शास्त्री जी ने अभी हाल के ही अपने एक लेख ‘बूढ़े लोगों का क्या काम समाज में !’ में वृद्धों की समस्या व समाज के उनके प्रति बदलते रवैये की बात की थी। यह सच है कि आज का समाज समझ नहीं पा रहा कि वृद्धों का क्या किया जाए। वृद्ध स्वयं समझ नहीं पा रहे कि वे अपने इस इलास्टिक से लम्बे खिंचते जीवन का क्या करें। आधुनिक चिकित्सा शास्त्र ने एक तरफ जहाँ उन्हें लम्बी आयु दी है वहीं यह लम्बी आयु कई वृद्धों के लिए अभिशाप बन गई है। जो वृद्धावस्था की कगार पर खड़े हैं वे भी इस चिन्ता से ग्रस्त हैं कि न जाने कितना जीना पड़े। पैंशन पाने वाले लोगों का अनुपात बहुत कम है। वे कम से कम जीवन यापन के लिए धन की चिन्ता से तो मुक्त हैं। किन्तु भारत की एक बड़ी जनसंख्या पैंशन जैसी सुविधा का केवल स्वप्न देख सकती है। अपने जीवन में ईमानदारी से कमाया धन कम ही लोगों के लिए अस्सी, नब्बे वर्ष जीने के लिए पूरा पड़ सकता है। बहुत कम लोग होंगे जिन्हें बैंक में या फिर बीमा कम्पनी के सिवाय धन का अच्छा निवेश करना आता है। भूतकाल का कमाया पैसा कभी भी भविष्य की मंहगाई के लिए समुचित नहीं हो सकता। फिर लम्बी आयु के साथ दवाई का खर्चा भी जुड़ा हुआ है।
यदि जीवन यापन के लिए पैसे की समस्या को छोड़ भी दें तो भी पति पत्नी में से एक तो पहले संसार से विदा लेगा ही। फिर दूसरे का क्या होगा? कैसे अकेले जियेंगे आदि प्रश्न मुँह बाये खड़े रहते हैं। संयुक्त परिवार इसका एक हल था किन्तु वह था, है नहीं। अधिकतर परिवार अब एकल परिवार हैं। बच्चों के साथ रहना सबके लिए न तो संभव है और न ही व्यावहारिक। संयुक्त परिवार को जो हल मानते हैं वे भी आज के एक या दो बच्चों तक सीमित परिवार में पुराने समय के पुत्रों के साथ रहने वाले चलन को हल नहीं मान सकते। क्योंकि जब दो या एक ही संतान होगी तो बहुतों को पुत्रियों के साथ रहना होगा, जो पुराने जमाने वाले चलन को मानने वालों को मान्य नहीं होगा। या फिर बहुतों की बहू के माता पिता भी बेटे बहू के साथ रहेंगे, यह स्वीकारना होगा। सो इस इलाज को तो खारिज किया जा सकता है।
चीन में एक संतान का तो कानून ही बन गया था। ऐसे में एक नवदम्पत्ति के साथ दोनों के माता पिता व दादा दादी व नाना नानी भी रहेंगे क्या ? यदि हिसाब लगाएँ तो दो जोड़ी माता पिता, दो जोड़ी नाना नानी, दो जोड़ी दादा दादी हर दम्पत्ति के हिस्से में आएँगे। कुल हो गए बारह, एक दर्जन ! क्या कोई भी भला मानुष कितनी भी अच्छी संतान से दर्जन भर वृद्धों की देखभाल की अपेक्षा कर सकता है ? आप कहेंगे सब तो इतना लम्बा नहीं जीयेंगे। सही है। यदि संतानोत्पत्ति की औसत आयु २५ वर्ष रखी जाए तो माता पिता की पीढ़ी ५० से साठ की होगी और नाना नानी, दादा दादी की ७० से ८० की। अब अपने आस पास देखिए, आपको लगभग सभी लोग जो एक बार ६० या ६५ की आयु पार कर जाते हैं ७० या ८० वर्ष की उम्र तक आराम से जीते मिलेंगे। एक दर्जन को घटाकर आधा भी कर दें तो भी आधा दर्जन वृद्धों की देखभाल भी कोई हँसी मजाक तो होगी नहीं। सो जो संयुक्त परिवार में विश्वास करते हैं, उसे आदर्श मानते हैं वे भी इसे व्यावहारिक तो नहीं मान सकते। भारत में हममें से बहुत दो संतानों वाले हैं तब भी यदि सभी संतानें आदर्श हुईं तो भी कम से कम तीन या चार वृद्धों का ध्यान तो हरेक को रखना ही होगा। सो इस परिकल्पना/ hypothesis को भी खारिज करना होगा।
