Sunday, February 25, 2007

घुघूती बासूती क्या है, कौन है ?

घुघूती बासूती क्या है, कौन है ?
उत्तराखंड का एक भाग है कुमाऊँ ! वही कुमाऊँ जिसने हिन्दी को बहुत से कवि, लेखक व लेखिकाएँ दीं, जैसे सुमित्रानंदन पंत,मनोहर श्याम जोशी,शिवानी आदि ।
वहाँ की भाषा है कुमाऊँनी । वहाँ एक चिड़िया पाई जाती है जिसे कहते हैं घुघुति । एक सुन्दर सौम्य चिड़िया । मेरी स्व दीदी की प्रिय चिड़िया । जिसे मामाजी रानी बेटी की यानी दीदी की चिड़िया कहते थे । घुघुति का कुमाऊँ के लोकगीतों में विशेष स्थान है ।
कुछ गीत तो तरुण जी ने अपने चिट्ठे में दे रखे हैं । मेरा एक प्रिय गीत है ....
घूर घुघूती घूर घूर
घूर घुघूती घूर,
मैत की नौराई लागी
मैत मेरो दूर ।
मैत =मायका, नौराई =याद आना, होम सिक महसूस करना ।
किन्तु जो गहराई, जो भावना, जो दर्द नौराई शब्द में है वह याद में नहीं है । नौराई जब लगती है तो मन आत्मा सब भीग जाती है , हृदय में एक कसक उठती है । शायद नौराई लगती भी केवल अपने मायके, बचपन या पहाड़ की ही है । जब कोई कहे कि पहाड़ की नौराई लग रही है तो इसका अर्थ है कि यह भावना इतनी प्रबल है कि न जा पाने से हृदय में दर्द हो रहा है । घुघूती बासूती भी नौराई की श्रेणी का शब्द है ।
और भी बहुत से गीत हैं । एक की पंक्तियां हैं ...
घुघूती बासूती
भै आलो मैं सूती ।
या भै भूक गो, मैं सूती ।
भै = भाई
आलो=आया
भूक गो =भूखा चला गया
सूती=सोई हुई थी
यह एक लोक कथा का अंश है । जो कुछ ऐसे है , एक विवाहिता से मिलने उसका भाई आया । बहन सो रही थी सो भाई ने उसे उठाना उचित नहीं समझा । वह पास बैठा उसके उठने की प्रतीक्षा करता रहा । जब जाने का समय हुआ तो उसने बहन के चरयो (मंगलसूत्र) को उसके गले में में आगे से पीछे कर दिया और चला गया । जब वह उठी तो चरयो देखा । शायद अनुमान लगाया या किसी से पूछा या फिर भाई कुछ बाल मिठाई (अल्मोड़ा, कुमाऊँ की एक प्रसिद्ध मिठाई) आदि छोड़ गया होगा । उसे बहुत दुख हुआ कि भाई आया और भूखा उससे मिले बिना चला गया , वह सोती ही रह गई । वह रो रोकर यह पंक्तियाँ गाती हुई मर गई । उसने ही फिर चिड़िया बन घुघुति के रूप में जन्म लिया । घुघुति के गले में, चरयो के मोती जैसे पिरो रखे हों, वैसे चिन्ह होते हैं । ऐसा लगता है कि चरयो पहना हो और आज भी वह यही गीत गाती है :
घुघूती बासूती
भै आलो मैं सूती ।
किन्तु कहीं घुघुति और कहीं घुघूती क्यों ? जब भी यह शब्द किसी गीत में प्रयुक्त होता है तो घुघूती बन जाता है अर्थात उच्चारण बदल जाता है ।
इस शब्द के साथ लगभग प्रत्येक कुमाऊँनी बच्चे की और माँ की यादें भी जुड़ी होती हैं । हर कुमाऊँनी माँ लेटकर , बच्चे को अपने पैरों पर कुछ इस प्रकार से बैठाकर जिससे उसका शरीर माँ के घुटनों तक चिपका रहता है, बच्चे को झुलाती है और गाती है :
