Thursday, December 24, 2009

और आप सोचते थे कि मनुष्य और पक्षी ही गृह निर्माण करते हैं!.......घुघूती बासूती



हमारे सोचने से क्या होता है? इन्डोनेशिया की एक औक्टॉपस की प्रजाति तो ऐसा बिल्कुल नहीं सोचती। वे नारियल के कटोरीनुमा खोल इकट्ठा करते हैं। अब अष्टभुज हैं तो अपनी भुजाओं का प्रयोग भी खूब करते हैं। वे समुद्र के तल से मनुष्यों द्वारा फेंके गए नारियल के खोल उठाते हैं। उनमें से रेत आदि खाली करते हैं और फिर उन्हे अपने निवास स्थान पर ले जाते हैं। वहाँ जाकर दो खोलों को तरीके से एक के ऊपर एक रखकर अपना मकान बना लेते हैं।

काश हमारे नाप के खोल भी मिलते। फिर हम भी अपनी मनपसंद जगह पर अपना मकान बना लेते। जब ऊब जाते तो मकान उठाकर कहीं और ले जाते।

अपृष्ठवंशी प्राणी द्वारा औजार के उपयोग का यह पहला उदाहरण है।

नोटः चित्र नैशनल ज्योग्राफिक से साभार लिए गए हैं।

घुघूती बासूती

Tuesday, December 22, 2009

काश, बिना दुर्घटना के सीट बेल्ट पहनना सीख लिया होता !

कार में आगे बैठने पर सीट बेल्ट पहनना आवश्यक होता है। कितना अच्छा होता कि पीछे की सीट पर भी यह आवश्यक होता।

मैं लगभग सदा पीछे की सीट पर बैठती हूँ और इसी कारण पेटी नहीं बाँधती थी। सच तो यह है कि पेटी बाँधने का खयाल भी नहीं आता था। शनिवार को मैं पुणे जा रही थी। रास्ते में कार की दुर्घटना हो गई। ड्राइवर ने पेटी बाँधी थी, उसे खंरोच तक नहीं आई। मेरी बाँई बाँह में दो जगह हड्डी टूटी। यदि मैंने भी पेटी बाँधी होती तो शायद मुझे भी चोट नहीं लगती।

यह पोस्ट अपने उन्हीं मित्रों के लिए लिख रही हूँ जो मेरी तरह पीछे बैठने पर पेटी नहीं बाँधते। आगे बैठें या पीछे, पेटी अवश्य बाँधें। अन्यथा बिना बात के हाथ पाँव तुड़वाकर मेरी तरह सीखना पड़ सकता है।

घुघूती बासूती

Friday, December 18, 2009

सरपत, तलवार से तेज़ घास..........घुघूती बासूती

मुम्बई आए हुए महीने बीत गए थे। बस केवल अनीता जी से मिलना हुआ था। मुम्बई आने से पहले ही अभय तिवारी व प्रमोद सिंह से बात हुई थी। सोचा था कि यहाँ आने पर मिलना भी हो जाएगा। किन्तु कभी वे लोग व्यस्त तो कभी मैं व्यस्त रही। आखिर उनके आने का कार्यक्रम ५ दिसम्बर को बन ही गया। मैंने अभय से अनुरोध किया था कि वे अपनी फिल्म सरपत का डी वी डी भी अवश्य लेकर आएँ। किन्तु वे लाना भूल गए। खैर मुलाकात हुई। मिलकर बैठे। गप्प की। अभय ने कहा कि वे सरपत का डी वी डी भेज देंगे।

परसों अचानक नीचे से चौकीदार का फोन आया कि कुरियर वाला आया है। सोचा कोई पत्र ही होगा। किन्तु जब उसने अभय का भेजा हुआ पैकेट दिया तो मुझे बहुत सुखद आश्चर्य हुआ। शाम को घुघूत के साथ मिलकर फिल्म देखी। फिल्म देखकर मन खुश हो गया। मुझे बेकार में लम्बी खींची फिल्में सहन ही नहीं होती। न ही मुझे मार धाड़ सह्य है।

