जी हाँ, अगले साल के आरम्भ में भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी का पुनार्गमन होगा। सोचकर ही विचित्र लगता है ना! किन्तु इस बार ईस्ट इंडिया कम्पनी को यहाँ लाने वाले भी और इसके मालिक भी लंदन में बसे भारतीय मूल के गुजराती भाई संजीव मेहता हैं। इस १५० वर्ष से निष्क्रिय व बेकार पड़ी कम्पनी के द्वार इस १४ अगस्त को फिर से खोले गए।
संजीव मेहता को लगता है कि यह एक भावुक घड़ी थी, जब वही कम्पनी जो भारत में भारतीयों पर क्रूरता व अत्याचार की प्रतीक थी आज अपना रूप बदलकर भारतीयों की बढ़ती आर्थिक शक्ति का प्रतीक बन रही है। इसका खरीदा जाना भारतीयों का संसार के आर्थिक क्षेत्र में सबके बराबर आने का प्रतीक है।
इस बार ईस्ट इंडिया कम्पनी का उद्घाटन जिस तरीके से हुआ उसकी कल्पना उसके पूर्व संस्थापकों ने स्वप्न में भी कभी नहीं की होगी। इस बार जब इसके द्वार खुले तो पवित्र जैन नवकार मन्त्रोच्चारण के साथ! इस कम्पनी को खरीदकर उन्हें गर्व व मुक्ति (redemption) की अनुभूति हुई।
यूँ तो संजीव मेहता ने यह कम्पनी २००५ में ही खरीद ली थी, किन्तु इसे पुनः खोलने से पहले उन्होंने इस कम्पनी के विषय में विस्तृत अध्ययन किया। संसार भर के संग्रहालयों में इस कम्पनी से सम्बन्धित कृतियाँ हैं। यह कम्पनी मुम्बई, दिल्ली, बंगलौर, मध्य पूर्व, जापान व रशिया में 'फाइन फूड स्टोर्स' खोलेगी। जहाँ फर्निचर, कपड़े, एक्ज़ोटिक चाय से लेकर फलों के अचार बिकेंगे।(अपने किसी काम का नहीं, अपना काम इस श्रेणी में भारतीय वस्तुओं से लगभग लगभग चल जाता है।) वे चाहते हैं कि इस बार यह कम्पनी मानवता के लिए काम करे। लाभ का एक भाग वह अपने माता पिता द्वारा चलाए जा रहे रत्न निधि चेरिटेबल ट्रस्ट को देंगे। यह ट्रस्ट भारत, अफगानिस्तान, सूडान व बुरुन्डी में युवाओं व अपाहिजों के बीच काम करता है।
(नोटः यह समाचार १८.०८.२०१० के टाइम्स औफ़ इन्डिया से लिया गया है। अंग्रेजी से हिन्दी में लिखने में कुछ त्रुटियाँ हो सकती हैं।)
आशा है कि ऐसा ही हो भी। क्योंकि इस बात से असहाय, गरीब को अन्तर नहीं पड़ता कि उसे कौन लूट रहा है। लूटने वाला अपने देश का हो तो कम कष्ट नहीं होता और पराए देश का हो तो अधिक कष्ट नहीं होता। उसे तो अन्तर केवल लुटने या न लुटने की स्थिति से पड़ता है। यदि ऐसा न होता तो लूट के विरुद्ध इतने आन्दोलन न चल रहे होते। लोग अपने देशवासियों के स्विस बैंक में बढ़ते धन से तृप्त रहते। यह खुशी उनकी भूख प्यास भुला देती।
