अंग्रेजी में सुना था कि सब लोग प्रेमियों को प्यार करते हैं। सच भी लगता था। कुछ भावनाएँ, बातें, रिश्ते, जीव मन में अपार खुशी, प्यार व एक कोमल भावना पैदा करते हैं। नन्हे बच्चे, अधिकतर जानवर व विशेषकर उनके शावक/बच्चे, युवा प्रेमी व स्नेहिल या प्रेमी से लगने वाले वृद्ध दम्पत्ति इसी श्रेणी में आते हैं। किन्तु आज लगता है कि युवा प्रेमी देखकर कोमल भावनाएँ नहीं लोगों की आँखों में खून उतर आता है।
यहाँ वहाँ, जहाँ देखो लोग अपने बच्चों, बहनों, जमाता की हत्या कर रहे हैं। रक्षक ही भक्षक बनते जा रहे हैं। भाई कंस बन रहे हैं तो माताएँ व पिता भी पीछे नहीं हैं। यदि आप युवा हैं और प्यार करते हैं तो माता, विमाता, पिता या सौतेला पिता, दादा, दादी, नाना, नानी, मामा, मामी, चाचा, चाची, भाई कोई भी आपकी व आपके प्रिय की जान ले सकता है। लगता है कि टी वी सीरियल वाला संसार टी वी से बाहर निकल कर हमारे घरों में आ गया है।
हो सकता है भारतीय काफी सदियों से प्रेम के शत्रु रहे हों। परन्तु जहाँ पहले जब उनके घर में दुर्भाग्य से कोई प्रेमी जन्म लेता/ लेती थी तो वे किंकर्त्तव्यविमूढ़ से हो असहाय से हो जाते थे या सदमे के मारे कुछ अधिक नहीं कर पाते थे वहीं अब वे लामबद्ध होकर एक सोची समझी नीति के अन्तर्गत उनकी हत्या कर देते हैं। शायद कुछ दशकों में उन्होंने भी उस स्थिति जिसमें जब कोई युवाओं के जीवन की डोर उनके हाथ से छीने चाहे छीनने वाला स्वयं युवा ही क्यों न हो, में पलटवार में हत्या करना सीख लिया है। ये लोग जो सामान्यतः हत्या नहीं करेंगे अपने बच्चों का अपने ढंग से जीवन जीना, या यह कहिए कि अपना वैवाहिक जीवन अपने मन पसन्द साथी के साथ जीना इतना बड़ा अपराध मानते हैं कि उसकी सजा मौत ही है और न्यायालय उन ही का है न्यायाधीश भी वे ही हैं और जल्लाद भी वे ही हैं। और सजा सुनाने के लिए उन्हें सोचना नहीं पड़ता, सजा पहले से ही तय है।
खाप वाले कहते हैं कि विवाह सगोत्र से न करो, अपने गाँव में भी न करो याने किसी ऐसे से मत करो जिस से आपका मेल जोल हो सकता हो। कुल मिलाकर उस अनजाने से करो जिसे आपके माता पिता चुनें। शायद कल कहें कि उससे भी मत करो जो आपके कॉलेज, संस्था, दफ्तर में हो। माता पिता कहते हैं विवाह किसी अन्य जाति या धर्म में मत करो। एक बड़े नेता ने तो यहाँ तक कहा था कि अपनी पसन्द का साथ केवल वैश्याएँ चुनती हैं। अर्थात अच्छी लड़कियाँ तो वे हैं जो जिस खूँटे से बाँध दी जाएँ लजाती शर्माती उस खूँटे से बँध जाएँ। और ऐसा हो भी क्यों न? कभी आपने हस्बैंड व एनिमल हस्बैन्ड्री शब्दों का आपस में सम्बन्ध सोचा है? कभी आपने पति, राष्ट्रपति, सेनापति, प्रजापति का सम्बन्ध सोचा है? स्वामित्व का भाव इन शब्दों में साफ झलकता है, तब भी जब आज की स्त्रियाँ पति को स्वामी कहना बन्द कर चुकीं हैं और नई नवेली दुल्हनों को उनके पति 'स्त्री शिक्षा शास्त्र' सी पुस्तकें नहीं भेंट करते जिसमे पत्र लेखन में अन्त में आपके चरणों की दासी लिखना सिखाया जाता था। दासी होना अपने आप में जो है सो है उस पर चरणों की !
