Friday, June 10, 2011

चप्पल चोरी व चप्पलीय सीख ......................घुघूती बासूती

अभी अभी हेम पाण्डे जी के 'शकुनाखर' से आ रही हूँ। उन्होंने एक रोचक प्रश्न पूछा है... 'क्या मंदिर और भागवत कथा चोरी की शिक्षा देते हैं ?'

शायद ही कोई व्यक्ति हाँ कहेगा। चाहे वह नास्तिक भी क्यों न हो। परन्तु यह भी सच है कि उनके लेख में जिनके जूते चप्पलें खोईं वे परेशान हो या कोई अन्य सरल उपाय न देख या किसी की सलाह मान चोर बन गए। अब चोर तो बन ही गए सो यह भी कहा जा सकता है कि मन्दिर जाने के कारण ही वे चोर बने।

इससे बचने के कई उपाय हैं। कुछ सरल कुछ कठिन।

१. कभी मंदिर मत जाओ।

२. घर से ही नंगे पाँव जाओ।

३.चुपके से चप्पल अपने बैग, थैले में डालकर अपने साथ अन्दर ले जाओ।

४. यदि कुछ करने धरने का साहस हो तो जूते चप्पल सम्भाल टोकन देने वाले का जुगाड़ कर अपने जूते चप्पल बचाने के साथ साथ किसी को पैसा कमाने का साधन भी दिलाकर पुण्य कमा सकते हैं।

५. यह धाँसू विचार हमारे एक विदेश बसे दक्षिण के मित्र ने सुझाया था। तो सुनिए.....

हमारे ये मित्र बहुत छोटे से कस्बे में पले बढ़े थे। प्रायः तो उनके पास चप्पल जूते जैसी विलास की सामग्री होती नहीं थी। पहली बार छठी कक्षा में उनके पिताश्री ने न जाने क्या सोच उनके लिए हवाई चप्पलें खरीदीं तो मारे खुशी के वे भी हवा में उड़ने लगे। खूब रगड़ रगड़कर पैर धोए और चप्पल धारणकर चप्पल सुशोभित अपने पैरों को निहारने लगे। इस सौन्दर्य को देख वे इतने पुलकित हुए कि बिना कोई योजना बनाए चप्पल पहने पहने ही स्कूल चले गए।

स्कूल में चप्पल जूते कक्षा के बाहर ही उतार दिए जाते थे। वे भी चप्पल उतार कक्षा में चले गए। जब वे बाहर निकले तो चप्पलें गायब हो चुकी थीं। उनके दुख का ठिकाना नहीं था। दोबारा पिता से जूते की माँग करने से जूते पहनने को कम खाने को अधिक मिलने की सम्भावना थी। सो वे सब्र कर बैठे रहे और अगली चप्पलों के बचाव की योजना भी बनाते रहे।

दो साल बाद आठवीं में उनका भाग्य एक बार फिर जागा। पिताश्री फिर चप्पलें लाए। इस बार फिर वे उन्हें पहन स्कूल गए। किन्तु इसबार वे पहली बार की तरह मूर्ख न बने। घण्टी बजने पर वे एक चप्पल साथ की कक्षा के बाहर की चप्पलों में रख आए व दूसरी अपनी कक्षा के बाहर के ढेर में अधिक से अधिक दूर रख आए। इस बार तो क्या तब से अब तक कभी भी उनकी चप्पलें खोई नहीं हैं।

( अपनी पहली पहली चप्पलों से उन्हें इतने कम समय, याने घर से स्कूल तक चलने, में इतना प्यार हो गया था कि वे जीवन भर उन चप्पलों को भुला न पाए। उन्हें खोकर उन्होंने जो सीख ली वह उन्हें उस कस्बे से अमेरिका में एक बड़े पद पर ले गई। उन्होंने सीखा कि कुछ भी करने से पहले, जैसे चप्पल पहनने से पहले उस व अगले कदम की योजना बना लो। चप्पल पहनी तो कैसे व कहाँ उतारकर उसकी सुरक्षा का ध्यान रख सकते हो पहले ही सोच लो तब पैर चप्पल में डालो। इस चप्पलीय सीख के कारण अब तक तो वे बहुत सफल रहे हैं। )

ऐसा ही कुछ उपाय कर चोर बनने से बचा जा सकता है। किसने कहा है कि चप्पलों को जोड़ी बनाकर साथ रखो? कमसे कम चप्पल चोर को कुछ मेहनत करने का अवसर तो दो। यदि वह गलती से भी दूसरों की चप्पलें ले जाने का आदी हो तो अलग अलग चप्पल पहनकर जब घर जाएगा तो उन्हें बदलने वह मन्दिर अवश्य लौटकर आएगा। सम्भव है कि उसका यह गलती से दूसरों की चप्पल पहनने का रोग भी दूर हो जाएगा।

