Monday, February 28, 2011

बच्चा खोने का दर्द .............................................घुघूती बासूती

लगभग रोज शाम को काम से घर लौटते समय बेटियाँ फोन करती हैं। यदि किसी दिन फोन न आए दिन अधूरा लगता है। यदि रास्ते से फोन न कर पाए तो प्रायः सोने से पहले, खाना बनाते, गर्म करते हुए या पति के व्यायाम खत्म करने तक फोन कर ही देती है। कल भी बहुत देर से फोन आया। मैं घुघूत को खाना दे रही थी, सो उन्हें देकर मैं बातें करती रही। घुघूत को समझ नहीं आता कि मुझे भूख क्यों नहीं लगती, खाना छोड़ मैं कैसे उनसे बातें करती रह सकती हूँ। किन्तु बिटिया से बात और खाने के बीच में से यदि भूख से बेहाल न हो तो कोई भी माँ बात करना ही चुनेगी।

सोचती हूँ कि एक माँ मैं हूँ जो बेटियों के (और अपने भी) जीवन की हर छोटी बड़ी खुशी, कष्ट, खाँसी, जुकाम से लेकर कोई मजेदार घटना, महत्वपूर्ण घटना या फिर मन्डेन, सामान्य बात को भी साझा करने के सौभाग्य को सामान्य माँ बेटी का व्यवहार समझती हूँ और एक वह अभागी माँ जमनीबाई धन्गड(या धनगड या धन्गाड Dhangad ) है जो सालों तक इस बात से ही अनजान थी कि उसकी बेटियाँ कहाँ हैं, जीवित हैं या नहीं, कैसी हैं आदि। अब जब जानती है कि कहाँ हैं और कैसी दिखती हैं तो भी उनसे मिलने को तड़प रही है।(मुम्बई मिरर २३.०२.२०११ )

किसी का दर्द महसूस करने के लिए क्या कोई विशेष उपकरण चाहिए होता है या फिर एक और हृदय या शरीर का अंग? नहीं, बिल्कुल नहीं। भुक्तभोगी जितना तो नहीं, किन्तु पल भर को भी यदि हम किसी व्यक्ति के स्थान पर स्वयं को रखकर कल्पना भर करें तो उस व्यक्ति की पीड़ा का एक अच्छा खासा अनुमान तो हम लगा ही पाते हैं, उसकी चीस के एक भाग को तो हम भी महसूस कर पाते हैं। कल्पना में तलवार की धार की जगह सूई की नोक को तो महसूस कर ही पाते हैं। तो फिर यह कैसे हो सकता है कि भारत में प्रति घंटे सात बच्चे खो जाते हैं, (हिन्दुस्तान टाइम्स, मुम्बई, २१.०२.२०११ ) सात बच्चे अपने माता पिता भाई बहन के लिए बिलखते होंगे और सात माता, सात पिता, सात नानियाँ, सात दादियाँ, सात नाना, सात दादा और न जाने कितने भाई व कितनी बहन उस खोए बच्चे के लिए बिलखती होंगी।

कैसा दर्द होगा यह? इसमें मृत्यु की अन्तिमता नहीं होगी, दुख होगा, भय होगा, अवसाद होगा, पल पल जागती आशा होगी, पल पल अन्धकार में छाई गहरी धुँध से बुरी तरह से घिरने के आभास सी निराशा होगी, मुँह तक जाता हर निवाला यह प्रश्न करता होगा कि बच्चे के मुँह में भी कुछ गया होगा या नहीं। हर मुस्कान चेहरे पर आने के लिए मन से क्षमा माँगती होगी, हर हँसी अपराध बोध में खत्म होती होगी। यदि कोई घंटा बिना उसकी याद किए बीत जाए तो मन लज्जित होता होगा अपने को कोसता होगा। हर बच्चे में अपना बच्चा दिखता होगा। हर भीड़ में, भिखारी में, ढाबे में बर्तन धोते बच्चे में, वैश्या में, आँखें अपने उस बच्चे को ढूँढती होंगी, जो सामने आ भी जाए तो शायद पहचान न पाएँ।

कैसा होता होगा यह दर्द वाला प्रश्न क्या देश के कर्णधार, भाग्य विधाता स्वयं से नहीं पूछते होंगे? पूछते होंगे तो क्या मेरी कल्पना जैसे उत्तर उनका मन नहीं देता होगा? देता होगा तो वे क्या कुछ ऐसा नहीं सोच, कर पाते होंगे जिससे खोए बच्चे वापिस मिल जाएँ? क्या कोई समाधान इतना असम्भव है? वह भी आज के कम्प्यूटर व इन्टरनेट के युग में?

