कभी कभी कोई बात हमें लम्बे समय से परेशान कर रही होती है, लगता है कि कुछ गलत है। फिर जब दो एक घटनाएँ हमारी चिन्ता के सही होने की पुष्टि कर देतीं हैं तो लगता है कि समस्या का समाधान किया जाए और अन्य लोगों को भी आगाह किया जाए।
जबसे मोबाइल फोन, ई मेल का चलन बढ़ा है हमें अपने परिवार के सदस्यों के शहर या घर बदलने पर नए पते भी नहीं पता होते। नई पीढ़ी ने तो इसी दौरान नई नौकरियाँ करनी शुरू की हैं, सो उनमें से तो कई के पते हमें मालूम नहीं होते। बहुत से भतीजे, भतीजियाँ, भाँजे, भाँजियाँ तो विदेशों में रह रहे हैं। वहाँ भी वे शहर बदलते रहते हैं। ऐसे में बहुधा तो या हमें केवल उनका शहर पता होता है या देश। हाँ, ई मेल व फोन नम्बर अवश्य पता होता है।
यह तो भला हो रक्षा बन्धन का कि इसके कारण भाई का पता तो हर बहन के पास होता ही है। गंभीरता से यदि हम सोचें तो क्या हमारे पास अपने परिवार के हर सदस्य, सगे सम्बन्धी, जान पहचान वाले, मित्र आदि का पता है? यदि उसका ई मेल किसी कारण से गड़बड़ा जाए या उसका ख़ाता बन्द हो जाए, उसका मोबाइल खो जाए तो क्या हम उससे सम्बन्ध स्थापित कर पाएँगे? या फिर हम प्रतीक्षा करेंगे कि वह स्वयं हमसे सम्बन्ध स्थापित करेगा। उसके पास भी तो हमारी ई मेल आइ डी केवल उसके मेल बॉक्स में थी। हमारा फोन नम्बर उसके मोबाइल में था। मोबाइल खोया, ई मेल ख़ाता बन्द हुआ तो यह सब भी गया। या फिर हमारा मोबाइल खो सकता है और ख़ाता बन्द हो सकता है। जब मुम्बई आते से ही पहले ही दिन मेरे पति का मोबाइल फोन खोया तो कितने ही लोगों से उनका सम्पर्क भी टूट गया। डायरी में नम्बर लिखने का चलन तो समाप्त ही होता जा रहा है।
मैंने ऐसी दो घटनाओं के बारे में पढ़ा जहाँ पता न होने, सम्पर्क टूटने से अनर्थ हो गया। एक घटना तो एक फ्रैन्च स्त्री की है जिसके भाई की मृत्यु हो गई। वह, उसका पति व पूरा परिवार भाई को दफ़नाने कब्रिस्तान गए थे। वहाँ से बाहर निकलते समय परिवार के एक सदस्य ने कंगाल गरीबों के लिए सुरक्षित जगह पर एक नई कब्र व कब्र का पत्थर देखा जिसपर लिखा था ओलिवर लेंगले १९६८- २०१०। क्योंकि यह नाम स्त्री के ४२ वर्षीय पुत्र का भी था और जन्म का साल भी वही था अतः उसका ध्यान उसपर गया। उसने स्त्री व उसके पति को दिखाया। स्त्री व उसके पति ने जब पता लगाया तो पता चला कि वह कब्र उनके बेटे की ही थी। वह अपने घर में मृत पाया गया था और किसी अपने का अता पता न होने के कारण उसे गरीबों के लिए सुरक्षित जगह पर दफना दिया गया था।
परिवार ने उसके मामा की मृत्यु पर उसे सूचना देने की कोशिश की थी किन्तु जब सम्पर्क नहीं हो सका तो सोचा कि वह घर पर नहीं होगा या फिर पिछले झगड़े को लेकर अब तक नाराज होगा।
दूसरी घटना में मेखला मुखर्जी नामक एक ३५ वर्षीया स्त्री की दुःखद कहानी है। एडवर्टाइज़िंग व मार्केटिंग की अधिस्नातक इस स्त्री का एक महाराष्ट्रियन सहकर्मी से १९९८ में प्रेम हुआ। २००१ में दोनों ने परिवार के विरोध के बावजूद विवाह किया। जब पति के पिता की मृत्यु हुई तो उसकी माँ इनके साथ रहने आई। मेखला व सास के सम्बन्ध ठीक नहीं रहे व घर में प्रायः लड़ाई होने लगीं। पति ने मीरा रोड में एक मकान खरीदा व मेखला को वहाँ छोड़ दिया और स्वयं माँ के साथ किराए का मकान लेकर रहने लगा। अकेले रहते हुए मेखला की मानसिक स्थिति बिगड़ती गई। पति मकान की ई एम आइ याने मकान के लिए बैंक ऋण की मासिक किश्त देता रहा । मेखला के लिए खाने के लिए २००० रुपए महीने का देकर डिब्बे वाला लगा दिया। किन्तु बिजली के बिल नहीं दिए। २००३ से मेखला बिना बिजली के मकान में बिना पैसों के केवल डिब्बे के सहारे बेहद गन्दगी में जी रही थी। हाल में ही उसने रात को चीखना शुरु कर दिया।
