Wednesday, December 08, 2010

कार्य कारण / कारण और प्रभाव व चूड़ीदार पाजामा........घुघूती बासूती

कब क्या बात किसी को कुछ सामान्य असामान्य या महान करने को उकसा दे कहा नहीं जा सकता। कौन बात या व्यक्ति किस कृत्य या घटना का निमित्त बने कहा नहीं जा सकता।
एक तीन साल की बच्ची अपने द्वारा बनाए एक चित्र से एक १५९ किलो की ३५ वर्षीया अध्यापिका को इतनी जोर से झकझोर सकती है कि वह ९५ किलो वजन ही गँवा बैठे।

हुआ यह कि एक तीन साल की बच्ची ने अपनी नर्सरी कक्षा में एक चित्र बनाया। कोई विशेष चित्र नहीं था। बस चार पतली सी टाँगे व बाँहें थीं, एक सिर था और एक काफी भीमकाय सी काया सन्तरी कपड़े पहने थी। अध्यापिका लिंडा पहले तो चित्र देख मुस्काई फिर बच्ची से पूछा कि क्या यह तुम्हारी माँ है? बच्ची बोली, "नहीं मेरी माँ मोटी नहीं है। यह तुम हो। " अध्यापिका यह सुन रो पड़ी और उसने कुछ न कुछ करने की ठान ली। वह वेट वाइज़ नामक एक समूह जिसका उद्देश्य वजन सही रखना है की सदस्य बन गई। चार वर्ष में लिंडा ९५ किलो वजन कम कर ६४ किलो की हो गई है। लिंडा ने उस सत्य को उजागर करने वाले चित्र को अपने फ्रिज के द्वार पर लगा रखा है ताकि वह कभी भटक न जाए।

(लिंडा इससे पहले भी अपने डॉक्टर से अपने वजन के बारे में बात कर चुकी थी। उसकी मशीन पर उसका वजन देखा ही नहीं जा सकता था क्योंकि वह केवल १२२ किलो तक ही दिखाती थी। डॉक्टर ने कहा था कि वह कुछ वर्ष ही जी सकेगी। शल्य चिकित्सा द्वारा गैस्ट्रिक बैन्ड लगाना ही एक उपाय बचा था। और उसके वजन के साथ शल्य चिकित्सा करना भी खतरनाक था। सो उसने शल्य चिकित्सा नहीं करवाई।)

एक विशेष टेप्स का थोड़ा सा खुलासा सुन पढ़कर ही मैं टीवी के समाचार सुनना बन्दकर, चार चार समाचार पत्रों को अधिक पढ़ना बन्दकर, सरसरी नजर डाल, फिर से सिलाई मशीन, उपन्यास आदि ले बैठना शुरू कर चुकी हूँ। जिसका परिणाम हैं उधड़े, बटन निकले कपड़ों के ढेर का कुछ वैसे ही सिकुड़ जाना जैसे लिंडा का वजन व काया का सिकुड़ना, सालों से रखे नए कपड़े के टुकड़ों का जादुई रूप से वस्त्रों में परिवर्तित होना, जैसे उनका ब्लाउज, सलवार या चूड़ीदार पजामे के रूप में नया जन्म होना।

कहाँ किसी स्त्री का भारतीय मीडिया व उद्योग के दिग्गजों से वार्तालाप होना, कौन बनेगा करोड़पति की तर्ज पर कौन बनेगा यह मंत्री या वह मंत्री तय करना (इन दोनों में कोई अन्तर है क्या?), क्या होगा कल का समाचार, क्या होगा उसका प्रारूप तय करना और कहाँ पेड़ों का कटने से बचना, कपड़ों का सिल जाना, दर्जियों के धंधे पर प्रभाव पड़ने के आसार होना? भला कैसे यह सब सम्बन्धित हो सकते हैं? असम्भव तो लगते हैं किन्तु सम्बन्ध है।


देखिए, ये टेप सुन व उनके विषय में पढ़ने के बाद मैं इस अभियान में जुटी हूँ कि घर में जो चार समाचार पत्र आते हैं वे सारे नहीं तो आधे तो बन्द किए जाएँ। एक रविवार मैंने चारों का वजन लिया था। मेरी रसोई की मशीन जो दस ग्राम तक का वजन सही दे देती है ने उनका वजन ८५० ग्राम बताया था। अब यदि सप्ताह के अन्य दिन इतना वजन न भी हो तो भी ५५० ग्राम तो हो ही जाता है। जी हाँ, मैं अभी नापकर आई हूँ। देखिए यदि हम सब समाचार पत्र लेना बन्द कर दें तो कितना कागज बचेगा और फलस्वरूप पेड़ भी। यदि समाचार पत्र नहीं होंगे तो.... कोई व्यक्ति समाचार बनाने वालों पर प्रभाव कैसे डालेगा? नहीं डाल पाएगा तो शायद कौन बनेगा .....मंत्री भी न निर्धारित कर पाए या कर पाने का प्रयास न करे। शायद कुछ कम घोटाले हों।


