नववर्ष को मुम्बई में हुई घटना के बाद भी क्या आप यही सोचते हैं कि एक अकेली लड़की यार्ड को जाती ट्रेन में सुरक्षित है ? २५ जून २००७ को मैंने एक पोस्ट लिखी थी, जिसमें इस लड़की को जीवन में पहली बार लगे भय की बात की थी ।
वह निर्भय थी । भय क्या होता है, उसने कभी नहीं जाना था । ना उसे अन्धेरे से भय लगता था, ना साँप या बिच्छू से । छात्रावास में जब साँप या बिच्छू निकलता तो वही उन्हें मारती या भगाती थी । ना उसे भूत प्रेत का भय था ना अकेले रहने से । बिल्कुल नए शहर में भी वह नए मकान में रात को अकेले रह जाती थी । सभी उसके साहस की दाद देते थे । उसकी बड़ी बहन तो यहाँ तक कहती थी कि काश मुझे थोड़ा कम डर लगता और इसे थोड़ा सा डर तो होता । जिस लड़की ने सदा अपने निर्णय स्वयं लिए , जिसे ना परिणामों का डर था ना कठिन रास्ते का । जिसने जो उसे सही लगा सदा वही किया, वह आज कैसे डर गई ?
यह उसके भय के उद्गार हैं .....
भय
मैंने ना जाना था भय कभी
निर्भय ही जीना जाना था
ना डरी अन्धेरी रात से कभी
ना बिच्छू से या साँपों से
भय ना लगा कभी अकेले
ना भूतों ना दैत्यों का ।
सदा अकेली चलने वाली मैं
कैसे उस दिन यूँ घब
नए शहर में निकल पड़ी
पहले दिन ना घबड़ाई
लोकल ट्रेन पकड़ अकेले
करती थी मैं आवाजाही ।
उस दिन कुछ नया नहीं था
जा बैठी मैं लोकल ट्रेन में
कोई नहीं था उस डब्बे में
सो थोड़ा सा चौंक गई मैं
जबतक कुछ सोचूँ उतरो
उतरो सबने चिल्लाया ।
यार्ड जा रही ट्रेन वह
चलने लग गई वह
पल भर सोचा मैंने
यदि कूदी तो मरूँगी
या फिर चोट खाऊँगी
फिर भी मैं कूदी उससे ।
क्यों कूदी मैं उससे ?
क्या जान नहीं थी प्यारी
इक क्षण में समझी मैं
क्यों जौहर करती थीं क्षत्राणी
उस इक क्षण में समझी मैं
क्या अर्थ है स्त्री होने का
क्या भय होता है बलात्कार का ।
कैसे मुझे स्वीकार था मरना
कैसे मुझे भय लगा यार्ड का
जहाँ हो सकते थे पुरुष बस
नोच खा सकते थे मुझे जो
इक क्षण में मेरे मन ने
मरने से ना डर दिखलाया ।
हुआ यूँ कि वह मुम्बई शहर में नई नई गई थी । वहाँ गई भी अकेली थी । बिना किसी की सहायता के वह रोज लोकल ट्रेन से सफर कर रही थी । वह दिन भी और दिनों सा था । कुछ नया या अलग नहीं था । स्टेशन पर ट्रेन आई व वह उसमें चढ़ गई । उसे अजीब या कुछ गलत तब लगा जब कोई और उस डिब्बे में नहीं चढ़ा । तभी कुछ लोग चिल्लाने लगे कि उतरो उतरो, यह ट्रेन तो यार्ड में जा रही है । इतने में ट्रेन चल पड़ी । उसके पास बस एक क्षण था निर्णय लेने का । या छलांग लगाए या यार्ड पहुँच जाए । उस एक क्षण में उसे लगा यार्ड जाना याने शायद वहाँ अकेली स्त्री होना व शायद बलात्कार की संभावना और छलांग लगाना याने मरना या घायल होना । बस चलती ट्रेन से उसने छलांग लगा दी । भाग्य से जान बच गई बस कुछ चोटें ही आईं पर सबसे बड़ी चोट उसके अहम् व उसकी निर्भयता को लगी ।