फिल्मों का मेरा ज्ञान यदि एक छोटी चम्मच में रखें तो भी जगह बची रह जाएगी। फिर भी मैं कह सकती हूँ कि फिल्म बहुत अच्छी लगी। किसी फिल्म, कहानी या पुस्तक को तभी अच्छा कह सकते हैं जब वह हमें बाँधे रहे। यह फिल्म शुरू से अन्त तक कसकर पकड़े रही। पॉपकॉर्न्स या किसी पेय ग्रहण करने की इच्छा की भी कोई गुँजाइश नहीं थी। जैसा कि मैंने अभय को पत्र लिखकर धन्यवाद कहते हुए कहा, इस फिल्म में वह सब नहीं है जिसके कारण मैं फिल्में नहीं देखती और वह सब है जो मैं किसी फिल्म से चाहती हूँ। कहानी है जो बाँधे रहती है, चिल्लाना या लाउड एक्टिंग नहीं है, सुन्दर स्वाभाविक दृष्य हैं। सबकुछ स्वाभाविक सा है किन्तु अब क्या होगा की तर्ज पर रोचकता बनाए रखती है। एक नाटकीय तरीके से फिल्म का अनेपक्षित अंत होता है। और अचानक फिल्म खत्म हो गई का भान होता है। उस गॉगल्स लगाए छोटे लड़के की छवि देर तक साथ रहती है।

फिल्म में प्रमोद का भी कलात्मक योगदान है। कला की पारखी न होते हुए भी कहूँगी कि सारे दृष्य सुहाने लगे।
एक अच्छी फिल्म बनाने व दिखलाने के लिए धन्यवाद अभय।

घुघूती बासूती

Thursday, December 17, 2009

एलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है?..........घुघूती बासूती

क्या पता क्यों आता था? मैंने तो यह फिल्म देखी नहीं । परन्तु जब जब किसी के गुस्से के बारे में देखती, सुनती, पढ़ती हूँ तो इस फिल्म का नाम याद अवश्य आ जाता है। गुस्सा आना भी समझा जा सकता है किन्तु गुस्से में पगलाना और किसी को जान से मार देना मेरी समझ से परे है। वह भी तब जब बात इतनी छोटी हो कि आम व्यक्ति उस पर ध्यान भी न दे। पता नहीं उनके मस्तिष्क की वायरिंग ही गड़बड़ होती है कि जल्दी ही गरम हो जाता है उनका मस्तिष्क। काश मस्तिष्क में भी कोई फ्यूज़ लगा होता जो ऐसे समय में उड़ जाता और मस्तिष्क ठंडा होने पर जुड़ जाता। न भी जुड़ता तो स्वयं ही भुगतते, किसी अन्य को जान से हाथ तो न धोना पड़ता।

अब यह सड़क पर वाहन चालकों के क्रोध को ही देख लीजिए। रोड रेज़ शब्द है इसके लिए। अपना स्वयं का वाहन है फिर भी इतना क्रोध तो यदि धूप में पैदल चल रहे होते तो पता नहीं हाथ में कुल्हाड़ी या गंडासा या दोनों ही लिए चलते क्या?
मुम्बई हवाई अड्डे के पास के पुल पर १५ दिसम्बर की सुबह एक सैन्ट्रो कार ने एक हौन्डा सिटी कार से आगे निकलने का दुस्साहस किया। हौन्डा सिटी के चालक को यह असह्य लगा। वह तेज गति से सैन्ट्रो के सामने कार ले आया और रास्ता रोक दिया। सैन्ट्रो कार का चालक उतर कर कारण पूछने लगा तो पीछे बैठे व्यक्ति ने उसका कॉलर पकड़ लिया और चालक तेजी से कार चलाने लगा जिससे कुछ मीटर तक वह घिसटता गया कॉलर जब छोड़ा गया तो वह कार के पिछले पहिए के नीचे कुचला गया। हस्पताल में उसकी मृत्यु हो गई।

आप कहेंगे कि जमाना खराब आ गया है, या ये आजकल के युवक बहुत बिगड़ गए हैं। किन्तु यह बात जमाने या युवकों की नहीं है।

कुछ दिन पहले पढ़े एक समाचार ने मुझे यह सोचने को बाध्य किया कि शायद मनुष्य है ही ऐसा। पहले शायद संचार माध्यम कम थे और समाचार लोगों तक पहुँचते नहीं थे किन्तु होता सदा से शायद ऐसा ही रहा है। अब किसी ९८ वर्षीया स्त्री को हम या यह जमाना क्या बिगाड़ेगा?