घुघूती बासूती
माम काँ छू =मामा कहाँ है
मालकोटी =मामा के घर
के ल्यालो =क्या लाएँगे
दूध भाती =दूध भात
को खालो = कौन खाएगा
फिर बच्चे का नाम लेकर ........ खालो ,....... खालो कहती है और बच्चा खुशी से किलकारियाँ मारता है ।
मैं अपने प्रिय पहाड़, कुमाऊँ से बहुत दूर हूँ । पहाड़ की हूँ और समुद्र के पास रहती हूँ । कुमाऊँ से मेरा नाता टूट गया है । लम्बे समय से वहाँ नहीं गई हूँ । शायद कभी जाना भी न हो । किन्तु भावनात्मक रूप से वहाँ से जुड़ी हूँ । आज भी यदि बाल मिठाई मिल जाए तो ........
वहाँ का घर का बनाया चूड़ा ( पोहा जो मशीनों से नहीं बनता , धान को पूरा पकने से पहले ही तोड़ लिया जाता है ,फिर आग में थोड़ा भूनकर ऊखल में कूट कर बनाया जाता है ।) अखरोट के साथ खाने को जी ललचाता है । आज भी उस चूड़े की , गाँव की मिट्टी की महक मेरे मन में बसी है । मुझे याद है उसकी कुछ ऐसी सुगन्ध होती थी कभी विद्यालय से घर लौटने पर वह सुगन्ध आती थी तो मैं पूछती थी कि माँ कोई गाँव से आया है क्या ? मैं कभी भी गलत नहीं होती थी । यदि कोई आता तो साथ में चूड़ा , अखरोट , जम्बू (एक तरह की सूखी पत्तियाँ जो छौंका लगाने के काम आती हैं और जिन्हें नमक के सा पीसकर मसालेदार नमक बनाया जाता है ।), भट्ट (एक तरह की साबुत दाल) , आदि लाता था और साथ में लाता था पहाड़ की मिट्टी की महक ।
वहाँ के फल , फूल, सीढ़ीनुमा खेत , धरती, छोटे दरवाजे व खिड़कियों वाले दुमंजला मकान ,गोबर से लिपे फर्श , उस फर्श व घर की चौखट पर दिये एँपण , ये सब कहीं और नहीं मिलेंगे । एँपण एक तरह की रंगोली है जो कुछ कुछ बंगाल की अल्पना जैसी है । यह फर्श को गेरू से लेप कर भीगे पिसे चावल के घोल से तीन या चार उँगलियों से बनी रेखाओं से बने चित्र होते हैं । किसी भी कुमाऊँनी घर की चौखट को इस एँपण से पहचाना जा सकता है । दिवाली के दिन हाथ की मुट्ठियों से बने लक्ष्मी के पाँव ,
जो मेरे घर में भी हैं बनते हैं । वे जंगलों में फलों से लदे काफल, किलमोड़े, व हिसालू के वृक्ष । जहाँ पहाड़ों में दिन भर घूम फिर कर अपनी भूख प्यास मिटाने के लिए घर नहीं जाना पड़ता, बस फल तोड़ो और खाओ और किसी स्रोत या नौले से पानी पियो और वापिस मस्ती में लग जाओ । वे ठंडी हवाएँ ,वह बर्फ से ढकी पहाड़ों की चोटियाँ, चीड़ व देवदार के वृक्ष !
बस इन्हीं यादों को , अपने छूटे कुमाऊँ को , अपनी स्व दीदी की याद को श्रद्धा व स्नेह के सुमन अर्पण करने के लिए मैंने स्वयं को नाम दिया है घुघूती बासूती ! है न काव्यात्मक व संगीतमय, मेरे कुमाऊँ की तरह !
घुघूती बासूती
पुनश्च : यह पढ़ने के बाद यदि अब आप मेरी कविता उड़ने की चाहत पढ़ें तो आपको उसके भाव सुगमता से समझ आएँगें ।
घुघूती बासूती

