मैंने अपनी बेटियों को खाना बनाना नहीं सिखाया । कारण जो भी रहे हों परन्तु यह तो सच है कि नहीं सिखाया । अब मुझे जैसी भी माँ कहा जाए परन्तु मैं तो बस ऐसी ही हूँ ।
बड़ी बिटिया को कभी रसोई में रुचि नहीं थी । उसकी रुचि केवल छोटी बहन को खड़े - खड़े निर्देश देने भर व फिर उसके बनाए खाने को चखने भर में थी । छोटी बिटिया को भी मैंने खाना बनाना नहीं सिखाया । उसे बहुत कम उम्र में स्वयं ही यह शौक चर्राया । जब वह कुछ बनाना शुरू करती तो मैं भी पहुँच जाती कि कुछ बताने की आवश्कता हुई तो बता दूँगी । परन्तु वह सदा से स्वावलंबी रही है लगभग हर बात में । सो यहाँ भी वह अपने प्रयास से ही सीखी और बहुत बढ़िया सीखी ।
बड़ी बेटी को शादी के दो वर्ष बाद खाना बनाना सीखने व बनाने का अवसर मिला । तब तक वह और उसका पति बिटिया के हॉस्टेल में ही रहे व मैस में खाना खाते रहे । कभी - कभार माइक्रोवेव में उसका पति पोहा आदि बनाता जो उसने भी सीख लिया । पिछले वर्ष पति के साथ अमेरिका गई तो यह उनका पहला घर व रसोई थी । अब पति से सीख वह भी खाना बनाती है । अभी मुझे उसके हाथ का खाना खाना शेष है । कल वह बहना के पास जाएगी । मैंने कहा है इस बार उसे पकाकर खिलाना । १९ वर्ष की आयु से खाना बनाते - बनाते वह अब थक गई होगी ।
खाना बनाना भी एक पारिवारिक गतिविधि हो सकती है जिसे जब सब मिलकर करें तो आनन्द आ सकता है । मुझे इसका ग्यान नहीं था । घुघूता जी से सुना था कि रविवार को जब उनकी माताजी या पिताजी या दोनों मिलकर खाना बनाते तो सारा घर उत्साहित होता था । कभी सब मिलकर मटर छीलते तो कभी पिताजी कुछ नया बनाते । एक विशेष खिचड़ी को उनके पिताजी ने अंत्येष्टि क्रिया खिचड़ी नाम दे रखा था । उस जमाने में कामकाजी महिलाओं को महाराज/रसोइये मिल जाते थे, सो सप्ताह भर वह ही खाना बनाता था । मुझे इसका आनन्द अपनी छोटी बिटिया के साथ मिला । कई बार हमने मिलकर खाना बनाया है, विशेषकर उसके घर में। हमारा घर तो वह १४ वर्ष की उम्र में ही छोड़कर हॉस्टेल चली गई थी। जब घर आती थी तो कभी कभी हम मिलकर तरह तरह का भोजन आदि बनाते थे । एक बार फिर यह आनन्द मुझे जब उसकी परीक्षाएँ हो रही थीं, तब उसके पति के साथ मिलकर मैथी के पराठे बनाने में मिला। मैं बेलती जाती और वह सेकता जाता था । उतने स्वादिष्ट पराठे मैंने कभी नहीं खाए । बातें करते करते पराठे बनाने का जो मजा था वह शायद होटल में खाना खाने में भी नहीं मिलता । अब भी सुनती हूँ कि वे अकसर रोटी मिलकर बनाते हैं । उसके शब्दों में, "आप रोटी बेलो, मैं रोटी जलाता हूँ ।" परन्तु स्वयं खाना बनाना सीखने की हानि यह हुई कि शेष सब खाना लगभग वही बनाती है ।
आज सोचती हूँ कि किसी जमाने में बेटियों को खाना बनाना ना सिखाना कितना बड़ा अपराध माना जाता । परन्तु मुझे कोई भय, कोई संशय नहीं था । बचपन व किशोरावस्था में वैसे ही सीखने को बहुत कुछ होता है । यह ऐसा समय होता है कि बहुत कम समय में बहुत कुछ सीखना होता है । स्कूली पढ़ाई तो उसका केवल एक भाग है । सबसे मुख्य तो जीवन मूल्य बनाना,जीवन दर्शन सीखना व खोजना, अपना मानसिक,शारीरिक विकास करना,संसार को समझना और यह समझना कि हर सरल रास्ता सही नहीं होता,अन्य मनुष्यों व प्राणियों के लिए संवेदनाशील होना, न जाने कितना कुछ केवल उन कुछ वर्षों में सीखना होता है । इन सबके अतिरिक्त भावनाओं व हॉर्मॉन्स का विस्फोट किसी भी किशोर को व्यस्त रखने के लिए बहुत है । यही वह समय है जब वह तरह तरह के संगी साथी बनाता है और मनुष्य को परखना सीखता है । सो कई बार खाना बनाना गौढ़ हो जाता है ।