वैसे क्या कोई कभी गलती से किसी अन्य की पुरानी सी, टूटी सी चप्पलें भी पहनकर घर गया है? जानना चाहते हों तो अपनी सबसे पुरानी व दयनीय सी चप्पलें पहन मन्दिर जाइए। सबसे बाद बाहर निकलिए और देखिए कि कैसे वे निष्ठावान सी हर बार आपकी व केवल आपकी प्रतीक्षा में ज्यों कि त्यों पड़ी होंगी।

घुघूती बासूती

30 comments:

  1. ha ha ha ..kisi ki mazboori par hasnaa nahi chaiye par kya kare bahut saari chapplein gawa chuke hai

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  2. मंदिर जाकर भौतिक वस्‍तुओं का त्‍याग करने के क्रम में जेब की चवन्‍नी पहले तलाशी जाती थी और अब सबसे छोटा फटा-पुराना नोट.

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  3. आपकी ये चप्पल जुगत तो जोरदार रही ,यह भी कि यह सही योजना रणनीति की एक शुरुआती पहल रही .....

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  4. घुघूती जी,

    यह उपाय मैं काफी पहले से अपनाता आ रहा हूँ। अक्सर मंदिर के एक ओर एक चप्पल और दूसरी ओर दूसरा चप्पल उतार कर अंदर जाता हूँ। मजाल है जो कभी चोरी हो जांय, ईश्वर में पूरा ध्यान लगता है सो अलग बेनिफिट है :)

    वैसे इस चप्पल रक्षा युक्ति से साबित होता है कि मंदिरों में ईश्वर का अस्तित्व चप्पलों के सुरक्षित प्राप्ति पर टिका है। जिस मंदिर में जितने ज्यादा चप्पल गायब हों उतना ही ज्यादा लोगों में ईश्वर के प्रति अविश्वास उत्पन्न होता जाता है :)

    स्टीफन हॉकिंग जी सुन रहे हो न :)

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  5. बढिया सलाह है .. पर जब चोर की नजर आपके सामान पर पड चुकी हो .. तो लाख कोशिश करके भी उसे बचाना मुश्किल है !!

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  6. यह युक्ति तो अजमाई हुई है। सबसे अच्छा तो यही है कि जहां से फूल-माला-प्रसाद खरीदो उसी के हवाले कर दो चप्पल।
    वैसे कोई चप्पल चुराता नहीं है। किसी एक ने भूल से दूसरे की पहन ली तो समझो एक दूसरे की पहनने का सिलसिला शुरू हो जाता है। लगता है कि बहुत सी चप्पलें चोरी हो गईं।

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  7. चप्पल चोर भी अब दूर से ही ताकते रहते हैं कि एक चप्पल यहां तो दूसरी कहां..

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  8. जहाँ गाये थे खुशियों के तराने,
    मुकद्दर देखिये रोये वहीं पर,
    हुये मंदिर से जूते गुम हमारे,
    जहाँ पाये थे खोये वहीं पर :)

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  9. चप्पल के मानव जीवन पर प्रभाव पर इतना सुंदर लेख कम ही पढ़ा है।
    अभिवादन!

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  10. आपके मित्र के सूत्र को तो किसी प्रबन्धन विशेषज्ञ ने अब तक कोई जटिल सा नाम देकर अपने नाम से प्रमोट भी कर दिया होगा। वैसे मेरा ख्याल है कि मन्दिर और अन्य कथा-कार्यक्रमियों को कथारम्भ से पहले और कथा समाप्ति के बाद ज़रूरतमन्दों को चप्पल वितरण का कार्यक्रम करना चाहिये। मुझे पूरी उम्मीद है कि कई चप्पल-जूता कम्पनियाँ स्पॉंसरशिप के लिये आगे आ जायेंगी। [वैसे भी भारतीय परम्परा के अनुसार दान के बिना कोई यज्ञ सम्पन्न नहीं होता है।]

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  11. अपनी एक पोस्‍ट में मैंने 'मंदिर की जोड़-तोड़' लिखा था, कुछ इसी तरह की बात, अलग ढंग से.

