जब स्कूल प्रिन्सिपल अपना आपा खोकर बच्चों को जलती लकड़ी से दागने लगें तो हमें समझ जाना चाहिए कि बच्चों का भविष्य क्या होगा। अब तक तो हम सोचते थे कि क्रोध में हम आवाज ऊँची करते हैं, अधिक ही पागल होने लगें तो हाथ उठा सकते हैं। परन्तु यहाँ तो वे स्कूल की रसोई से ( जहाँ बच्चों के लिए भोजन बन रहा था और जिसका लालच दे हम बच्चों को यदि शिक्षित न भी कर पा रहे हैं तो साक्षर बनाने का प्रयास तो करते ही हैं और यदि वह भी न कर पाएँ तो कम से कम उन्हें कुपोषण से बचाने का काम तो करते ही हैं।) जलती लकड़ी को ही हथियार की तरह ले आईं और लगीं बचचों के कोमल टाँगों को दागने!
आन्ध्र प्रदेश के वारंगल जिले में जमन्दलापल्ली मंडल के एक स्कूल की प्रिन्सिपल को शैतान बच्चों पर इतना क्रोध आया कि उन्होंने छः सात बच्चों को जलती लकड़ी से दाग दिया। वे चित्र इतने विचलित करने वाले हैं कि मैं लगाने का प्रयास भी नहीं कर रही। सुबह से जबसे यह समाचार टी वी पर सुना मन बस वहीं अटका है। मैं समझ सकती हूँ कि बच्चे क्या कर रहे होंगे। वे कितना शोर , हंगामा, शैतानी और उससे भी आगे बढ़कर बिल्कुल अशिष्ट हो सकते हैं। वे मारपीट कर सकते हैं, एक दूसरे के प्रति भी क्रूर हो सकते हैं। अध्यापक यदि कुशल, समझदार, और करामाती और सबसे बड़ी बात बाल मन का जानकार न हो तो उन्हें बिना मारे पीटे वश में करना, किसी तरह की व्यवस्था बनाए रखना असम्भव हो जाता है।
किन्तु यह कमी तो अध्यापक की है। जिस तरह से प्राणी जगत में समूह में रहने वाले सामाजिक जानवरों का सदा अपना एक नेता होता है और वे उसकी बात मानते हैं उसी तरह अध्यापक में भी बच्चों के बीच अपने को उनका नेता सिद्ध करने के गुण होने चाहिए। प्राणी जगत में नेता प्रायः शारीरिक रूप से सबसे शक्तिशाली होता है किन्तु यहाँ वह केवल अपने व्यक्तित्व से ही यह स्थान पा सकता है। फिर बच्चे उसके पीछे पीछे चल पड़ेंगे। फिर न तो छड़ी चाहिए होती है और न ही जलती लकड़ी।
बच्चों का तो स्वभाव ही है चंचल होना। जो बच्चा चुपचाप बैठा है वह या तो बीमार है या फिर विषादग्रस्त। अब हम उन्हें जब स्कूल में एक ही बेंच पर घंटों बैठे रहने को कहते हैं तो यह नदी के पानी को बहने से रोककर बाँधने सा है। और ये कुछ घंटे दिन प्रतिदिन लम्बे खिंचते जा रहे हैं। छोटे छोटे बच्चे सुबह आठ बजे से शाम तीन या चार बजे तक स्कूल में रहते हैं। आन्ध्र में तो यह मैंने सन ८८ से लेकर ९१ तक खूब होते देखा है। मेरे यह पूछने पर कि पाँच साल के बच्चे से आप इतने घंटे कक्षा में बैठने की अपेक्षा कैसे करते हैं पर प्रिन्सिपल ने कहा कि बहुत से माता पिता तो इससे भी अधिक लम्बी अवधि का स्कूल चाहते हैं।
दोनों माता पिता काम पर जाएँ तो यह चाहत समझ आती है किन्तु उसके लिए साधन भी तो होने चाहिए। यदि लम्बे समय के लिए बच्चों को स्कूल में रखना है तो वैसी सुविधाएँ भी चाहिएँ। इस बिना सुविधा के स्कूल में जहाँ पहली कक्षा की अध्यापिका भी एक सोटी हाथ में लेकर ही घूमती थी वहाँ बच्चों को एक बेंच पर यूँ कैदकर रखना ठीक वैसा ही है जैसे पश्चिमी देशों में वील(संसार का सबसे नरम माँस) उत्पादन के लिए बछड़े को एक इतने तंग क्रेट में बिना हिले