हुआ यूँ कि अमेरिका के एक वृद्धों के नर्सिंग होम में दो वृद्धाएँ क्रमशः ९८ व १०० वर्ष की, एक ही कमरे में रहती थीं। ९८ वर्षीया को लगता था कि १०० वर्षीया कमरे को हड़पे हुए है, कि उससे बहुत लोग मिलने आते हैं आदि आदि। अब यदि हम किसी से नाराज होना चाहें तो हजार कारण ढूँढ सकते हैं। सो उसने भी ढूँढ लिए होंगे। एक शाम उसने १०० वर्षिया के पलंग के सामने मेज रख दिया ताकि वह शौचालय न जा सके। नर्स ने वह हटाया। अगली सुबह जब नर्स कमरे में आई तो उसने देखा कि १०० वर्षीया के सिर के चारों तरफ एक पॉलीथीन की थैली है और वह मर चुकी है। पहले उसने सोचा कि वृद्धा ने आत्म हत्या कर ली। किन्तु बाद में देखा कि उसके गले पर गला घोंटने के निशान हैं। रात को जब १०० वर्षीया वृद्धा सो गई तो ९८ वर्षीया वृद्धा ने उसके चेहरे पर पॉलीथीन की थैली चढ़ा दी और उसका गला भी दबा दिया था।

अब इस हत्या को क्या कहा जाएगा? यह भी कहा जा सकता है कि उनके बच्चों को उनका ध्यान रखना चाहिए था, उन्हें अपने साथ रखना चाहिए था। किन्तु कैसे बच्चे? उनक संतानें तो अब तक स्वयं ७० वर्ष के आस पास की उम्र की होंगी व उन्हें स्वयं कोई ध्यान रखने वाले की आवश्यकता होगी। मैं तो यही कहूँगी कि मनुष्य शायद एक हिंसक प्राणी ही है और समाज व कानून का भय ही उसे भद्र बनाता है। यह भय खत्म हुआ या उस भय को वह भुला बैठा तो अपने वास्तविक हिंसक स्वरूप में आ जाता है।

घुघूती बासूती

Wednesday, December 16, 2009

मैडम, दूसरा नोट दीजिए।.....घुघूती बासूती

आप दुकान पर जाती हैं। कुछ खरीदती हैं और ५०० रुपए का नोट देती हैं। दुकानदार उसे देखता है, ध्यान से देखता है, आपको देखता है, फिर ध्यान से देखता है। नोट बाहर उजाले में ले जाकर देखता है। गनीमत है कि आपको भी बाहर ले जाकर नहीं देखता। दुकान में किसी और विक्रेता को दिखाता है, सिर हिलाता है और कहता है कि मैडम, दूसरा नोट दीजिए। आप चुपचाप बटुए में से एक और नोट निकाल कर दे देती हैं।

यदि एक ही नोट लेकर गई होतीं तो क्या होता? सामान वापिस दे देतीं। उससे भी बुरा होता यदि किसी रेस्टॉरेन्ट में खाना खा चुकी होतीं और वही इकलौता नोट होता तब क्या करतीं? नोट तो आप स्वयं बनाती नहीं। वे तो आपको अधिकतर बैंक से ही प्राप्त होते हैं। नौकरी पेशा लोगों का तो वेतन बैंक में ही जाता है और आप अधिकतर ए टी एम से नोट प्राप्त करती हैं। बैंक जाकर भी लें तो वहाँ खड़े होकर एक एक नोट को तो ट्यूबलाइट की तरफ करके असली है या नकली देखने से रहीं। और जो नोट किसी एक विक्रेता ने लेने से मना कर दिया उसे भी आप घर पर तो रखेंगी नहीं। वह विक्रेता भी कौन सा नोट पहचानने की मशीन है? वह भी तो शायद नकली नोटों के भय से यूँ ही सहमा हुआ कुछ अधिक ही चौंकन्ना तो नहीं हो रहा? यह सोच आप वह नोट किसी और विक्रेता को पकड़ा ही देंगी। सो ये नकली नोट हमारी अर्थव्यवस्था में प्रवाहित होते रहते होंगे।