रात को जब उसने घर फोन किया तो वह पिता को पूरी बात बताती रही तथा चेन खींचने का खयाल न आने के कारण स्वयं पर हँसती रही । पिता भी तसल्ली देते रहे और मजाक करते रहे कि अभी तो जेब कटने, मोबाइल चोरी होने का अनुभव बाँकी है । जब तक यह सब ना हो तो मुम्बई का अनुभव अधूरा है । फिर उसने माँ से बात की । माँ उसके दर्द को अनुभव कर रही थी । पर उसका दर्द चोट का नहीं था । वह रो रही थी और कह रही थी, "माँ आज मैंने जाना कि स्त्री होने की क्या हानि है । मैंने कभी भी स्वयं को कमजोर नहीं समझा था । मुझे कभी भी भय नहीं लगा था । इस भय को मैंने पहली बार जाना । क्या यह भय स्त्री में नैसर्गिक होता है ? माँ , उस एक पल में मैं कल्पना कर सकी कि केवल पुरुषों की उपस्थिति में उस यार्ड में मेरे साथ क्या हो सकता था । और वह कल्पना इतनी भयानक थी कि मैंने चलती गाड़ी से छलांग लगा मरना या घायल होना बेहतर समझा । माँ यह नग्न भय था । भय अपने सबसे खूँखार रूप में । इस भय में कोई मिलावट या सोचने जैसा कुछ नहीं था । माँ मैं ऐसे भय के जीवन से घृणा करती हूँ । माँ यह उचित नहीं है, यह न्याय नहीं है । मुझे भय केवल इसलिए लगा कि मैं स्त्री हूँ । यदि पुरुष होती तो न डरती । माँ मैं इस संवेदना से घृणा करती हूँ । मैं ऐसा जीवन नहीं जीना चाहती जिसमें भय हो । ओह माँ, मैं उस संवेदना के बारे में सोच कर ही सिहर जाती हूँ । माँ, मुझे स्त्री क्यों बनाया तुमने ? यदि पुरुष मुझमें ऐसी भावना जगा सकते हैं तो मुझे पुरुष पसन्द नहीं । मैं कभी किसी पुरुष को जन्म नहीं दूँगी । हम ही उन्हें जन्म दें और फिर उन्हीं से डरें । जिसे तुमने जन्म दिया उससे तुम कैसे डर सकती हो ? क्या तुमने कभी इस डर का अनुभव किया ? यदि किया था तो मुझे भी इसे झेलने को जन्म क्यों दिया तुमने ? बचपन में जब क्षत्राणियों द्वारा जौहर को उनकी वीरता, उनकी महानता के रूप में पढ़ती थी तो बहुत आश्चर्य होता था कि यह क्या तुक हुई । पर माँ आज मैं उनके जौहर को समझ सकती हूँ । बलात्कार या मृत्यु की संभावना में से मैंने भी मृत्यु की संभावना को चुना । क्यों माँ, यह गलत है । मैंने तो पढ़ा था कि जीने की चाह ही स्वाभाविक है । तो फिर स्त्री के लिए यह अलग कैसे हो गया ? क्यों जीने की स्वाभाविक चाह मृत्यु से हार गई ?"माँ क्या उत्तर देती ? है किसी के पास इसका उत्तर ?घुघूती बासूती
उस समय १३ टिप्पणियाँ आईं थी । मैं आपसे अनुरोध करती हूँ कि जो बहस या चर्चा का विषय रहा उसके आधार पर लोग अपनी राय दें । मैं बहुत आभारी होउँगी ।
13 टिप्पणियाँ:
Udan Tashtari ने कहा…
मुझे लगा यह अति है. हरदम तो ऐसा नहीं होता. एक खराब मछली हजार मछलियों को बदनाम करती है. मुझे लगता है कि और अधिक आत्म विश्वास की आवश्यक्ता है, बस. कौन ज्यादा ताकतवर. आप निरीह हो जायें तो सब लूटेंगे वरना किसकी मजाल. बस यही सोच जगाना होगी...किस बात का भय और कैसी भावना!!! निरीह बने पुरुष को पुरुष ही रौंद जाता है...ऐसा न सोंचे. वैसे बहुत दिन बाद दिखीं, क्या बात है?