एक बन्धु का कहना है कि यदि बेटियाँ अपने पिता को कन्यादान के आध्यात्मिक/ spiritual सुख से वंचित करेंगी तो वे क्रोध में हत्या तो करेंगे ही ! आखिर कन्यादान शब्द में जो बुराई दिखती थी वह काल्पनिक नहीं थी, सच की थी। चाहे कन्यादान हो या विवाह में बेटी का हाथ किसी के हवाले करना हो बात एक ही है। और किसी 'संदेश' वाले बन्धु यह न कहें कि किसी धर्म विशेष में स्थिति अलग है। अरे, जहाँ कन्यादान नहीं होता वहाँ तो स्त्री अपने मन से अकेली घर की देहली ही नहीं लाँघ सकती। चाहे उसे हस्पताल ही क्यों न जाना हो।
खैर, बात यहाँ स्त्री की नहीं युवाओं और प्रेम व प्रेम विवाह करने के अधिकार की हो रही है।
आश्चर्य की बात यह है कि ७० के दशक में जब बच्चे प्रेम करते थे तो माता पिता उन्हें समझाते थे, धमकाते थे, रूठते थे, रिश्ता तोड़ लेने की धमकी देते थे, बच्ची या बच्चे को मरा मान लेने की बात करते थे, रोना धोना, भावनात्मक ब्लैकमेल करते थे, अत्याचार करते थे। उन्हें एक दूसरे से दूर करने की योजना बनाते थे, उसे कार्यान्वित करते थे, किन्तु प्रायः अन्त में मान जाते थे। न भी मानते थे तो बच्चे विवाह कर ही लेते थे। देर सबेर माता पिता विवाह को स्वीकार कर लेते थे। वैसे हमारी पीढ़ी के ही लोग आज माता पिता हैं। जानती हूँ कि जहाँ १९ हत्याएँ हुईं हैं वहीं १९०० या शायद उससे भी अधिक प्रेम विवाह भी हुए होंगे किन्तु ये कैसे हत्यारे माता पिता हैं? ये इनकी कैसी मानसिकता है?
७० के दशक की कितनी ही प्रेम कहानियों को सफल होते मैंने देखा है। हाँ, उसमें एक मेरी अपनी भी थी।
क्रमशः
घुघूती बासूती
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पता नहीं अपना खून कैसे बहा लेते है
ReplyDeleteखुन खराबा तो गलत बात है, ओर वो भी अपने बच्चो का.... लेकिन प्यार किस चिडिया का नाम है, क्या यह बच्चे जानते है? क्या सेक्स रुपी प्यार के लिये इतने लोगो को रुसवा करना,क्या प्यार है, जिस का बुखार शादी करते ही उतर जाता है... प्यार... प्रेमी... प्रेमिका आज भारत मै हर कालेज मै हर ओफ़िस मै मिलने लगे है... अगर यह लोग इतने ही प्यार करने वाले है तो क्यो मां बाप को धक्के खाने के लिये अकेले छोड देते है, क्यो उन की ज्यादाद तो हडप लेते है, लेकिन बिमार मां बाप इन्हे बोझ लगते है... जिस के दिल मै प्यार होता है वो जानवर को भी दुख नही पहुचाता... यह नही जानते प्यार क्या है.....
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ReplyDeleteघुघूती जी,
ReplyDeleteमुझे भी हमेशा आश्चर्य होता है,राम-सीता, राधा-कृष्ण,
शिव-पार्वती के प्रेम को पूजने वाला, लैला -मजनू...हीर-रांझा के किस्से सुन मुग्ध हो जाने वाला , लव-स्टोरी पर आधारित हर फिल्म को सुपर हिट बनाने वाले हमारे देशवासी ,अपने घर की बात आने पर एकदम दूसरा रूप अख्तियार कर लेते हैं. क्या हमारा पूरा देश दोहरा व्यक्तित्व जीता है?
आज खाप पंचायत की कारस्तानी सबकी जुबान पर है. टी.वी. ने उनकी कारगुजारियों से सबको अवगत कराया पर ये डर भी लगता है...ये सब देख दूसरे जगहों के लोग भी ना उतारू हो जाएँ, वालों को यही अंजाम देने को. और शुरू भी हो गया है...बिहार ..यू.पी. में तो खाप पंचायत नहीं है...पर सजा वही मुक़र्रर है.
70 ke dashak mein pyar karne walon ki shayad itni sankhya n thi shiksha ka prasar evam prachar bhi kam tha log shedhe sade the, isliye kahin n kahin maa baap paseez hi jate the.
ReplyDeletekintu aaj ki tareekh mein pyar karne walon ki tadaat itni achanak badh gayi hai ki jise dekh kar mahsoos hota hai ki ye log pyar karte bhi hain ya sirf vasnayukt akarshan mein jhuke huye hain. kuch to safal ho jate hain akal aane par kintu kuch dhokebaji mein uttar aate hain. aur kuch ke saath haadse ho jaate hain. hatya premi yugal ki ho ya kisi anya prani matr ki jaghanya apraadh hai.
iski ninda hi nahi kintu swyam ese logo ko fansi par chadha dena chahiye jo hatya me sanlipt hon.
payar karne waalon ko pyar ki dictionary theek se padhni chahiye taki vastav mein ve pyar kar sakein aur dunia unka saath de sake.
yon to bhart varsh mein sadiyon se prem vivah hote aye hain inhein gadharv vivaah kahte hain. Raja dushyant aur Shakuntala ne bhi pyar kiya aur gandharv vivaah ke paschaat hi unki santaan hui jiska naam Bhaarat tha . Isi vyakti ke naam se aaj is desh kaa naam bhi bharvarsh hai.
अपने प्यार के लिए हर कोई जमीन आसमान एक कर देता है, लेकिन दूसरों के मामले में ज्यादातर लोग विरोधी बन जाते हैं। यही हमारे समाज का दोगलापन है।
ReplyDelete………….
