कभी कभी कोई बात हमें लम्बे समय से परेशान कर रही होती है, लगता है कि कुछ गलत है। फिर जब दो एक घटनाएँ हमारी चिन्ता के सही होने की पुष्टि कर देतीं हैं तो लगता है कि समस्या का समाधान किया जाए और अन्य लोगों को भी आगाह किया जाए।
जबसे मोबाइल फोन, ई मेल का चलन बढ़ा है हमें अपने परिवार के सदस्यों के शहर या घर बदलने पर नए पते भी नहीं पता होते। नई पीढ़ी ने तो इसी दौरान नई नौकरियाँ करनी शुरू की हैं, सो उनमें से तो कई के पते हमें मालूम नहीं होते। बहुत से भतीजे, भतीजियाँ, भाँजे, भाँजियाँ तो विदेशों में रह रहे हैं। वहाँ भी वे शहर बदलते रहते हैं। ऐसे में बहुधा तो या हमें केवल उनका शहर पता होता है या देश। हाँ, ई मेल व फोन नम्बर अवश्य पता होता है।
यह तो भला हो रक्षा बन्धन का कि इसके कारण भाई का पता तो हर बहन के पास होता ही है। गंभीरता से यदि हम सोचें तो क्या हमारे पास अपने परिवार के हर सदस्य, सगे सम्बन्धी, जान पहचान वाले, मित्र आदि का पता है? यदि उसका ई मेल किसी कारण से गड़बड़ा जाए या उसका ख़ाता बन्द हो जाए, उसका मोबाइल खो जाए तो क्या हम उससे सम्बन्ध स्थापित कर पाएँगे? या फिर हम प्रतीक्षा करेंगे कि वह स्वयं हमसे सम्बन्ध स्थापित करेगा। उसके पास भी तो हमारी ई मेल आइ डी केवल उसके मेल बॉक्स में थी। हमारा फोन नम्बर उसके मोबाइल में था। मोबाइल खोया, ई मेल ख़ाता बन्द हुआ तो यह सब भी गया। या फिर हमारा मोबाइल खो सकता है और ख़ाता बन्द हो सकता है। जब मुम्बई आते से ही पहले ही दिन मेरे पति का मोबाइल फोन खोया तो कितने ही लोगों से उनका सम्पर्क भी टूट गया। डायरी में नम्बर लिखने का चलन तो समाप्त ही होता जा रहा है।
मैंने ऐसी दो घटनाओं के बारे में पढ़ा जहाँ पता न होने, सम्पर्क टूटने से अनर्थ हो गया। एक घटना तो एक फ्रैन्च स्त्री की है जिसके भाई की मृत्यु हो गई। वह, उसका पति व पूरा परिवार भाई को दफ़नाने कब्रिस्तान गए थे। वहाँ से बाहर निकलते समय परिवार के एक सदस्य ने कंगाल गरीबों के लिए सुरक्षित जगह पर एक नई कब्र व कब्र का पत्थर देखा जिसपर लिखा था ओलिवर लेंगले १९६८- २०१०। क्योंकि यह नाम स्त्री के ४२ वर्षीय पुत्र का भी था और जन्म का साल भी वही था अतः उसका ध्यान उसपर गया। उसने स्त्री व उसके पति को दिखाया। स्त्री व उसके पति ने जब पता लगाया तो पता चला कि वह कब्र उनके बेटे की ही थी। वह अपने घर में मृत पाया गया था और किसी अपने का अता पता न होने के कारण उसे गरीबों के लिए सुरक्षित जगह पर दफना दिया गया था।
परिवार ने उसके मामा की मृत्यु पर उसे सूचना देने की कोशिश की थी किन्तु जब सम्पर्क नहीं हो सका तो सोचा कि वह घर पर नहीं होगा या फिर पिछले झगड़े को लेकर अब तक नाराज होगा।
दूसरी घटना में मेखला मुखर्जी नामक एक ३५ वर्षीया स्त्री की दुःखद कहानी है। एडवर्टाइज़िंग व मार्केटिंग की अधिस्नातक इस स्त्री का एक महाराष्ट्रियन सहकर्मी से १९९८ में प्रेम हुआ। २००१ में दोनों ने परिवार के विरोध के बावजूद विवाह किया। जब पति के पिता की मृत्यु हुई तो उसकी माँ इनके साथ रहने आई। मेखला व सास के सम्बन्ध ठीक नहीं रहे व घर में प्रायः लड़ाई होने लगीं। पति ने मीरा रोड में एक मकान खरीदा व मेखला को वहाँ छोड़ दिया और स्वयं माँ के साथ किराए का मकान लेकर रहने लगा। अकेले रहते हुए मेखला की मानसिक स्थिति बिगड़ती गई। पति मकान की ई एम आइ याने मकान के लिए बैंक ऋण की मासिक किश्त देता रहा । मेखला के लिए खाने के लिए २००० रुपए महीने का देकर डिब्बे वाला लगा दिया। किन्तु बिजली के बिल नहीं दिए। २००३ से मेखला बिना बिजली के मकान में बिना पैसों के केवल डिब्बे के सहारे बेहद गन्दगी में जी रही थी। हाल में ही उसने रात को चीखना शुरु कर दिया।
जब एक स्वयंसेवी संस्था को उसकी हालत का पता लगा तो वे उसे इलाज आदि के लिए ले गए। स्किट्सफ्रीनीआ की शिकार मेखला को अपनी दयनीय स्थिति का भान भी न था। वह यही कह रही थी कि वह अपने पति को बहुत प्यार करती है व वह उसे लेने आएगा। उसे तो यह भी पता नहीं कि उसके पति ने २००५ में उससे तलाक ले लिया है व दूसरा विवाह भी कर लिया है। मेखला की खबर व फोटो जब समाचार पत्र में आई तो उसके स्कूल की सहेलियों ने उसकी सहायता की ठानी। तभी मेखला की माँ व चाचा को भी पता चला। अब वे कह रहे हैं कि वे उसके इलाज का खर्चा स्वयं उठाएँगे। उन्हें सहायता की आवश्यकता नहीं है। उन्हें इतने सालों से मेखला की खबर ही नहीं थी। वे यह भी नहीं जानते थे कि वह जीवित है या मृत। अब जब उसकी खबर लग गई है तो वे उसका ध्यान रखेंगे , उसके इलाज का खर्चा देंगे।
भरे पूरे परिवार के होते हुए यदि मनुष्य ऐसे जिए और मरे तो फिर परिवार शब्द ही निरर्थक है। कहीं हमारे परिवार के किसी सदस्य का हाल भी मेखला सा तो नहीं हो रहा और हमें उसका अता पता ही न हो या फिर उसके किसी निर्णय या अन्तर्जातीय विवाह आदि के कारण हमने उससे सम्बन्ध तो नहीं तोड़ दिए? कल यदि कहीं हमारी मेखला या ओलिवर मानसिक चिकित्सालय में या कब्र में मिलेंगे तो क्या हम सह पाएँगे?
