एक उम्र ऐसी आती है कि हर महीने दो महीने में (पति के व्हट्स एप ग्रुप में ) समाचार आता है कि यह या वह चला गया. कोई सोए में तो कोई दो चार दिन की बीमारी में.
परसों जिनकी मृत्यु का समाचार मिला उन्हें मैं स्कूल के दिनों से जानती थी. बहुत ही प्यारे व्यक्ति. ( थे कहने में मन कचोटता है) उतने ही निरापद जितना कोई नवजात. लगभग दस वर्ष पहले पति उनसे मिले थे . उन्हें पार्किन्सन रोग था. वह ओजस्वी मित्र ऐसे रोग से जूझ रहा होंगे सोचकर मन खिन्न हो गया. हो सकता है मृत्यु शायद उनके लिए मुक्ति ही रही हो.पति के रिटायर होते ही सबसे पहले जिनकी मृत्यु का समाचार मिला था वे घर आते रहते थे. फिटनेस के शौक़ीन वे जिम जाते थे. ६७ वर्ष के अविवाहित व्यक्ति किसी के द्वारा अंकल कहलाना सह नहीं पाते थे. उनकी अस्सी वर्षीय माताजी उनसे भी अधिक शौक़ीन थीं. पार्टियों में अवश्य जातीं. ये मित्र सोए सोए संसार को विदा कह गए. उनकी माँ पर सुबह क्या गुज़री होगी सोच पाना भी कठिन था.
कोविड काल में तो हमारी उम्र के वृद्ध वृद्धा वैसे गए जैसे आंधी तूफ़ान में पुराने पेड़. कभी कभी लगता है जो जो मित्र चले गए उनकी एक सूची बनाई जाए. पता नहीं आखिरी व्यक्ति जो रह जाएगा कौन होगा और वह कितना अकेला होगा.
लगता है हम सब एक बेल पर लगी हुई ककड़ियाँ हैं. जो पक पक कर बेल से अलग हो रही हैं. हम जो इस आयु तक पहुंचे हैं कि अपने आप से बेल से अलग हो जा रहे हैं भाग्यवान हैं. वे जिन्हें अकाल मृत्यु ने बलात बेल से तोड़ लिया कम भाग्यवान थे. कुछ वैसे ही जैसे जब बाल के गिरने का समय आ जाता है वह अपने आप झड़ जाता है. यदि उसे खींचकर निकाला जाए तो बहुत दर्द होता है.
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् .