इस समस्या को सुलझाने के कुछ व्यावहारिक व सरल सम्भव उपायों पर चर्चा किसी और दिन करूँगी। आज तो इससे जुड़ा एक रोचक व क्रान्तिकारी प्रसंग सुनाती हूँ।
एक २८ वर्ष के युवक ने एक ५२ वर्ष की स्त्री से विवाह किया है। आश्चर्य की बात यह है कि न तो उम्र का मेल है, न पढ़ाई का और न ही वर्ग का। अल्पेश जहाँ अच्छा खासा कमाता है वहीं गंगा के तीन पुत्र व दो पुत्रियाँ हैं। वह पाँच वर्ष से विधवा थी। वह अपने पुत्रों द्वारा उपेक्षित उनके दोमंजिले मकान की छत पर तम्बू तानकर जीवन यापन कर रही थी। अल्पेश की माँ मानसिक रोगी है व उसे देखभाल की आवश्यकता है। अल्पेश के पिता की उसके बचपन में ही मृत्यु हो गई थी। दादा दादी या नाना नानी ने उसे पाला व शायद उसकी माँ की भी देखभाल की।
अल्पेश के लिए विवाह के प्रस्ताव तो आ रहे थे किन्तु उसे लगता था कि शायद ही कोई लड़की उसकी माँ के साथ रहना पसन्द करेगी। अन्त में उसे पत्नी या माँ में से एक को चुनना पड़ेगा। गँगा उनके घर आती थी और उसकी माँ से घुली मिली हुई थी। सो अल्पेश को लगा कि वही उसके लिए उचित रहेगी। उन दोनों में आपसी समझ, आदर व प्यार भी है। वे 'बिना मूल्य अमूल्य सेवा नामक विवाह संस्था' में गए। उन्हें ऊँच नीच बताया गया। गंगा अब माँ नहीं बन सकेगी बताया गया। अलग अलग से समझाने पर भी उनका आपसी विश्वास नहीं डगमगाया। सो बहुत सादगी से उनका विवाह किया गया। सो इस तरह से एक आधुनिक श्रवण ने अपनी माँ की सुविधा के लिए ऐसा निर्णय लिया।
भविष्य में क्या होगा कोई नहीं कह सकता किन्तु बात चकित करने वाली अवश्य है।
घुघूती बासूती
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
बहुत विचारोत्तेजक आलेख है...
ReplyDeleteफिलहाल इतना ही कह सकता हूं...
पौराणिक श्रवणकुमार का मामले में तो कोई पेच ही नहीं था...
ये श्रवणकुमार कालजयी है...
28 वर्ष के इस युवक ने 52 वर्ष की महिला से विवाह को आप ने वृद्धों के संरक्षण का जो हल बताया है वह आपत्कालीन तो हो सकता है लेकिन इसे एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में स्वीकार किया जाना असंभव है। आखिर वह महिला कब तक उस युवक का साथ देगी? और उस युवक की वृद्धावस्था में क्या होगा जिस के न कोई संतान होगी?
ReplyDeleteबढ़ती आबादी और एकल परिवारों की वृद्धि के साथ ही समाज एक नई संरचना की ओर बढ़ रहा है। भविष्य में आबादी का कम होना अवश्यंभावी है। नई परिस्थितियों में परिवार नए रूपों को भी ग्रहण करेगा। विचार करने की बात यह है कि ये नए रूप क्या हो सकते हैं? किसी न किसी रूप में सामूहिक जीवन ही उस का विकल्प है। परिवार की संकुचित परिभाषा को विस्तृत करना होगा और सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में उस के अनुरूप स्थान बना कर विकल्प तलाशने होंगे।
वाकई में चकित करने वाली है..
ReplyDeleteबहुत चिंतन परक -"उन दोनों में आपसी समझ, आदर व प्यार भी है" यही बात सबसे अधिक मायने रखती है उम्र के फर्क से भी ज्यादा ! इस विचारपरक पोस्ट के लिए शुक्रिया !
ReplyDeleteकुछ साल बाद एक और गंगा की जरूरत होगी इस गंगा की देखभाल को , वैसे यह श्रवण कुमार है याद रखने लायक
ReplyDeleteयह एक नया सन्देश है समाज के लिए ,बिखरते हुए सामाजिक मूल्य और सामाजिक सहभागिता अभी बहुत कुछ नया करेगी और करायेगी .