Sunday, February 18, 2007

मैं सूर्यमुखी

मैं सूर्यमुखी वह मेरा सूरज
दिन भर उसको मैं तकती जाऊँ,
पाकर उसको अपने सम्मुख
मैं विचित्र सा सुख पाऊँ,
उसकी किरणें हैं जीवनदायी
ना पाऊँ तो मुरझाऊँ ।

जब पड़ती दृष्टि उसकी मुझपर
मैं हँसती और मुस्काती,
जब आता वह मेरे आकाश में
झूम झूम मैं बलखाती,
पाकर उसकी धूप की गर्मी
हर पँखुड़ी मेरी खिल जाती ।

क्या है उसमें ऐसा
जो देख उसे मैं इठलाती,
उसकी एक मुस्कान पा
मदहोश सी मैं हो जाती,
चाहत है उसकी कुछ ऐसी
उसकी दिशा में मैं मुड़ती जाती ।

जब वह ना दिखे गगन में
व्याकुल सी मैं हो जाऊँ,
बादल कहें, अरी कृतघ्नी,
मैं भी तो तुझपर जल बरसाऊँ,
चंदा कहता, देख मुझे भी
मैं ही चाँदनी से तुझे नहलाऊँ ।

भंवरा आता गीत सुनाता
मंद पवन मुझे झुलाए,
तितली आती मंडराती
मेरे रस के गुण गाए,
पराग कणों में लिपट लिपट
मेरे रंग में वह रंग जाए ।

पर मैं तो उस रंग रंगी हूँ
जिसपर ना कोई रंग चढ़े,
प्रतीक्षा में बैठी हूँ उसकी
कब मुझपर उसकी किरण पड़े,
उसको ही लेकर तो मैंने
न जाने कितने स्वप्न बुने ।

पलकें बिछाए उसकी राहों में
बैठी हूँ कितने युग से,
सारा वैभव ले लो वापिस
ना छीनो मेरा सूरज मुझसे,
मुझे लौटा दो मेरा सूरज
जीवन चाहे ले लो मुझसे ।

मैं सर्यमुखी वह मेरा सूरज
उसपर तो मैं वारी जाऊँ,
पकड़ पकड़ उसकी किरणों को
मैं प्रेम करूँ और सहलाऊँ,
उसे समेट अपने अन्तः में
मैं स्वयं से ही छिप जाऊँ ।

घुघूती बासूती

Monday, February 12, 2007

कविता : वह मैं भी तो हो सकती थी

वह सड़क के किनारे
कचरेदान में से
कुछ खोज रही है।
फटे कपड़े, उलझे बाल,
मैल की परतों जमा शरीर,
भूखा पेट
सूनी आँखें ।
और वह उसकी साथी,
वह फिर भी
खिलखिला रही है ।
शायद उसे कचरे में
कुछ छिपा खजाना
मिल गया है ।
शायद एक बिस्किट का पैकेट,
या कोई साबुत चूड़ी
या कोई पहनने लायक कपड़ा ।

वह जेब कतर कर
भाग रहा है।
पीछे लोग 'पकड़ो'
चिल्लाते भाग रहे हैं।
शायद जेब कतरना
उसकी मजबूरी है
या शायद उसका शौक ।

वह सजधजकर
ग्राहक ढूँढ रही है।
पुता हुआ चेहरा,
कुछ लटके झटके,
विचित्र से कपड़े
विचित्र हाव भाव ।
कुछ लोग उससे कतरा कर
दूर से गुजर रहें हैं।
कुछ उसे देख
खींसें निपोर रहे हैं।

वह ना जाने कितने
बच्चों को मार
एक समाचार
बन गया है,
एक नर पिशाच
बन गया है।
उसका चेहरा
हमारे स्मृति पटल
पर खुद गया है।