जमनीबाई धन्गड एक दिहाड़ी मजदूर है। तीस वर्ष पहले उसकी बेटियाँ, पाँच वर्षीय गुलाब व तीन वर्षीय लक्ष्मी वसई से खो गईं। उसने रपट दर्ज कराई। बच्चियाँ न मिलने पर उसने कुछ ऐक्टिविस्ट से सहायता माँगी। उन्हें एक अन्य थाने से पता चला कि बच्चियाँ किसी होम में भेज दी गई थीं। वहाँ से सहायता न मिल पाने पर न्यायालय का द्वार खटखटाया गया। तीन साल बाद पता चला कि बच्चियाँ विदेशियों को बच्चे गोद देने वाली संस्था में भेजी गईं थीं व वे स्वीडन निवासी दम्पत्ति को गोद दे दी गईं थीं। उनका अधिक पता ठिकाना नहीं रखा गया था और उन्हें खोजने में सालों लग गए। २००८ में बच्चियों, जो अब स्त्रियाँ थीं व स्वयं माँए थीं, का पता चला। जमनीबाई को उनके फोटो दिखाए गए।

जमनीबाई अपनी बेटियों से मिलने की आस में जी रही है। किन्तु यदि कभी वे मिलेंगी भी तो वह कैसा मिलन होगा? अलग भाषा, शायद अलग धर्म, अलग संस्कृति, मान्यताएँ, मूल्य, बेटियों को कोई साझा यादें नहीं, माँ को केवल ३० वर्ष पुरानी यादें, किन्तु तीस साल से टीसता दर्द जो कभी पुराना नहीं पड़ता होगा, जिन्हें वह गले लगाएगी वे क्या उसकी गुलाब व लक्ष्मी होंगी? एना में वह क्या गुलाब को ढूँढ पाएगी और सोफ़िया में अपनी लक्ष्मी को? क्या माँ बेटी का रिश्ता केवल खून का होता है? उन साझी यादों का क्या जो किसी भी परिवार को बाँधती हैं?

जमनीबाई के पास स्वीडन जाने के लिए पैसे नहीं हैं। एना व सोफ़िया दो साल पहले अपनी माँ को खोजती भारत आईं थीं व असफल होकर लौट गईं। अब उन्हें मिलाने का उत्तरदायित्व क्या उनका नहीं होना चाहिए जिनका ३० वर्ष पहले उत्तरदायित्व उन्हें खोजने का था, जिन्हें मिलीं और जिन्होंने माँ द्वारा एक थाने पर खोने की रपट लिखाने पर भी बच्चियों की माँ तक उन्हें पहुँचाने का अपना उत्तरदायित्व नहीं निभाया, या फिर उस संस्था का जिसने बच्चियों को विदेशियों को गोद देने से पहले कम से कम यह तो पता किया होता कि कहीं इनके अभिभावक इनको खोज तो नहीं रहे। टी वी भारत में आ चुका था। क्या बच्चों को गोद देने से पहले बार बार उनका चेहरा टी वी पर दिखाया गया था? तीस साल या पचास साल पहले भी इतना तो किया ही जा सकता था कि हर पाए गए बच्चे के फोटो यदि हर थाने में नहीं तो एक केंद्र में उपलब्ध कराए जाते और बच्चे कहाँ भेजे गएँ हैं इसका भी लेखा जोखा रखा जाता। अभिभावक उस केन्द्र में बार बार जाकर जानकारी प्राप्त कर सकते थे।

आज के समय में तो हर खोए या मिले बच्चे का कम्प्यूटर में फोटो व जानकारी रखी जा सकती है जो नेट पर उपलब्ध हो सकती है। शायद हर भीख माँगते बच्चे की भी फोटो व किस क्षेत्र में वह भीख माँगता है की जानकारी रखी जा सकती हैं। बेहतर तो यह होगा कि कौन इन बच्चों से भीख मँगवा रहा है या काम करवा रखा है, यह ही पता कर उन्हें सजा दिलाई जा सकती है।

यह कल्पना करके ही कि मैं भी कोई जमनीबाई हो सकती थी और तीस साल तक अपनी बेटियों से मिले बिना जी सकती थी, हृदय काँप जाता है।

घुघूती बासूती

18 comments:

  1. बहुत लोगों के बहुत दायित्व हैं। लेकिन जो दिखते हुए दायित्व हैं वे उन्हें ही पूरा नहीं कर पा रहे हैं। वर्तमान व्यवस्था समाज को व्यवस्थित बनाने में असफल सिद्ध हो रही है, प्रत्येक क्षेत्र में।

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  2. माँ का दर्द सम्पूर्ण रूपसे एक माँ ही महसूस करती है . देश में आधुनिकीकरण में कम से कम इस दिशा में तो सुधार की अति आवश्यकता है अति सम्वेंदन शील लेख .