यदि समाचार पत्र पढ़ना बन्द करूँगी तो अपने समय के साथ कुछ तो करना पड़ेगा। शायद कपड़े सिलना शुरू कर दूँ, सो दर्जियों की रोजी रोटी पर प्रभाव पड़ेगा। शायद फिर से उपन्यास पढ़ना शुरू कर दूँ तो लेखकों पर प्रभाव पड़ेगा। यदि सोचूँ कि मनघड़न्त समाचार सुनने से बेहतर है कि मनघड़न्त कहानियाँ ही टी वी पर देखूँ तो शायद फिर से सिनेमा देखना शुरू कर दूँ। या फिर मैं स्वयं मनघड़न्त कहानियाँ लिखना शुरू कर दूँ!

यदि मेरी तरह ही कुछ और लोगों पर भी ऐसा ही प्रभाव पड़ा हो तो शायद प्रकृति व अर्थव्यवस्था पर भी कुछ प्रभाव पड़े। उस बच्ची को ही कहाँ पता था कि वह अपनी अध्यापिका लिंडा को जीवन दान दे रही है और साथ में ही जीने लायक जीवन दे रही है। टेप वाली स्त्री को क्या पता है या जानने में क्या रुचि होगी कि वह कुछ पेड़ बचाने व सलवार, पजामे सिलने का निमित्त बन रही है। और पजामा मेरे वर्षों से सोए हुए अंग्रेजी ब्लॉग को जगाने का निमित्त! हाँ, हाँ, समय हो तो मेरा पजामा ब्लॉग, नहीं, नहीं, अंग्रेजी ब्लॉग भी देख आइए। जी, लिंक भी दे रही हूँ.. चूड़ीदार पाजामाज़!

घुघूती बासूती

19 comments:

  1. काश वो टेप वाली स्त्री भी पढ़ ले यह लेख...बहुत खूब .:)

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  2. वाह वाह वाह,
    क्या शानदार पोस्ट है...हमारे एक मित्र हैं जो ६८ साल के हैं, अपनी जवानी में २०-३० सिगरेट रोज फ़ूंकते थे। हालत ऐसी आयी कि डाक्टर ने कहा कि साल डेढ साल है तुम्हारे पास, उन्होने मन में सोचा कि चलो दौड के देखते हैं। पहली बार १०० मीटर दौडे और सडक के किनारे झुक कर पेट पकडकर हांफ़ने लगे...

    वो एक दिन था और आज एक दिन है कि ११० से ज्यादा मैराथन दौड चुके हैं। मन में ठान लो तो कुछ मुश्किल नहीं। हमारी तो समस्या है कि सोचते हैं कि कुछ ठान के क्या करेंगे, आराम बडी चीज है मुंह ढक के सोईये :)

    अभी आपके अंग्रेजी वाले ब्लाग की भी खबर लेते हैं।

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  3. नीरज, यह हमारी वाली बात...’हमारी तो समस्या है कि सोचते हैं कि कुछ ठान के क्या करेंगे, आराम बडी चीज है मुंह ढक के सोईये :) ’ को अपना कहकर क्यों लिख रहे हैं? आप तो दौड़ लगाने वाले हैं, मुँह ढककर सोने क पेटेऩ्ट तो हमारा है।
    घुघूती बासूती

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  4. बहुत अच्छा आलेख है...सार्थक...आपके ब्लॉग पर आकर हमेशा अच्छा पढने को मिलता है...

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  5. मुंह तो हम भी ढंककर ही सोते हैं, आराम बड़ी चीज है।

    हमें भी कभी कभी कुछ लग जाता है परंतु अपने आपसे प्रतिबद्ध नहीं हो पाने के कारण ज्यादा कुछ कर ही नहीं पाते दौड़ना बेशक बहुत अच्छी बात है, व्यायाम में कुछ भी करें बहुत ही अच्छा होता है।

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  6. ये मुह ढक कर सोने की आदत नें ही हालत खराब कर राखी है खाई फिर नया साल आने को है फिर कुछ नया सोचेंगे और फिर वही :-) मुह ढक कर सो जायेंगे