Gyandutt Pandey ने कहा…
यह भय तो वैसा ही है कि कल मुझे कोई भ्रष्ट कहे - या प्रमाणित कर दे तो मैं जीने की बजाय मरना पसन्द करूं. हर व्यक्ति - नर या नारी अपने लिये जो सीमा बनाता है तो अपने को भय के अधीन करता है. भय से मुक्ति, सोच में निहित है - सामाजिक मान्यताओं में नहीं. मैं सदा विक्तोर फ्रेंकल को याद करता हूं जो नात्सी उत्पीड़न केंद्रों में भी मात्र अपनी सोच के साथ भय मुक्त रहे - अपने उत्पीड़कों से भी अधिक मुक्त!
काकेश ने कहा
आपकी बात में सच्चाई तो है पर यह भय तो मानसिक है वास्तविक नहीं, ये भय स्त्री को हो सकता है तो पुरुष को भी हो सकता है..कि क्या होगा उसका अकेले वो जायेगा तो..इतने अनजाने लोगों के बीच.मन को यदि थोड़ा सा मजबूत कर लें तो सारे भय स्वत: मिट जाते हैं.इसके लिये हमें अपनी नयी पीढ़ी को ऎसी सकारात्मक शिक्षा देने की जरूरत है जिससे वह इन भयों से मुक्ति पा सके.
masijeevi < ने कहा…
भय सिर्फ एक निर्मिति है, हम और हमारा वातावरण इसे चारों और गढ़ते हैं- ये हमारे अंधेरे गुहों ये निकलकर जब तब झपट लेता है हमें, ताक में हमेशा ही होता है- वह डरी क्योंकि मिथ्या ही वह मानती आयी थी कि अपने भयों की वह अकेली नियंता है, सिर्फ वह अपने भय निर्मित करेगी- उका भय वाकी भी निर्मित करते हैं। और जिसे जन्म देती है उससे नहीं डरती, उनके अलावा से ही डरती है हर दोपाया लिंगधारी पुत्र नहीं हो सकता जेसे कि हर दोपाया लिंगधारी बलात्कारी नहीं होता।
masijeevi ने कहा…
और हॉं मुझे न जाने क्यों 'आशंका' हो रही है, (अभी पूरा विश्वास तो नहीं) कि ऊपर समीरजी ने आज यह टिप्पणी पोस्ट पढ़कर की है।
अभय तिवारी ने कहा…
बहुत ही अच्छा लिखा.. साहस और संवेदना का अद्भुत मिश्रण है आपमें.. साहस सिर्फ़ अँधेरे अकेले कमरे में सो जाने का ही नहीं.. ऐसे विषयों पर कलम चलाने का.. और अपनी निर्भय छवि को तोड़ सकने का भी..