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  12. मंदिर नंगे पैर ही जाओ, पुण्य अधिक मिलता है।

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  13. आगरा के ताजमहल में मेरी भी लेदर चप्‍पलें चोरी हो चुकी हैं। चोरी की वजह शायद चप्‍पलों का एकदम नया और महंगा होना था। बाहर निकलने के लिए मजबूरन मुझे भी चोर बनना पड़ा। लेकिन चोरी के पाप का बोझ कुछ कम करने के लिए मैनें किसी की फटी पुरानी चप्‍पलें पहनीं जिन्‍हें शायद चोर भी पहनने से शरमाता। बाहर आकर दुकान पर नई चप्‍पलें खरीदीं। हमारे लखनऊ के चारबाग में खम्‍मन पीर बाबार की मजार के बारे में तो मशहूर है कि यहां चप्‍पलों से नजर हटी नहीं कि चप्‍पलें गायब।

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  14. व्हाट एन आइडिया मैडम जी...

    एक पैर कहीं, दूसरा पैर कहीं...चप्पल की चपलाई से चोरों को चपत...

    जय हिंद...

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  15. यह सूत्र चप्पल चोरों ने भी जान लिया होगा तो? :)

    प्रणाम

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  16. @ देवेन्द्र पाण्डेय जी

    खूब चुराते हैं जी
    यहां पुरानी दिल्ली में आईये, बढिया ब्राण्डेड 5-10 दिन या महिना भर पहने हुये 1500-2000 के जूते चप्पल 150-200 में बिकते हैं।

    प्रणाम

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  17. मेरी तो एकबार ट्रेन में चोरी हो गयी थी, बड़ी दिक्‍कत आयी थी। चप्‍पल चोर सर्वत्र विराजित हैं केवल मन्दिर में ही नहीं।

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  18. पोस्ट पर कमेन्ट शायद बाद में कर पाउँगा पर ...


    'चप्पल' पर शब्द चर्चा बनती है !

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  19. आपकी ये चप्पल जुगत तो जोरदार रही| धन्यवाद|

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  20. जितना चप्पल चोरी होने वालों को क्षोभ नहीं होता होगा उससे अधिक चोरी करने वाले को होता होगा।

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  21. बहुत ही उपयोगी सलाह सुन्दर तरीके से |मेरे पास रबर की अक्यूप्रेशरकी नुकीली चप्पल है|मंदिर के लिए वही प्रयोग में लाती हूँ |

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  22. हा हा, खूब चप्पल-चर्चा चली आज। वैसे आजकल नेताओं पर जो चप्पल-जूते चल रहे हैं हो सकता है कुछ दिनों बाद प्रैस कॉंफ्रेंस में जूते-चप्पल बाहर उतरवाने का नियम बन जाय।

    ऐसी एक ट्रिक हम भी प्रयोग करते हैं। कोई पैन माँगे तो कैप अपने पास रखकर पैन का बस धड़ देते हैं, इससे बन्दे को पैन वापस करना याद आ जाता है वरना बेख्याली में ही आदमी अपनी जेब में रखकर चल देता है और हम भी वापस माँगना भूल जाते हैं।

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  23. आपका पहला सुझाव, "कभी मंदिर मत जाओ", सही लगा...

    जूते-चप्पल की मंदिर से चोरी के प्रश्न से पहले प्रश्न यह उठता है कि कोई भी व्यक्ति मंदिर जाता ही क्यूँ है ?
    आम व्यक्ति कहेगा कि क्यूंकि वहां भगवान् रहता है !
    किन्तु ज्ञानी ' हिन्दू' तो यह भी कह गए कि भगवान् तो हर स्थान पर है, कण-कण में है, हर प्राणी के भीतर भी है, आपके भीतर भी है, आदि, आदि...
    जोगी अथवा योगी शब्द ही दर्शाता है अमृत शक्ति और अस्थायी भौतिक शरीर का योग अथवा जोड़, और वो तो हर साकार रूप का आधार माना गया प्राचीन भारत में...
    प्राचीन 'योगी' जो सब माया-मोह को त्याग एकांत वास हेतु हिमालय में चले गए, वो हिमालय की गुफा आदि में भी अंतर्मुखी हो पद्मासन में बैठ जो कुछ प्रकृति के बारे में जान पाए वो तो पुस्तकें पढने से बेहतर माना गया, क्यूंकि उन्होंने जाना कि सम्पूर्ण ज्ञान मानव शरीर के भीतर ८ केन्द्रों में उपलब्ध है जो हमारे स्नायु तंत्र द्वारा मस्तिष्क में पहुँचाया जाता है - स्वप्न में चित्र के रूप में और जागृत अवस्था में विचारों के द्वारा, जिनपर मानव का नियंत्रण है ही नहीं...
    भले ही वो हर मानव की भौतिक और अध्यात्मिक कार्य-क्षमता पर निर्धारित होने के कारण अधूरा ही क्यों न हो, क्यूंकि क्षमता हरेक व्यक्ति की अपनी भौतिक संरचना और आस्था पर तो निर्भर करती ही है, वो युग पर भी निर्भर करती है...