स्वयं वित्तमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी कहते हैं कि स्थिति चिन्ताजनक है। वे मानते हैं कि ०.००१% नोट जाली हो सकते हैं। याने एक लाख नोटों में से एक जाली होता है। यदि वह आपके पास ही आ जाए तो?
जाली नोटों से हमारी अर्थ व्यवस्था को तो खतरा है ही किन्तु आपके सम्मान को भी काफी खतरा हो सकता है।

क्या यह बेहतर नहीं होगा कि सरकार बैंकों से कहे कि वे नोट पहचानने वाले उपकरणों का उपयोग कर नकली नोट अलग कर दे? बैंक यह हानि उठाना नहीं चाहेंगे किन्तु नकली नोट आम जनता को भी तो नहीं पकड़ाए जा सकते। शायद यह हानि सरकार को ही उठानी होगी।

अब तक नकली दूध, नकली घी तो चल ही रहा था अब नकली नोट भी!

समस्या का कोई समाधान तो होना ही चाहिए।

घुघूती बासूती

Monday, December 14, 2009

ब्रेड बँटवारा और स्त्री /पुरुष विमर्श.......घुघूती बासूती

ब्रेड बँटवारा और स्त्री /पुरुष विमर्श
समीरलाल जी उड़नतश्तरी की तश्तरी पर ब्रेड परोस लाए। और आज की मंहगाई में पेट पर बेल्ट कसते हुए ब्रेड का विभाजन भी बहुत बढ़िया तरीके से किया। सभी सद्भाव बनाए रहने वालों को उत्तर ३ ही सही लगा। परन्तु उसमें एक परेशानी है।

बँटवारा तो बराबर हुआ किन्तु पेट भी क्या बराबर भरा? बिल्कुल नहीं। सो यह तो पुरुष के साथ अन्याय हुआ।(अब मुझसे यह न पूछें कि पुरुष १ टुकड़ा क्यों खाता है और स्त्री आधा ही क्यों? शायद स्त्री को भूख कम लगती है़ शायद वह डायटिंग कर रही है, शायद पति को भूख अधिक लगती है। जो भी हो यह पहले से सुनिश्चित है कि वे कितना खाते हैं। इसपर बहस नहीं हो सकती।)

यदि ब्रेड के एक टुकड़े का भार ३० ग्राम है तो पति रोज ३० ग्राम खाता है और पत्नि १५ ग्राम। अब गरीबी वाले पाँचवे दिन यदि दोनों आधी आधी खाएँगे तो पत्नी को तो उसकी निश्चित खुराक १५ ग्राम मिल जाएगी किन्तु बेचारे पति को तो १५ ग्राम खा आधे पेट ही रहना होगा। सो यह सरासर अन्याय होगा।
सही तरीका होगा कि ब्रेड के तीन टुकड़े किए जाएँ। हर टुकड़ा १० ग्राम का। अब यदि पत्नी एक टुकड़ा जो १० ग्राम का है,खाए तो उसे अपनी दो तिहाई खुराक मिल जाएगी। पति दो टुकड़े खाए तो उसे भी २० ग्राम याने दो तिहाई खुराक मिल जाएगी।

तो देखिए हल सदा वे ही नहीं होते जो सामने दिख रहे होते हैं। हल ढूँढने पर मिल भी जाते हैं और वे लीक से हटकर भी हो सकते हैं। इसीलिए कहते हैं,डब्बे से निकलकर सोचिए। Think out of the box!That may also be called lateral thinking!