अतुल शर्मा ने कहा…
यह भय एक सत्य है और इससे मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। बातों की लीपा पोती से इस पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। यहाँ भी कोई इस बात को नहीं स्वीकार नहीं कर रहा कि एक लड़की को रात को किसी निर्जन स्थान पर जाने में क्यों भय है। सब एक जैसे नहीं होते परंतु जो मिलेंगे वो कैसे होंगे, किसे पता। पहली बार जिस भय का अनुभव किया तो ऐसे विचार बन जाना स्वाभाविक है। ये अतिशयोक्ति लगे तो उन बालक बालिकाओं के बारे क्या जो बचपन में ही वीरान यार्ड में अंजान से नहीं बल्कि घर में, पास-पड़ौस में अपनों से इस भय को पा लेते हैं।उत्तर तो शायद ही कोई दे पाए।
sunita (shanoo) ने कहा…
घुघूती जी मैने कई बार इस बारे में सोचा मगर हर बार खुद को अकेले पाया...एसा नही की औरत में आत्मबल नही है या उसमे साहस नही है...सब कुछ है औरत मे पुरूष की अपेक्षा आत्मबल और साहस दोनो ज्यादा है मगर इश्वर की और से उसे एक नाजुक मन और नाजुक शरीर दिया गया है मै मानती हूँ की समीर भाई ने जो लिखा वह ठीक है मगर ऐक औरत अपना बचाव कैसे कर पायेगी जब चार या पाँच बलात्कारियों के बीच फ़ंस जायेगी?हाँ ये बात भी सत्य है की उस वक्त एक प्रतिशत वह अपने चातुर्य से बेवाकूफ़ बना पाये मगर इंसान और वहशी दरिंदे में फ़र्क होता है...औरत को पुरूष से डर नही डर है तो उनसे जो अपना पुरूषत्व खो बैठे है...जब रक्षक ही भक्षक बन जाये तो क्या किया जाये... जैसे एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है वैसे ही आजकल दिन रात होने वाली वारदातों ने डर पैदा कर दिया है...मगर फ़िर भी मेरे खयाल से एक माँ अपनी बेटी को यही कहेगी की तुम डरो मत,तुम्हारा साहस तुम्हारा आत्मबल ही सबसे बढ़ा साथी है उस वक्त जब तुम अकेली हो या घबरा रही हो...सुनीता(शानू)
अफलातून ने कहा…
समाज का आधे से अधिक हिस्सा एक लड़की के भय को समझने की संवेदना भी नहीं रखता !
Sanjeet Tripathi ने कहा…
क्या कहूं इस बात पर!!जिस परिस्थिति की बात आप कर रही है उस परिस्थिति में पहुंचकर हर नारी डर ही जाती है!!नारी एकबारगी चोर-उचक्को से नहीं डरेगी पर ऐसे हालत में डरती ही है……अफ़लातून जी की बातों में सच्चाई नज़र आती है मुझे!!
Divine India ने कहा…
वैसे मुम्बई में स्त्रियाँ रात के 1:30 बजे भी सफर करती है… हाँ भय का कोई कारण नहीं होता और स्थान-2 का फर्क भी होता है किंतु जब हम आत्मबल को छोड़ दे तो और हम पर हावी होने में समय नहीं लगायेंगे।
Vijendra S. Vij ने कहा…
सभी के अपने अपने द्रष्टिकोण है "मुझे भय केवल इसलिए लगा कि मैं स्त्री हूँ । यदि पुरुष होती तो न डरती । " यह दावा पुख्ता नही लगा. ..समीर जी की बात "निरीह बने पुरुष को पुरुष ही रौंद जाता है..." काफी असरदार सच्चाई है...लेख बढिया लगा..शब्द सच कह रहे है..
swapandarshi ने कहा…
Sabhi ke views ki kadra karate huye likhti hoo ki, aapke savaal ka ek matra jabab hai ki sabhi civilized or humane log ek behtar samaj banane mei sakriya bhaagidaari nibhaye. Rape ka dar sirf kisi ek jagah par kendrit nahi hai. Jitana unsafe railway ka khali yard hota hai, utana koi surkshit ghar bhi, school bhi?Ham apani bhumika as a individual bhi nibha sakate hai or kisi samajik process ka part bankar bhi.Sunsaan sadak mei nikalate samay dar lagta hai, par jaise hi koi doosari women nazar aati hai safety ka ahsas hota hai. Adhik se adhik aurate agar ghar se bahar nikle, din me, raat mei, safe, unsafe sabhi jagah par to aadhi se adhik problem solve ho sakti hai.Women have to reclaim common place for them and for safer society.Baki marna/suicide kisi baat ka hal nahi hai. Agar koi rape ka shikar hota bhi hai, to himmat rakhe/himmat de, or justice ke liye fight kare, as a individual or as a society. Ham jungle mei nahi rahate. Priyadarshini Matto ke Father or friends ne ye karke dikhaya hai.Doosara, apane bacho ko bhai bahano ko, sabhi ko safety se avagat karaye, apani safety ke protocol banane padte hai. or self-confidence ko bhi reality ke dharatal par rakh kar hi dekhana chiye.By the way mene is tarah ki galati ki hai, or mei is tarah ke yard se sahi salamat bahar nikal kar aayi hoo.Ye achcha hai ki aapne Daar ki problem ko is bahas mei shamil kiya hai.