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  3. मां का हृदय होता ही है इतना कोमल ।
    एक मां की व्यथा को एक मां ही समझ सकती है ।
    तीस बरस बाद सब कुछ बदल जाता है । शायद यह मिलन बस एक सुन्दर अहसास बनकर ही रह जायेगा । लेकिन एक मां के मन को तसल्ली तो मिलेगी ।

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  4. अमेरिका में यह मिशन लिया गया है और लगभग 99 प्रतिशत तक की सफलता से कार्य कर रहा है।

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  5. इसे आप देश के रूप में कितने अंक देंगी.. क्या आपको नहीं लगता कि हम सबों के कबीले बने हुये हैं और वही कबीलाई संस्कृति को इकट्ठा कर देश का रूप दे दिया है... संविधान से कितनी चीजें चल रही हैं.. नियम कानूनों से कौन चल रहा है..

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  6. Uf! Sochke dil kaanp utha!

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  7. हे भगवान् कभी किसी माँ को ये दिन ना दिखाए ..भले ही मेरा वाक्य फ़िल्मी लगे पर मुह से यही निकलता है

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  8. बहुत मार्मिक पोस्ट ....

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  9. बहुत वेदना लिए है आज की पोस्ट ..... माँ के ह्रदय को समझाना कहाँ आसन है....सबके लिए

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  10. बहुत भावपूर्ण और मार्मिक.

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  11. माँ, आखिर माँ है ! शुभकामनायें !

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  12. .....जमनीबाई के पास स्वीडन जाने के लिए पैसे नहीं हैं। एना व सोफ़िया दो साल पहले अपनी माँ को खोजती भारत आईं थीं व असफल होकर लौट गईं।........ise kya kaha jay? bidhi ka vidhaan ya fir manviy bhul ?
    marmik chitran
    abhaar....

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  13. anuradha srivastav11:38 am

    अपने दायित्व से सब पल्ला झाड चुके हैं अगर ऐसा ना होता तो येन-केन प्रकारेण मानवता की खातिर ही एक मां के दर्द को समझ कर बिछडे हुये से मिलाने का यत्न तो कर ही सकते हैं। अत्यन्त मार्मिक प्रस्तुति ।

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  14. क्या स्वीडन वाली मां को किसी धोखा-धड़ी का अन्दाज है?
    नारायणदत्त तिवारी भी एक लड़ाई लड़ रहे हैं,पूरी बेहयाई से ।

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  15. बहुत भावपूर्ण और अत्यन्त मार्मिक प्रस्तुति ।

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  16. एक बार अपनी बच्ची के खो जाने का दर्द को सिर्फ दो मिनट के लिए भोगा था और वो दो मिनट में मै क्या क्या सोच गई और मुझ पर क्या क्या गुजर गई ये मै ही जानती हूँ , बहुत ही तकलीफ देह है |

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  17. मुंबई २६ जुलाई की बा ढ़ में मेरी एक रिश्तेदार की ५ वर्षीय बेटी को स्कूल से घर पहुंचने में दो घंटे की देरी हो गई थी उसकी दहशत आज भी उस माँ के चेहरे पर स्पष्ट देखि जा सकती है कई दिनों तक माँ डिप्रेशन में रही |यहाँ तो ३० साल तक माँ आशंका में जीती रही उसका दर्द महसूस एक माँ ही कर सकती है सच! क्या हम ऐसे दर्द कम करने की कोशिश तो कर सकते है ?

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  18. बेहद अफ़सोसनाक ! इस तरह के प्रकरणों में सम्यक अभिलेखीकरण किया ही जाना चाहिए ! जन्म मृत्यु पंजीकरण की तर्ज पर खोये / पाये / गोद लिए बच्चों का लेखा जोखा / अद्यतन विवरण ! मसले पर आपसे सहमति है !

    वैसे इस मां को अपनी बेटियों के जीवित होने की खबर तो है ! बहुतेरे प्रकरणों में ये गुंजायश भी नहीं होती !

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