डुले रखा जाना है ताकि उसका माँस नरम बना रहे। हिलने डुलने से माँसपेशियाँ सख्त बन जाती हैं। क्षमा कीजिए, एक बेहद क्रूर प्रथा का उदाहरण दिया है किन्तु हम अपने बच्चों के साथ भी तो बेहद क्रूर हैं। मुझे तो इन बेंच पर टंगी नन्ही जानों को देखकर वील के लिए यातना दिए जाते बछड़ों की ही याद आती है। और इस किस्से में तो यह और भी उपयुक्त है क्योंकि दूध उत्पादन के फार्म्स में बछड़े, बछड़ियों आदि को निशान लगाने के लिए दागा ही तो जाता है ताकि क की गाय ख की गायों में न मिल जाए, ठीक वैसे ही जैसे आप अपने कार या स्कूटर पर नम्बर प्लेट लगाते हैं।
स्कूल प्रिन्सिपल जिन्होंने यह कृत्य 'अनुशासन' के लिए किया था अब 'अनुशासित' करे जाने के लिए पकड़कर अन्दर कर दी गईं हैं। आशा है कि बाहर आने तक वे 'अनुशासन पर्व' मना चुकी होंगी।
हो सकता है कि वे भी कभी ऐसी पीड़ित बच्ची रही हों जिन्होंने अध्यापिका बनने का सपना केवल इसलिए पाला था कि छात्रों को पीट सकेंगी, उन्हें भयभीत कर सकेंगी और अपने बचपन की पिटाई का बदला लेकर इस पिटाई परम्परा को आगे बढ़ा सकेंगी।
घुघूती बासूती
Thursday, August 12, 2010
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इन खबरों को पढ़ कर विचार आता है कि हम क्या 63 वर्ष पहले आजाद हो चुके थे? या अभी तक गुलाम हैं।
ReplyDeleteयह सैडिस्टिक अप्रोच निंदनीय है.
ReplyDeleteइस प्रकार के कृत्यों की भर्त्सना करता हूँ!
ReplyDeleteदो सच्ची घटनायें सुनाते हैं।
ReplyDelete१) संतकुमार आचार्य जी: छठी कक्षा, गणित के अध्यापक...चूंकि हम जरा गणित में दुरुस्त थे इसलिये उनकी संटी से वास्ता कम ही पडा। लेकिन अधिकतर विद्यार्थियों की उन्होने बजा रखी थी। एक बेचारे साथी अनुज सेठ (कितने दिनों बाद याद आया, कबड्डी में बडा उस्ताद था वो) से उनकी लगता था पुरानी खुन्नस थी, तो अधिकतर संटियां उसी पर टूटी। हमारे स्कूल की शहर में दूसरी शाखा भी थी, सातवीं में अनुज सेठ ने जैसे तैसे घरवालों के हाथ पांव जोडकर अपना तबादला वहां करवा लिया लेकिन हाय री किस्मत...संतकुमार जी भी इत्तेफ़ाकन उसी साल तबादला लेकर दूसरे स्कूल में जा पंहुचे...बेचारा अनुज...
२) संतकुमारजी के बाद सातवीं कक्षा में दूसरे अध्यापक और हमारे प्रिंसीपल श्री कमलेश कुमार जी आये। अंग्रेजी और गणित पढाते थे बेहद मौजू ढंग से...वो नये नये थे और स्कूल में हमारी रेप्यूटेशन से नावाकिफ़ थे तो उनसे शुरूआती मुलाकात अच्छी न रही। हमारी कापी में कुछ गडबड थी और उन्होने हमें अपने दफ़्तर तलब किया, कुछ हाथ पे हल्की से रूलर से एक चोट भी पडी होगी लेकिन कुछ खास नहीं। फ़िर मध्यावकाश की घंटी बजी और जब तक हम उनके दफ़्तर से बाहर निकले बाहर कारीडोर में अच्छी भीड...अब भला हमारे जैसे इज्जतदार को प्रिंसीपल के दफ़्तर से निकलते देखकर बाकी मित्र सोच में थे तो हम अपनी इज्ज्त बचाते हुये मुस्कुराकर निकले कि लगे कि जैसे प्रिंसीपल साहब ने चाय पीने के लिये बुलाया हो...चैम्बर से बाहर निकल्ते हमारी मुस्कुराहट प्रिंसीपल साहब ने देख ली और वापिस बुलाकर फ़ालतू में हम पर एक रूलर और रसीद कर दिया कि पुराना दण्ड काफ़ी नहीं था...उसको हम आज तक नहीं भूले...