    कलियुग में क्षमता २५ से ० प्रतिशत तक ही रह जाती है, जिस कारण अधिकतर विचार केंद्र-बिंदु पर न पहुँच चारों और भंवर समान घूमता ही रह जाता है...

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  24. 'पादुका वियोग पाख्यान' (ऐसा ही कुछ नाम था) व्यंग पढ़ा था कभी. उसकी याद आई. बहुत कमाल का व्यंग था.

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  25. अब आपके पास जाने के लिए एक महालक्ष्मी जी ही तो थीं. मन मंदिर में ही मजे ले लें.

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  26. @ P.N. Subramanian जी

    प्राचीन ज्ञानी योगी, शक्ति के एक केंद्र-बिंदू (नादबिन्दू विष्णु) से आरम्भ कर आकार में गुब्बारे के समान निरंतर बढ़ते हुए अनंत शून्य की उत्पत्ति, और उसके भीतर व्याप्त उसके प्रतिरूप साकार ब्रह्माण्ड की भी उत्पत्ति, देवताओं के गुरु बृहस्पति, अर्थात हमारे सौर-मंडल के 'सूर्य-पुत्र' शनि ग्रह के निकट उपस्थित ग्रह, की देख रेख में अमरत्व प्राप्त करने हेतु देवताओं और राक्षशों के मिले जुले प्रयास से चार चरणों में संभव किये जाने को 'क्षीर-सागर मंथन की सांकेतिक भाषा में कहे/ लिखे कथा के द्वारा दर्शा गए...

    पहले चरण में तो दसों दिशा में विष व्याप्त हो गया, जिसे केवल शिव (नीलकंठ, महाशिव अर्थात हमारे सौर-मंडल में शुक्र ग्रह, जिसका सार मानव कंठ में माना जाता है) ही अपने गले में धारण कर सकते थे...और उसी के पश्चात मंथन फिर चालू हो सका... और तब साकार वस्तुएं प्रगट हुईं और अलग अलग देवताओं, इन्द्र (सूर्य) आदि में बंट गयीं,,, किन्तु महालक्ष्मी जी सीधे विष्णु जी के पास ही गयीं (अर्थात महाशून्य के प्रतिरूप अथवा सत्व, हमारी पृथ्वी जिसके केंद्र में तथाकथित नादबिन्दू विष्णु जी हैं), और अंतिम चरण में पृथ्वी की कोख से ही उत्पन्न हिमालय और चन्द्रमा की उत्पत्ति (और उसके प्रकाश, सोमरस) से देवताओं यानि हमारे सौर-मंडल को अमरत्व प्राप्त होना संभव हुआ...विष्णु तो योग निद्रा में परमानन्द की अनुभूति करते आ रहे हैं :)

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  27. मुझे खुशी हुई कि आपने मेरी पोस्ट के मर्म को सही तरह से समझा और विस्तार दिया |

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  28. पुनश्च -
    लक्ष्मी जी - अर्थात साकार पृथ्वी - किन्तु 'एक पदा' है, जो अपनी धुरी पर नाच रही हैं (और हमें दो पैरों पर - 'द्वैतवाद' द्वारा - नचा रहीं हैं!)... जिस कारण उन्हें केवल एक ही जूती की आवश्यकता है :)
    जिसे उनके कूर्मावतार (और उनके कलियुगी प्रतिबिम्ब हम कूर्माचल निवासी :), यानी कछुवे की कठोर पीठ, प्राकृतिक तौर पर निभाते आ रहे हैं अनादि काल से...

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  29. Anonymous7:05 am

    हम्म तो यहाँ चप्पल चोरी की बाते हो रही है.वैसे आइडिया बुरा नही.हम तो टोकन सिस्टम पर विश्वास करते हैं.नही तो एक कपल वहीँ इंतज़ार करता है,दुसरे के आने पर वो दर्शन कर आता है.पर एक बात बताऊ?अपने तो कोई लफ़ड़ाईच नही.मंदिर जाने का ज्यादा शौक ही नही है बचपन से.हा हा हा क्या करू?
    ऐसीच हूँ मैं तो मेरे भगवान को अपने से दूर जाने है नही देती.इसलिए मंदिर में ढूँढने उसे जाना ही नही पड़ता.हा हा हा और चप्पले खोतीईच नही.हा हा

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  30. Very nice. On such a modest topic of Chappal you have written such nice blog ! very nice imagination and narration !

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