बहुत ही बाली उम्र से
थी पाने की तमन्ना
अपने उस एवरेस्ट को,
सुबह उठने से सोने तक
सामने कुछ नज़र आता था
तो बस वह एवरेस्ट था,
नींद भी आती थी तो बस
उसके ख़यालों के ही साथ,
नींद में भी सपनों में वही
रचा बसा होता था मेरे।
माँ ने टोका,
जानती हूँ मैं प्यार तुझे है
उस एवरेस्ट से,
पर कठिन है डगर
रास्ते में आएँगे तूफान,
जानती हूँ तेरा मैं साहस
चाहेगी जो पा ही लेगी तू ,
परन्तु सोच ले कि
चाहता है तेरा आना
क्या तेरा एवरेस्ट भी ?
जाना ही यदि है तो जा
कर ले पूरी तैयारी,
यूँ ही नहीं जाते हैं
करने विजय एवरेस्ट पर।
पिताजी ने रोका,
नहीं है ये एवरेस्ट तेरे
किसी भी काम का,
मंजिलें और भी बहुत हैं
उन पर चलेगी तो
सफलता चूमेगी तेरे पाँव को,
गिना दिये उन्होंने नाम
कुछ इच्छित चोटियों के।
दीदी ने समझाया,
उम्र तेरी कम बहुत है
और एवरेस्ट दूर है,
ना जिद कर ओ पगली
यह राह नहीं तेरी देखी,
चुन ले तू अभी
कोई सरल सी चोटी,
पाँव मज़बूत हो जाएँ
तो फिर करना
नज़र उस ओर तू ,
फिर भी चाहेगी जाना
तो हम भी चलेंगे
कुछ राह तेरे साथ में।
मन ने समझाया,
मन ने बहलाया,
कभी रुलाया,
झुनझुना थमाया,
भय दिखाया,
बहुत मनाया।
परन्तु ना मानी मैं,
चलती चली गई,
चढ़ती ही गई,
टूटती साँसों से,
भरती आँखों से,
नाक की सीध में
बस चलती चली गई,
रास्ता भी ले ही गया
मुझे मेरे एवरेस्ट तक।
क्या हवा थी
(क्या सच में हवा थी?)
क्या दृष्य था ?
जम रहा रुधिर था मेरा
जम रही हर साँस थी,
पाँव मेरे घायल हुए थे
हाथ मेरे सुन्न थे,
आ गई थी मैं
एवरेस्ट पर अपने
अब और क्या था चाहिए।
सबकुछ तो सपने सा था
(या ऐसा सोच मन को भरमाया)
प्रसन्नचित्त थी मैं,
लगता था फूल बरसा
रहे थे नभ से तारे सब,
बिखरी चाँदी चहुँ ओर थी
चुँधिया रहीं थीं आँखें,
चुँधियाई आँखों से रही
देख होते सपने साकार।
झपकाईं आँखें थीं मैंने
देखा ऊपर से सब संसार,
घोर अकेली हो गई थी मैं
कहीं नहीं था पहचाना संसार,
कुछ पल का था उजियाला
फिर हुआ भयंकर अंधकार।
देर से जाना मैंने
एवरेस्ट वही था,
मैं वही थी,
चाहत वही थी,
पर यह नहीं था
एवरेस्ट सपनों का मेरे।
राशन पानी सब चूक गया था
पाँवों की शक्ति भी चूक गई थी,
आँखों की ज्योति क्षीण हुई थी
अब ना देख पाती कोई चोटी
ना कोई मैं घाटी ही और,
यहीं बैठकर सुस्ताती हूँ मैं
यहीं बैठकर जम जाती हूँ मैं,
साँसें कुछ कुछ रुक गईं हैं
आकांक्षाएँ सारी बर्फ हुईं हैं,
देख रही हूँ हाथों की रेखाएँ
क्या इनको ही मैंने बदला था।
यह क्या,
ये हिम कंकड़ हैं कैसे
हा, पहले आँसू हैं ये जीवन के
पर ये ना बने हैं मोती
ना इन्हें किसी ने पोछा
शिरोधार्य करती हूँ
ये एवरेस्ट की भेंट मैं ।
घुघूती बासूती
फिर क्या है मानव का अभीस्ट ?यह प्रश्न चिरंतन है !
ReplyDeleteजीवन के शुरुआत से जीवन के लक्ष्य तक की कहानी.... बधाई. बहुत ही उम्दा..
ReplyDeletesach adhyatmik bhav bhoomi par ukeree kavita
ReplyDeletebehatreen hai
जीवन की अनंत यात्रा लगी यह रचना .
ReplyDeleteyahi jeevan everest ki sachhai hai bahut sundar badhai
ReplyDeleteमंजिल पाने के बाद भी एक उदासी। बहुत अच्छी कविता
ReplyDeleteहर इंसान का एवरेस्ट जुदा होता है ना.....बस आपसी लगन चाहिये .......bhavo se bhari kavita...ek puri kahanai byan kar gayi.
ReplyDeleteजी बहुत सुन्दर जीवन की डगर।
ReplyDeletesundar rachana ke liye badhai.jari rhe.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर बहुत अच्छी कविता/
ReplyDeleteगहन दर्शन-अच्छा लगा पढ़ना.
ReplyDeleteसुंदर कविता। सोचने पर मजबूर करती है।
ReplyDeleteDil ko chhu liya
ReplyDeleteएक कशिश , एक जादुई भाव जिसने मन को बाँध लिया.. बहुत खूबसूरत रचना ...
ReplyDeleteएवरेस्ट पाने के बहाने जो आपने पाया वो क्या सरल चोटी की ओर कदम बढ़ने से मिलता? .
ReplyDeleteअच्छी कविता... दार्शनिक विचारधारा लिए हुए.
ReplyDeleteशायद यह एवरेस्ट वह नही था ,शायद वह एवरेस्ट कभी मिलता ही नही , पर मानव की विजय इसी में है कि एवरेस्ट को साधने वह पुरज़ोर हिम्मत करें और हिमकंकड़ों को जीवन का उपहार माम स्वीकार करे । वे वाकई उपहार हैं , शायद असली मोतियों से बहुत बढकर कीमती !! जिनमें हमारा संघर्ष , जिजीविषा और साहस झलकता है । साबित होता है कि हम डरे नही , हम कठिन डगर देख मुड़े नही ,राशन चुक जाने पर भी निराश नही हुए ।
ReplyDeleteज़िन्दगी की यह ऊंचाई देख पाने वाले हमेशा अकेले ही मिलेंगे , भीड़ नही कर सकती यात्रा शिखरों की !!
यह भी सच है कि आँसू पोछने कभी कोई नही आता !
ReplyDeleteबहुत हौंसला मिला इस कविता से .
waah waah bahut Khub...raajas se taapas ki yatra..!
ReplyDeleteएक जीवन,सपने आकाँक्षाओं की मर्मस्पर्शी कहानी.....बहुत ही सुंदर भावपूर्ण,उत्कृष्ट रचना है.
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