लेकिन इसके बाद उनका दूसरा रूप भी दिखा...क्लास में वो पिटाई कम ही करते...और हर बार पिटाई के बाद संटी तोड डालते और बडे भावुक हो जाते...एक बार को एक लडके की पिटाई के बाद वो इतने दुखी हुये कि उनकी आंखों से आंसू तक आ गये...धीरे धीरे उनकी कक्षा में सबको आनन्द आने लगा और पिटाई बहुत कम ही होती दीवाली होली के जैसे...:)
बच्चों पर अनुशासन थोपना तो गलत है, लेकिन हमारा समाज एक संतुलित ढंग से व्यवहार कर सकता है, मुझे नहीं लगता। हम लोग या तो एक्दम इधर होते हैं या उधर। आवश्यकतानुसार सख्ती और ऐसे ही जरूरत के हिसाब से स्वतंत्रता भी जरूरी है।
ReplyDeleteलेकिन ये तो सरासर दरिन्दगी है।
अच्छी पोस्ट !
ReplyDeleteबहुत दुखद घटना ..विचारणीय...बच्चों को अनुशासित करने के लिए इतना क्रूर कदम निंदनीय है
ReplyDeleteकुंठित और लुंठित दोनों ही प्रकार के लोगों को बच्चों से दूर रखा जाए तो अच्छा पर दिक्क़त ये है इस घंटी को बांधे कौन.
ReplyDeleteआमतौर पर अध्यापक इतने क्रूर नहीं होते इसलिए इसे अपवाद की तरह लेना चाहिए, पर दुःख इस बात का है कि ऐसे अपवाद बढते जा रहे हैं. इसका कारण शायद यही है कि स्कूल की अवधि बढ़ती जा रही है और अध्यापकों की ट्रेनिंग सही ढंग से नहीं होती, इसलिए वे हिंसा के बल पर बच्चों को कंट्रोल करना चाहते हैं.
ReplyDeleteमेरे ख्याल से अध्यापकों की ट्रेनिंग में उन्हें बाल-मनोविज्ञान ज़रूर पढ़ाना चाहिए क्योंकि सभी लोगों की सहज बुद्धि और व्यक्तित्व ऐसा नहीं होता कि वे खुद बच्चों से सही व्यवहार करना सीख जाएँ.
और इस प्रकार की हिंसक प्रवृत्ति वालों को हमेशा के लिए अध्यापन कार्य से वंचित कर देना चाहिए.
वील के बारे में मैं नहीं जानती थी. जानकर मन अजीब सा हो गया. कभी-कभी ना जानना (अज्ञान) सुखद होता है.
मन खराब हो जाता है ऐसी खबरों को पढ कर या देख कर. लेकिन केवल मन खराब हो जाने से क्या होगा? ऐसे क्रूरतम व्यक्तित्वों की मौजूदगी मिटाई नहीं जा सकती. ये अपनी उपस्थिति दर्ज़ करते रहते हैं समय-समय पर, और हम हर बार दुखी हो के रह जाते हैं. कितने विवश हैं हम?