घुघूती बासूती
Tuesday, January 15, 2008
क्या अब भी उस लड़की को छलांग ना लगाने की सलाह दोगे ?
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'मानसिक यानी वास्तविक नहीं' ,यह मानने वाले खतरनाक पशु शिकारी भी होते हैं । 'संयमित' और 'संयत' होते हुए भी वे स्त्री को जिन्दा इन्सान से पहले भोग का सामान मानते हैं और इसलिए हमलावर वृत्ति को न देख पाते हैं और न ही शमन कर पाते हैं। 'ऐसी स्थिति में क्या किया जाए?' - कॉलेज जाने वाली लड़कियों ने गाँधी से पूछा था तब उन्होंने कहा था कि अपने बचाव के लिए हाथ की किताबें हमलावरों पर दे मारो।
ReplyDelete"पुरुष तो काँसे का लोटा है"- माँज देने पर झक्कास ! जबकि शिकार हुई स्त्री आजीवन अभिशप्त है।
- अफ़लातून
यह वही देश हैं जहां नौ वर्ष की लड़की को नवरात्र में देवी का रुप मानकर पूजा जाता है और इसी देश में जहां नौ वर्ष की लड़की से साथ बलात्कार भी किया जाता है, अजीब देश है हमारा
ReplyDeleteCHAHE KITNI BHI BAHAS HO JAAYE..SACH TO YE HAI KI PICHLE KUCH DINO KI GHATNAO NE STRIYON KE IS BHAY KO AUR BHI SAHMAA DIYAA HAI,AUR ZYAADA SOCHENY KO BADHYA KIYA HAI USKI STITHI,USKI SURAKSHAA KE VISHAY ME.....KITNA HI ACCHA HO KI HAR GHAR ME BETIYON KAA MANOBAL BADHAAYAA JAYE AUR BETON KO STRIYON KAA SUMMAAN KARNA SIKHAYAA JAYE....
ReplyDeleteमैं नहीं जानती कि भय का अर्थ सबके लिए एक ही होता है या अलग। जब छोटे बच्चे को हम अंधेरे में हाऊ का भय दिखाते हैं तो वो हमेशा के लिए अंधेरे से डरने लगता है, ऐसा साइकेट्रिस्ट कहते हैं। पर जो कभी आम चीजों से नहीं डरे वो पुरुषों से डरे या बलात्कार से , ये सचमुच सोचने जैसा है।
ReplyDeleteमैं एक स्त्री के रूप में ही अपनी बात कह सकती हूं हां पुरुषों की तरह तो कतई नहीं जिनके लिए ये केवल घटना भर है पर मैं सोचूंगी तो उस लड़की की तरह जो उस ट्रेन में अकेल ही है जो यार्ड की तरफ जा रही हूं जहां उसका सामना केवल पुरुषों से होगा जो शायद उसकी इज्जत को तारतार करने में थोड़ा भी वक्त ना लगाएंगे। तो कोई भी स्त्री वैसा ही करेगी जैसा उस लड़की ने किया।
पर यहां सोचने जैसी बात एक और भी है कि मैं किस समाज में जीती हूं जहां पुरुषों के बीच अकेला होना मतलब सब जानते हैं। फिर वो चाहे रेलवे का यार्ड हो या नए साल पर पांच सितारा से बाहर पुरुषों की भीड़
jo bhay akele yard me hone per us ladki ke andar aaya tha Agar wohi bhay kanoon ke liye, law and order ke liye behshiyon ke andar aa jaye to phir kitna accha ho.
ReplyDeleteतरुण जी वाली बात मेरे मन में भी उठती है कई बार क्या हममें, हमारे देश के नागरिकों में कानून का कोई भय नही रहा!!