वह अपने बच्चे को
चन्द रुपयों के लिये
बेच चुकी है।
वह अपने पति को
मौत के घाट
उतार चुकी है।
वह अपनी बहू को
जला कर राख
कर चुकी है।

वह रिश्वत
खा रहा है
चारा तो चारा
वह तो भैंस
को भी निगल
एक डकार तक
न ले रहा है।

वह एक लड़ाकू
पायलट बनने के
सपने देख रहा है।
जानता है,
मिग आकाश से
ऐसे टपकते हैं
जैसे सड़े फल
पेड़ से धरती पर
गिरते हैं।
फिर भी आँखों में
सपने हैं,
देश के लिये
जीने मरने के।

वह एक नेता है
देश को कुछ देता है
और देश का
वह बहुत कुछ
ले लेता है।
आज इधर है
तो कल उधर
उसे देख तो
बेपैन्दी का लोटा भी
बहुत कुछ सीख लेता है।

इन सबमें से
कोई भी
मैं हो सकती थी।
यदि मैं
उनकी जगह खड़ी होती
तो वह ही हो सकती थीं
शायद कुछ उन्नीस
या इक्कीस
पर बहुत कुछ
वह ही हो सकती थी।

मैंने उनका जीवन
जिया नहीं,
उनके अनुभव
जिये नहीं,
मैंने उनका कल
देखा नहीं,
उनका यह विशेष
उनकापन नहीं झेला।

मैं किसी अलग
भगवान या अल्लाह
को मान सकती थी,
मैं हिन्दु या मुसलमान
सिख या क्रिस्तान
हो सकती थी।
मस्जिद का ढहना
या बनना ,
मन्दिर का निर्माण
या न हो पाना निर्माण
किसी और रूप में
ले सकती थी।

बुश या लादेन
कुछ भी हो सकती थी।
और जो भी होती,
मैं अपने आप को
हर हाल में
सही ठहरा सकती थी।

पर मैं, मैं हूँ
क्योंकि
मैं किन्हीं और
हालातों और परिवेश
की उपज हूँ।
किन्हीं और शुक्राणु और
अन्ड का मेल हूँ।
यदि वह शुक्राणु विशेष
ना दौड़ में प्रथम आता
तो कुछ और होती।
यदि कुछ जीन यहाँ से वहाँ होते
तो कुछ और होती।
यदि मेरे मस्तिष्क के तार
कुछ अलग जुड़ते
तो भी कुछ और होती।

यदि वह घटना या
दुर्घटना, मेरे जीवन
में घटित होती,
या जो घटीं
वे ना घटी होतीं,
या फिर हालात
थोड़े भी कुछ और होते
तो मैं कुछ और होतीं ।
मैं शायद इनमें से
कोई भी होती।
हाँ,
वह मैं भी हो सकती थी ।

घुघूती बासूती

Friday, February 09, 2007

तुम बिन

तुम बिन
आज हम अकेले हैं इतने
सबसे दूर निकल आये हैं कितने
जो तुम थाम लो पल भर को
थकी साँसों को सहारा मिले तेरी साँसो का
थकी बाँहों को मिले सहारा तेरी बाँहों का
तू बुला ले मुझे समीप इतने
तेरी खुशबू के पहन लूँ मैं गहने।

खोई हुई हूँ तेरे खयालों में
उलझी हुई हूँ मैं सवालों में
क्यों रूठा हुआ है जीवन हमसे
रुकी हुई हूँ बँधी झरने की धारा की तरह
ठहरा हुआ है समय बाँध के पानी की तरह
तू तोड़ दे इन सारे किनारों को
मिलने दे अपने में ए सागर मुझको ।

टूटे हैं हम कुछ इतने
छूटे हैं जबसे कोई अपने
खो गया है आलम्बन मेरा
भूले तुम कि लता जीती नहीं बिन तरू के
कि घटा होती नहीं घटा बिन जल के
बिन मेरे तुम भी तो मेहुल हो अधूरे से
भर ले अपने बादलों को मेरे जल से ।