वैसे मैं मानती हूँ कि जिसका भी पेट हो उसे खाना बनाना आना ही चाहिये, चाहे सादा दाल, भात, रोटी सब्जी ही सही । खाना बनाना आवश्यकता पड़ने पर कोई भी सीख सकता है । बहुत से पुरुषों को अवश्य यह लगता है कि खाना बनाना रॉकेट साइंस सा कठिन है । बहुत सी स्त्रियाँ चाहती भी नहीं कि उनके पति खाना बनाना सीखें । शायद यह पुराने जमाने के ऋषियों की तरह अपना ग्यान केवल अपने तक सीमित रखने व इस तरह स्वयं को किसी मामले में तो श्रेष्ठ रखने की कोशिश हो ।
बेटियों को लेकर माता पिता के मन में जो संशय व भय होते हैं वे हम उनमें भी डाल देते हैं । बच्चे हमारा डर,हमारे हाव भाव बहुत सरलता से पढ़ लेते हैं व आत्मसात भी कर लेते हैं । जब हमें अपनी बेटियों के लिए उपयुक्त वर की चिन्ता सताती है तो वही चिन्ता बेटियों में एक हीन भावना सी बनकर प्रकट होती है। मेरी छोटी बिटिया को दमा है व किशोरावस्था में हॉस्टेल में रहने के कारण वह अपने शिखर पर था । मैं बात बात में यह बात लोगों से कह देती थी । माँ को यह पसन्द नहीं आता था । वे कहती लड़की की बीमारी सबको नहीं बताते । यह वही भय माँ में शेष था जो पुत्रियों के लिए वर ढूढने वाली माँओं में होता है । उन्हें लगता कि मेरी बेटी से कौन विवाह करेगा । वे भूल जातीं कि जब उनकी बेटी ने अपनी पसन्द से विवाह किया तो बेटी की बेटी के लिए कौनसा नाक पर दीया रख वर ढूँढने जाना पड़ेगा । मेरा यह कहना कि जिससे वह विवाह करेगी उसे तो पता होना ही चाहिये और उसे यह भी आना चाहिये कि अटैक के समय कैसे सहायता करनी है, उन्हें विशेष पसन्द ना आता ।
आज उनकी चिन्ता बेहद हास्यास्पद लगती है । सोचती हूँ खाना पकाना न सिखाकर उन्हें अपने स्व की खोज के रास्ते पर चलने देना सही निर्णय था । हाँ, यदि खाना बनाने का समय मिलता तो वह प्रयोग करने को भी प्रोत्साहित ही करती । परन्तु यदि केवल खाने के चक्कर में पड़ती तो शायद कल बड़ी बेटी को उसकी पी।एच.डी.के वाइवा के लिए अपनी शुभकामनाएँ नहीं भेज रही होती । आज रात शायद मन भरकर छोटी बेटी से बात नहीं कर पाती । शायद उसके औफिस में किसी की मूल्य विहीनता पर वह, उसके पिता और मैं त्रिकोणीय संवाद ना कर रहे होते । ना ही शायद हर पाँच या सात मिनट पर उसका पति मुझे कुछ सुनाने, बताने को उससे फोन माँगता । ना ही वह उसे चिढ़ाते हुए वह कहती " दूसरों की माँ से क्यों बात करने के पीछे पड़े हो,सब अपनी अपनी माँ से बात करें ।" और वह यह ना कहता "मेरी मम्मी ब्लॉगिंग नहीं करती, मेरे ब्लॉग नहीं पढ़तीं । और, और मैंने अपनी मम्मी से शाम को बात भी कर ली है । अब तो मिम्मा से करनी है ।" सो मैं मिम्मा बन निहाल हूँ, पहले दो की थी अब चार की हूँ। कल क्या होगा, सबकुछ ऐसा ही रहेगा, कह नहीं सकती, परन्तु माँ के रूप में आज से मैं सन्तुष्ट हूँ ।
घुघूती बासूती
पुनश्च:तीन दिन के लिए बाहर जा रही हूँ । शायद ब्लॉगिंग नहीं हो पाएगी ।
घुघूती बासूती
Friday, March 14, 2008
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आपकी बातें सुन कर बहुत अच्छा लगा। और बहुत कुछ सोचने पर मजबूर भी हो गया हूं। बहुत दिनों बाद आप का लेख देख पाया हूं।
ReplyDeleteयात्रा के लिये शुभकामनायें।
प्रवीण चोपड़ा
सही कहा। सिर्फ लड़कियों को खाना बनाना सिखाना कतई ज़रूरी नहीं। अन्य रुचियों की तरह ही है ये भी। कोई भी सीखे। मैने अपने माता-पिता दोनों से खाना बनाना खुद सीखा। अपने खानदान के अच्छे रसोइयों में मैं हूं। घर भर को खिलाता हूं फुर्सत मिलने पर । श्रीमतीजी भी खुले दिल से कहती हैं कि उन्होंने खाना बनाना मुझसे सीखा। अब मेरा बेटा मुझसे सीख रहा है:)
ReplyDeleteआपका ईमेल आईडी मिल सकता है ?