वैसे समीरलाल जी का यह स्त्री /पुरुष विमर्शियों में सद्भाव स्थापित करने का तरीका बहुत बढ़िया लगा। क्या ही अच्छा होता कि थोड़ा सा मक्खन व जैम भी ब्रेड पर लगा होता तो विमर्शों में मिठास भी घुल जाता।

घुघूती बासूती

Sunday, December 13, 2009

मित्र की कीमत एक सीताफल!.........घुघूती बासूती

जी हाँ, वही सीताफल जो शरीफ़ा भी कहलाता है। इस शरीफ़े ने चार लड़कों की शराफ़त ही हर ली और एक की तो लगभग जान ही ले ली।

हुआ यूँ कि वनगाँव आश्रमशाला के १२ से १४ साल उम्र के पाँच लड़के जंगल में घूमने गए। वहाँ उन्हें एक सीताफल मिला जिसे तोड़कर वे अपने साथ ले आए। क्योंकि वह कच्चा था सो उसे पकाने के लिए डबका के सन्दूक में रख दिया गया। अगले दिन जब सन्दूक खोला गया तो फल गायब था। डबका पर फल खाने का सन्देह हुआ। सो अन्य चारों ने मिलकर उसकी जमकर पिटाई की। कमर में बाँधे जाने वाले काले धागे से उसका गला भी घोंटने का प्रयास किया। फिर वे अपने बेहोश दोस्त को घसीटकर एक नाले के पास फेंक आए।

दो दिन तक जब डबका अनुपस्थित रहा तो शाला के अधिकारियों ने उसके घर जाकर पता लगाया कि कहीं वह घर तो नहीं पहुँचा। वहाँ न मिलने पर उन्होंने उसे जंगल में ढूँढना शुरू किया। दो दिन से बेहोश पड़ा डबका उन्हें मिल गया। उसकी जान बचा ली गई।

किन्तु क्या हममें इतना क्रोध भर गया है कि एक सीताफल के लिए हम किसी की जान ले सकते हैं? इतना क्रोध आया कहाँ से? क्या इतने छोटे बच्चे भी इतने निर्मम हो सकते हैं? या क्या हम जन्म से ही निर्मम होते हैं और हमारा समाज व परिवार हमें दया और मोह सिखाता है?

क्या हमें बच्चों को अपने क्रोध पर काबू पाना नहीं सिखाना चाहिए? माता पिता से यह अपेक्षा करना वैसा ही है जैसे गूँगे से गाना गाने की। तो स्कूल में अध्यापकों को पहले दो एक साल क्या बच्चों को शिष्टता, व्यवहार, सहयोग, नैतिक मूल्य, क्रोध पर काबू करना, क्रोध को सही दिशा देना, अपनी भावनाओं को दिखाने का सही तरीका आदि ही नहीं सिखाना चाहिए? पढ़ना लिखना दो एक साल बाद भी हो सकता है किन्तु अच्छा मनुष्य बनाने में देर नहीं होनी चाहिए।

किन्तु प्रश्न यह उठता है कि अध्यापकों को क्रोध पर काबू पाना कौन सिखाएगा? सबसे पहले तो उन्हें ही यह सिखाना पड़ेगा। जब मैंने अध्यापन शुरू किया था तो अपने आपसे यह प्रतिज्ञा की थी कि जिस दिन भी मेरा मन हाथ उठाने का होगा उसी दिन मैं पढ़ाना बंद कर दूँगी। मेरे अध्यापन के दिनों में एक अध्यापिका अपने क्रोध के लिए जानी जाती थीं। उन्हें गुस्सा बहुत सरलता से आ जाता था और फिर उनके हाथ में होता था डंडा और विद्यार्थियों का सुकोमल शरीर धुन देती थीं। क्योंकि उनकी उम्र बहुत कम थी सो मैं उन्हें रोक पाती थी। मैंने उनसे निवेदन किया कि जब भी क्रोध आए तो दस तक गिनें। चाहें तो बोलकर ही गिनें। इससे विद्यार्थियों को भी पता चल जाएगा कि उन्हें जोर का गुस्सा आया है। और डंडा तो कभी भी अपने साथ न रखें। यह तरकीब सफल रही।