जब एक स्वयंसेवी संस्था को उसकी हालत का पता लगा तो वे उसे इलाज आदि के लिए ले गए। स्किट्सफ्रीनीआ की शिकार मेखला को अपनी दयनीय स्थिति का भान भी न था। वह यही कह रही थी कि वह अपने पति को बहुत प्यार करती है व वह उसे लेने आएगा। उसे तो यह भी पता नहीं कि उसके पति ने २००५ में उससे तलाक ले लिया है व दूसरा विवाह भी कर लिया है। मेखला की खबर व फोटो जब समाचार पत्र में आई तो उसके स्कूल की सहेलियों ने उसकी सहायता की ठानी। तभी मेखला की माँ व चाचा को भी पता चला। अब वे कह रहे हैं कि वे उसके इलाज का खर्चा स्वयं उठाएँगे। उन्हें सहायता की आवश्यकता नहीं है। उन्हें इतने सालों से मेखला की खबर ही नहीं थी। वे यह भी नहीं जानते थे कि वह जीवित है या मृत। अब जब उसकी खबर लग गई है तो वे उसका ध्यान रखेंगे , उसके इलाज का खर्चा देंगे।
भरे पूरे परिवार के होते हुए यदि मनुष्य ऐसे जिए और मरे तो फिर परिवार शब्द ही निरर्थक है। कहीं हमारे परिवार के किसी सदस्य का हाल भी मेखला सा तो नहीं हो रहा और हमें उसका अता पता ही न हो या फिर उसके किसी निर्णय या अन्तर्जातीय विवाह आदि के कारण हमने उससे सम्बन्ध तो नहीं तोड़ दिए? कल यदि कहीं हमारी मेखला या ओलिवर मानसिक चिकित्सालय में या कब्र में मिलेंगे तो क्या हम सह पाएँगे?
शायद एक पते की डायरी, लगातार सम्पर्क व अपनों से थोड़ा सा अधिक स्नेह व उनके निर्णयों को स्वीकार करना हमें ऐसी स्थिति देखने से बचा ले।
घुघूती बासूती
Monday, August 23, 2010
ई मेल व मोबाइल युग में भी बिछुड़ते सगे सम्बन्धी और आवश्यकता डाक-पते की.......................घुघूती बासूती
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आज के समय में अपना वजूद खोती पतों की डायरी (Address Book) की आवश्यकता पर बेहतरीन पोस्ट, आभार
ReplyDeleteमैं तो हर दो-तीन साल में नयी डायरी बनाता हूँ जी और सभी पते कन्फर्म करके सहेज लेता हूँ।
प्रणाम स्वीकार करें
आपका यह लेख जागरूक कर रहा है रिश्तों को सहेजने के लिए ...सच आज कल सन तकनिकी में उलझ गए हैं ...कभी मोबाईल खराब हो जाये तो सारे नंबर गायब हो जाते हैं ....बहुत सार्थक रचना ...
ReplyDeleteबड़ी तथ्यपरक रिपोर्ट है जी ,परिवर्तन स्वाभाविक है किन्तु संपर्कों का टूटना खतरनाक !
ReplyDeleteउपयोगी रपट!
ReplyDeleteसार्थक आलेख. संबंधों को बनाए रखने के लिए पुराना तरीका ही बेहतर है.जब किसी के यहाँ शादी आदि होती है तब निमंत्रण पत्र तो भेजना पड़ता है. उस समय छटपटाते भी हैं.
ReplyDeletekuchh kahanaa chaah rahaa hun...kintu shabd nahin nikal rahe mujhse... darasal mujhe ronaa aa rahaa hai... pahle aadmi ki is sthiti par ro loon ...tab kuchh kahungaa....!!!
ReplyDeleteसही लिखा है आपने, तकनीक में उलझे हैं सब कुछ.