ReplyDeleteमां व्यस्त रहती थीं सुबह से
ReplyDeleteघर के कामों को निपटाने में
हमारी किताबें लगाने में
बाबू जी की आफिस की तैयारी में
उनकी बिखरी चीजों को समेटने में
उनकी कमीज में बटन टांकने में
सांझ को जब बाबू जी आते
और हम घर सिर पर उठाते
तो बाबू जी कहते,
सुन रही हो
आयो तुम भी बैठो कुछ देर को
आती हूं जीकुछ चाहिए है आपको
पूछ कर मां लौट आती
इतना कह कर मां लग जाती अगले काम में
आज मां नहीं है हमारे बीच
बाबू जी हैं
अब कोई उनके बटन नहीं टाकता है
बाबू जी अकसर आपने टूटे बटन को छू कर
एक आह सी भरते हैं
और मन में बुदबुदाते हैं
सुनती हो जी
आधुनिक श्रवण कुमार की कहानी रोचक थी. आपके व्यवहारिक उपाय क्या होंगे जानने की उत्सुकता है क्योंकि हमें भी उनमें कहीं अपना भविष्य तलाशना जो है.
ReplyDeleteसमाधान सबके अलग अलग हो सकते है.. कोशिश रहेगी ऐसी समस्या न आ पाए..
ReplyDeleteइस गूढ़ सामाजिक मसले पर चर्चा जरूरी है ।
ReplyDeleteकुछ समझ नही पा रहे है की क्या कहें । वैसे आपके सरल,सम्भव और व्यवहारिक उपायों को जानने की उत्सुकता रहेगी ।
ReplyDeleteAlpesh aur Ganga ki kahani bahut kuchh sochane ke liye, bahut se prashna chhod jaati hai....! baad me kya hoga, ye ek alag baat hai. Magar abhi us ke paas yahi chara tha shayad.
ReplyDeleteVaise bhi jo bhi niyam Kanoon bane hai.n samaaj ke, vo galat to nahi magar hai.n Adarsh sthitiyoN ke liye.Aur Kalpesh ki paristhitiya.n saamanya nahi thi. Jab bhi aap samanya logo se alag jeevan paate haiN, to na chahate hue bhi kuchh asamaanya (leek se hat kar) lene hi padte haiN...!!!
vichaarniya vishay
Is Vishay mai to ek gambhir charcha honi hi chahiye...
ReplyDeleteपढकर चकित हुआ। आपने बुजुर्गो की समस्या जिक्र कर एक सही सवाल उठाया है। और यह भी सही है इसका समाधान भी निकालना चाहिए बैशक वो सरकारी तौर हो या समाजिक तौर पर हल अवश्य निकलना चाहिए।
ReplyDeleteआपने इस सामाजिक मुद्दे को बहुत अच्छे तरीके से प्रस्तुत किया है..इस समस्या को सुलझाने के व्यावहारिक व सरल सम्भव उपायों पर आपकी चर्चा का इंतजार रहेगा..
ReplyDeleteटी वी पर ये समाचार देखा था विवाह का निर्णय तो खैर एक निजी निर्णय है ...
ReplyDelete.पर समाज में वर्द्धो के प्रति इस इस सोच की वजह पू रे समाज के ही चरित्र में एक गिरावट है जहाँ टेक्नोलोजी के साथ संवेदना का ह्रास हुआ है .पारिवारिक मूल्यों का विघटन ओर जिम्मेदारियों से पलायन की भावना मजबूत हुई है .... निजी स्वार्थ .,एकल परिवार जैसे तत्व भारतीय समाज में घुसपैठ कर गये है ...तभी भारतीय कानून में भी संशोधन की आवश्यकता पड़ी .
रोचक, विचारणीय पोस्ट!
ReplyDeleteऔर विकसित देशों में लोगों ने बच्चे पैदा करने छोड़ दिए क्यूंकि बड़े होते हिन् वे अलग हो जाते हैं और अपनी मर्जी से जीने लगते हैं. और फिर माँ-बाप का क्या होता है इनसे उनको कोई फर्क नहीं पड़ता.
ReplyDeleteघुघूती जी अल्पेश नें जो किया ये उसका अपना निर्णय है इसलिए आगामी चुनौतियां और परिणाम भी उसी के हिस्से में आना है ! परन्तु इस विषय में मेरी प्रथम प्रतिक्रिया ये है :
ReplyDeleteलगभग 15 वर्ष बाद अल्पेश 43 वर्ष के और गंगा 67 वर्ष की हो जायेंगी ! अल्पेश की मां अगर गंगा से बड़ी हों तो ? या समवयस्क हों तो भी ? अल्पेश की पत्नी और मां , दोनों को ही 'देखभाल' की आवश्यकता होगी ! क्या तब अल्पेश फिर से किसी "केयरटेकर" की तलाश करेंगे ?