शायद एक पते की डायरी, लगातार सम्पर्क व अपनों से थोड़ा सा अधिक स्नेह व उनके निर्णयों को स्वीकार करना हमें ऐसी स्थिति देखने से बचा ले।
घुघूती बासूती
Monday, August 23, 2010
Thursday, August 19, 2010
ईस्ट इंडिया कम्पनी फिर से आ रही है!..............................घुघूती बासूती
जी हाँ, अगले साल के आरम्भ में भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी का पुनार्गमन होगा। सोचकर ही विचित्र लगता है ना! किन्तु इस बार ईस्ट इंडिया कम्पनी को यहाँ लाने वाले भी और इसके मालिक भी लंदन में बसे भारतीय मूल के गुजराती भाई संजीव मेहता हैं। इस १५० वर्ष से निष्क्रिय व बेकार पड़ी कम्पनी के द्वार इस १४ अगस्त को फिर से खोले गए।
संजीव मेहता को लगता है कि यह एक भावुक घड़ी थी, जब वही कम्पनी जो भारत में भारतीयों पर क्रूरता व अत्याचार की प्रतीक थी आज अपना रूप बदलकर भारतीयों की बढ़ती आर्थिक शक्ति का प्रतीक बन रही है। इसका खरीदा जाना भारतीयों का संसार के आर्थिक क्षेत्र में सबके बराबर आने का प्रतीक है।
इस बार ईस्ट इंडिया कम्पनी का उद्घाटन जिस तरीके से हुआ उसकी कल्पना उसके पूर्व संस्थापकों ने स्वप्न में भी कभी नहीं की होगी। इस बार जब इसके द्वार खुले तो पवित्र जैन नवकार मन्त्रोच्चारण के साथ! इस कम्पनी को खरीदकर उन्हें गर्व व मुक्ति (redemption) की अनुभूति हुई।
यूँ तो संजीव मेहता ने यह कम्पनी २००५ में ही खरीद ली थी, किन्तु इसे पुनः खोलने से पहले उन्होंने इस कम्पनी के विषय में विस्तृत अध्ययन किया। संसार भर के संग्रहालयों में इस कम्पनी से सम्बन्धित कृतियाँ हैं। यह कम्पनी मुम्बई, दिल्ली, बंगलौर, मध्य पूर्व, जापान व रशिया में 'फाइन फूड स्टोर्स' खोलेगी। जहाँ फर्निचर, कपड़े, एक्ज़ोटिक चाय से लेकर फलों के अचार बिकेंगे।(अपने किसी काम का नहीं, अपना काम इस श्रेणी में भारतीय वस्तुओं से लगभग लगभग चल जाता है।) वे चाहते हैं कि इस बार यह कम्पनी मानवता के लिए काम करे। लाभ का एक भाग वह अपने माता पिता द्वारा चलाए जा रहे रत्न निधि चेरिटेबल ट्रस्ट को देंगे। यह ट्रस्ट भारत, अफगानिस्तान, सूडान व बुरुन्डी में युवाओं व अपाहिजों के बीच काम करता है।
(नोटः यह समाचार १८.०८.२०१० के टाइम्स औफ़ इन्डिया से लिया गया है। अंग्रेजी से हिन्दी में लिखने में कुछ त्रुटियाँ हो सकती हैं।)
आशा है कि ऐसा ही हो भी। क्योंकि इस बात से असहाय, गरीब को अन्तर नहीं पड़ता कि उसे कौन लूट रहा है। लूटने वाला अपने देश का हो तो कम कष्ट नहीं होता और पराए देश का हो तो अधिक कष्ट नहीं होता। उसे तो अन्तर केवल लुटने या न लुटने की स्थिति से पड़ता है। यदि ऐसा न होता तो लूट के विरुद्ध इतने आन्दोलन न चल रहे होते। लोग अपने देशवासियों के स्विस बैंक में बढ़ते धन से तृप्त रहते। यह खुशी उनकी भूख प्यास भुला देती।
आइए ईस्ट इंडिया कम्पनी, आइए, एक बार फिर से आपका स्वागत है उस देश में जहाँ इंगलैंड से अधिक अंग्रेजी स्कूल हैं, वहाँ से बहुत अधिक अंग्रेजी बोलने वाले हैं और वहाँ से भी अधिक अंग्रेजी से प्यार करने वाले हैं। यहाँ आपको बिल्कुल परायापन नहीं लगेगा, नौराई/ नराई( homesickness, nostalgia)लगने का तो प्रश्न ही नहीं, ९९ % पुरुष आपके दिए वस्त्र पहने मिलेंगे (किन्तु स्त्री से आग्रह, आदेश भारतीयता का करते होंगे ), सारे के सारे बोर्ड, नाम पट्टियाँ, बाजार में बिकने वाले सामान पर नाम अंग्रेजी में लिखे मिलेंगे। हम गाते हिन्दी में हैं परन्तु गीत को लिखते रोमन लिपि में हैं, हम कमाते हिन्दी में नाटक, अभिनय करके हैं किन्तु उस अभिनय का पुरुस्कार समारोह अंग्रेजी में करते हैं, पुरुस्कार देते व लेते अंग्रेजी में बोलकर हैं। फिल्म बनाते हिन्दी में हैं किन्तु उसका व उसमें काम करने वालों का नाम अंग्रेजी में लिखते हैं।
जहाँ यह सब होता हो वहाँ क्या आश्चर्य कि हम भारत में पैदा होने वाली चाय आपसे विदेश में पैक करवा कर लें। माँ की रेसिपी वाला अचार विदेश से बनवाकर खाएँ। भारत के टीक/सागौन का फर्नीचर भी विदेश से बनवाकर खरीदें। कुछ ऐसा ही पहले वाली ईस्ट इंडिया कम्पनी भी तो करती थी। और हाँ, हमारी रूई या रेशम से वहाँ से कपड़ा बनकर आए। एक और गुजराती भारतीय ने कभी ऐसे कपड़ों के लिए कुछ आन्दोलन किया था ना!
देखते हैं यह ईस्ट इंडिया कम्पनी कैसी होगी। जो भी होगी भारतीय मूल के बन्धु की होगी, क्या यही बहुत है? फिर भी स्वागत है। मैं भ्रमित हूँ कि खुश होऊँ या नहीं। गाँधी के दर्शन में खोजूँ या अपने अन्तर्मन में? बस इतना जानती हूँ कि जब उलटे बाँस बरेली को भेजे जाते हैं तो दो तरफ की यात्रा से पर्यावरण को हानि होती है, प्रदूषण फैलता है, और शायद एक एक बाँस को अलग अलग पॉलीथिन में पैक कर भेजने से पॉलीथिन भी प्रदूषण व कचरा फैलाता है।(यदि ऐसे आकर्षक तरीके से पैक नहीं करेंगे तो क्या बरेली वाले अपने ही बाँस दुगुने तिगुने दामों में बाहर से मँगवाकर खरीदेंगे?)
उफ़ यह भ्रमित मन! हर रूपहली लाइनिंग में काला बादल देखता है!वर्षा व बादल से प्यार करने वाले देश में वर्षा व बादल से परेशान व सूरज की किरणों को तरसने वाले देश के मुहावरे पलटकर बोलता है! अब तो बस इतना ही कहना शेष है, तेरा क्या होगा ओ घुघुतिया!