ReplyDeleteरामराम
सब बिखर तो रहा ही है , जितना सहेजा जा सके बेहतर
ReplyDeleteKuchh arsa apahle,ek 6 kadiki malika likhi thi,"ye kahan aa gaye ham"..jahan mobile pe ya tatsam upkarnon pe kiye gaye atyadhik wishwas ke galat parinaamon ke bareme likha tha...aapke har shabd se sahmat hun...
ReplyDeleteWaise aapke mere ghar aane ka intezaar bhi hai.
Ye hai meri email ID:
kshamasadhana8@gmail.com
सामयिक व चिन्तन-प्रेरक लेख।
ReplyDeleteसंवेदनशील रचना।
ReplyDeletejise hum hamesha se mahasoos karte aye hain par shabdon me kabhi bhee vyakt nahin kar paye.Lekin aapne to jaise hamare dil kee hi baat likh dali.
ReplyDeleteachchha post hai. dhanyavad.
अच्छी प्रस्तुति। आभार जो मेरे अपने है, मित्र है रिशतेदार है सब के पते मैने मेल मै स्टोर कर दिये है, आप की बात से भी सहमत है
ReplyDeleteबहुत ही शोचनीय स्थिति है, पर इस का क्या इलाज है? केवल हम व्यक्तिगत स्तर पर प्रयत्न कर सकते हैं।
ReplyDeleteपारिवारिक और दोस्ती के रिश्तो को मजबूती देने के लिए महत्वपूर्ण है तकनिकी युग में डायरी व्यवस्थित रखना |बहुत अच्छा आलेख |चौरेजी को हमेशा आदत है है कोई भी शादी का कार्ड आता है तो सबसे पहले वे डायरी में पते नोट करते है इससे कई अवसरों पर हमे आसानी हुई है |
ReplyDeleteशौक या सुविधा के चलते सिर्फ़ तकनीक पर निर्भर रहने की आदत होती जा रही है हमें। परसों बारिश में भीगने का मौका मिला तो इंगलिश के एक जुमले के अनुसार हमने बारिश unavoidable होने के कारण एंजाय करना शुरू कर दिया, लेकिन मोबाईल ने शायद वो जुमला सुना नहीं था। घर लौटे तब तक उसने बगावत कर दी। गिनती के छ:सात नंबर याद हैं जुबानी।
ReplyDeleteआप की पोस्ट में वर्णित घटनायें भयावह हैं, हमें जीवन के हर क्षेत्र में मानवीय टच को बरकरार रखना चाहिये।
आभार।
घुघती जी आपने एक निहायत ही जरुरी चीज पर ध्यान आकर्षित कराया। अब हम डायरी की तरफ़ ध्यान नहीं देते, मोबाईल गुम या चोरी होने की स्थिति में नम्बर भी याद नहीं रहते।
जब मेरा एक्सीडेंट हुआ तो कोई मोबाईल उठा ले गया। मुझे सूचना देने के लिए घर तक का नम्बर याद नहीं था।
श्रावणी पर्व की शुभकामनाएं एवं हार्दिक बधाईलांस नायक वेदराम!---(कहानी)
भाई-बहिन के पावन पर्व रक्षा बन्धन की हार्दिक शुभकामनाएँ!
ReplyDelete--
आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है!
http://charchamanch.blogspot.com/2010/08/255.html
बढिया प्रस्तुति .. रक्षाबंधन की बधाई और शुभकामनाए...
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुती
ReplyDeleteदोनों ही घटनाएं बहुत ही दुखद हैं.
ReplyDeleteअब भी सजग हो जाएँ लोग.
आपका आलेख मन मानस को झकझोड़ देने वाला है.मुझे लगता है यह स्थिति तब से शुरु हुइ है जब से हमने संयुक्त परिवार की प्रथा को बुरा भला कहना शुरु किया और अपनी स्वतंत्रता तथा स्वच्छंदता की आड़ में माइक्रो फैमिली को सर्वोत्तम मानने लग गये. उपरोक्त दोनों वाकयों में प्रथमत: यही कारण है ,हां पते की डायरी न रखना या समय समय पर फोन न करना एक अन्य तथा गौण कारण हो सकता है. लेकिन यह दोतरफा होता है.