सही है। खाना बनाना सबको आना चाहिये।
ReplyDeleteमेरे विचार में खाना बनाना और टाईपिंग सबको आनी चाहिये।
ReplyDeleteमैंने टाईपिंग तो सीख ली पर दुख रहा कि खाना बनाना नहीं सीखा। शायद इसलिये कि हमेशा हमारे पास खाना बनाने वाला था। मेरी बहन ने भी शादी के बाद अपनी सास से खाना बनाना सीखा। अब इतना समय नहीं है कि मैं काना बनाना सीख सकूं।
मैंने इस बात का ख्याल रखा के मेरा बेटा खाना बनाना और टाईपिंग अवश्य सीख ले। उसने जरूर दोनो कामचलाऊ सीख लिये।
मेरा मानना है की हम जितने भी काम सीख सके उतना ही हम आगे जा सकते हैं । बच्चो को स्वाबलंबी बनाने के लिये हर काम को करना चाहीये पर किसी पूर्वाग्रह या विवशता वश नहीं अपितु उनकी पर्सनैल्टी के विस्तार के लिये । पुत्र हो या पुत्री दोनों को हम जितने भी काम सिखा सके उतना ही विस्तार हम उनको दे सकेगे । फिर उनके ऊपर हैं की वह किस मे कितना निपुण हो सकते हैं .
ReplyDeleteबच्चे की नैपि बदलने से लेकर कमप्युटर चीप बदलने तक जितना आये उतना कम है.
ReplyDeleteमेरी नानी ने अपनी दोनों बेटियों के कान नहीं छिदवाए।
ReplyDeleteक्षमाप्रार्थी हैं. ऐसा करके आपने कोई अपराध तो नहीं किया लेकिन कोई गर्व करने लायक कार्य भी नहीं किया. खाना बनाना भी एक creative कार्य है. अगर आप सिखा ही देतीं तो ही क्या बिगड़ जाता?
ReplyDeleteऔर फिर आख़िर तो उन्हें सीखना ही पड़ा न. दो वर्ष तक मेस का खाना खाकर या पति के पोहे खाकर कौन सा स्वास्थ्यवर्धन हुआ होगा. आपकी दोनों बेटियाँ अमेरिका में हैं. आप उच्च वर्गीय परिवार से हैं. इन अनुभवों का 99.99% भारतवासियों के लिए कोई अर्थ नहीं है.
सभी काम सभी को आना ही चाहिए इसमें कोई दो राय नहीं.
वैसे डॉ चोपडा की टिप्पणी पढ़ना भी मजेदार रहा. आज ही की अपनी पोस्ट में ये बता रहे थे कि सिर्फ़ दो दिन बाहर का आटा खाने से इनकी क्या गत हुई.
मैंने दिल्ली में आकर खाना बनाना तो सिख ही लिया. हा यह जरूर है की यह मुझे रॉकेट साइंस की तरह नही लगता है :)
ReplyDeleteहमरे घर में हम सब भाई बहनों को सिखाया गया, कई बार तो हमने खुद मां-बाबूजी को बनाकर खिलाया कॉज़ और कोई था ही नही घर पे तब!!
ReplyDeleteइसलिए सब को खाना बनाना तो आना ही चाहिए!
खाना बनाना तो मैने भी शादी के बाद ही सीखा ठीक से लेकिन फ़िर भी सोचती हूँ कि अगर पहले ही सीख लिया होता तो अच्छा होता। उस उम्र में जब हम नित नये आयाम छू रहे होते हैं उसमें खाना बनाना सीखना कोई विरोधाभास नहीं पैदा करता। चलिए खुशी है कि अब दोनों बेटियां खाना बना सकती हैं और दोनो दामाद भी, खाने में वैरायटी ही वैरायटी
ReplyDeleteकोई भी विधा कब सीखनी पड जाय पता नहीं.मैने बहुत साल अकेले ज़िदगी बिताई .जो भी बनाती थी अपनी पसंद का.ल्रेकिन बहुत experiment नहीं करती थी .अब जब एक जीवन साथी मिला तब खाना बनाने में बहुत कुछ अनलर्न करना पड रहा है.और बहुत कुछ नया सीखना भी.अमित को खाना बनाना पसंद है और खासतौर पर exotic पकवान.शायद वो भी कुछ पुरानी पसंद छोड रहे हैं . हाँ ज़रूरत पडने पर माँ की सिखलाई या उनको खाना बनाते देखते समय जो देखा था वो अब काम आ जाता है.पति,बच्चों और सास के सामने नाक कटने से बच जाती है!!!!!