घुघूती बासूती
संजीव मेहता को लगता है कि यह एक भावुक घड़ी थी, जब वही कम्पनी जो भारत में भारतीयों पर क्रूरता व अत्याचार की प्रतीक थी आज अपना रूप बदलकर भारतीयों की बढ़ती आर्थिक शक्ति का प्रतीक बन रही है। इसका खरीदा जाना भारतीयों का संसार के आर्थिक क्षेत्र में सबके बराबर आने का प्रतीक है।
इस बार ईस्ट इंडिया कम्पनी का उद्घाटन जिस तरीके से हुआ उसकी कल्पना उसके पूर्व संस्थापकों ने स्वप्न में भी कभी नहीं की होगी। इस बार जब इसके द्वार खुले तो पवित्र जैन नवकार मन्त्रोच्चारण के साथ! इस कम्पनी को खरीदकर उन्हें गर्व व मुक्ति (redemption) की अनुभूति हुई।
यूँ तो संजीव मेहता ने यह कम्पनी २००५ में ही खरीद ली थी, किन्तु इसे पुनः खोलने से पहले उन्होंने इस कम्पनी के विषय में विस्तृत अध्ययन किया। संसार भर के संग्रहालयों में इस कम्पनी से सम्बन्धित कृतियाँ हैं। यह कम्पनी मुम्बई, दिल्ली, बंगलौर, मध्य पूर्व, जापान व रशिया में 'फाइन फूड स्टोर्स' खोलेगी। जहाँ फर्निचर, कपड़े, एक्ज़ोटिक चाय से लेकर फलों के अचार बिकेंगे।(अपने किसी काम का नहीं, अपना काम इस श्रेणी में भारतीय वस्तुओं से लगभग लगभग चल जाता है।) वे चाहते हैं कि इस बार यह कम्पनी मानवता के लिए काम करे। लाभ का एक भाग वह अपने माता पिता द्वारा चलाए जा रहे रत्न निधि चेरिटेबल ट्रस्ट को देंगे। यह ट्रस्ट भारत, अफगानिस्तान, सूडान व बुरुन्डी में युवाओं व अपाहिजों के बीच काम करता है।
(नोटः यह समाचार १८.०८.२०१० के टाइम्स औफ़ इन्डिया से लिया गया है। अंग्रेजी से हिन्दी में लिखने में कुछ त्रुटियाँ हो सकती हैं।)
आशा है कि ऐसा ही हो भी। क्योंकि इस बात से असहाय, गरीब को अन्तर नहीं पड़ता कि उसे कौन लूट रहा है। लूटने वाला अपने देश का हो तो कम कष्ट नहीं होता और पराए देश का हो तो अधिक कष्ट नहीं होता। उसे तो अन्तर केवल लुटने या न लुटने की स्थिति से पड़ता है। यदि ऐसा न होता तो लूट के विरुद्ध इतने आन्दोलन न चल रहे होते। लोग अपने देशवासियों के स्विस बैंक में बढ़ते धन से तृप्त रहते। यह खुशी उनकी भूख प्यास भुला देती।
आइए ईस्ट इंडिया कम्पनी, आइए, एक बार फिर से आपका स्वागत है उस देश में जहाँ इंगलैंड से अधिक अंग्रेजी स्कूल हैं, वहाँ से बहुत अधिक अंग्रेजी बोलने वाले हैं और वहाँ से भी अधिक अंग्रेजी से प्यार करने वाले हैं। यहाँ आपको बिल्कुल परायापन नहीं लगेगा, नौराई/ नराई( homesickness, nostalgia)लगने का तो प्रश्न ही नहीं, ९९ % पुरुष आपके दिए वस्त्र पहने मिलेंगे (किन्तु स्त्री से आग्रह, आदेश भारतीयता का करते होंगे ), सारे के सारे बोर्ड, नाम पट्टियाँ, बाजार में बिकने वाले सामान पर नाम अंग्रेजी में लिखे मिलेंगे। हम गाते हिन्दी में हैं परन्तु गीत को लिखते रोमन लिपि में हैं, हम कमाते हिन्दी में नाटक, अभिनय करके हैं किन्तु उस अभिनय का पुरुस्कार समारोह अंग्रेजी में करते हैं, पुरुस्कार देते व लेते अंग्रेजी में बोलकर हैं। फिल्म बनाते हिन्दी में हैं किन्तु उसका व उसमें काम करने वालों का नाम अंग्रेजी में लिखते हैं।
जहाँ यह सब होता हो वहाँ क्या आश्चर्य कि हम भारत में पैदा होने वाली चाय आपसे विदेश में पैक करवा कर लें। माँ की रेसिपी वाला अचार विदेश से बनवाकर खाएँ। भारत के टीक/सागौन का फर्नीचर भी विदेश से बनवाकर खरीदें। कुछ ऐसा ही पहले वाली ईस्ट इंडिया कम्पनी भी तो करती थी। और हाँ, हमारी रूई या रेशम से वहाँ से कपड़ा बनकर आए। एक और गुजराती भारतीय ने कभी ऐसे कपड़ों के लिए कुछ आन्दोलन किया था ना!
देखते हैं यह ईस्ट इंडिया कम्पनी कैसी होगी। जो भी होगी भारतीय मूल के बन्धु की होगी, क्या यही बहुत है? फिर भी स्वागत है। मैं भ्रमित हूँ कि खुश होऊँ या नहीं। गाँधी के दर्शन में खोजूँ या अपने अन्तर्मन में? बस इतना जानती हूँ कि जब उलटे बाँस बरेली को भेजे जाते हैं तो दो तरफ की यात्रा से पर्यावरण को हानि होती है, प्रदूषण फैलता है, और शायद एक एक बाँस को अलग अलग पॉलीथिन में पैक कर भेजने से पॉलीथिन भी प्रदूषण व कचरा फैलाता है।(यदि ऐसे आकर्षक तरीके से पैक नहीं करेंगे तो क्या बरेली वाले अपने ही बाँस दुगुने तिगुने दामों में बाहर से मँगवाकर खरीदेंगे?)
उफ़ यह भ्रमित मन! हर रूपहली लाइनिंग में काला बादल देखता है!वर्षा व बादल से प्यार करने वाले देश में वर्षा व बादल से परेशान व सूरज की किरणों को तरसने वाले देश के मुहावरे पलटकर बोलता है! अब तो बस इतना ही कहना शेष है, तेरा क्या होगा ओ घुघुतिया!
घुघूती बासूती
Thursday, August 12, 2010
आओ अनुशासित करने के लिए बच्चों को दागें!
जब स्कूल प्रिन्सिपल अपना आपा खोकर बच्चों को जलती लकड़ी से दागने लगें तो हमें समझ जाना चाहिए कि बच्चों का भविष्य क्या होगा। अब तक तो हम सोचते थे कि क्रोध में हम आवाज ऊँची करते हैं, अधिक ही पागल होने लगें तो हाथ उठा सकते हैं। परन्तु यहाँ तो वे स्कूल की रसोई से ( जहाँ बच्चों के लिए भोजन बन रहा था और जिसका लालच दे हम बच्चों को यदि शिक्षित न भी कर पा रहे हैं तो साक्षर बनाने का प्रयास तो करते ही हैं और यदि वह भी न कर पाएँ तो कम से कम उन्हें कुपोषण से बचाने का काम तो करते ही हैं।) जलती लकड़ी को ही हथियार की तरह ले आईं और लगीं बचचों के कोमल टाँगों को दागने!