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  7. सच में सकारात्मक तौर पर लिया जाय तो कोई भी घटना प्रेरणादायी हो सकती है..... अवसाद में जाने के बजाय प्रेरणा लेकर आगे बढ़ने की सोचना कहीं बेहतर है..... सुंदर पोस्ट धन्यवाद

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  8. " पर उपदेश कुशल बहुतेरे "
    अच्छा लगता है दूसरों पर अपने आदर्श थोपना , लेकिन कितना अच्छा होता यदि हम अपनी कथनी और करनी में थोडा बहुत भी सामंजस्य स्थापित कर पाते ,
    बहरहाल एक तीन वर्षीय बच्ची प्रेरणाश्रोत बनी और आपने उस घटना को पोस्ट का माध्यम बनाकर जतला दिया है की छोटी से छोटी व्स्तुवें भी बहुत बढे परिवर्तन का कारण बन सकते हैं ,
    अपने डेशबोर्ड पर आपकी updeted पोस्ट देखकर अच्छा लगता है ,एक उत्सुकता हमेशा बनी रहती है की देखें इस बार आपने किस विषय पर लिखा है ?

    सार्थक पोस्ट हेतु आभार ..........

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  9. छोटी-छोटी घटनाएँ जीवन की दिशा बदल सकती हैं,बशर्ते हम उनपर ध्यान दें। अन्यथा,बड़ी घटनाएँ बहुत से नकारात्मक परिणामों के साथ बदलने को मज़बूर करती हैं।

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  10. आपने तो मुझे एक बहुत बड़े guilt से उबार लिया...थैंक्यू सो मच.:) :)

    ब्लॉगजगत ज्वाइन करने से पहले मैं भी ऐसे ही अखबार चाट जाया करती थी..एक-एक अक्षर...अब लैपटॉप के पास अखबार भी रखा होता है...पर कभी कोई संस्करण छूट जाता है...तो कभी कोई..और मैं guilt के दरिया में डूबने-उतराने लगती हूँ...अच्छी बात कही..मैं भी एकाध अखबार बंद कर देती हूँ...इस guilt से उबर कर शायद कुछ और अलग कर पाऊं.

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  11. पता नहीं कब, कौन सी घटना प्रभावित कर जायेगी, कोई नहीं जानता।

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  12. मन में हो विश्वास तो सधे सब काज

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  13. कब कौन सी बात असर कर जाये पता नही चलता……………।सुन्दर आलेख्।

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  14. सोचता हूं वो बच्ची मासूम थी सच कह बैठी और सच लिंडा को जादुई असर दे गया ,इधर समाचार और टेप वाली स्त्री या पुरुष पर इतना ही कहूँगा कि समाचारों को लिखने वाले बच्चों जैसे मासूम नहीं होते इसलिए उनपर या उनके समाचारों पर विश्वास करना या उनसे प्रभावित होना पाठक की अपनी बुद्धिमत्ता पर निर्भर करता है ! समाचारपत्र कम या ज्यादा करना मायने नहीं रखता हम दिन में बहुतेरी गैरज़रूरी चीज़ें देखते हैं पर उनका नोटिस नहीं लेते क्योंकि वे बेकार /यूजलेस होती हैं ! समाचार पत्रों की मूर्खताओं को पढकर ही जाना जाना बेहतर विकल्प है इससे बहुतों को रोजगार मिलता है यानि कि उस स्त्री से निचले क्रम में ,आपकी पोस्ट बहुत बढ़िया है :)

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  15. बेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !

    आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।

    आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें

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  16. अखबार पढ़ना बंद नहीं कर सकता
    न बंद कर सकता हूं खरीदना
    यह घटना तो प्रभावित नहीं करेगी
    कोई और कर जाये तो
    मुझे मालूम नहीं


    वैसे सतीश सक्‍सेना जी को
    ब्‍लॉगफार वार्ता पर
    ब्‍लॉगिंग की लत छुड़ाने का उपाय
    बतलाकर आ रहा हूं

    पर मुझे मालूम है
    वे परोपकार नहीं करेंगे
    तो मैं कैसे छोड़ दूं
    अखबार पढ़ना

    खैर ...
    खूब आनंद आया पढ़कर

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  17. आराम वाकई बड़ी चीज़ है.

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  18. badhiya hai...!!!
    sach! koi baat kis kadar jeevan ki raah badal sakti hai...
    yah anumaan lagana mushkil hai!

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  19. हमने भी केवल एक ही समाचार पत्र मंगाना प्रारम्‍भ कर रखा है, वह भी इसलिए की शोक संदेश समाचार पत्र के माध्‍यम से ही मिलते हैं। लिंडा की तरह कोई हमारा भी चित्र बना दे तो शायद पतले हो जाएं। हा हा हाहा।

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