आइए ईस्ट इंडिया कम्पनी, आइए, एक बार फिर से आपका स्वागत है उस देश में जहाँ इंगलैंड से अधिक अंग्रेजी स्कूल हैं, वहाँ से बहुत अधिक अंग्रेजी बोलने वाले हैं और वहाँ से भी अधिक अंग्रेजी से प्यार करने वाले हैं। यहाँ आपको बिल्कुल परायापन नहीं लगेगा, नौराई/ नराई( homesickness, nostalgia)लगने का तो प्रश्न ही नहीं, ९९ % पुरुष आपके दिए वस्त्र पहने मिलेंगे (किन्तु स्त्री से आग्रह, आदेश भारतीयता का करते होंगे ), सारे के सारे बोर्ड, नाम पट्टियाँ, बाजार में बिकने वाले सामान पर नाम अंग्रेजी में लिखे मिलेंगे। हम गाते हिन्दी में हैं परन्तु गीत को लिखते रोमन लिपि में हैं, हम कमाते हिन्दी में नाटक, अभिनय करके हैं किन्तु उस अभिनय का पुरुस्कार समारोह अंग्रेजी में करते हैं, पुरुस्कार देते व लेते अंग्रेजी में बोलकर हैं। फिल्म बनाते हिन्दी में हैं किन्तु उसका व उसमें काम करने वालों का नाम अंग्रेजी में लिखते हैं।
जहाँ यह सब होता हो वहाँ क्या आश्चर्य कि हम भारत में पैदा होने वाली चाय आपसे विदेश में पैक करवा कर लें। माँ की रेसिपी वाला अचार विदेश से बनवाकर खाएँ। भारत के टीक/सागौन का फर्नीचर भी विदेश से बनवाकर खरीदें। कुछ ऐसा ही पहले वाली ईस्ट इंडिया कम्पनी भी तो करती थी। और हाँ, हमारी रूई या रेशम से वहाँ से कपड़ा बनकर आए। एक और गुजराती भारतीय ने कभी ऐसे कपड़ों के लिए कुछ आन्दोलन किया था ना!
देखते हैं यह ईस्ट इंडिया कम्पनी कैसी होगी। जो भी होगी भारतीय मूल के बन्धु की होगी, क्या यही बहुत है? फिर भी स्वागत है। मैं भ्रमित हूँ कि खुश होऊँ या नहीं। गाँधी के दर्शन में खोजूँ या अपने अन्तर्मन में? बस इतना जानती हूँ कि जब उलटे बाँस बरेली को भेजे जाते हैं तो दो तरफ की यात्रा से पर्यावरण को हानि होती है, प्रदूषण फैलता है, और शायद एक एक बाँस को अलग अलग पॉलीथिन में पैक कर भेजने से पॉलीथिन भी प्रदूषण व कचरा फैलाता है।(यदि ऐसे आकर्षक तरीके से पैक नहीं करेंगे तो क्या बरेली वाले अपने ही बाँस दुगुने तिगुने दामों में बाहर से मँगवाकर खरीदेंगे?)
उफ़ यह भ्रमित मन! हर रूपहली लाइनिंग में काला बादल देखता है!वर्षा व बादल से प्यार करने वाले देश में वर्षा व बादल से परेशान व सूरज की किरणों को तरसने वाले देश के मुहावरे पलटकर बोलता है! अब तो बस इतना ही कहना शेष है, तेरा क्या होगा ओ घुघुतिया!
घुघूती बासूती
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mainey bhi awaaj suni thi koi kah raha tha 'angerejo bharat wapas aao.achchi post hetu abhaar or roman main likhney hetu khed hai...
ReplyDeleteएक भारतीय मूल के व्यक्ति द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी को खरीदना एक सुखद पहलु है लेकिन दुखद पहलु ये है ही हैवानी प्रविर्ती वाली ये कंपनी अभी भी किसी रूप में जिन्दा है ...? इस कंपनी का समूल नाश आवश्यक है ...श्री मेहता से आग्रह है की इस कंपनी के नाम से कोई भी कारोबार ना करे तो अच्छा रहेगा ...बल्कि इस कंपनी की एक विशाल मूर्ति भारत में बनाकर उसे जूतों की माला पहनाकर भारत वाशियों को एक यादगार प्रतीक चिन्ह देने का कष्ट करें तो श्री मेहता का ये देश और इस देश की जनता सदा आभारी रहेगी ...