आन्ध्र प्रदेश के वारंगल जिले में जमन्दलापल्ली मंडल के एक स्कूल की प्रिन्सिपल को शैतान बच्चों पर इतना क्रोध आया कि उन्होंने छः सात बच्चों को जलती लकड़ी से दाग दिया। वे चित्र इतने विचलित करने वाले हैं कि मैं लगाने का प्रयास भी नहीं कर रही। सुबह से जबसे यह समाचार टी वी पर सुना मन बस वहीं अटका है। मैं समझ सकती हूँ कि बच्चे क्या कर रहे होंगे। वे कितना शोर , हंगामा, शैतानी और उससे भी आगे बढ़कर बिल्कुल अशिष्ट हो सकते हैं। वे मारपीट कर सकते हैं, एक दूसरे के प्रति भी क्रूर हो सकते हैं। अध्यापक यदि कुशल, समझदार, और करामाती और सबसे बड़ी बात बाल मन का जानकार न हो तो उन्हें बिना मारे पीटे वश में करना, किसी तरह की व्यवस्था बनाए रखना असम्भव हो जाता है।
किन्तु यह कमी तो अध्यापक की है। जिस तरह से प्राणी जगत में समूह में रहने वाले सामाजिक जानवरों का सदा अपना एक नेता होता है और वे उसकी बात मानते हैं उसी तरह अध्यापक में भी बच्चों के बीच अपने को उनका नेता सिद्ध करने के गुण होने चाहिए। प्राणी जगत में नेता प्रायः शारीरिक रूप से सबसे शक्तिशाली होता है किन्तु यहाँ वह केवल अपने व्यक्तित्व से ही यह स्थान पा सकता है। फिर बच्चे उसके पीछे पीछे चल पड़ेंगे। फिर न तो छड़ी चाहिए होती है और न ही जलती लकड़ी।
बच्चों का तो स्वभाव ही है चंचल होना। जो बच्चा चुपचाप बैठा है वह या तो बीमार है या फिर विषादग्रस्त। अब हम उन्हें जब स्कूल में एक ही बेंच पर घंटों बैठे रहने को कहते हैं तो यह नदी के पानी को बहने से रोककर बाँधने सा है। और ये कुछ घंटे दिन प्रतिदिन लम्बे खिंचते जा रहे हैं। छोटे छोटे बच्चे सुबह आठ बजे से शाम तीन या चार बजे तक स्कूल में रहते हैं। आन्ध्र में तो यह मैंने सन ८८ से लेकर ९१ तक खूब होते देखा है। मेरे यह पूछने पर कि पाँच साल के बच्चे से आप इतने घंटे कक्षा में बैठने की अपेक्षा कैसे करते हैं पर प्रिन्सिपल ने कहा कि बहुत से माता पिता तो इससे भी अधिक लम्बी अवधि का स्कूल चाहते हैं।
दोनों माता पिता काम पर जाएँ तो यह चाहत समझ आती है किन्तु उसके लिए साधन भी तो होने चाहिए। यदि लम्बे समय के लिए बच्चों को स्कूल में रखना है तो वैसी सुविधाएँ भी चाहिएँ। इस बिना सुविधा के स्कूल में जहाँ पहली कक्षा की अध्यापिका भी एक सोटी हाथ में लेकर ही घूमती थी वहाँ बच्चों को एक बेंच पर यूँ कैदकर रखना ठीक वैसा ही है जैसे पश्चिमी देशों में वील(संसार का सबसे नरम माँस) उत्पादन के लिए बछड़े को एक इतने तंग क्रेट में बिना हिले डुले रखा जाना है ताकि उसका माँस नरम बना रहे। हिलने डुलने से माँसपेशियाँ सख्त बन जाती हैं। क्षमा कीजिए, एक बेहद क्रूर प्रथा का उदाहरण दिया है किन्तु हम अपने बच्चों के साथ भी तो बेहद क्रूर हैं। मुझे तो इन बेंच पर टंगी नन्ही जानों को देखकर वील के लिए यातना दिए जाते बछड़ों की ही याद आती है। और इस किस्से में तो यह और भी उपयुक्त है क्योंकि दूध उत्पादन के फार्म्स में बछड़े, बछड़ियों आदि को निशान लगाने के लिए दागा ही तो जाता है ताकि क की गाय ख की गायों में न मिल जाए, ठीक वैसे ही जैसे आप अपने कार या स्कूटर पर नम्बर प्लेट लगाते हैं।
स्कूल प्रिन्सिपल जिन्होंने यह कृत्य 'अनुशासन' के लिए किया था अब 'अनुशासित' करे जाने के लिए पकड़कर अन्दर कर दी गईं हैं। आशा है कि बाहर आने तक वे 'अनुशासन पर्व' मना चुकी होंगी।
हो सकता है कि वे भी कभी ऐसी पीड़ित बच्ची रही हों जिन्होंने अध्यापिका बनने का सपना केवल इसलिए पाला था कि छात्रों को पीट सकेंगी, उन्हें भयभीत कर सकेंगी और अपने बचपन की पिटाई का बदला लेकर इस पिटाई परम्परा को आगे बढ़ा सकेंगी।
घुघूती बासूती
आन्ध्र प्रदेश के वारंगल जिले में जमन्दलापल्ली मंडल के एक स्कूल की प्रिन्सिपल को शैतान बच्चों पर इतना क्रोध आया कि उन्होंने छः सात बच्चों को जलती लकड़ी से दाग दिया। वे चित्र इतने विचलित करने वाले हैं कि मैं लगाने का प्रयास भी नहीं कर रही। सुबह से जबसे यह समाचार टी वी पर सुना मन बस वहीं अटका है। मैं समझ सकती हूँ कि बच्चे क्या कर रहे होंगे। वे कितना शोर , हंगामा, शैतानी और उससे भी आगे बढ़कर बिल्कुल अशिष्ट हो सकते हैं। वे मारपीट कर सकते हैं, एक दूसरे के प्रति भी क्रूर हो सकते हैं। अध्यापक यदि कुशल, समझदार, और करामाती और सबसे बड़ी बात बाल मन का जानकार न हो तो उन्हें बिना मारे पीटे वश में करना, किसी तरह की व्यवस्था बनाए रखना असम्भव हो जाता है।
किन्तु यह कमी तो अध्यापक की है। जिस तरह से प्राणी जगत में समूह में रहने वाले सामाजिक जानवरों का सदा अपना एक नेता होता है और वे उसकी बात मानते हैं उसी तरह अध्यापक में भी बच्चों के बीच अपने को उनका नेता सिद्ध करने के गुण होने चाहिए। प्राणी जगत में नेता प्रायः शारीरिक रूप से सबसे शक्तिशाली होता है किन्तु यहाँ वह केवल अपने व्यक्तित्व से ही यह स्थान पा सकता है। फिर बच्चे उसके पीछे पीछे चल पड़ेंगे। फिर न तो छड़ी चाहिए होती है और न ही जलती लकड़ी।
बच्चों का तो स्वभाव ही है चंचल होना। जो बच्चा चुपचाप बैठा है वह या तो बीमार है या फिर विषादग्रस्त। अब हम उन्हें जब स्कूल में एक ही बेंच पर घंटों बैठे रहने को कहते हैं तो यह नदी के पानी को बहने से रोककर बाँधने सा है। और ये कुछ घंटे दिन प्रतिदिन लम्बे खिंचते जा रहे हैं। छोटे छोटे बच्चे सुबह आठ बजे से शाम तीन या चार बजे तक स्कूल में रहते हैं। आन्ध्र में तो यह मैंने सन ८८ से लेकर ९१ तक खूब होते देखा है। मेरे यह पूछने पर कि पाँच साल के बच्चे से आप इतने घंटे कक्षा में बैठने की अपेक्षा कैसे करते हैं पर प्रिन्सिपल ने कहा कि बहुत से माता पिता तो इससे भी अधिक लम्बी अवधि का स्कूल चाहते हैं।