सभी जानते हैं कि जीवन की 'सहजता' और 'कुंठाओं' का सेक्स से बहुत ही गहरा नाता है इसीलिए अल्पेश का निर्णय (प्रयोग) उसके शेष जीवन की दिशा तय करने वाला है ?
......
वैसे अभी तक यह सुनिश्चित नहीं हुआ है कि अल्पेश वाकई में एक आदर्शवादी युवा है और वह घर के अन्दर श्रवण कुमार तथा घर के बाहर सावन कुमार सा दोहरा जीवन नहीं जियेगा ?
वैचारिकता को चुनौति देती पोस्ट के लिये साधुवाद...
ReplyDeleteजब मां बाप दो बच्चो को समभाल सकते है, उन्हे लिखा पढा कर इतनी तप्स्या करते है, बच्चो को अपने पेरो पर खडा करते है तो उन्हे तो कोई कठिनाई नही होती, कोई फ़र्क नही पडता, मां रात को खुद गीले पर सोती है, बाप खुद पुराना जुता पहन लेता है, लेकिन बेटे बेटी की हर इच्छा पुरी करता है, तो बडे होने पर ऎसी कोन सी मुसिबत बन जाते है यह बुढे मां बाप जिन्हे बच्चे अपने साथ नही रख सकते.......?
ReplyDeleteyah anukarneey to beshak nahin hi hai....bas ek tatkaalin samasya kaa tatkaalin nirakaran bhar hai....lekin usase bhi jyada samayaaon ko paida karne vala....jo samay ke saath paida ho jaane vali hai....dekhne men sab hal aasaan hi lagte hain lekin vyavahaarikta bhi ik cheez hoti hai....aur jarurat bhi ik cheez....sabhi cheezon ko agar aap kasauti par kasen to is nirnay kee nirarthaktaa apne aap ujaagar ho jaayegi....phir samay to hai hi ise galat saabit karne ke liye....!! tatkaalin hal se sabhi cheezon kaa samarthan katyi nahin kiya jaanaa chaaiye....!!
ReplyDeletedilchasp
ReplyDeleteआधुनिक श्रवणकुमार की बात हतप्रभ कर देने वाली है. पूरी पोस्ट ही बहुत अच्छी है. इस मुद्दे पर इतना सार्थक और निष्पक्ष लेख अभी तक नहीं पढ़ा था.
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया पोस्ट.
श्रवण कुमार की बात तो हतप्रद कर देने वाली है ही ...पर मुझे एक और बात हत- प्रद क्र रही है के आपने पंजाबी में कमेन्ट किसे किया ...?? क्या आपको पंजाबी आती है या आप खुद पंजाबी हैं ...???
ReplyDeleteहरकीरत जी, मैं पंजाब के विभाजन से पहले के पंजाब व आज के हरियाणा में पैदा हुई थी। पंजाबी तीसरी भाषा के रूप में आँठवीं तक तीन वर्ष पढ़ी थी। इस बात को चालीस वर्ष हो गए हैं परन्तु पूरी तरह से भूली नहीं हूँ। समझ तो सकती हूँ, बोलना भूल गई हूँ। पिछले वर्षों केवल ट्रकों के पीछे ही लिखा देखने को मिलता था। पाबला जी ने जब टाइप किया हुआ दिखाया तो पढ़ पा रही हूँ देख कर बेहद खुशी हुई। उन्होंने ही कुछ ब्लॉग लिंक दिए। शायद लिख स्वयं नहीं पाती किन्तु नेट ने बहुत कुछ सम्भव कर दिया है। अब पंजाबी के लेख व कहानी पढ़ना चाहूँगी।
ReplyDeleteपंजाब में पैदा होने के कारण कुछ प्रतिशत तो पंजाबी भी हुई। वैसे हमारे परिवार में एक विशुद्ध पंजाबी सदस्या भी हैं।
घुघूती बासूती
Gambhir vishay, jis par nirnayak charcha honi chahiye.
ReplyDeletei heard that ghughuti is named for a bird ?
ReplyDeletecan you tell me or send me a photograph ?
I can only recollect the "Future shock" in this regard, where author says that people are going to live a long life. And It is quite impossible that they will have one partner throughout from 20-90, 70 years is a long time, people change, and partnership that was opted at 20 may not stand after 20 or 40 years time. So he brings the need-based idea of husbands and wife, may be it will become ritual and next generation can opt of more than one marriage as a law.