ReplyDeleteभले ही भारतीय मूल के व्यक्ति ने खरीदी है कंपनी ..पर है तो इंग्लॅण्ड का ही ...आपकी चिन्त्ता जायज़ है .....और अब मैं भी इस विषय पर चिन्त्तित हूँ ...इसके अलावा कर भी क्या सकते हैं ....
ReplyDeleteis company ke naam se hee lakho bharatvanshiyon ke khoon ki mahak aur cheekhe sunai deti hai
ReplyDeleteखबर पढ़ी थी मैंने भी और काफी कुछ ऐसा ही लगा जैसा आपको लगा है....
ReplyDeleteलेकिन आपने जो लिखा है न...आओ आओ कम्पनी,यहाँ तुम्हे बिलकुल भी परायापन नहीं लगेगा....पूरा पैरा दिल में तीर सा लगा...कितना सत्य कहा आपने...
आपका आभार और साधुवाद कि आपने इसे एड्रेस किया......
कितने कम लोग रह गए हैं अपने देश में इस तरह से सोचने वाले...कचोट जाता है यह...
बहुत गंभीर तरीके से आपने इस विषय को लिखा है यह नाम ही दिल में अजीब सा माहौल पैदा कर देता है ...
ReplyDeleteजो भी कहिये इस नाम से हम भारतवासी कभी लगाव नहीं महसूस कर सकते.
ReplyDeleteजो भी कहिये इस नाम से हम भारतवासी कभी लगाव नहीं महसूस कर सकते.
ReplyDeleteचार सौ साल पहले इस कम्पनी के किसी आदमी ने नहीं सोचा होगा कि एक दिन इसका मालिक भारतीय होगा और उनके सम्राज्य जिसमें सूर्यास्त नहीं होता का प्रधानमंत्री भारत से रिश्ते मजबूत करने आएगा, ताकि उसके देश को आधार मिले.
ReplyDeleteदुनिया बदल गई है. अपने को तो पढ कर खुशी हुई थी और मजा भी आया था.
अच्छा लगा पढकर ।
ReplyDeleteएक अच्छी प्रस्तुति के लिए आभार|धन्यवाद्|
ReplyDeleteआशा करते हैं कि पिछ्ली बार जैसी हरकतें नहीं करेगी !
ReplyDeleteआप ईस्ट इंडिया कंपनी की बात करती हैं। यहाँ तो कंपनी नाम से ही बुखार चढ़ता है। कंपनी का मतलब है कुछ लोग मिल कर पैसा इकट्ठा करें और व्यवसाय करें। उन की जिम्मेदारी उतनी ही है जितने उन के पास कंपनी के शेयर हैं। खुद व्योपार करें तो सारी जिम्मेदारी खुद पर आ जाती है। कंपनी में मजा है, दस रुपए का शेयर खरीदो और मजे लूटो। कुछ बुरा हुआ तो जिम्मेदारी दस रुपए की।
ReplyDeleteकंपनी कानून बना ही मिल कर लूटने के लिए है। जब एक कंपनी के जरिए लूटने से मन भर जाए तो उसे बीमार कर दो। (अपने बाप का और बेटों का क्या जाता है। सीक्योर्ड लोन माफ करवा लो, अनसीक्योर्ड को चुकाओ ही मत। कौन क्या कर लेगा? आखिर बैंकों में जमा जनता का धन किस लिए है?