दोनों माता पिता काम पर जाएँ तो यह चाहत समझ आती है किन्तु उसके लिए साधन भी तो होने चाहिए। यदि लम्बे समय के लिए बच्चों को स्कूल में रखना है तो वैसी सुविधाएँ भी चाहिएँ। इस बिना सुविधा के स्कूल में जहाँ पहली कक्षा की अध्यापिका भी एक सोटी हाथ में लेकर ही घूमती थी वहाँ बच्चों को एक बेंच पर यूँ कैदकर रखना ठीक वैसा ही है जैसे पश्चिमी देशों में वील(संसार का सबसे नरम माँस) उत्पादन के लिए बछड़े को एक इतने तंग क्रेट में बिना हिले डुले रखा जाना है ताकि उसका माँस नरम बना रहे। हिलने डुलने से माँसपेशियाँ सख्त बन जाती हैं। क्षमा कीजिए, एक बेहद क्रूर प्रथा का उदाहरण दिया है किन्तु हम अपने बच्चों के साथ भी तो बेहद क्रूर हैं। मुझे तो इन बेंच पर टंगी नन्ही जानों को देखकर वील के लिए यातना दिए जाते बछड़ों की ही याद आती है। और इस किस्से में तो यह और भी उपयुक्त है क्योंकि दूध उत्पादन के फार्म्स में बछड़े, बछड़ियों आदि को निशान लगाने के लिए दागा ही तो जाता है ताकि क की गाय ख की गायों में न मिल जाए, ठीक वैसे ही जैसे आप अपने कार या स्कूटर पर नम्बर प्लेट लगाते हैं।
स्कूल प्रिन्सिपल जिन्होंने यह कृत्य 'अनुशासन' के लिए किया था अब 'अनुशासित' करे जाने के लिए पकड़कर अन्दर कर दी गईं हैं। आशा है कि बाहर आने तक वे 'अनुशासन पर्व' मना चुकी होंगी।
हो सकता है कि वे भी कभी ऐसी पीड़ित बच्ची रही हों जिन्होंने अध्यापिका बनने का सपना केवल इसलिए पाला था कि छात्रों को पीट सकेंगी, उन्हें भयभीत कर सकेंगी और अपने बचपन की पिटाई का बदला लेकर इस पिटाई परम्परा को आगे बढ़ा सकेंगी।
घुघूती बासूती
Wednesday, August 11, 2010
उफ़ यह अज्ञान!
अज्ञान बहुत कुछ तो हो सकता है किन्तु इतना हास्यास्पद भी हो सकता है आज जाना। अज्ञान सभी दुखों की जड़ है। अज्ञान सबसे बड़ी बीमारी है। धन से गरीब कुछ उपाय कर सकता है किन्तु ज्ञान से गरीब सिवाय ज्ञान पाने की चेष्टा के क्या कर सकता है? यह सब तो निबन्ध लिखने के लिए सही है किन्तु मेरे अज्ञान के कारण मुझे जितना कष्ट झेलना पड़ता है और उससे भी अधिक अपनी ही नजरों में जो बौनी बन जाती हूँ वह दुखद तो है ही(कम से कम मेरे लिए) साथ ही हास्यास्पद भी है।
जो लोग कम्प्यूटर युग में पैदा नहीं हुए या जिन्होंने समय रहते, याने अल्ज़ाइमर्स जैसे लक्षणों के पैदा होने से पहले कम्प्यूटर व नेट आदि के उपयोग का ज्ञान नहीं पाया वे लोग इस जीवन की दौड़ में न केवल पिछड़ गए हैं बल्कि मानसिक अपाहिज सा भी महसूस करते हैं। कम से कम मैं तो करती ही हूँ। आपको कुछ भी करना हो, कम्प्यूटर या तकनीक से जुड़ना ही पड़ता है। अन्यथा आपका मंहगा मोबाइल, कैमरा आदि सब व्यर्थ हैं। किसी जमाने में आप बिना अधिक मस्तिष्क खर्चे बैंक का काम कर लेते थे, दो चार शेयर खरीद या बेच लेते थे, फोटो खींच लेते थे। और आज, आज तो यह सब करने की भी विधि लिखनी पड़ती है। ठीक वैसे ही जैसे किसी विदेशी तामझाम वाले व्यंजन की पाक विधि लिखनी पड़ती है।
कई वर्षों से कुछ भी नया सीखना कठिन होता जा रहा है। याद तो कुछ रहता ही नहीं, सो सबकुछ निर्देश देखकर ही करती हूँ। मेरी तो डायरी ऐसे निर्देशों से भरी पड़ी है। यदि ब्लॉग लिख पाती हूँ, उसमें फोटो डाल पाती हूँ, हैडर बदल पाती हुँ, टिप्पणी में लिंक देती हूँ तो यह सब उन्हीं दिशा निर्देशों के कारण। और ये दिशा निर्देश मुख्यतया मेरे जमाताओं द्वारा लिखे या लिखवाए होते हैं, कई बार बेटियों द्वारा और कुछ मित्रों द्वारा।
पुराना हुआ यह मन नया सीखना तो चाहता है किन्तु न तो सरलता से सीख पाता है और न ही उसे स्मृति में कुछ पल ही संजोकर रख पाता है। दिनोंदिन घटती इस क्षमता को देख क्षोभ तो होता ही है साथ में मन में एक तकनीक का भय या टेक्नोफोबिया भी घर करता जा रहा है। होता यह है कि किसी भी सेवा का सबसे बेसिक भाग ही उपयोग करने लगती हूँ और उसके बेहतर किन्तु कठिन हिस्सों को छोड़ देती हूँ। मोबाइल से केवल फोन व संदेश ही देती हूँ। फेसबुक में जाकर अपनी नई पोस्ट चिपकाकर और जो जो दिखे उसे पढ़कर लौट आती हूँ।
यह सारा किस्सा ही फेसबुक का है। हुआ यह कि आज एक मित्र से बात हो रही थी। बात जन्मदिन के बधाई संदेशों पर चली। मैंने कहा कि मैं कई मित्रों को बधाई देना भूल जाती हूँ। फिर एक मित्र के जन्मदिन पर कितने सारे बधाई संदेश आए हैं इसपर बात हुई। फिर बात मेरे जन्मदिन पर आए संदेशों की हुई। मैंने कहा कि केवल तीन या चार ही तो फेसबुक पर आए थे। मुझे बताया गया कि नहीं गिनो, बहुत सारे थे । मैंने कहा नहीं हो ही नहीं सकता। कुछ छूटे भी हों तो भी पाँच सात ही होंगे। मैंने कहा कि मैं अब कैसे देखूँ। जब बताया गया कि प्रोफाइल पर जाओ। तो वहाँ जाकर मन खुशी व ग्लानि व क्षोभ तीनों से लबालब भर गया। खुशी यह कि इतने मित्रों ने बधाई भेजी थी। ग्लानि यह कि मैंने जिन तीन चार को देखा था उनके सिवाय किसी को धन्यवाद भी नहीं कहा। क्षोभ अपनी मूर्खता पर कि मैं फेसबुक का ९०% उपयोग तो जानती ही नहीं। यह तो वैसा हुआ कि बंगला खरीदकर केवल एक कमरे, रसोई, स्नानगृह तक ही अपना अधिकार सिद्ध कर पाओ। शेष घर होते हुए भी बन्द पड़ा रहे। मैं फेसबुक पर यहाँ वहाँ बिखरी तीन चार ही बधाइयाँ पढ़ पाई। यह नहीं जान पाई कि वे सब एक स्थान पर ही मिल जाएँगी।
फेसबुक पर मेरे जितने मित्रों ने मुझे शुभकामनाएँ भेजी थीं उनकी मैं बहुत आभारी हूँ और उत्तर न देने और उससे भी अधिक उनकी शुभकामनाओं को ना पढ़ पाने, उन तक न पहुँच पाने के लिए करबद्ध हो क्षमा माँगती हूँ। सारे संदेश पढ़ मैं एकबार फिर से जन्मदिन की खुशियाँ महसूस कर रही हूँ।
वैसे यह अज्ञान कितनी हास्यास्पद स्थितियाँ भी पैदा कर देता है ना!