ReplyDeleteजी बच्चो के साथ ये स्कुल में हुआ तो सब ने जाना कुछ माँ बाप भी बच्चो के साथ ऐसा ही करते है वो भी आज के समय में| जब मैंने इसे देख तो मेरे तो रोंगटे खड़े हो गये जब एक माँ और एक दुसरे बच्चे के पिता को मैंने बच्चे को माचिस कि तीली से डरते देखा मै ने पुछा ये क्या है तो मुझे बताया गया कि बच्चो को एक बार तीली से चटका (दाग) दो तो वो डर जाते है और जब आप कि बात ना माने तो बस तीली दिखाओ डर जाते है | ये सजा मुम्बई में काफी आम है माध्यम वर्गीय परिवारों में | समस्या ये है कि लोगों में धैर्य कि कमी है जो बच्चो के देखभाल के लिए सबसे आवश्यक है |
ReplyDeleteनिंदनीय - कुकृत्य
ReplyDeleteएक कलाकार प्रवति के पिता को देखा था मैंने वो अपने घर की दीवारों को बहुत साफ सुथरा रखने के पक्ष में रहते थे उनके अपने बच्चे जब स्कूल जाने लगे तो वे दीवार्रोपर भी पेन्सिल से लिखने लगे जिससे उन्हें बहुत गुस्सा आता |एक दिन उन्होंने नुकीली पेन्सिल की नोक अपने ही बच्चे के नर्म गाल पर गड़ाई और लम्बी रेखा सी खिंची और कान उमेठते हुए कहा देखो तुम्हे दर्द होता है न ?ऐसे ही दीवार को भी दर्द होता है और वो गन्दी भी दिखती है तुम्हारे इस गाल की तरह |बच्चा भी रोया नहीं दुसरे दिन से आक्रोश में उसने कलर पेन्सिल भी चलाई दीवार पर |और तो और पेशे से इंजिनियर ऐसे पिता को ट्यूशन पढ़ने का शौक था |
ReplyDeleteशिक्षक बच्चो को हिंसक बनाते जा रहे है ? उनके साथ अमानवीय व्यवहार कर रहे है ?क्या उनको शिक्षा देने का अधिकार है ?
ऐसे बहुत सारे सवालों पर prkash dalti sarthk post
निंदनीय .....
ReplyDeleteकैसे कोई मासूम फूलो के साथ ऐसे बर्ताव कर सकता है ?
निन्दनीय के अतिरिक्त कोई शब्द नहीं है।
ReplyDeleteसातवी कक्षा को वो दिन मुझे अभी तक याद हैं जब मेरे अंग्रेजी के सर श्री अरोरा ने मेरी इतनी धुनाई की, कि मेरे गाल लाल हो गये, कान सूज गये!! सर पीटने के लिए पूरे स्कूल में जाने जाते थे!! कोई उनका विषय जानता हो या नही, ये जरुर जानता था कि वो पिटाई कितनी करते हैं! उस समय तो एक अन्य अध्यापक ने आकर भी उन्हें समझाया था!!
ReplyDeleteउनकी वो पिटाई मुझे आज भी बुरी लगती हैं, बच्चो को इतना नही मारना चहिये, पर अगले चार वर्षो में उनका प्रेम इतना बरसा कि मुझे लगता हैं वो मेरे सबसे अच्छे गुरु थे!!
बच्चो की हलकी फुलकी पिटाई हो तो चलता हैं, पर उनके कोमल शरीर को दागना, उन पर दस्तर फेकना, उनको धुप में मुर्गा बनाना ये अत्याचार हैं
केवल धैर्य की कमी के चलते यह सब होता है, घोर निंदनीय कृत्य ।
ReplyDeleteकैंसर के रोगियों के लिये गुयाबानो फ़ल किसी चमत्कार से कम नहीं (CANCER KILLER DISCOVERED Guyabano, The Soupsop Fruit)
ये तो दरिन्दगी है मगर ये भी सत्य है कि न तो धैर्य और सहन शीलता बच्चों मे रही है न ही अभिभावकों मे और न ही अध्यापकों मे। अच्छी पोस्ट के लिये बधाई।
ReplyDeletebahut shrmnak hai ye kritya..
ReplyDeleteमेरे पास यह कहने वाले अभिभावक आए हैं : ’यह शैतान है खूब पीटिएगा”
ReplyDeleteये सारी ख़बरें पढ़, लगता है...अच्छा हुआ टी.वी. देखना बहुत कम कर दिया है...कैसा अमानवीय कृत्य है यह??...इन मासूम बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार?...लानत है उक्त महिला के साक्षर होने पर भी. उन्हें तो बर्खास्त ही कर देना चाहिए.ये सारे लोग सिर्फ अपनी कुंठाएं निकालते हैं और अपनी शक्ति के मद में चूर...ऐसे कृत्य कर जाते हैं.
ReplyDeleteसही कहा आपने , बच्चों का तो स्वभाव ही है चंचल होना। जो बच्चा चुपचाप बैठा है वह या तो बीमार है या फिर विषादग्रस्त। अब हम उन्हें जब स्कूल में एक ही बेंच पर घंटों बैठे रहने को कहते हैं तो यह नदी के पानी को बहने से रोककर बाँधने सा है।