ईस्ट इंडिया कंपनी गुजराती की हो तब भी वही करेगी जो इंग्लिस्तानी ने किया था।
कम्पनी तो बन्द हो गयी थी पर उनके दत्तक पुत्र तो उनकी विरासत जीवित कर के रखे हैं।
ReplyDeleteआश्चर्य हुआ द्विवेदी के यह भाव है, जहां तक मुझे मालूम है है, 10रूपये मूल्य से आय का बंटन हो जाता है, लोकतंत्र में आखिर क्या है, सत्ता क विकेंद्रीयकरण ही ना?, और बैंक क्या करते है, वे भी तो अपने शेयर निर्गमित करते है और राशि अपनी इच्छानुसार विनियोग करते है, लाभ अपने शेयर होल्डरों में बराबर बांट देते है। इससे अच्छा लोकतांत्रिक तरिका और क्या हो सकता है।
ReplyDeleteअब रही बात ईस्ट इंडिया कंपनी की तो उसे आत्म गौरव के वशीभूत ही खरीदा गया है।
प्रवर्तकों के लिये नई कम्पनी खडा करना ज्यादा आसान था। फ़िर औने पौने दाम देकर क्यों कोई व्यापारी कंपनी खरीदे?
हमारी यही विडम्बना है कि किसी को अवसर दिये बिना ही अपना मंतव्य ठोक देते है।
और एक आश्च्चर्य, हम व्यापारी या कंपनी चैयरमेन से अपेक्षा ही नहीं रखते की वह देश भक्त हो सकता है।?है ना?
ReplyDeleteइस ईस्ट इंडिया कंपनी ने हमारे इन्फ़्रास्ट्रक्चर को बर्बाद करने का काम किया था, यदि यह कंपनी
इन्फ़्रास्ट्रक्चर में रहे और देश के पूनः निर्माण में लगे तो क्या हर्ज़ हैं>?
बहुत सही चेतावनी दी है!
ReplyDeleteसमाचार मैंने भी पढ़ा था. यह अच्छा हो रहा है या बुरा - यह नहीं समझ पाया था . आज भी इस लेख और विपरीत टिप्पणियों को पढ़ कर अच्छे बुरे की पहचान नहीं कर पा रहा हूँ. वैसे हमने ताजा प्रकरण (भोपाल गैस त्रासदी ) के दोषी डाउ केमिकल और यूनियन कार्बाइड से ही कहाँ परहेज किया.
ReplyDeleteइतने आघातों के साथ और अक आघात |आदि हो चुकी है भारतीय जनता |
ReplyDeleteवैसे मुझे बहुत हैरानी होती है अब बच्चो के खिलोने भी सिर्फ विदेशी कम्पनी बनती है जाहिर है ए बी सी दीऔर अंग्रेजी कविताओ की ही भरमार होगी |
हिंदी वर्ण माला किताब तो संग्रहालय में ही देखने को मिलेगी |
सामयिक विषय पर अच्छी पोस्ट |
दिनेश राय जी से सहमत..
ReplyDeleteसंजीव मेहता ने यह कम्पनी २००५ में ही खरीद ली थी
ReplyDeleteखरीद ली थी? किससे? ईस्ट इंडिया कम्पनी 1874 में राजाज्ञा से भंग कर दी गयी थी। उसके बाद इसी (फैंसी) नाम से बनी किसी भी संस्था से मूल कम्पनी का कोई सम्बन्ध नहीं है।
एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
ReplyDeleteआपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं !
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ReplyDelete.
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"देखते हैं यह ईस्ट इंडिया कम्पनी कैसी होगी। जो भी होगी भारतीय मूल के बन्धु की होगी, क्या यही बहुत है? फिर भी स्वागत है। मैं भ्रमित हूँ कि खुश होऊँ या नहीं।"
खुश होईये घुघुती जी,
देखिये अभी खुलना है एक साल बाद... राम जाने यह असली ईस्ट इंडिया कम्पनी है भी या नहीं... परंतु मुफ्त का इतना प्रचार... इतनी चर्चा... संजीव मेहता को मार्केटिंग बहुत अच्छी तरह से आती है... यदि इसी तरह की क्षमता उन्होंने Procurement, Implementation और Operation में भी दिखाई तो अच्छे फूड स्टोर तो मिल ही जायेंगे हम लोगों को...
(हो सकता है हम जैसों को गहत-भट्ट-भांग-जम्बू-गन्धरैणी भी उपलब्ध करवा दे यह फाइन फूड स्टोर)
आभार!