घुघूती बासूती
जो लोग कम्प्यूटर युग में पैदा नहीं हुए या जिन्होंने समय रहते, याने अल्ज़ाइमर्स जैसे लक्षणों के पैदा होने से पहले कम्प्यूटर व नेट आदि के उपयोग का ज्ञान नहीं पाया वे लोग इस जीवन की दौड़ में न केवल पिछड़ गए हैं बल्कि मानसिक अपाहिज सा भी महसूस करते हैं। कम से कम मैं तो करती ही हूँ। आपको कुछ भी करना हो, कम्प्यूटर या तकनीक से जुड़ना ही पड़ता है। अन्यथा आपका मंहगा मोबाइल, कैमरा आदि सब व्यर्थ हैं। किसी जमाने में आप बिना अधिक मस्तिष्क खर्चे बैंक का काम कर लेते थे, दो चार शेयर खरीद या बेच लेते थे, फोटो खींच लेते थे। और आज, आज तो यह सब करने की भी विधि लिखनी पड़ती है। ठीक वैसे ही जैसे किसी विदेशी तामझाम वाले व्यंजन की पाक विधि लिखनी पड़ती है।
कई वर्षों से कुछ भी नया सीखना कठिन होता जा रहा है। याद तो कुछ रहता ही नहीं, सो सबकुछ निर्देश देखकर ही करती हूँ। मेरी तो डायरी ऐसे निर्देशों से भरी पड़ी है। यदि ब्लॉग लिख पाती हूँ, उसमें फोटो डाल पाती हूँ, हैडर बदल पाती हुँ, टिप्पणी में लिंक देती हूँ तो यह सब उन्हीं दिशा निर्देशों के कारण। और ये दिशा निर्देश मुख्यतया मेरे जमाताओं द्वारा लिखे या लिखवाए होते हैं, कई बार बेटियों द्वारा और कुछ मित्रों द्वारा।
पुराना हुआ यह मन नया सीखना तो चाहता है किन्तु न तो सरलता से सीख पाता है और न ही उसे स्मृति में कुछ पल ही संजोकर रख पाता है। दिनोंदिन घटती इस क्षमता को देख क्षोभ तो होता ही है साथ में मन में एक तकनीक का भय या टेक्नोफोबिया भी घर करता जा रहा है। होता यह है कि किसी भी सेवा का सबसे बेसिक भाग ही उपयोग करने लगती हूँ और उसके बेहतर किन्तु कठिन हिस्सों को छोड़ देती हूँ। मोबाइल से केवल फोन व संदेश ही देती हूँ। फेसबुक में जाकर अपनी नई पोस्ट चिपकाकर और जो जो दिखे उसे पढ़कर लौट आती हूँ।
यह सारा किस्सा ही फेसबुक का है। हुआ यह कि आज एक मित्र से बात हो रही थी। बात जन्मदिन के बधाई संदेशों पर चली। मैंने कहा कि मैं कई मित्रों को बधाई देना भूल जाती हूँ। फिर एक मित्र के जन्मदिन पर कितने सारे बधाई संदेश आए हैं इसपर बात हुई। फिर बात मेरे जन्मदिन पर आए संदेशों की हुई। मैंने कहा कि केवल तीन या चार ही तो फेसबुक पर आए थे। मुझे बताया गया कि नहीं गिनो, बहुत सारे थे । मैंने कहा नहीं हो ही नहीं सकता। कुछ छूटे भी हों तो भी पाँच सात ही होंगे। मैंने कहा कि मैं अब कैसे देखूँ। जब बताया गया कि प्रोफाइल पर जाओ। तो वहाँ जाकर मन खुशी व ग्लानि व क्षोभ तीनों से लबालब भर गया। खुशी यह कि इतने मित्रों ने बधाई भेजी थी। ग्लानि यह कि मैंने जिन तीन चार को देखा था उनके सिवाय किसी को धन्यवाद भी नहीं कहा। क्षोभ अपनी मूर्खता पर कि मैं फेसबुक का ९०% उपयोग तो जानती ही नहीं। यह तो वैसा हुआ कि बंगला खरीदकर केवल एक कमरे, रसोई, स्नानगृह तक ही अपना अधिकार सिद्ध कर पाओ। शेष घर होते हुए भी बन्द पड़ा रहे। मैं फेसबुक पर यहाँ वहाँ बिखरी तीन चार ही बधाइयाँ पढ़ पाई। यह नहीं जान पाई कि वे सब एक स्थान पर ही मिल जाएँगी।
फेसबुक पर मेरे जितने मित्रों ने मुझे शुभकामनाएँ भेजी थीं उनकी मैं बहुत आभारी हूँ और उत्तर न देने और उससे भी अधिक उनकी शुभकामनाओं को ना पढ़ पाने, उन तक न पहुँच पाने के लिए करबद्ध हो क्षमा माँगती हूँ। सारे संदेश पढ़ मैं एकबार फिर से जन्मदिन की खुशियाँ महसूस कर रही हूँ।
वैसे यह अज्ञान कितनी हास्यास्पद स्थितियाँ भी पैदा कर देता है ना!