ReplyDeleteउपरोक्त दोनो वाकयों में परिवार के साथ समायोजन न कर पाना मूल कारण प्रतीत होता है. जहां ओलिवर ने परिवार से अलग होकर रहने का विकल्प चुना वहीं मेखला ने भी परिवार में सास के साथ एडजस्ट करके रहने की बजाय अकेले रहना बेहतर समझा.उसके पति का निर्णय शायद सही ही रहा होगा.अगर तराजू के एक पलडे़ में अपने कोख में नौ माह तक रख कर ,अपार कष्ट सह कर तथा जिंदगी के असंख्य झंझावात झेलकर, पाल पोस कर आदमी बनाने वाली मां हो तथा दूसरी तरफ केवल पसंदगी नापसंदगी के आधार पर रिश्ते जोड़ कर आने वाली लडकी जो एक दिन भी अपनी सास को सहन करने के लिये तैयार नहीं तो आप बतायें कि पलडा़ किस तरफ झुकेगा? एक बेटे के तौर पर मेखला के पति ने जो किया वो सोच समझ कर किया होगा.
फर्स्ट क्लास प्रोफेशनल डिग्री ली हुई मेखला के लिये बंबई जैसे शहर में काम की कोई कमी नहीं थी.वह अपने पैरों पर खडी़ होकर अपने पति का कानूनन मुकाबला कर सकती थी ऎसा मेरा मानना है.
सब कुछ मशीनी हो गया है
ReplyDeleteसार्थक लेखन
फेसबुक और ट्वीटर के इस दौर में लोग उन हजारों से संपर्क में हैं जिनका फेसबुक ट्वीटर में एकाउंट है भले ही उन्हें कभी मिले ना हों लेकिन अपने परिचित का अगर सोशियल एकाउंट नही तो उनकी कोई खबर तक नही।
ReplyDeleteईमेल और पते पर मैंने भी पोस्ट लिखी है लेकिन उसमें इतनी संवेदनशीलता नही।
- तरूण
आज आपके फरवरी 2007 की वो पोस्ट पढी जिसमें आपने घुघुती बासुती का अर्थ बताया था. भावनाओं को उद्वेलित करने वाला पोस्टा था. मैने शिवानी को भी पढा है. आप भी कुछ कुछ उन्हीं की तरह भावनात्मक रूप से वर्णन करती है. रिश्तों तथा अपने गांव घर के प्रति इतना लगावी अब कम ही देखने को मिलता है.
ReplyDeleteबहुत सी दूसरी सचाईयों के साथ यह भी भविष्य की एक अटल सचाई यहै. विस्थापन के इस महाप्रलय में हम स्ब थोड़ा थोड़ा कर के खोते जा रहे हैं. एक दिन खो ही जाएंगे. या अपने ही घर के पिछ्वड़े में दफनाए हुए मिलेंगे अपने परिजनों को. या खुद ही को......
ReplyDeleteबहुत ही दुखद
ReplyDeleteचिन्तनपरक आलेख.
ReplyDeleteविचारणीय पोस्ट है। आपने बिलकुल सही कहा है सब के पते हमे जरूर लिख कर रखने चाहिये। ऐसे और भी कई उदाहरण हैं जिनसे इसी करण सम्पर्क नही हो पाता कि उनके नये पते हमे पता नही होते। सही मश्वरे के लिये आभार।
ReplyDeleteसाफ्ट डायरी डिवाइस-गैजेट के लिए पहले डिजिटल डायरी शब्द प्रयुक्त होता था, मुझे खुद पहले-पहल हंसी आई थी कि किस चीज को डायरी कहा जा रहा है लेकिन आज डायरी, फोन बुक और नोट बुक का सहज अर्थ क्या है, सोचें.
ReplyDeleteये घटनाएँ झकझोर ने वाली हैं मैने एक बार फिर से अपनी पतों वाली डायरी चेक कर ली है । एक बात और कहना चाहूंगी कि इन ई मेल सेल फोन आदि ने पत्र लेखन पर भी धावा बोला है धीरे धीर पत्र लेखन की कला ही लुप्त हो रही है ।
ReplyDeleteघुघूती जी,
ReplyDeleteआपको पढ़ फ़िर सोचा और सही पाया...
डायरी मेंटेन करूंगा....
धन्यवाद!
आशीष
मैं पतो की डायरी शुरू से रखता आया हूँ और यदा कदा मित्रो रिश्तेदारो को पोस्टकार्ड डाल दिया करता हूँ तस्दीक के लिये कि पता सही है या नही .. अब सोच रहा हूँ सभी ब्लॉगर साथियो के भी पोस्टल एड्रेस इकठ्ठे कर लिये जाये ।
ReplyDeleteइस पते का पता होना बहुत ही ज़रूरी है. एक डायरी हम भी लिखने के इच्छुक हैं. नए साल में शुरुआत करेंगे.
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