाब से तो नहीं बढ़ता...जिस हिसाब से महंगाई है और खासकर महानगरों में
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteइस अच्छी रचना के लिए
आभार .................
सभी अपनी राह चल रहे हैं। महंगाई भी, गरीबी भी और धनवान भी। सब प्रगति कर रहे हैं- भ्रष्टाचार भी, सरकारी ठेके भी, जमाखोर भी, नेता और नौकरशाहों की तिजोरी भी, और राजनीति का लॉलीपॉप भी। सबके लिए गुन्जाइश है इस सबसे बड़े लोकतंत्र में।
ReplyDeleteओह, कोई समाधान नजर नहीं आता!
ReplyDeleteआपके स्वास्थ लाभ के लिये शुभकामनायें।
कबीरदास होते तो उनके भी आँसू सूख जाते यह सब देखकर ।
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन तरीके से आम जनता के दर्द को पेश किया है... वैसे हमें तो अब चक्की पर गये हुए भी ज़माना हो गया..
ReplyDeleteloktantr me sabko saman ya barabar adhikar hai
ReplyDeletebhagyodayorganicblogspot.com
गरीबों का खाना खाना भी मुस्किल होता जा रहा है!!!
ReplyDeleteबहुत सटीक लिखा आपने .. महंगाई हद को पार कर रही है
ReplyDelete