घुघूती बासूती
Monday, August 09, 2010
हिटलर की कस्टडी
इतिहास में हिटलर का एक विशेष स्थान है। ऐसा स्थान जिसे और कोई पाना नहीं चाहता। पाना चाहे भी तो लोगों को बताना नहीं चाहता। जितनी घृणा हिटलर नाम ने पाई है, कम ही लोगों ने पाई होगी। फिर भी यदा कदा संसार में हिटलर जन्मते ही रहते हैं। कर्म से न सही तो भी नाम से हिटलर बन जाते हैं। यदि उनसे पूछा जाता तो पता नहीं वे यह नाम रखना चाहते या नहीं। हो सकता है इनमें से कुछ बड़े होने पर अपना नाम बदल दें और कुछ इसके साथ शान्ति से जिएँ।
अमेरिका में एक दम्पत्ति ने अपने बेटे का नाम एडॉल्फ़ हिटलर रखा। दोनो बेटियों के नाम भी नाज़ी स्मृतियों में से ढूँढकर रखे। शायद सबकुछ ठीक ठाक ही चल रहा था। किन्तु जब उन्होंने हिटलर के जन्मदिन के केक को बनवाने का और्डर दिया तो दुकान ने उस केक पर एडॉल्फ़ हिटलर नाम लिखने से मना कर दिया। मामला समाचार पत्रों व टी वी समाचारों पर खूब दिखाया गया और बात तूल पकड़ती गई।
उनके तीनों बच्चे फॉस्टर केयर में रखे गए। सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि माता पिता बच्चों की सुरक्षा का ध्यान नहीं रखते थे। माता पिता पर बच्चों को मारने पीटने व दुर्व्यवहार का भी आरोप है। यह भी कहा गया कि माता पिता स्वयं शारीरिक व मानसिक रूप से अस्वस्थ हैं। वे स्वयं बचपन में बाल दुर्व्यवहार के शिकार थे और उन्होंने इस सबके लिए अपना इलाज नहीं करवाया। दोनों बेरोज़गार हैं, पिता पढ़लिख नहीं सकता व माँ ने स्कूल छोड़ दिया था और दसवीं पास नहीं की। सबूत के तौर पर एक वर्तनी की गलतियों से भरा पत्र भी दिखाया गया जिसमें वह अपने पति के हिंसक होने की बात करती है।
फ़ेमिली कोर्ट व अपील कोर्ट ने निर्णय लिया कि वे बच्चों की देखभाल में अक्षम हैं। माता पिता का कहना है कि यह सब उनके बच्चों के नामों के कारण ही हुआ है।
वैसे सोचने की बात है कि वे बच्चे जब स्कूल जाएँगे तो किस तरह से समाज का अपने नामों के प्रति पूर्वाग्रह व विरोध झेलेंगे। वैसे सोचने की बात है कि क्या हमें अपनी इच्छा के लिए बच्चों को ऐसे विवादित नाम देने चाहिए? कुछ दिन पहले मैं अपनी बिटिया से बच्चों के लालन पालन के बारे में बात कर रही थी और हम यह कह रहे थे कि हम कभी भी निश्चिन्त नहीं हो सकते कि उनके लिए जो निर्णय हम ले रहे हैं वह सही सिद्ध होगा या नहीं। उसने कहा कि बच्चों के मामले में शायद माता पिता को एक सुरक्षित , अविवादित, सामान्य, बिल्कुल मध्यमार्गीय रवैया ही अपनाना चाहिए। ताकि और चाहे जो हो हम बुरी तरह से गलत तो कभी न हो पाएँ।
इस पूरी बात से मुझे भारत में मणिपुरी बच्चों के नामों की याद आ गई। मणिपुर में नाम रखने की परम्परा मुझे बहुत विशेष लगी। वहाँ जिसका जो मन करे वह नाम बच्चों का रखता है। हममें सदा एक आग्रह रहता है कि हमारे बच्चों का नाम हमारी संस्कृति व धर्म के अनुकूल हों। मणिपुर में आपको हिटलर, लेनिन, आर्मस्ट्रॉन्ग भी मिलेंगे और तुलसीदास, बरखादेवी, बिजौय, नैन्सी, डैज़ी सब मिलेंगे। एक ही परिवार में ठेठ मणिपुरी नाम लिन्थोइन्गाम्बी भी पाया जाएगा तो पर्ल भी! यह मत सोचिए कि लेनिन और नैन्सी ही भाई बहन होंगे। तुलसीदास और आर्मस्ट्रॉन्ग भाई हो सकते हैं तो उनकी बहनें बरखादेवी और डेज़ी हो सकती हैं।
सोचा जाए तो जिस समाज में इतनी तरह के नाम पाए जाते हों वह कितना सहनशील समाज होना चाहिए। वहाँ कितनी विविधता पाई जानी चाहिए। एक ही क्यारी में रंग बिरंगे फूल मिलकर मुस्कुराते, लहलहाते खिलने चाहिए। किन्तु दुर्भाग्य से वहाँ के बच्चे यदि जरा भी सम्भव हो तो अपने सुन्दर राज्य को छोड़ अन्य राज्यों में छात्रावास में रह या चर्च के सहारे दक्षिण भारत के स्कूलों में पढ़ने को अभिशप्त हैं।
अमेरिका और मणिपुर का यह विरोधाभास मुझे तब से कोंच रहा है जब से यह खबर पढ़ी। और हाँ, यदि भारत में भी इन्हीं सब आधारों पर बच्चे माता पिता से दूर रखे जाते तो सड़क पर पलने वाले, नित माता पिता से पिटने वाले, माता पिता द्वारा काम करने को बेचे जाने वाले, लाखों बेरोजगार माता पिता के भीख माँगते बच्चों और सारे अनपढ़ और निरक्षर माता पिता के बच्चों का क्या होता? अपने माता पिता से बचाए जाने योग्य बच्चों की तो बाढ़ ही आ जाती।
अन्त में वर्तनी की गलतियों को यदि आधार माना जाता तो..............................सोचीऐ, सोचीऐ, सोचीऐ! , कुछ तो बच्चों से पिंड छुड़ाने को भी या मुफ्त में बड़ा करवाने को भी कहते, लिखते........ सौचीए, सौचीए, सौचीए!(मेरे बच्चे तो बड़े हो चुके मैं वर्तनी की गलतियाँ करने के लिए मुक्त हूँ। )
घुघूती बासूती
अमेरिका में एक दम्पत्ति ने अपने बेटे का नाम एडॉल्फ़ हिटलर रखा। दोनो बेटियों के नाम भी नाज़ी स्मृतियों में से ढूँढकर रखे। शायद सबकुछ ठीक ठाक ही चल रहा था। किन्तु जब उन्होंने हिटलर के जन्मदिन के केक को बनवाने का और्डर दिया तो दुकान ने उस केक पर एडॉल्फ़ हिटलर नाम लिखने से मना कर दिया। मामला समाचार पत्रों व टी वी समाचारों पर खूब दिखाया गया और बात तूल पकड़ती गई।
