Sunday, October 12, 2014

करवाचौथ

रवाचौथ हो, हल्दी कुमकुम हो या वरलक्ष्मी या वट सावित्री या कोई भी ऐसा त्यौहार या रीतिरिवाज जैसे माँग में सिन्दूर भरना, जो केवल सुहागिनें कर सकती हैं और विधवाएँ नहीं, उनके बारे में थोड़ा सा विचार करने की आवश्यकता तो है।

जो भी संयुक्त परिवार में रहे हैं उन्होंने देखा होगा कि हर ऐसे त्यौहार पर घर की कोई स्त्री फीके वस्त्र पहने अलग थलग नजर आती है। माना समय बदल गया, अब उन्हें कोई सर गंजा करने, सफेद वस्त्र पहन त्याग का जीवन जीने को नहीं कहता, किन्तु फिर भी जब वे इन खुशियों में सम्मिलित नहीं हो पाती होंगी तो क्या आपका मन आपको थोड़ा सा भी नहीं कहता कि कहीं कुछ गलत है। हाँ, अब विधवा विवाह भी हो रहे हैं, किन्तु प्रायः युवा निःसन्तान विधवाओं के। हमारी माँ, सास, चाची तो नहीं भाग ले पाती इन खुशियों में। सो कुछ तो है जो सही नहीं है।

मुझे तो जब पचहत्तर साल की उम्र में विधवा हुई अपनी माँ के पूजा के समय जब दाँए हाथ में कलाया बाँधा गया और मेरे बाँए हाथ में, तब भी बुरा लगा। माँ से पूछा ऐसा क्यों तो वही विधवा सधवा! बचपन से माँ के घने लम्बे बालों की हम सब बच्चे सर धोने पर कंघी करते आए हैं। बाल इतने घने व लम्बे थे कि उनके तो हाथ दुख जाते थे। फिर जब बुढ़ापे में मैं उनके बाल बनाती और माँग निकाल देती तो वे टोक देतीं, माँग मत निकाल। पूछने पर फिर वही विधवा सधवा! किन्तु दो चार दिन बाद फिर भूल से मैं माँग निकाल देती। मन ग्लानि, क्रोध से भर उठता। माँ इतनी समझदार होकर भी बिना काँच की चूड़ियों, चरयो (मंगलसूत्र), बिछिए, बिन्दी के रहती। लगाती भी तो काली बिन्दी चिपका लेतीं।

यही माँ पहले चरयो मौल जाने, हाँ टूट जाना कहना निषेध था, पर एक काला मोती धागे में पिरोकर गले में पहनती, चूड़ियाँ मौल जाने पर एक धागा ही कलाई में बाँध लेतीं। एकबार बिना बिन्दी न जाने कैसे घर से बाहर चली गईं तो पिताजी ने पहले बाजार से बिन्दी खरीद लगाई तब वे लोग आगे बढ़े।


तो ऐसा क्या था जो उनके संसार में पिताजी के जाने के बाद इतना बदल गया जो माँ के पहले जाने पर पिताजी के संसार में नहीं बदलता। जबकि तर्क से सोचा जाए तो माँ की अपेक्षा पिताजी अधिक असहाय हो जाते। शायद इसीलिए सदा पत्नी कम उम्र की होती है कि पति का बुढ़ापा अकेले न कटे। वैसे भी स्त्रियाँ पुरुष से औसत पाँच वर्ष अधिक जीती हैं सो वैधव्य उन्हें ही अधिक झेलना पड़ता है। माँ पिताजी से ९ साल छोटी थीं सो साढ़े चौदह वर्ष झेला।
उस बच्चे की सोचो जिसकी मौसी, चाचियाँ सब सजधजकर यह त्यौहार मना रही हैं, यहाँ तक कि बुढ़िया दादी नानी भी, किन्तु माँ नहीं मना रही। वह पूछता होगा तो क्या कहती होगी उसकी माँ? यही कि अब मैं सुहागिन नहीं अभागिन हो गई हूँ। या तेरे पिताजी नहीं हैं न इसलिए।

मुझे किसी के किसी त्यौहार मनाने से कोई आपत्ति नहीं है किन्तु वह त्यौहार जो किसी के लिए वर्जित हो, कचोटता है। वैधव्य कोई पीलिया नहीं है कि इस दीवाली में हो गया तो बिना मिठाई के रह लेंगे, अगली दीवाली में खा लेंगे। यह जन्मदिन जैसा निजी उत्सव भी नहीं है कि कोई एक मना रहा है। यह तो सार्वजनिक किस्म का त्यौहार है जिसमें से हम कुछ को वैसे अलग कर रहे हैं जैसे कुछ का मंदिर में प्रवेश वर्जित करना। दोनो ही कहीं न कहीं गलत हैं। सोचिए।


घुघूती बासूती

3 comments:

  1. कई रीतियॉ, नियम समाज ने पुरातन काल से बनाये हैं जिनसे बाहर निकलना असम्भव तो नही किन्तु कठिन अवश्य है। शनैः शनैः परिवर्तन आयेगा।

    ReplyDelete
  2. सटीक बातें कही हैं आपने

    ReplyDelete
  3. उत्सवधर्मिता मानव स्वभाव है। उससे किसी को वंचित करना सही नहीं है। बंधन कितने भी पुराने हों, उनसे बाहर आने के प्रयास होने चाहिए। भारतीय संस्कृति तो वैसे भी सर्व-सम्मिलन की बात करती है सो विचार होना ही चाहिए। शायद एक वैकल्पिक उत्सव या उसी उत्सव का एक वैकल्पिक तरीका, जो उसी दिन हो ...

    ReplyDelete