ReplyDeleteकिसी को ऐसा लग सकता है कि आपने ऐसा कोई काम नही किया कि उस पर गर्व करें , मुझे लगता है कॉंंशस रूप से ही डीलर्निंग करने से शुरुआत हो सकती है। इन बातों को अभी बताये और समझाए जाने की ज़रूरत है।
ReplyDeleteधन्यवाद घुघुती जी
अब हमारी व्यथा सुनिए । मां कहती रहीं कि खाना बनाना सीख ले जीवन में काम आयेगा । लड़का है तो क्या हुआ । दाल चावल बनाने के सिवा कुछ नहीं सीखा । बाक़ी जगह तो चल गया । मुंबई आए तो शुरूआत में बाहर का भोजन जंचा नहीं । तबियत बिगड़ती रही बीच बीच में । आखिरकार आपने रूमी सुनील से सीखा खाना बनाना । अब एकदम सिद्धहस्त हैं । कभी कभी ममता से कहते हैं तुम हटो आज खाना हम बनाएंगे और तब मज़ा आता है । रसोई की जो हालत होती है सो ममता खुद बता सकती है कई तरह की कहानियां । पर अब अपन अच्छे रसोईया हैं । हे हे हे
ReplyDeleteखाना बनाना मेरे ख्याल से आना चाहिए ...पर आज कल के बच्चे इतने उपाय दे देते हैं इस बारे में कि लगता है हमने अब तक रसोई घर में किया तो क्या किया :)
ReplyDeleteमै ने खाना बनाना अपने पिताजी से सीखा। दादा जी भी अच्छा खाना बनाते थे। अपने लगभग सभी रिश्तेदारों के यहाँ पुरुषों को अच्छा खाना बनाते देखा। अब यह रवायत कम होती भी देख रहे हैं। कभी भी परिवार में लड़कियों को खाना बनाते जबरन सिखाते नहीं देखा। मेरी पत्नी पीछे पड़ती थी, लेकिन मेरी बेटी ने कभी उस के रहते खाना नहीं बनाया। उस की गैर मौजूदगी में काम चलाऊ खाना बनाते देखा। तीन साल वह होस्टल में रही। आठ माह से साझे में रहती है। खाना बनाती है जरुरत होने पर फोन पर अपनी माँ से गाइडेंस भी लेती है। कहती है सभी उस के हाथ के खाने की प्रशंसा करते हैं और मानने को तैयार नहीं कि उस ने इस से पहले कभी खाना बनाना सीखा नही और बनाया नहीं। यही जीवन है।
ReplyDeleteअपन तो आठ साल से बेघर हैं। अकेले रह रहकर पता नहीं कब खाना बनाना सीख गया। वैसे लोग कहते हैं मैं सब्जी अच्छी बनाता हूं। बस अपन को बरतन धोना बहुत बुरा लगता है।
ReplyDeleteवैसे माताजी कहती हैं आजकल लडकों को खाना बनाना तो आना ही चाहिए क्या पता खाना बनाना आए ऐसी लडकी मिले या न मिले
:)
Nice,, i like it.
ReplyDeletethanks.
Maine khana banana shadi ke pahale tak sikha nahi tha shadi ke baad sikha halanki shaukiya taur par kuchh experiments karate rahati thi.par asal khana shadi ke baad adhikatar jethhani se sikha.thhodi taqlif hui so maine socha hai apane bete aur beti dono ko thhoda bahut khana banana sikhaungi par jabardasti kisi ko nahi kyonki jaisa aapane likha teenegers ko sikhane ke liye aur v bahut si cheze hain.
ReplyDeleteSusmita sul has left a new comment on your post "मैंने बेटियों को खाना बनाना नहीं सिखाया":
ReplyDeleteMaine khana banana shadi ke pahale tak sikha nahi tha shadi ke baad sikha halanki shaukiya taur par kuchh experiments karate rahati thi.par asal khana shadi ke baad adhikatar jethhani se sikha.thhodi taqlif hui so maine socha hai apane bete aur beti dono ko thhoda bahut khana banana sikhaungi par jabardasti kisi ko nahi kyonki jaisa aapane likha teenegers ko sikhane ke liye aur v bahut si cheze hain.
Posted by Susmita sul to घुघूतीबासूती at 11:30 a.m.
सॉरी,यह स्पैम में चला गया था .