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व्यापारी व्यापार ही करेगा, देश सेवा नहीं
ReplyDeleteबी एस पाबला
ईस्ट इण्डिया कम्पनी को उन्ही इरादों के साथ जड़ें ज़माने में पहले से मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ेगा अब ...मैंने भी कुछ ऐसा ही लिखा था ...सोचा नहीं था कि ऐसा हो जाएगा ..:)
ReplyDeletehttp://vanigyan.blogspot.com/2010/05/blog-post_416.html
यह सोच ही वाहियात है कि वेपारी देश सेवा नहीं करता. फिर कौन करता है? नेता, बाबू? इनकी पगार कहाँ से आती है? कैसे सकड़े बनती है? कैसे रक्षा के समान खरीदे जाते है? कहाँ से आता है पैसा? पैसा कमाना बूरा है यह एक बकवास सोच है. बूरा भ्रष्टाचार है जो पाबन्दियों में पनपता है.
ReplyDeleteसकड़े = सड़कें
ReplyDeleteIs naam se judi yaaden dil dahalane ko kafi hai ....mauka milate hi log lut machane ko tayaar rahate hai ...jarurat hai hame sajag rahane ki.
ReplyDeleteBahut bhadiya post....bahut bahut dhanywad.
खबर तो पढ़ी थी..पर आपकी तरह इतने विस्तार से नहीं सोचा था (अब आप हैं,ना...क्यूँ हम कष्ट दें,अपने दिमाग को :) )
ReplyDeleteहमेशा की तरह हर पहलू पर अच्छे से प्रकाश डाला है, दिल तो दुखता है, इतनी अंग्रेजियत देख...पर यह विषबेल सी फैली ही जा रही है....कोई निस्तार नज़र नहीं आता...
बडी़ चर्चा सुन रखी थी आपकी. जिस भी ब्लाग पर जाता था किसी न किसी से आपकी चर्चा जरूर सुन लेता था. आज पहली बार आपके ब्लाग पर आने का मौका मिला है. पहली ही बार में आपके ब्लाग का फोलोअर भी बन गया हुं.मुझे विश्वास है कि अब से लगातार आपके विचार पढ़ता रहुंगा.आपके सभी पोस्ट पढने मे कुछ तो समय लगेगा ही. अगर किसी पोस्ट के बारे में कुछ विचार बांटने की जरूरत पडी़ तो टिप्पणियां भी जरूर मिलेंगी.
ReplyDeleteधन्यवाद.
बेहद प्रभावशाली|
ReplyDeletenice
ReplyDeleteजानकारी के लिए आभार
ReplyDeleteक्या कहा जाये
इस बारे में तो "वक्त" ही सही प्रतिक्रिया दे पायेगा
हम भविष्य नहीं देख सकते , सिर्फ अंदाजे लगा सकते हैं
खबर पढी तो थी । पर यही सोचना चाहिये कि मेहता जी ने इ सइरादे से ही खरीदी होगी कि जिस कंपनी ने हमारे देश को गुलाम बनाया और लूटा खसोटा उसे एक भारतीय ने खरीद लिया यह केवल अपमान का बदला लेने जैसा है । आगे क्या होता है यह तो वक्त ही बतायेगा ।
ReplyDeleteये सही है कि एक विदेशी कंपनी को भारतीय ने खरीदा। उनके मन में सही में क्या था ये अभी तक सामने नहीं आया है। हो सकता है ये संदेश हो की अब भारत वो भारत नहीं रहा जिसे ये समझते थे। मुझे तो गर्व हुआ कि जिस कंपनी ने देश को गुलाम बनाया उसपर भी आखिरकार एक भारतीय का कब्जा हो ही गया। रह गई बात देश में फैलते विषबेल की....तो उसको काटने वाले हाथ भी उठ चुके हैं....न तो हम सो रहे हैं न ही पलायन कर रहे हैं....बस जो बैचेनी है एक बार उसे प्लेटफॉर्म मिलने दें फिर देखिएगा.......
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