दिव्य शक्ति द्वारा उड़ने की कला।
किसने कहा पढ़े-लिखे ज़्यादा समझदार होते हैं?
अजब हाल है..अफसोस होता है देख सुन कर.
ReplyDeleteआपने तो पूरा लेख ही लिख डाला जानवरों पर हम तो टिप्पणी तक नहीं करना चाहते !
ReplyDeleteबेहद दुखदाई ! बदकिस्मती इस देश की !
ReplyDeleteक्या हम प्यार के शत्रु हैं?
ReplyDeleteजी नहीं , बिल्कुल नहीं ।
लेकिन भाटिया जी की बात में भी दम है ।
Aap sahee hain!
ReplyDeleteLekin Raj Bhatiya ji ne bhi baja farmaya hai!
समस्या तो यही है कि जो लोग ये पोस्ट पढ़ रहे हैं उनको समझाने कि जरूरत ही नहीं जिनका समझाना चाहिए वो लोग इस पोस्ट तक पहुँच भीं नहीं रहे होंगे..
ReplyDeleteये कैसी मानसिकता जन्म ले रही है ७० के दशक के पहले के भी प्रेम विवाहों में भी थोड़ी नाराजगी के बाद माँ बाप ,साँस ससुर मान जाते थे और अपने बच्चो की ख़ुशी को अपना लेते थे |आज बड़े शहरों में भी अंतरजातीय प्रेम विवाहों को परिवारों का समर्थन मिल रहा है |किन्तु जिस तरह से आज प्यार के नाम पर हत्याए हो रही है उसका कितना सच ?सामने आता है ?उसके पीछे क्या है शायद पूरा सच नहीं जान पाते हम |आज ये भी सच है की जितना जिस चीज का विरोध किया जाता है वो उतना ही बढ़ता जाता है जैसे दहेज के विरोध ने दहेज को ही बढ़ावा दिया है ,७० के दशक की होने वाली शादियों में कितनी सादगी थी |आज प्रेम विवाह वाली शादी में भी कितना आडम्बर है |मुझे याद है सन ७३ में अनाज की कमी के चलते शादियों में १०० लोगो से ज्यदा को भोजन पर शासकीय पाबंदी थी और इसका पूरी तरह से पालन किया जाता था |कितने ही माता पिता आज ये सोचते है की उनके बच्चे अपने जीवन साथ खुद चुन ले जिससे वो अपना जीवन अच्छी तरह जी सके |
ReplyDeleteदीपकजी की बात से मै भी सहमत
मैं पंचायतों की बात से तो सहमत नहीं, लेकिन ममेरे, फुफेरे, चचेरे भाई-बहनों के रिश्तों के अन्दर शादी को उचित नहीं समझता... भाटिया जी की बात भी उचित है..
ReplyDeleteआज की ज्वलंत समस्या है....शायद यह सब पहले भी होता हो लेकिन आज मीडिया की वजह से हर बात की जानकारी होती है...और अफ़सोस होता है ऐसी मानसिकता पर...लेकिन आज प्यार भी बस स्वार्थ पर ही टिका है...भाटिया जी की बातों पर भी गौर किया जाना चाहिए.
ReplyDeleteलेख बहुत अच्छा है. हम शायद अभी इस समस्या की गंभीरता को ठीक तरह से समझे नहीं हैं. खाप मनोवृत्ति वाले ७० के दशक में भी नहीं मानते थे और न ८०-९० में. हाँ तब परिस्थितियाँ भिन्न थीं. बाल विवाह भी होते थे और साथ ही बहुत से क्षेत्रों का आज सरीखा नगरीकरण भी नहीं हुआ था. गाँवों में हिंसक परिवारों/पंचायतों का विरोध करने के बजाय बच्चे आत्महत्या या समझौता कर लेते थे. खापों/ महापंचायतों की ज्यादती की कथाएं तब भी यदा-कदा सुनने में आ जाती थीं.
ReplyDeleteदुर्भाग्यपूर्ण ।
ReplyDeleteसमस्या को सम्पूर्णता में समझे बिना अविवेक पूर्ण वक्तव्य।
ReplyDeleteसंगीता जी सही कह रही हैं अत्याचार तब भी होता था मगर सब जान नही पाते थे। आज भी होरहा है मगर सब जान जाते हैं\ असल मे जीवन के हर क्षेत्र मे इन्सान अपनी इन्सानियत खोता जा रहा है जब हर मसले पर गिरावट आयी है तो ये मसला भी और नीचता क्रूरता की हद तक चला गया है। समाज के लिये दुर्भाग्यपूर्ण स्थिती है। आभार।
ReplyDeleteसच ही लिखा है आपने।
ReplyDeleteआज दिनांक 21 जुलाई 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में आपकी यह पोस्ट प्यार के दुश्मन शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्कैनबिम्ब देखने के लिए जनसत्ता पर क्लिक कर सकते हैं। कोई कठिनाई आने पर मुझसे संपर्क कर लें।
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