जल रही हूँ मैं तुम बिन,बिन लौ के दीए की तरह
भटक रही हूँ मरूस्थल में प्यासी हिरनी की तरह
आ जाओगे जो तुम मेरी दुनिया में
खिलने लगेगें पुष्प फिर से पतझड़ में
उड़ने लगेगीं तितलियाँ फिर से उपवन में
तुम जल तो मैं कमलिनी बन जाऊँगी
तुम फूल तो मैं तेरी महक बन जाऊँगी ।

घुघूती बासूती

Tuesday, February 06, 2007

जो तुम बसते मेरे उर में

जो तुम बसते मेरे उर में

जो तुम बसते मेरे उर में,
बुझ जाती जन्मों की प्यास,
जो तुम बसते मेरे उर में,
महक जाती मेरी हर साँस।

मिट जाती सब मन की उलझन,
कम होती कुछ देह कि जकड़न,
बढ़ जाती शायद हृदय की धड़कन,
पर कुछ कम होता अन्त: क्रन्दन।

जो तुम बसते मेरे उर में,
जीवन आकाश सा असीम बन जाता,
हर निशा तारों जड़ित होती,
हर निशा मन शशि बन जाता।

पूरे होते कुछ तो सपने,
तुम भी लगते कुछ तो अपने,
शायद लगते हम तुमसे कुछ कहने,
शायद लगते तुम भी कुछ सुनने।

जो तुम बसते मेरे उर में,
मैं नदिया तुम सागर होते,
जो तुम बसते मेरे जल में,
मैं नौका तुम माँझी होते।

मन से मन की बातें होतीं,
मनोहारी ये शामें होतीं,
तनहाई की ना ये रातें होतीं,
हर धड़कन में ना आहें होतीं।

जो तुम बसते मेरे उर में,
हर पल ना दिल बोझिल होता,
जो तुम बसते मेरे उर में,
हर दिन ना ये श्रापित होता।

दिन भर मन ये कविता लिखता,
और शाम तुम्हारी बाट जोहता,
दिन भर मन ये सपने बुनता,
तुम आते तो हर सपना पूरा होता।

जो तुम बसते मेरे उर में,
बन घुघुति मन पक्षी उड़ता,
जो तुम बसते मेरे उर में,
जीवन स्वर्ण पिन्जरा ना लगता।

हर उमंग यूं शिथिल ना पड़ती,
हर ख्वाहिश ना दिल में घुटती,
तुमसे मिल मैं गगन में उड़ती,
तोड़ तारे अपने आँचल में जड़ती।

जो तुम बसते मेरे उर में,
शून्य सा ना ये मन होता,
जो तुम बसते मेरे उर में,
सूना सा ना ये हर पल होता।

मन गाता तुम बाँसुरी बजाते,
मन पींगें लेता तुम मुझे झुलाते,
मैं दिवास्वप्न देखती तुम मुझे जगाते,
मैं सजती तुम मुझे सजाते।

जो तुम बसते मेरे उर में,
हर पल इक क्रीड़ा सा होता,
जो तुम बसते मेरे उर में,
वक्ष पर तब यह पत्थर ना होता।

प्रणय होता जीवन का आधार,
मीठी होती जीवन सरिता की धार,
हर पल होती प्रेम की बौछार,
बस प्रेम ही होता अपना आहार।

जो तुम बसते मेरे उर में,
हो जाता जीवन साकार,
जो तुम बसते मेरे उर में,
मिल जाता जीने का आधार।

पर,
पर, क्या तुम बसते मेरे उर में?
क्या तुम जीते मेरे हर पल में?
क्या तुम आते मेरे जीवन में?
क्या तुम पाते निर्वाण मेरे आँचल में?

घुघूती बासूती