जी हाँ, वही सीताफल जो शरीफ़ा भी कहलाता है। इस शरीफ़े ने चार लड़कों की शराफ़त ही हर ली और एक की तो लगभग जान ही ले ली।
हुआ यूँ कि वनगाँव आश्रमशाला के १२ से १४ साल उम्र के पाँच लड़के जंगल में घूमने गए। वहाँ उन्हें एक सीताफल मिला जिसे तोड़कर वे अपने साथ ले आए। क्योंकि वह कच्चा था सो उसे पकाने के लिए डबका के सन्दूक में रख दिया गया। अगले दिन जब सन्दूक खोला गया तो फल गायब था। डबका पर फल खाने का सन्देह हुआ। सो अन्य चारों ने मिलकर उसकी जमकर पिटाई की। कमर में बाँधे जाने वाले काले धागे से उसका गला भी घोंटने का प्रयास किया। फिर वे अपने बेहोश दोस्त को घसीटकर एक नाले के पास फेंक आए।
दो दिन तक जब डबका अनुपस्थित रहा तो शाला के अधिकारियों ने उसके घर जाकर पता लगाया कि कहीं वह घर तो नहीं पहुँचा। वहाँ न मिलने पर उन्होंने उसे जंगल में ढूँढना शुरू किया। दो दिन से बेहोश पड़ा डबका उन्हें मिल गया। उसकी जान बचा ली गई।
किन्तु क्या हममें इतना क्रोध भर गया है कि एक सीताफल के लिए हम किसी की जान ले सकते हैं? इतना क्रोध आया कहाँ से? क्या इतने छोटे बच्चे भी इतने निर्मम हो सकते हैं? या क्या हम जन्म से ही निर्मम होते हैं और हमारा समाज व परिवार हमें दया और मोह सिखाता है?
क्या हमें बच्चों को अपने क्रोध पर काबू पाना नहीं सिखाना चाहिए? माता पिता से यह अपेक्षा करना वैसा ही है जैसे गूँगे से गाना गाने की। तो स्कूल में अध्यापकों को पहले दो एक साल क्या बच्चों को शिष्टता, व्यवहार, सहयोग, नैतिक मूल्य, क्रोध पर काबू करना, क्रोध को सही दिशा देना, अपनी भावनाओं को दिखाने का सही तरीका आदि ही नहीं सिखाना चाहिए? पढ़ना लिखना दो एक साल बाद भी हो सकता है किन्तु अच्छा मनुष्य बनाने में देर नहीं होनी चाहिए।
किन्तु प्रश्न यह उठता है कि अध्यापकों को क्रोध पर काबू पाना कौन सिखाएगा? सबसे पहले तो उन्हें ही यह सिखाना पड़ेगा। जब मैंने अध्यापन शुरू किया था तो अपने आपसे यह प्रतिज्ञा की थी कि जिस दिन भी मेरा मन हाथ उठाने का होगा उसी दिन मैं पढ़ाना बंद कर दूँगी। मेरे अध्यापन के दिनों में एक अध्यापिका अपने क्रोध के लिए जानी जाती थीं। उन्हें गुस्सा बहुत सरलता से आ जाता था और फिर उनके हाथ में होता था डंडा और विद्यार्थियों का सुकोमल शरीर धुन देती थीं। क्योंकि उनकी उम्र बहुत कम थी सो मैं उन्हें रोक पाती थी। मैंने उनसे निवेदन किया कि जब भी क्रोध आए तो दस तक गिनें। चाहें तो बोलकर ही गिनें। इससे विद्यार्थियों को भी पता चल जाएगा कि उन्हें जोर का गुस्सा आया है। और डंडा तो कभी भी अपने साथ न रखें। यह तरकीब सफल रही।
परन्तु मुझसे भी उम्र में बड़ी एक अध्यापिका थीं जो आराम से अपनी कलाई की सारी चूड़ियाँ उतारती थीं और फिर आराम से बच्चों की ठुकाई करती थीं। जिसका अर्थ तो यह हुआ कि वे सोच समझकर पीटती थीं। एक अन्य अध्यापक तो पिटाई करते समय अपने होशोहवास ही खो बैठते थे।
जब अध्यापक विद्यार्थियों को मारते हैं तो क्या वे उन्हें यह पाठ नहीं पढ़ाते कि गुस्सा आए तो मारो? किसी से कोई गलती हो जाए तो मारो। याने समस्या का समाधान यही है। यही पाठ घर में अभिभावक भी सिखाते हैं। फिर क्या आश्चर्य जो एक शरीफ़े के लिए बच्चे अपनी सारी शराफ़त, सारी दोस्ती ताक पर धर दें और जान लेने पर उतारू हो जाएँ?
घुघूती बासूती