ReplyDeleteIt has become to some extent reality in small section of the Indian society. It may consume more.
I really do not have much opinion on the morality of both cases, but as a observer I see that stereotypes of traditional marriage are breaking at various fronts. Cast became the first target, religion the other one, and now the age difference will be shattered.
May be it may in long run can shape the institution of marriage, purely as need based arrangement and can rip it off from the fantasies and life long commitments, and poetic melodrama.
Who knows living within these marriage may become much easier, more humane for both partners?
स्वप्नदर्शिनी ने बात मेरे मुंह से छीन ली। मैं भी एल्विन टोफ्लर की किताबों - फ्यूचर शोक, थर्डवेव और पावरशिफ्ट - को ही उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करने की सोच रहा था, इस लेख की टिप्पणी के रूप में।
ReplyDeleteखैर, स्वप्नदर्शिनी की बातों को न दुहराते हुए, यह कहना चाहूंगा कि जापान, जर्मनी, इटली, आदि अनेक देश इस समस्या से पहले से ही हमसे ज्यादा परेशान हैं, और उन्होंने इसके समाधान के रूप में जो सब किया है, वह हमारे लिए मार्गदर्शन का काम कर सकता है।
इनमें से अधिकांश देशों में तगड़ी सोशल सेक्योरिटी की व्यवस्था है। इसलिए बेरोजगारी, बीमारी, वार्द्धक्य आदि वहां उतनी समस्याएं नहीं हैं जितनी हमारे देश में।
हम अपने श्रवण कुमारों का गुणगान करते हैं, चाहे वे इसके लायक हों या नहीं, पर ईमानदारी से पूछा जाए, तो अधिकांश तथाकथित श्रवणकुमार अपने परिवार के वृद्धों से पीछा छुड़ाना चाहेंगे। उन्हें भी हम कैसे दोष दें, न्यूक्लियर फैमिली का डायनेमिक्स ही ऐसा है कि उसमें मिया-बीवी बच्चे के सिवा और किसी के लिए स्थान ही नहीं है।
अब इस न्यूक्लियर फैमिले के इर्द-गिर्द की कानून व अन्य व्यवस्थापरक चीजें बुनी जा रही हैं। उदाहरण के लिए कर्मचारी को अपने कार्यालय से जो यात्रा भत्ता मिलता है, उसमें पत्नी और बच्चे ही शामिल होते हैं, न कि माता-पिता। आजकल की अधिकांश फ्लैटों का डिजाइन भी ऐसा होता है कि उसमें एक न्यूक्लियर परिवार ही ठीक से रह सकता है। यदि मजबूरी में पति-पत्नी के माता-पिता भी उन कबूतरखानों में ठूंस दिए जाएं, तो सबका पारा चढ़ने लगेगा और घर कलह का अड्डा बन जाएगा।
और वृद्धों की कुछ विशिष्ट आवश्यकताएं होती हैं, उनके जीवन का रिथम (लय) युवाजनों से अलग होता है, इत्यादि।
इसलिए व्यावहारिक यही लगता है कि वृद्धों के लिए अलग व्यवस्था की हम गंभीरता से सोचने लगें। यह वृद्धाश्रमों का रूप ले सकता है जिसमें पेशेवरीय लोग वृद्धजनों की देखभाल करेंगे। इसके व्यावहारिक पहलुओं पर हमें शीघ्र काम करना चाहिए, ताकि हमारे श्रवणकुमार अन्य कामों की ओर ध्यान दे सकें।
इससे संबंधित कुछ अन्य मुद्दे भी हैं जो विचारणीय हैं। परिवार का स्वरूप ही बदल रहा है। अब अविवाहित लोगों की संख्या भी बढ़ रही हैं। निस्संतान दंपतियों की भी, जिनमें समलैंगिक दंपतियां भी शामिल हैं।
ReplyDeleteऔर लोग देर से शादी कर रहे हैं, 40 पार भी।
इसलिए वृद्धों की समस्या को अकेले में नहीं देखा जा सकता है।
सारा समाज ही बदल रहा है।
apka bahut bahut dhanyawaad..!ye aalekh mere vaaad vivaad pratiyogita me bahut kam ayega ..! :)
ReplyDeleteसमस्या के दो इलाज है. एक पश्चिमी तरिका - वृद्धाश्रम बनाइए. दुसरा तरिका वैदिक तरिका - पारम्परिक मूल्यों को जीवीत रखिए - माता-पिता की सेवा को जिम्मेवारी मानिए - बोझ न समझिए.
ReplyDelete