ReplyDeleteऔर हां
कल आपकी कविता पर मेरी टिप्पणी में कुछ ज्यादा ही बचपना कर दिया था मैने, सो मुआफी का तलबगार हूं।
निश्चित हम जिस बिमार समाज में रह रहे है हर लड़की ने इस भय का सामना किया होगा (किसी भी उम्र में)
ReplyDeleteलेकिन भय से लड़ने का साहस और आत्मविश्वास ही हमें सर उठाकर जीने दे सकता हैं।
इसलिए हमेशा उस भय से लड़ना चाहिए और लड़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए।
हमें आत्मबल से ही भय पर विजय पानी होगी।
ReplyDeleteकोख से
ReplyDeleteकोख से
(परिचय - एक गर्भवती महिला अल्ट्रासोनोग्राफी सेंटर में भ्रूण के लिंग का पता कराने के लिए जाती है। जब पेट पर लेप लगाने के बाद अल्ट्रासाउंड का संवेदी संसूचक घुमाया जाता है, तो सामने लगे मानिटर पर एक दृष्य उभरना शुरू होता है। इससे पहले कि मानिटर में दृष्य साफ साफ उभरे, एक आवाज गूंजती है। और यही आवाज मेरी कविता है - ’कोख से’ । आइये सुनते हैं यह आवाज -
माँ सुनी मैने एक कहानी !
सच्ची है याँ झूठी मनगढ़ंत कहानी ?
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बेटी का जन्म घर मे मायूसी लाता,
खुशियों का पल मातम बन जाता,
बधाई का एक न स्वर लहराता,
ढ़ोल मंजीरे पर न कोई सुर सजाता ! माँ....
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न बंटते लड्डू, खील, मिठाई, बताशे,
न पकते मालपुए, खीर, पंराठे,
न चौखट पर होते कोई खेल तमाशे,
न ही अंगने में कोई ठुमक नाचते। माँ....
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न दान गरीबों को मिल पाता,
न भूखों को कोई अन्न खिलाता,
न मंदिर कोई प्रसाद बांटता,
न ईश को कोई मन्नत चढ़ाता ! माँ.....
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माँ को कोसा बेटी के लिए जाता,
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गला घोंटकर यां जिंदा दफ़ना दिया जाता ! माँ....
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दुर्भाग्य से यदि फ़िर भी बच जाए,
ताउम्र बस सेवा धर्म निभाए,
चूल्हा, चौंका, बर्तन ही संभाले जाए,
जीवन का कोई सुख भोग न पाए ! माँ.....
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पिता से हर पल सहमी रहती,
भाईयों की जरूरत पूरी करती,
घर का हर कोना संवारती,
अपने लिए एक पल न पाती ! माँ....
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भाई, बहन का अंतर उसे सालता,
हर वस्तु पर अधिकार भाई जमाता,
माँ, बाप का प्यार सिर्फ़ भाई पाता,
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किताबें, कपड़े, भोजन, खिलौने,
सब भाई की चाहत के नमूने,
माँ भी खिलाती पुत्र को प्रथम निवाला,
उसके हिस्से आता केवल बचा निवाला ! माँ....
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बेटी को मिलते केवल ब्याख्यान,
बलिदान करने की प्रेरणा, लाभ, गुणगान,
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करो समाप्त मुझे, न दो मुझे जिंदगानी।
करो समाप्त मुझे, न दो मुझे जिंदगानी।
करो समाप्त मुझे, न दो मुझे जिंदगानी।
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कवि कुलवंत सिंह
ye ek aisa bhay hai jisko jante samjhte hue hi aaj bhi ma-baap ko ghar me ladki hone ki khushi khushi na lag kar ek aise dukh ka ehsah karati rahati hai jisse vo jeevan bhar ubar nahi sakte.....aur sahi mayno me ladki hone ka ye bhay kabhi bhi nahi mit sakta..man ko majbut banaya ja sakta hai,par is bhay se mukti ek nari ke liye is jeevan me kabhi sambhaw nahi..na 3varsh ki umra me , na 13sal me na 33 me na hi 60sal me.
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