उनके तीनों बच्चे फॉस्टर केयर में रखे गए। सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि माता पिता बच्चों की सुरक्षा का ध्यान नहीं रखते थे। माता पिता पर बच्चों को मारने पीटने व दुर्व्यवहार का भी आरोप है। यह भी कहा गया कि माता पिता स्वयं शारीरिक व मानसिक रूप से अस्वस्थ हैं। वे स्वयं बचपन में बाल दुर्व्यवहार के शिकार थे और उन्होंने इस सबके लिए अपना इलाज नहीं करवाया। दोनों बेरोज़गार हैं, पिता पढ़लिख नहीं सकता व माँ ने स्कूल छोड़ दिया था और दसवीं पास नहीं की। सबूत के तौर पर एक वर्तनी की गलतियों से भरा पत्र भी दिखाया गया जिसमें वह अपने पति के हिंसक होने की बात करती है।
फ़ेमिली कोर्ट व अपील कोर्ट ने निर्णय लिया कि वे बच्चों की देखभाल में अक्षम हैं। माता पिता का कहना है कि यह सब उनके बच्चों के नामों के कारण ही हुआ है।
वैसे सोचने की बात है कि वे बच्चे जब स्कूल जाएँगे तो किस तरह से समाज का अपने नामों के प्रति पूर्वाग्रह व विरोध झेलेंगे। वैसे सोचने की बात है कि क्या हमें अपनी इच्छा के लिए बच्चों को ऐसे विवादित नाम देने चाहिए? कुछ दिन पहले मैं अपनी बिटिया से बच्चों के लालन पालन के बारे में बात कर रही थी और हम यह कह रहे थे कि हम कभी भी निश्चिन्त नहीं हो सकते कि उनके लिए जो निर्णय हम ले रहे हैं वह सही सिद्ध होगा या नहीं। उसने कहा कि बच्चों के मामले में शायद माता पिता को एक सुरक्षित , अविवादित, सामान्य, बिल्कुल मध्यमार्गीय रवैया ही अपनाना चाहिए। ताकि और चाहे जो हो हम बुरी तरह से गलत तो कभी न हो पाएँ।
इस पूरी बात से मुझे भारत में मणिपुरी बच्चों के नामों की याद आ गई। मणिपुर में नाम रखने की परम्परा मुझे बहुत विशेष लगी। वहाँ जिसका जो मन करे वह नाम बच्चों का रखता है। हममें सदा एक आग्रह रहता है कि हमारे बच्चों का नाम हमारी संस्कृति व धर्म के अनुकूल हों। मणिपुर में आपको हिटलर, लेनिन, आर्मस्ट्रॉन्ग भी मिलेंगे और तुलसीदास, बरखादेवी, बिजौय, नैन्सी, डैज़ी सब मिलेंगे। एक ही परिवार में ठेठ मणिपुरी नाम लिन्थोइन्गाम्बी भी पाया जाएगा तो पर्ल भी! यह मत सोचिए कि लेनिन और नैन्सी ही भाई बहन होंगे। तुलसीदास और आर्मस्ट्रॉन्ग भाई हो सकते हैं तो उनकी बहनें बरखादेवी और डेज़ी हो सकती हैं।
सोचा जाए तो जिस समाज में इतनी तरह के नाम पाए जाते हों वह कितना सहनशील समाज होना चाहिए। वहाँ कितनी विविधता पाई जानी चाहिए। एक ही क्यारी में रंग बिरंगे फूल मिलकर मुस्कुराते, लहलहाते खिलने चाहिए। किन्तु दुर्भाग्य से वहाँ के बच्चे यदि जरा भी सम्भव हो तो अपने सुन्दर राज्य को छोड़ अन्य राज्यों में छात्रावास में रह या चर्च के सहारे दक्षिण भारत के स्कूलों में पढ़ने को अभिशप्त हैं।
अमेरिका और मणिपुर का यह विरोधाभास मुझे तब से कोंच रहा है जब से यह खबर पढ़ी। और हाँ, यदि भारत में भी इन्हीं सब आधारों पर बच्चे माता पिता से दूर रखे जाते तो सड़क पर पलने वाले, नित माता पिता से पिटने वाले, माता पिता द्वारा काम करने को बेचे जाने वाले, लाखों बेरोजगार माता पिता के भीख माँगते बच्चों और सारे अनपढ़ और निरक्षर माता पिता के बच्चों का क्या होता? अपने माता पिता से बचाए जाने योग्य बच्चों की तो बाढ़ ही आ जाती।
अन्त में वर्तनी की गलतियों को यदि आधार माना जाता तो..............................सोचीऐ, सोचीऐ, सोचीऐ! , कुछ तो बच्चों से पिंड छुड़ाने को भी या मुफ्त में बड़ा करवाने को भी कहते, लिखते........ सौचीए, सौचीए, सौचीए!(मेरे बच्चे तो बड़े हो चुके मैं वर्तनी की गलतियाँ करने के लिए मुक्त हूँ। )
घुघूती बासूती
Tuesday, August 03, 2010
बुरुंश के फूल

बुरुंश के फूल
जब मन बुरंश शब्द को भूल जाए
जब पढ़ यह शब्द, पूछूँ
माँ बुरुंश क्या होता है
माँ फूल कैसे होते हैं
पत्ते कैसे होते हैं
बताओ ना माँ, बताओ
प्लीज़, याद कराओ
पत्तों का आकार बताओ
फूलों का रंग, आकार बताओ
बताओ ना माँ,
बुरुंश क्या होता है?
मस्तिष्क में बार बार विचार कौंधता है कि
यह गुलाब सा होता है किन्तु
झाड़ी ही नहीं, पेड़ भी होता है
माँ न समझा सकीं तो
गूगल शरणम् गच्छामि
किन्तु ट्री रोज़ या
रोज़ ट्री में उत्तर नहीं मिलता।
(ध्यान ही नहीं आया कि
बुरुंश भी गूगल किया जा सकता है!)
आज कुछ पढ़ते समय शब्द मिलता है
रोडडेन्ड्रन जिसे पढ़ हम
रोडोडेन्ड्रॉन भी कह सकते हैं
मस्तिष्क में बिजली चमकती है
हाँ यही तो, यही तो मेरा
बुरुंश है
जिसे पहाड़ के साथ साथ
मैंने खो दिया।
फूल, पेड़ पहाड़ ही नहीं
मैंने तो अपनी भाषा के
तार तक खो दिए
खोए या अंग्रेजी के तारों में
कुछ यूँ उलझे
कि सुलझाने को अब
रोडडेन्ड्रन शब्द चाहिए।
उसके मिलते ही यादों में
रंग बिरंगे फूलों वाले पेड़ उग आए
हर पेड़ पर इक तख्ती भी टंगी थी
उसपर लिखा था
केवल और केवल, बुरुंश
किन्तु वहाँ तक जाने की राह
जब रोडडेन्ड्रन से होकर जाए।
तो समझ लेती हूँ कि
माँ , इजा, अम्मा अब मॉम हो गई
दी, दीदी, दिदम अब सिस हो गई
मौसी, कैंजा, काकी, जेठजा आँट हो गईं
माँ, बन नानी तुम जब ग्रैनी हुईं तो
(हमारे बिन कहे ही हो गईं होंगी
यह भाषा बिन बताए ही
मस्तिष्क हृदय में घुसपैठ करती है)
क्यों नहीं बुरुंश को रोडडेन्ड्रन
कहना सीख लिया?
सीखा होता तो क्यों
वर्षों से यह बुरुंश मुझे सताता
मेरे सपनों में भी बिन फूलों
बिन रंगों के आता?
काश, यह आर्द्रता आँखों की
सोख लेता फूल बुरुंश का
लगता कि उसने माफ़ किया
हिमालय की इस परित्यक्त बेटी को।
घुघूती बासूती
(चित्र विकीपीडिया से साभार।)
घुघूती बासूती
Subscribe to:
Posts (Atom)