परन्तु मुझसे भी उम्र में बड़ी एक अध्यापिका थीं जो आराम से अपनी कलाई की सारी चूड़ियाँ उतारती थीं और फिर आराम से बच्चों की ठुकाई करती थीं। जिसका अर्थ तो यह हुआ कि वे सोच समझकर पीटती थीं। एक अन्य अध्यापक तो पिटाई करते समय अपने होशोहवास ही खो बैठते थे।

जब अध्यापक विद्यार्थियों को मारते हैं तो क्या वे उन्हें यह पाठ नहीं पढ़ाते कि गुस्सा आए तो मारो? किसी से कोई गलती हो जाए तो मारो। याने समस्या का समाधान यही है। यही पाठ घर में अभिभावक भी सिखाते हैं। फिर क्या आश्चर्य जो एक शरीफ़े के लिए बच्चे अपनी सारी शराफ़त, सारी दोस्ती ताक पर धर दें और जान लेने पर उतारू हो जाएँ?

घुघूती बासूती

Friday, December 11, 2009

एक बल्ब जलाना चाहते हैं तो दो लाख रुपए का जुगाड़ कर लें ! ....घुघूती बासूती

सन्तोष अहीरे जी ने आठ साल की बड़ी लम्बी मेहनत मशक्कत के बाद किसी तरह एक छुटके से स्टॉल का जुगाड़ किया और लग गए जूतों चप्पलों की मरम्मत कर अपना व अपने परिवार का पेट पालने। परन्तु वे क्या जानते थे कि इस एश्वर्य के लिए बहुत बड़ा बिल भी चुकाना पड़ता है। पहले महीने उनका बिजली का बिल ३० रुपए का था, दूसरे महीने ३७० रुपए और तीसरे महीने! तीसरे महीने बिल था २.०१५ लाख रुपए! मीटर भी स्टॉल के अन्दर है और उसके साथ कोई छेड़छाड़ भी नहीं हुई है।

जब वे बिजली विभाग में गए तो उन्हें बताया गया कि बिल सही है और वे आधा अभी भर दें अन्यथा बिजली काट दी जाएगी। ( टाइम्स औफ इन्डिया ११.१२.२००९)

अब यदि वे इतना बिल भर सकते तो मोची की दुकान लगाने के बदले जूतों का शोरूम न खोल लेते?
मुझे १९९८ में हमारे आन्ध्र प्रदेश के कड़पा जिले में बिताए दिनों की एक घटना याद गई। वहाँ हमारी कामवाली भी एक कमरे के मकान में रहती थी जहाँ उसने समझदारी कर बल्ब नहीं ट्यूबलाइट लगा रखी थी। एक बार उसका बिल भी चार हजार कुछ सौ रुपयों का आया। उसने बिजली विभाग में शिकायत की कि यह गलत है। वह केवल एक ट्यूबलाइट जलाती है। किन्तु उसकी सुनवाई नहीं हुई। बिल न भरने के कारण उसके घर की बिजली काट दी गई।

उन दिनों पिताजी भी हमारे साथ थे व वे मुख्यमंत्री चन्द्र बाबू नायडू के बारे में समाचार पत्रों में पढ़ते रहते थे कि कैसे वे हर शिकायत पर ध्यान देते हैं। सो उन्होंने कामवाली को सलाह दी कि वह एक पत्र उन्हें लिखे। उसने वही किया। और कुछ ही दिनों में बिजली विभाग वाले उसके घर आकर उसके घर की बिजली वापिस चालू कर गए और सही बिल भी दे गए।

कामवाली तो नायडू जी की बहुत बड़ी प्रंशसक बन गई। किन्तु वे अगला चुनाव हार गए। शायद जिन लोगों को उन्होंने सही रास्ते पर आने के लिए खींचा हो, जैसे बिजली विभाग वाले आदि ने उन्हें अपना मत नहीं दिया।

तो यह जादू किया नायडू को लिखे एक पत्र ने। परन्तु क्या कुछ और मुख्यमंत्री भी उनके जैसे तुरन्त कार्यवाही करने वाले हैं? शायद सन्तोष अहीरे जी भी पत्र लिखकर पता लगा सकते हैं। पता नहीं कि साधारण जनता के कष्ट दूर करने का खतरा सब मुख्यमंत्री भी उठाएँगे या नहीं।

घुघूती बासूती

Wednesday, December 09, 2009

प्रिये, सोने से पहले जरा मेरे नकली दाँत संभाल देना!

यह संवाद किसी वृद्ध दंपत्ति के बीच हो तो चलेगा तो क्या दौड़ेगा। किन्तु जब ऐसी स्थिति सुहागरात को आई तो संवाद का चाहे जो हुआ दुल्हन तो भाग ली।

जी हाँ, देखभाल कर चुने गए इस वर से कई बार मिलने पर भी दुल्हन या उसके परिवार वालों को जरा भी शक नहीं हुआ कि दूल्हे मियाँ नकली चीजें फिट करवाकर ही इतने टिप टॉप नजर आ रहे हैं।

सुहागरात को सबसे पहले दूल्हे ने अपना विग उतारकर रखा। दुल्हन ने सब्र कर लिया। सोचा होगा देर सबेर लगभग सभी पति गंजे तो हो ही जाते हैं तो चलो आज ही सही। किन्तु जब उन्होंने अपने नकली दाँत भी निकाल डाले तो उसने वहाँ से भाग निकलने में ही अपनी भलाई समझी।

दुल्हन ने जिस युवा से सगाई की थी वह कुछ क्षणों में ही दंत व बालविहीन प्रौढ़ में परिवर्तित हो जाएगा इसकी तो उसने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी। उसने अपने घर जाकर माँ को पति के इस मैटामोर्फिसिस के बारे में बताया और फिर पुलिस में धोखाधड़ी की शिकायत दर्ज करा दी।

वैसे दूल्हे की उम्र २७ साल बताई गई थी और जब दूल्हे के पिता की उम्र ५३ साल है तो फिर समझ में नहीं आता कि बेचारा किस विपत्ति का मारा है जो नौबत विग व नकली दाँतों तक आ पहुँची। अब दूल्हा व उसका पिता गिरफ्तार कर लिए गए हैं। शायद ऐसी ही किसी हृदयविदारक स्थिति को देककर कहा गया होगा,'आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास'जैसा कुछ।

सोचने की बात यह भी है कि क्या स्त्रियों को भी भावी पति को बताना होगा कि वे वैक्सिंग करती हैं, भवें ठीक करवाती हैं, ऊपरी होंठ के ऊपर के बाल हटवाती हैं आदि आदि? या फिर क्या अधेड़ उम्र लोग जब विवाह करें तो बताएँ कि उनके गाल, ठोड़ी या ललाट बोटोक्स के इंजेक्शन के दम पर झुर्री विहीन हैं, या बाल डाई किए हुए हैं। आज यह कहना कठिन है कि शरीर का कौन सा हिस्सा स्वाभाविक है और कौन सा सर्जन या ब्यूटी पार्लर ने निखारा है।

एक युवती जो बचपन से कुछ अधिक ही स्वस्थ थी, विवाह से एक साल पहले डायटिंग करने लगी। पति ने छरहरी युवती को देखा और छरहरी युवती से विवाह रचाया। विवाह के बाद छरहरेपन से अधिक स्वाभाविक रूप से भोजन खाना श्रेयस्कर समझ युवती वापिस ८० किलो की हो गई। मुझे तब भी लगता था कि शायद यह धोखा है। बहुत से पुरुष भी कुछ महीनों के लिए जिम जाकर सिक्स पैक वाले बन जाते हैं और विवाह के बाद वापिस तौंदू बन जाते हैं।

मुझे तो लगता है कि जैसे लोग दहेज की सूची बनाकर देते हैं वैसे ही दूल्हा दुल्हन को असली नकली की सूची भी बनाकर एक दूसरे को दे देनी चाहिए और हाँ, साथ में अपने पिछले कुछ सालों का वजन भी लगे हाथ लिखकर दे देना चाहिए।

घुघूती बासूती